रामज्ञा प्रश्न तृतीय सर्ग

रामज्ञा प्रश्न तृतीय सर्ग

रामज्ञा प्रश्न तृतीय सर्ग Ramagya prashna sarga 3 - रामाज्ञा प्रश्न तुलसीदास की रचना है जो शुभ-अशुभ विचार के लिए रची गयी है। यह विचार उन्होंने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है। यह रचना दोहा शैली में रचित है। सात-सात सप्तकों के सात सर्गों के लिए पुस्तक खोलने पर जो दोहा मिलता है उसके पहले राम-कथा का कोई एक प्रसंग आता है और बाद में शुभ-अशुभ फल चर्चा आती है। तुलसीदास जी की यह रचना अवधी भाषा मे लिखित एक मुक्तक काव्य है। मूलतः यह एक ज्योतिष ग्रन्थ है जिसको तुलसीदास जी ने अपने मित्र गंगाराम ज्योतिष के आग्रह पर लिखा था।

रामज्ञा प्रश्न तृतीय सर्ग

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक १

दंडकबन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ ।

ऊसर जामहि, खल तरहिं, होइँ रंक तें राउ ॥१॥

दण्डकवन को पवित्र करनेवाले (श्रीराम के) चरणकमलों के प्रभाव से ऊसर भूमि में भी अन्न उगने लगता है, दुर्जन भी (संसार-सागर से ) पार हो जाते हैं और ( (मनुष्य) दरिद्र से राजा हो जाता है ॥१॥

( प्रश्‍न - फल परम शुभ है । )

कपट रूप मन मलिन ग‍इ सुपनखा प्रभु पास ।

कुसगुन कठिन कुनारि कृत कलह कलुष उपहस ॥२॥

मलिन मनवाली शूर्पणखा छल से रूपवती बनकर प्रभु के समीप गयी । यह भारी अपशकुन है, दुष्ट नारी के कारण झगडा़, पाप तथा हँसी ( अकीर्ति ) होगी ॥२॥

नाक कान बिनु बिकल भ‍इ बिकट कराल कुरूप ।

कुसगुन पाउ न देब मग, पग पग कंटक कूप ॥३॥

(शूर्पणखा) नाक-कान के (काटे जाने से उनके) बिना व्याकुल हो गयी, उसका रूप अटपटा, भयंकर तथा भद्दा हो गया । यह अपशकुन है-(यात्रा के लिये) मार्ग में पैर मत रखना, पद पद पर काँटे और कुएँ (विघ्न बाधाएँ) हैं॥३॥

खर दूषन देखी दुखित, चले साजि सब साज ।

अनरथ असगुन अघ असुभ अनभल अखिल अकाज ॥४॥

खर – दूषण ने ( शूर्पणखा को ) दुःखी देखा तो ( सेना का ) सब साज सजाकर चले । यह अपशकुन बुराइयों, पाप, अशुभ. अहित तथा सब प्रकार की हानि बतलता है ॥४॥

कटु कुठायँ करटा रटहिं, केंकरहिं फेरु कुभाँति ।

नीच निसाचर मीच बस अनी मोह मद माति ॥५॥

कौवे बुरे स्थानों में बैठे बार-बार कठोर ध्वनि करते हैं, श्रृंगाल बुरी तरह रो रहे हैं, नीच राक्षसों की सेना मृत्यु के वश होकर मोह तथा गर्व से मतवाली हो रही है ॥५॥

( शकुन अनिष्टसूचक है ।)

राम रोष पावक प्रबल निसिचर सलभ समान ।

लरत परत जरि जरि मरत, भए भसम जगु जान ॥६॥

श्रीरामजी का क्रोध प्रज्वलित अग्नि के समान है और राक्षस पंतगों के समान हैं । लड़ाई करते हुए वे उस (क्रोधाग्रि) में पड़कर जल-जल कर मर रहे हैं । इस प्रकार वे भस्म हो गये, यह बात संसार जानता है ॥६॥

( प्रश्‍न फल अशुभ है । )

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास ।

हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीराम श्रीजानकी और लक्ष्मणजी के साथ सुशोभित हैं । देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं । यह शकुन सुमंगल का निवासरूप है ॥७॥

