चाणक्य नीति अध्याय १४
चाणक्य नीति अध्याय १४ - चाणक्य नीति
या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति चतुर्दशोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 14
चाणक्य नीति चौदहवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय १४
चाणक्य नीति
चतुर्दशोऽध्यायः
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि
देहिनाम् ।
दारिद्र्य-रोग-दुःखानि
बन्धनव्यसनानि च ।।१।।
म०छ० --
निर्धनत्व दुःख बन्ध,
और विपत्ति सात ।
है स्वकर्म वृक्ष जात,
ये फलै धरेक गात ॥1॥
अर्थ -- मनुष्य अपने द्वारा पल्लवित
अपराध रूपी वृक्ष के ये ही फल फलते हैं - दरिद्रता, रोग, दुःख, बन्धन (कैद) और
व्यसन।
पुनर्वित्तम्पुनर्मित्रं
पुनर्भार्या पुनर्मही ।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः
पुनः ।।२।।
म०छ० --
फेरि वित्त फेरि मित्त,
फेरि तो धराहु नित्त ।
फेरि फेरि सर्व एह,
ये मानुषी मिलै न देह ॥2॥
अर्थ -- गया हुआ धन वापस मिल सकता
है,
रूठा हुआ मित्र भी राजी किया जा सकता है, हाथ
से निकली हुई स्त्री भी फिर वापस आ सकती है, और छीनी हुई
ज़मीन भी फिर मिल सकती है, पर गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल
सकता।
बहुनां चैव सत्त्वानां समवायो
रिपुञ्जयः ।
वर्षन्धाराधरो मेघस्तृणैरपि
निवार्यते ।।३।।
म०छ० --
एक ह्वै अनेक लोग,
वीर्य शत्रु जीत योग ।
मेघ धारि बारि जेत,
घास ढेर बारि देत ॥3॥
अर्थ -- बहुत प्राणियोंका सङ्गठित
बल शत्रु को परास्त कर देता है, प्रचण्ड वेग
के साथ बरसते हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके हरा देते हैं।
जलै तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं
मनागपि ।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति
विस्तारे वस्तुशक्तितः ।।४।।
म०छ० --
थोर तेल बारि माहिं,
गुप्तहू खलानि माहिं ।
दान शास्त्र पात्रज्ञानि,
ये बडे स्वभाव आहि ॥4॥
अर्थ -- जल में तेल,
दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात, सुपात्र में
थोडा भी दान और समझदार मनुष्य के पास शास्त्र, ये थोडे होते
हुए भी पात्र के प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं।
धर्माख्याने श्मशाने च रोगिणां या
मतिर्भवेत् ।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत्को न
मुच्येत बन्धनात् ।।५।।
म०छ० --
धर्म वीरता मशान,
रोग माहिं जौन ज्ञान ।
जो रहे वही सदाइ,
बन्ध को न मुक्त होइ ॥5॥
अर्थ -- कोई धार्मिक आख्यान सुनने
पर,
श्मशान में और रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है,
वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मोक्षपद न प्राप्त कर ले ?
उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुध्दिर्भवति
यादृशी ।
तादृशी यदि पूर्वं स्यात्कस्य
स्यान्न महोदयः ।।६।।
म०छ० --
आदि चूकि अन्त शोच,
जो रहै विचारि दोष ।
पूर्वही बनै जो वैस,
कौन को मिले न ऎश ॥6॥
अर्थ -- कोई बुरा काम करने पर
पछतावे के समय मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है, वैसी
यदि पहले ही से रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय।
दाने तपसि शौर्यं वा विज्ञाने विनये
नये ।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना
वसुन्धरा ।।७।।
म०छ० --
दान नय विनय नगीच,
शूरता विज्ञान बीच ।
कीजिये अचर्ज नाहिं,
रत्न ढेर भूमि माहिं ॥7॥
अर्थ -- दान,
ताप, वीरता, विज्ञान और
नीति, इनके विषय में कभी किसी को विस्मित होना ही नहीं
चाहिये। क्योंकि पृथ्वी में बहुत से रत्न भरे पडे हैं।
दरस्थोऽपि न दूरशो यो यस्य मनसि
स्थितः ।
यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि
दूरतः ।।८।।
म०छ० --
दूरहू बसै नगीच,
जासु जौन चित्त बीच ।
जो न जासु चित्त पूर,
है समीपहूँ सो दूर ॥8॥
अर्थ -- जो (मनुष्य) जिसके हृदय में
स्थान किये है, वह दुर रहकर भी दूर नहीं है। जो
जिसके हृदय में नहीं रहता, वह समीप रहने पर भी दूर है।
यस्माच्च प्रियमिच्छेतु तस्य
ब्रूयात्सदा प्रियम् ।
व्याधो मृगवधं गन्तुं गीतं गायति
सुस्वरम् ।।९।।
म०छ० --
जाहिते चहे सुपास,
मीठी बोली तासु पास ।
व्याध मारिबे मृगान,
मंत्र गावतो सुगान ॥9॥
अर्थ -- मनुष्य को चाहिए कि जिस
किसी से अपना भला चाहता हो उससे हमेशा मीठी बातें करे। क्योंकि बहेलिया जब हिरन का
शिकार करने जाता है तो बडे मीठे स्वर से गाता है।
अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न
फलप्रदाः ।
सेव्यतां मध्यभागेन
राजविह्निगुरुस्त्रियः ।।१०।।
म०छ० --
अति पास नाश हेत,
दूरहू ते फलन देत ।
सेवनीय मध्य भाग,
