चाणक्यनीति अध्याय ६
चाणक्यनीति अध्याय ६ - चाणक्य नीति
या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति षष्ठोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 6
चाणक्यनीति छटवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय ६
चाणक्य नीति
षष्ठोऽध्यायः
श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा
त्यजति दुर्मतिम् ।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा
मोक्षमवाप्नुयात् ।।१।।
दोहा --
सुनिकै जानै धर्म को, सुनि दुर्बुधि तजि देत ।
सुनिके पावत ज्ञानहू, सुनहुँ मोक्षपद लेत ॥1॥
अर्थ -- मनुष्य किसी से सुनकर ही
धर्म का तत्व समझता है। सुनकर ही दुर्बुध्दि को त्यागता है। सुनकर ही ज्ञान
प्राप्त करता है और सुनकर ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
पक्षिणां काकचाण्डालः पशूनां चैव
कुक्कुरः ।
मुनीनां पापी चाण्डालः
सर्वचाण्डालनिन्दकः ।।२।।
दोहा --
वायस पक्षिन पशुन महँ, श्वान अहै चंडाल ।
मुनियन में जेहि पाप उर, सबमें निन्दक काल ॥2॥
अर्थ -- पक्षियों में चाण्डाल है
कौआ,
पशुओं में चाण्डाल कुत्ता, मुनियों में
चाण्डाल है पाप और सबसे बडा चाण्डाल है निन्दक।
भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन
शुध्यति ।
रजसा शुध्यते नारि नदी वेगेन
शुध्यति ।।३।।
दोहा --
काँस होत शुचि भस्म ते, ताम्र खटाई धोइ ।
रजोधर्म ते नारि शुचि, नदी वेग ते होइ ॥3॥
अर्थ -- राख से काँसे का बर्तन साफ़
होता है,
खटाई से ताँबा साफ़ होता है, रजोधर्म से
स्त्री शुध्द होती है और वेग से नदी शुध्द होती है।
भ्रमन्संपूज्यते राजा
भ्रमन्संपूज्यते द्विजः ।
भ्रमन्संपूज्यते योगी स्त्री
भ्रमन्ती विनश्यति ।।४।।
दोहा --
पूजे जाते भ्रमण से, द्विज योगी औ भूप ।
भ्रमण किये नारी नशै, ऎसी नीति अनूप ॥4॥
अर्थ -- भ्रमण करने वाला राजा पूजा
जाता है,
भ्रमण करता हुआ ब्राह्मण भी पूजा जाता है और भ्रमण करता हुआ योगी
पूजा जाता है, किन्तु स्त्री भ्रमण करने से नष्ट हो जाती है।
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि
यस्यर्थास्तस्य बांधवाः ।
यस्याथाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः
सच पण्डितः ।।५।।
दोहा --
मित्र और है बन्धु तेहि, सोइ पुरुष गण जात ।
धन है जाके पास में, पण्डित सोइ कहात ॥5॥
अर्थ -- जिसके पास धन है उसके बहुत
से मित्र हैं, जिसके पास धन है उसके बहुत से
बान्धव हैं। जिसके पास धन है वही संसार का श्रेष्ठ पुरुष है और जिसके पास धन है वही
पण्डित है।
तादृशी जायते बुध्दिर्व्यवसायोऽपि
तादृशः ।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता
।।६।।
दोहा --
तैसोई मति होत है, तैसोई व्यवसाय ।
होनहार जैसी रहै, तैसोइ मिलत सहाय ॥6॥
अर्थ -- जैसा होनहार होता है,
उसी तरह की बुध्दि हो जाती है, वैसा ही कार्य
होता है और सहायक भी उसी तरह के मिल जाते हैं।
कालः पचति भूतानि कालः संहरते
प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि
दुरतिक्रमः ।।७।।
दोहा --
काल पचावत जीव सब, करत प्रजन संहार ।
सबके सोयउ जागियतु, काल टरै नहिं टार ॥7॥
अर्थ -- काल सब प्राणियों को हजम
किए जाता है। काल प्रजा का संहार करता है, लोगों
के सो जाने पर भी वह जागता रहता है। तात्पर्य यह कि काल को कोई टाल नहीं सकता।
नैव पश्यति जन्माधः कामान्धो नैव