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक २

सुभट सहस चौदह सहित भाइ काल बस जानि ।

सूपनखा लंकहि चली असुभ अमंगल खानि ॥१॥

चौदह सहस्त्र उच्च कोटि के योद्धा राक्षसोंसहित भाइयों ( खर - दूषण ) को कालवश हुआ ( मरा ) जानकर अशुभ और अमंगलों की खान शूर्पणखा लंका के लिये प्रस्थित हुई ॥१॥

( प्रश्‍न-फल अशुभ है । )

बसन सकल सोनित समल, बिकट बदन गत गात ।

रोवति रावन की सभाँ, तात मात हा भ्रात ॥२॥

उस ( शूर्पणखा ) के सब वस्त्र रक्त से लथपथ हैं, भयंकर मुख है और अंग ( नाक - कान ) कटे हैं । रावण की सभा में वह 'हाय बाप! हाय मैया! हाय भैया !'कहकर रो रही है ॥२॥

(प्रश्‍न - फल अशुभ है । )

काल कि मुरति कालिका कालराति बिकराल ।

बिनु पहिचाने लंकपति सभा सभय तेहि काल ॥३॥

काल की मूर्ति, कालिका अथवा कालरात्रि के समान भयंकर उसे ( शूर्पणखा को ) पहिचान न सकने के कारण उस समय रावण की सभा के लोग भयभीत हो गये ॥३॥

( प्रश्‍न-फल अनिष्ट है । )

सूपनखा सब भाँति गत असुभ अमंगल मूल ।

समय साढ़साती सरिस नृपहि प्रजहि प्रतिकूल ॥४॥

शनैश्चर की साढे़ सात वर्ष की दशा के समान सब प्रकार से अशुभ और अमंगल की जड़ शूर्पणखा राजा रावण तथा उसकी प्रजा के लिये प्रतिकूल ( विपत्ति लानेवाली ) बनकर ( लंका ) पहूँची ॥४॥

( प्रश्‍न - फल राजा - प्रजा सब के लिये अनिष्टसूचक है । )

बरबस गवनत रावनहि असगुन भए अपार ।

नीचु गनत नहिं मीचु बस मिलि मारीच बिचार ॥५॥

हठपूर्वक ( पञ्चवटी की ओर ) जाते समय रावण को अपार ( बहुत अधिक ) अपशकुन हुए; किंतु मृत्युवश हुआ वह नीच उनको गिनता ( समझता ) नहीं, मारीच से मिलकर ( सीताहरण का ) विचार करता है ॥५॥

( प्रश्‍न - फल अनिष्ट है । )

इत रावन उत राम कर मीचु जानि मारीच ।

कनक कपट मृग बेस तब कीन्ह निसाचर नीच ॥६॥

इधर रावण और उधर श्रीराम के हाथों दोनों ओर मृत्यु ( निश्चित ) समझकर नीच राक्षस मारीच ने तब स्वर्णमृग का कपटमय रूप बनाया ॥६॥

( प्रश्‍न - फल अशुभ है । )

पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत ।

सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि पंचवटी में एक वटवृक्ष के नीचे श्रीजानकीजी तथा लक्ष्मणजी के साथ प्रभु शोभित हैं, वे समस्त मंगल ( शुभ- फल ) प्रदान करते हैं ॥७॥

( प्रश्‍न - फल शुभ है । )

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक ३

मायामृग पहिचानि प्रभु चले सीय रुचि जानि ।

बंचक चोर प्रपंच कृत सगुन कहब हित मानि ॥१॥

माया से बने हुए उस मृग को पहिचान लेने पर भी ( कि यह राक्षस है ) श्रीजानकीजी की इच्छा जानकर प्रभु (उसे मारने ) चले । मैं कहूँगा कि ठग, चोर तथा पाखण्डियों के लिये इस शकुन को हितकर समझो ॥१॥

सीय हरन अवसर सगुन भय संसय संताप ।

नारि काज हित निपट गत प्रगट पराभव पाप ॥२॥

सीता – हरण के समय का यह शकुन भय, सन्देह और दुःख बतलाता है । स्त्रियों की भलाई-सम्बन्धी कार्य पूर्णतः नष्ट हो जायेंगे और पराजय तथा पाप प्रकट ( प्रसिद्ध ) होंगे ॥२॥