गुरु, भूप नारि आग ॥10॥
अर्थ -- राजा,
अग्नि, गुरु, और
स्त्रियाँ - इनके पास अधिक रहने पर विनाश निश्चित है और दूर रहा जाय तो कुछ मतलब
नहीं निकलता। इसलिए इन चारों की आराधना ऎसे करे कि न ज़्यादा पास रहे न ज़्यादा
दूर।
अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पो
राजकुलानि च ।
नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः
प्राणहराणि षट् ।।११।।
म०छ० --
अग्नि सर्प मूर्ख नारि,
राजवंश और वारि ।
यत्न साथ सेवनीय,
सद्य ये हरै छ जीय ॥11॥
अर्थ -- आग,
पानी, मूर्ख, नारी और
राज-परिवार इनकी यत्नके साथ आराधना करै। क्योंकि ये सब तुरन्त प्राण लेने वाले जीव
हैं।
स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स
जीवति ।
गुणधर्मविहीनस्य जीवितं
निष्प्रयोजनम् ।।१२।।
म०छ० --
जीवतो गुणी जो होय,
या सुधर्म युक्त जीव ।
धर्म और गुणी न जासु,
जीवनो सुव्यर्थ तासु ॥12॥
अर्थ -- जो गुणी है,
उसका जीवन सफल है या जो धर्मात्मा है, उसका
जन्म सार्थक है। इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन निष्प्रयोजन है।
यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा
।
पुरः पञ्चदशास्येभ्यो गां चरन्तीं
निवारय ।।१३।।
म०छ० --
चाहते वशै जो कीन,
एक कर्म लोक तीन ।
पन्द्रहों के तो सुखान,
जान तो बहार आन ॥13॥
अर्थ -- यदि तुम केवल एक काम से
सारे संसार को अपने वश में करना चाहते हो तो पन्द्रह मुखवाले राक्षस के सामने चरती
हुई इन्द्रयरूपी गैयों को उधरसे हटा लो। ये पन्द्रह मुख कौन हैं - आँख,
नाक, कान, जीभ और त्वचा
ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मुख, हाँथ, पाँव,
लिंग और गुदा, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ रूप,
रस, गन्ध, शब्द और
स्पर्श, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं।
प्रस्तवासदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं
प्रियम् ।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स
पण्डितः ।।१४।।
सोरठा --
प्रिय स्वभाव अनुकूल,
योग प्रसंगे वचन पुनि ।
निजबल के समतूल,
कोप जान पण्डित सोई ॥14॥
अर्थ -- जो मनुष्य प्रसंगानुसार बात,
प्रकृति के अनुकूल प्रेम और अपनी शक्तिके अनुसार क्रोध करना जानता
है, वही पंडित है।
एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति
वीक्षितः ।
कुणपंकामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः
श्वभिः ।।१५।।
सोरठा --
वस्तु एक ही होय,
तीनि तरह देखी गई ।
रति मृत माँसू सोय,
कामी योगी कुकुर सो ॥15॥
अर्थ -- एक स्त्री के शरीर को तीन
जीव तीन दृष्टि से देखते हैं - योगी उसे बदबूदार मुर्दे के रूप में देखते हैं कामी
उसे कामिनी समझता है और कुत्ता उसे मांसपिण्ड जानता है।
सुसिध्दमौषधं धर्मं गृहच्छिद्रं च
मैथुनम् ।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न
प्रकाशयेत् ।।१६।।
सोरठा --
सिध्दौषध औ धर्म,
मैथुन कुवचन भोजनो ।
अपने घरको मर्म,
चतुर नहीं प्रगटित करै ॥16॥
अर्थ -- बुध्दिमान् को चाहिए कि इन
बातों को किसी से न ज़ाहिर करे - अच्छी तरह तैयार की हुई औषधि,
धर्म अपने घर का दोष, दूषित भोजन और निंद्यं
किं वदन्ती बचन।
तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव
वासराः ।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्
प्रवर्तते ।।१७।।
सोरठा --
तौलौं मौने ठानि,
कोकिलहू दिन काटते ।
जौलौं आनन्द खानि,
सब को वाणी होत है ॥17॥
अर्थ -- कोयमें तब तक चुपचाप दिन
बिता देती हैं जबतक कि वे सब लोगों के मन को आनन्दित करने वाली वाणी नहीं बोलतीं।
धर्मं धनं च धान्यं च
गुरोर्वचनमौषधम् ।
सुगृहीतं च कर्त्तव्यमन्यथा तु न
जीवति ।।१८।।
सोरठा --
धर्म धान्य धनवानि,
गुरु वच औषध पाँच यह ।
जो ऎसा नहीं करता,
वह नहीं जीता ॥18॥
अर्थ -- धर्म,
धन, धान्य, गुरु का वचन
और औषधि इन वस्तुओं को सावधानी के साथ अपनावे और उनके अनुसार चले। जो ऎसा नहीं
करता, वह नहीं जीता।
त्यज दुर्जनसंसर्ग भज साधुसमागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर
नित्यमनित्यतः ।।१९।।
सोरठा --
तजौ दुष्ट सहवास,
भजो साधु सङ्गम रुचिर ।
करौ पुण्य परकास,
हरि सुमिरो जग नित्यहिं ॥19॥
अर्थ -- दुष्टों का साथ छोड दो,
भले लोगों के समागम में रहो, अपने दिन और रात
को पवित्र करके बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर का स्मरण करते रहो।
इति चाणक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥14॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 15
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