पश्यति ।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न
पश्यति ।।८।।
दोहा --
जन्म अन्ध देखै नहीं, काम अन्ध नहिं जान ।
तैसोई मद अन्ध है, अर्थी दोष न मान ॥8॥
अर्थ -- न जन्म का अन्धा देखता है,
न कामान्ध कुछ देख पाता है और न उन्मत्त पुरुष ही कुछ देख पाता है।
उसी तरह स्वार्थी मनुष्य किसी बात में दोष नहीं देख पाता।
स्वयं कर्म करोत्यत्मा स्वयं
तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते
।।९।।
दोहा --
जीव कर्म आपै करै, भोगत फलहू आप ।
आप भ्रमत संसार में, मुक्ति लहत है आप ॥9॥
अर्थ -- जीव स्वयं कर्म करता है और
स्वयं उसका शुभाशुभ फल भोगता है। वह स्वयं संसार में चक्कर खाता है और समय पाकर
स्वयं छुटकारा भी पा जाता है।
राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं
पुरोहितः ।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं
गुरुस्तथा ।।१०।।
दोहा --
प्रजापाप नृप भोगियत, प्रेरित नृप को पाप ।
तिय पातक पति शिष्य को, गुरु भोगत है आप ॥10॥
अर्थ -- राज्य के पाप को राजा,
राजा का पाप पुरोहित, स्त्री का पाप पति और
शिष्य के द्वारा किये हुए पाप को गुरु भोगता है।
ऋणकर्ता पिता शत्रुमाता च
व्यभिचारिणी ।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः
शत्रुरपण्डितः ।।११।।
दोहा --
ऋणकर्ता पितु शत्रु, पर-पुरुषगामिनी मत ।
रूपवती तिय शत्रु है, पुत्र अपंडित जात ॥11॥
अर्थ -- ऋण करने वाले पिता,
व्याभिचारिणी माता, रूपवती स्त्री और मूर्ख
पुत्र, ये मानव जाति के शत्रु हैं।
लुब्धमर्थेन गृहिणीयात्
स्तब्धमञ्जलिकर्मणा ।
मूर्खं छन्दानुवृत्या च यथार्थत्वेन
पण्डितम् ।।१२।।
दोहा --
धनसे लोभी वश करै, गर्विहिं जोरि स्वपान ।
मूरख के अनुसरि चले, बुध जन सत्य कहान ॥12॥
अर्थ -- लालची को धन से,
घमंडी को हाथ जोडकर, मूर्ख को उसके मनवाली
करके और यथार्थ बात से पण्डित को वश में करे।
वरं न राज्यं न कुराजराज्यं
वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम् ।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो
वरं न दारा न कुदारदाराः ।।१३।।
दोहा --
नहिं कुराज बिनु राज भल, त्यों कुमीतहू मीत ।
शिष्य बिना बरु है भलो, त्यों कुदार कहु नीत ॥13॥
अर्थ -- राज्य ही न हो तो अच्छा,
पर कुराज्य अच्छा नहीं। मित्र ही न हो तो अच्छा, पर कुमित्र होना ठीक नहीं। शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर
कुशिष्य का होना अच्छा नहीं। स्त्री ही न हो तो ठीक है, पर
ख़राब स्त्री होना अच्छा नहीं।
कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं
कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः ।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः
कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ।।१४।।
दोहा --
सुख कहँ प्रजा कुराजतें, मित्र कुमित्र न प्रेय ।
कहँ कुदारतें गेह सुख, कहँ कुशिष्य यश देय ॥14॥
अर्थ -- बदमाश राजा के राज में
प्रजा को सुख क्यों कर मिल सकता है। दुष्ट मित्र से भला हृदय कब आनन्दित होगा।
दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा लगेगा और दुष्ट शिष्य को पढा कर यश क्यों
कर प्राप्त हो सकेगा।
सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि
कुक्कुटात् ।
वायसात्पञ्च शिक्षेच्चष्ट्
शुनस्त्रीणिगर्दभात् ।।१५।।
दोहा --
एक सिंह एक बकन से, अरु मुर्गा तें चारि ।