गीधराज रावन समर घायल बीर बिराज ।

सूर सुजसु संग्राम महि मरन सुसाहिब काज ॥३॥

वीर गृध्रराज जटायु रावण से युद्ध करके घायल पडे़ अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं । ( यह शकुन कहता हैं कि संग्रामभूमि में वीर सुयश पायेंगे, श्रेष्ठ स्वामी के लिये उनकी मृत्यु होगी ॥३॥

राम लखनु बन बन बिकल फिरत सीय सुधि लेत ।

सूचत सगुन बिषादु बड़ असुभ अरिष्ट अचेत ॥४॥

श्रीराम लक्ष्मण व्याकुल होकर वन वन सीताजी का पता लगाते घूमते हैं । यह शकुन भारी शोक, अशुभ और व्याकुल कर देनेवाले अमंगल को सूचित करता है ॥४॥

रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दो‍उ बीर ।

सिय सुधि कहि सिय राम कहि तजी देह मतिधीर ॥५॥

श्रीरघुनाथजी पक्षी (जटायु) को देखकर व्याकुल हो गये । उस ( जटायु ) ने दोनों भाइयों को देखा, उनसे श्रीजानकी का समाचार कहा और उस धीरबुद्धि ने 'श्रीसीता-राम' कहकर शरीर छोड़ दिया ॥५॥

(प्रश्‍न - फल अशुभ है । )

दसरथ ते दसगुन भगति सहित तासु करि काज ।

सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराज ॥६॥

महाराज दशरथजी से भी दसगुनी भक्तिपूर्वक उस ( गृध्रराज ) का अन्त्येष्टि कर्म करके कृपासागर प्रभु श्रीरघुनाथजी भाई ( लक्ष्मण ) के साथ शोक कर रहे हैं ॥६॥

( प्रश्‍न - फल शोकसूचक है । )

तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीताराम ।

सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि नित्य प्रेमपूर्वक श्रीसीताराम का स्मरण करो । यह शकुन शुभ है; प्रारम्भ मध्य तथा अन्त में सदा मंगल होगा ॥७॥

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक ४

सकल काज सुभ सम‍उ भल, सगुन सुमंगल जानु ।

कीरति बिजय बिभूति भलि, हियँ हनुमानहि आनु ॥१॥

सभी कामों के लिये उत्तम शुभ समय है । इस शकुन को कल्याणदायक समझो । हृदय में श्रीहनुमानजी का स्मरण करो; कीर्ति, विजय तथा श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्राप्त होगा ॥१॥

सुमिरि सत्रुसूदन चरन चलहु करहु सब काज ।

सत्रु पराजय निज बिजय, सगुन सुमंगल साज ॥२॥

श्रीशत्रुघ्नजी के चरणों का स्मरण करके चलो, सब काम करो । यह शकुन शत्रु की पराजय एवं अपनी विजय तथा कल्याण की सामग्री जुटानेवाला है ॥२॥

भरत नाम सुमिरत मिटहिं कपट कलेस कुचालि ।

नीति प्रीति परतीति हित, सगुन सुमंगल सालि ॥३॥

श्रीभरतजी के नाम का स्मरण करते ही कपट, क्लेश और ( दुष्टों की ) कुचाल ( दुर्नीति ) मिट जाती है ॥ नीति-व्यवहार, प्रेम तथा विश्वास के लिये यह शकुन मंगलदायक है ॥३॥

राम नाम कलि कामतरु, सकल सुमंगल कंद ।

सुमिरत करतल सिद्धि जग, पग पग परमानंद ॥४॥

श्रीरामनाम कलियुग में कल्पवृक्ष के समान ( अभीष्टदाता ) है, समस्त श्रेष्ठ मंगलों का मूल है, उसका स्मरण करने से संसार में सब सिद्धियाँ हाथ में आ जाती हैं और पद-पद पर परम सुख प्राप्त होता है ॥४॥

( प्रश्‍न - फल शुभ है ।)

सीता चरन प्रनाम करि, सुमिरि सुनाम सनेम ।

सुतिय होहिं पतिदेवता, प्राननाथ प्रिय प्रेम ॥५॥

श्रीजानकीजी के चरणों में प्रणाम करके और उनके सुन्दर नाम का नियमपूर्वक स्मरण करके उत्तम स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं और प्राणनाथ प्रियतम ( पति ) का प्रेम प्राप्त करती हैं ॥५॥

( स्त्रियों को पतिप्रेम की प्राप्ति का सूचक शकुन है । )

लखन ललित मूरति मधुर सुमिरहु सहित सनेह ।

सुख संपति कीरति बिजय सगुन सुमंगल गेह ॥६॥

श्रीलक्ष्मणजी की मधुरिमामयी सुन्दर मूर्ति का प्रेमपुर्वक स्मरण करो । यह शकुन सुख, सम्पति, कीर्ति, विजय आदि सुमंगलों का घर ही है ॥६॥

तुलसी तुलसी मंजरीं, मंगल मंजुल मूल ।

देखत सुमिरत सगुन सुभ, कलपलता फल फूल ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि तुलसी की मञ्जरी उत्तम कल्याण की जड़ है । उसका दर्शन और स्मरण शुभ शकुन है । वह कल्पलता के फलपुष्प के समान ( अभीष्ट फल देनेवाली ) है ॥७॥

( शकुन-फल श्रेष्ठ है । )

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक ५

खल बल अंध कबंध बस परे सुबंधु समेत ।

सगुन सोच संकट कहब, भूत प्रेत दुख देत ॥१॥

श्रेष्ठ भाई लक्ष्मण के साथ प्रभु बल के गर्व से अंधे दुष्ट कबन्ध के चंगुल में पड़ गये (उसने दोनों भाईयों को पकड़ लिया) । मैं कहूँगा कि यह शकुन शोक, विपत्ति तथा भूतप्रेत की पीड़ा का सूचक है ॥१॥

पाई नीच सुमीचु भलि, मिटा महा मुनि साप ।

बिहँग मरन सिय सोच मन, सगुन सभय संताप ॥२॥

नीच मारीच ने उत्तम एवं श्‍लाघ्य मृत्यु पायी, महामुनि अगस्त्यजी का शाप* दूर हो गया । पक्षी ( जटायु ) की मृत्यु और सीताजी ( के वियोग ) का शोक (प्रभु के) मन से है । यह शकुन भय तथा क्लेश की प्राप्ति बतलाता है ॥२॥

* सुन्द नामक यक्ष के द्वारा ताड़का के गर्भ से मारिच उत्पन्न हुआ था । महर्षि अगस्त्य के शाप से सुन्द भस्म हो गया । उस समय ताड़का अपने पुत्र मारीच के साथ महर्षि को खाने दौडी़, तब महर्षि अगस्त्यजी ने दोनों को शाप दे दिया-'तुम राक्षस हो जाओ ।' श्रीराम द्वारा मारे जाने पर दोनों इस शाप से छूटे ।

काहि सबरी सब सीय सुधि, प्रभु सराहि फल खात ।

सोच समयँ संतोष सुनि सगुन सुमंगल बात ॥३॥

शबरी ने (प्रभु से) सीताजी का सब समाचार कहा । प्रभु प्रशंसा करके ( उसके दिये ) फल खाते हैं । यह शकुन कहता है कि चिन्ता के समय श्रेष्ठ कल्याणकारी बात सुनकर सन्तोष होगा ॥३॥

पवनसुवन सन भेंट भ‍इ, भुमि सुता सुधि पाइ ।

सोच बिमोचन सगुन सुभ मिला सुसेवक आइ ॥४॥

(प्रभु की) श्रीहनुमानजी से भेंट हुई । श्रीसीताजी का समाचार भी उन्होंने पाया ॥ (स्वामी श्रीराम को ) उत्तम सेवक आ मिला । यह शकुन शुभ हैं, शोक को दूर करनेवाला है ॥४॥

राम लखन हनुमान मन, दुहूँ दिसि परम उछाहु ।

मिला सुसाहिब सेवकहि, प्रभुहि सुसेवक लाहु ॥५॥

श्रीराम-लक्ष्मण के तथा हनुमानजी से भी मन में दोनों ओर परम उत्साह है । इधर तो सेवक ( हनुमान्‌जी ) को उत्तम स्वामी मिला और उधर प्रभु को उत्तम सेवक प्राप्त हुआ ॥५॥

(स्वामी-सेवक-सम्बन्धी प्रश्‍न का फल शुभ है । )