काक पंच षट् स्वान तें, गर्दभ तें गुन तारि ॥15॥
अर्थ -- सिंह से एक गुण,
बगुले से एक गुण, मुर्गे से चार गुण, कौए से पाँच गुण, कुत्ते से छ: गुण और गधे से तीन
गुण ग्रहण करना चाहिए।
प्रभूतं कार्यमपि वा तन्नरः
कर्तुमिच्छति ।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं
प्रचक्षते ।।१६।।
दोहा --
अति उन्नत कारज कछू, किय चाहत नर कोय ।
करै अनन्त प्रयत्न तैं, गहत सिंह गुण सोय ॥16॥
अर्थ -- मनुष्य कितना ही बडा काम क्यों
न करना चाहता हो, उसे चाहिए कि सारी
शक्ति लगा कर वह काम करे। यह गुण सिंह से ले।
इन्द्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो
नरः ।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि
साधयेत् ।।१७।।
दोहा --
देशकाल बल जानिके, गहि इन्द्रिय को ग्राम ।
बस जैसे पण्डित पुरुष, कारज करहिं समान ॥17॥
अर्थ -- समझदार मनुष्य को चाहिए कि
वह बगुले की तरह चारों ओर से इन्द्रियों को समेट कर और देश काल के अनुसार अपना बल
देख कर सब कार्य साधे।
प्रत्युत्थानञ्च युध्द्ञ्च
संविभागञ्च बन्धुषु ।
स्वयमाक्रम्यभुक्तञ्चशिक्षेच्चत्वारिकुक्कुटात्
।।१८।।
दोहा --
प्रथम उठै रण में जुरै, बन्धु विभागहिं देत ।
स्वोपार्जित भोजन करै, कुक्कुट गुन चहुँ लेत ॥18॥
अर्थ -- ठीक समय से जागना,
लडना, बन्धुओं के हिस्से का बटवारा और छीन झपट
कर भोजन कर लेना, ये चार बातें मुर्गे से सीखे।
गूढमैथुनचारित्वं काले काले च
संग्रहम् ।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च
वायसात् ।।१९।।
दोहा --
अधिक ढीठ अरु गूढ रति, समय सुआलय संच ।
नहिं विश्वास प्रमाद जेहि, गहु वायस गुन पंच ॥19॥
अर्थ -- एकान्त में स्त्री का संग
करना,
समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना, हमेशा चौकस
रहना और किसी पर विश्वास न करना, ढीठ रहना, ये पाँच गुण कौए से सीखना चाहिए।
बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सनिद्रो
लघुचेतनः ।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेतो
श्वानतोगुणाः ।।२०।।
दोहा --
बहु मुख थोरेहु तोष अति, सोवहि शीघ्र जगात ।
स्वामिभक्त बड बीरता, षट्गुन स्वाननहात ॥20॥
अर्थ -- अधिक भूख रहते भी थोडे में
सन्तुष्ट रहना, सोते समय होश ठीक रखना, हल्की नींद सोना, स्वामिभक्ति और बहादुरी - ये गुण
कुत्ते से सीखना चाहिये।
सुश्रान्तोऽपि वहेत भारं शीतोष्णं न
च पश्यति ।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि
शिक्षेच्च गर्दभात् ।।२१।।
दोहा --
भार बहुत ताकत नहीं, शीत उष्ण सम जाहि ।
हिये अधिक सन्तोष गुन, गरदभ तीनि गहाहि ॥21॥
अर्थ -- भरपूर थकावट रहनेपर भी बोझा
ढोना,
सर्दी गर्मी की परवाह न करना, सदा सन्तोष रखकर
जीवनयापन करना, ये तीन गुण गधा से सीखना चाहिए।
एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः ।
कार्यावस्थासु सर्वासु अजेयः स
भविष्यति ।।२२।।
दोहा --
विंशति सीख विचारि यह, जो नर उर धारंत ।
सो सब नर जीवित अबसि, जय यश जगत् लहंत ॥22॥
अर्थ -- जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों
गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा, वह
सभी कार्य में अजेय रहेगा।
इति चाणक्ये षष्ठोऽध्यायः ॥6॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 7
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