कीन्ह सखा सुग्रीव प्रभु, दीन्हि बाँह रघुबीर ।

सुभ सनेह हित सगुन फल, मिट‍इ सोच भय भीर ॥६॥

सुग्रीव ने प्रभु को मित्र बनाया और श्रीरघुनाथजी ने उन्हें ( सुग्रीव को ) अपनी ( अभय ) भुजा का आश्रय दिया । इस शकुन का फल मित्रता के लिये शुभसूचक हैं; चिन्ता, भय और विपत्ति दूर होगी ॥६॥

बली बालि बलसलि दलि, सखा कीन्ह कपिराज ।

तुलसी राम कृपाल को बिरद गरिब निवाज ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं-(प्रभु ने) अत्यन्त बलवान् बाली को नष्ट करके मित्र सुग्रीव को वानरों का राजा बनाया । कृपामय श्रीराम का यही व्रत है कि वे दीनों पर कृपा करनेवाले हैं ॥७॥

(प्रश्‍न - फल शुभ है । )

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक ६

बंधु बिरोध न कुसल कुल कुसगुन कोटि कुचालि ।

रावन रबि को राहु सो भयो काल बस बालि ॥१॥

भाई से विरोध करने पर कुल का कुशल नहीं होता । वही ( भाई विभीषण का विरोध ) रावणरूपी सूर्य के लिये राहु हो गया और उसी से वाली काल के वश हुआ ( मारा गया ) । यह अपशकुन करोडो़ कुचक्रों का सूचक है ॥१॥

कीन्ह बास बरषा निरखि गिरिबर सानुज राम ।

काज बिलंबित सगुन फल होइहि भल परिनाम ॥२॥

वर्षा - ऋतु देखकर छोटे भाई के साथ श्रीराम ने श्रेष्ठ पर्वत पर निवास किया । इस शकुन का फल है कि कार्य की सफलता में देर होगी, किंन्तु परिणाम अच्छा होगा ॥२॥

सीय सोध कपि भालु सब बिदा किए कपिनाथ ।

जतन करहु आलस तजहु नाइ राम पद माथ ॥३॥

वानरराज सुग्रीव ने सीताजी का पता लगाने के लिये सब वानर-भालुओं को विदा किया । श्रीराम के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रयत्न करो, आलस्य त्याग दो । ( कार्य सफल होगा ) ॥३॥

हनुमान हियँ हरषि तब राम जोहारे जाइ ।

मंगल मूरति मारुतिहि सादर लीन्ह बुलाइ ॥४॥

तब चित्त में प्रसन्न होकर ( सम्मुख ) जाकर हनुमान्‌जी ने श्रीराम को प्रणाम किया । मड्गलमूर्ति प्रभु ने श्रीहनुमान्‌जी को आदरपूर्वक ( पास ) बुला लिया ॥४॥

( प्रश्‍न फल शुभ है । )

डाँटे बानर भालु सब अवधि गये बिन काज ।

जो आइहि सो काल बस कोपि कहा कपिराज ॥५॥

कपिराज सुग्रीव ने क्रोध करके सब वानर भालुओं को डाँटते हुए कहा समय बीत जाने पर कार्य किये बिना जो आयेगा वह काल का शिकार होगा ( मारा जायेगा ) ॥५॥

( प्रश्‍न फल अनिष्ट है । )

जान सिरोमनि जानि जियँ कपि बल बुद्धि निधानु ।

दीन्हि मुद्रिका मुदित प्रभु, पाइ मुदित हनुमानु ॥६॥

प्रभु ने हृदय में हनुमानजी को ज्ञानियों में शिरोमणि तथा बल-बुद्धि का निधान ( खजाना ) जानकर प्रसन्न होकर अपनी अँगूठी दी, उसे पाकर हनुमानजी प्रसन्न हुए ॥६॥

( प्रश्‍न फल शुभ है । )

तुलसी करतल सिद्धि सब, सगुन सुमंगल साज ।

करि प्रनाम रामहि चलहु. साहस सिद्ध सुकाज ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम को प्रणाम करके चलो ( प्रस्थान करो ) । यह शकुन सुमंगल देनेवाला है, सब सिद्धियाँ ( सफलताएँ ) हाथ में ( प्राप्त ही ) समझो साहस करने से सब उत्तम कार्य सफल होंगे ॥७॥

रामज्ञा प्रश्न - तृतीय सर्ग - सप्तक ७

नाथ हाथ माथे धरेल प्रभु मुदरी मूँह मेलि ।

चलेउ सुमिरि सारंगधर, आनिहि सिद्धि सकेलि ॥१॥

प्रभु ने मस्तक पर हाथ रखा, (उनकी) अँगूठी मुख में रखकर उन शारंगधनुषधारी का स्मरण करके ( हनुमान‌जी) चले, वे सफलताओं को समेट लायेंगे ॥१॥

( यात्रा के लिये उत्तम प्रश्‍न फल है । )

संग नील नल कुमुद गद जामवंत जुबराज ।

चले राम पद नाइ सिर सगुन सुमंगल साज ॥२॥

साथ में नील, नल कुमुद गद जाम्बवान और युवराज अंगद श्रीराम के चरणों में मस्तक झुकाकर चले । यह शकुन कल्याण देनेवाला है ॥२॥

पैठि बिबर मिलि तापसिहि अँच‍इ पानि फलु खाइ ।

सगुन सिद्ध साधक दरस अभिमत होइ अघाइ ॥३॥

( हनुमानजी आदि वानर वीर ) गुफा में प्रविष्ट होकर तपस्विनी से मिले, वहाँ जल पिया और फल खाये । इस शकुन का फल है कि किसी साधक का दर्शन होगा और अभीष्ट कार्य पूर्ण रूप से सफल होगा ॥३॥

बनचर बिकल बिषाद बस, देखि उदधि अवगाह ।

असमंजस बढ़ सगुन गत, बिधि बस होइ निबाह ॥४॥

अथाह समुद्र को देखकर सभी वानर दुःख से व्याकुल हो गये । शकुन का फल यह है कि जो भारी कठिनाई आयी है, वह बीत जायेगी और भाग्यवश उससे छुटकारा हो जायेगा ॥४॥

सब सभीत संपाति लखि हहरे हृदयँ हरास ।

कहत परस्पर गीध गति, परिहरि जीवन आस ॥५॥

सम्पाती गीध को देखकर सभी ( वानर ) डर गये; हृदय में निराशा से खिन्न हो गये । जीवित रहने की आशा छोड़कर परस्पर जटायु की सद्गति का वर्णन करने लगे ॥५॥

( अकस्मात् भय प्राप्त होगा । )

नव तनु पाइ देखाइ प्रभु महिमा कथा सुनाइ ।

धरहु धीर साहस करहु मुदित सीय सुधि पाइ ॥६॥

नवीन शरीर पाकर प्रभु की महिमा ( प्रत्यक्ष ) दिखलाकर तथा ( अपनी ) कथा * सुनाकर सम्पाती ने कहा - धैर्य धारण करो । साहस बटोरो । सीताजी का समाचार पाकर प्रसन्न होगे ॥६॥

( कठिनाई से पार होने का मार्ग मिलेगा ।)

* गरुड़जी के बड़े भाई अरुण के दो पुत्र थे- सम्पाती और जटायु ॥ ये दोनों भाई बल के गर्व से सूर्य का स्पर्श करने ऊपर उडे़ । सूर्य का प्रचण्ड ताप सहन न होने से जटायु तो लौट आये; किन्तु उनके बड़े भाई सम्पाती ऊपर उड़ते ही गये। अन्त में उनके पंख भस्म हो गये ॥ वे गिर पड़े । संयोगवश उन्हें एक चन्द्रमा नाम के मुनि ने देख लिया॥ मुनि ने उन्हें आश्र्वासन दिया कि श्रीराम के दूत जब सीताजी को ढूँढ़ते यहाँ आयेंगे तब उनके दर्शन से तुम्हारे ये पंख फिर उग जायँगे, वानरों के दर्शन से सम्पाती के पंख उग आये ।

तुलसी राम प्रभाउ कहि मुदित चले संपाति ।

सुभ तीसर उनचास भल सगुन सुमंगल पाँति ॥७॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम के प्रभाव का वर्णन करके सम्पाती प्रसन्न होकर चले गये । तीसरे सर्ग का यह उनचासवाँ दोहा उत्तम शकुन है, आनन्द-मंगल की पंक्ति ( बहुत ही कल्याणकारी ) है ॥७॥

इतिश्री: रामज्ञा प्रश्न तृतीयः सर्ग: ॥

आगे जारी.......... रामज्ञा प्रश्न सर्ग 4

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