चाणक्य नीति अध्याय १७
चाणक्य नीति अध्याय १७ - चाणक्य
नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक
नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए
उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति सप्तदशोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 17
चाणक्य नीति सत्रहवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय १७
चाणक्य नीति
अथ सप्तदशोऽध्याय प्रारंभः
पुस्तकप्रत्ययाधीतं नाधीतं
गुरुसन्निधौ ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव
स्त्रियः ॥ १ ॥
टीका - वह विद्वान जिसने असंख्य
किताबों का अध्ययन बिना सदगुरु के आशीर्वाद से कर लिया वह विद्वानों की सभा में एक
सच्चे विद्वान के रूप में नहीं चमकता है। उसी प्रकार जिस प्रकार एक नाजायज औलाद को
दुनिया में कोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं होती ॥ १ ॥
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्धिंसने
प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं
समाचरेत् ॥ २ ॥
टीका-उपकार करने पर प्रत्युपकार
करना चाहिये और मारने पर मारना इसमें अपराध नहीं होता इस कारण कि,
दुष्टता करने पर दुष्टता का आचरण करना उचित होता है ॥ २ ॥
यद्दूरं यद्दुराराध्यं यच्च दूरे
व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि
दुरतिक्रमम् ॥ ३ ॥
टीका - जो दूर है जिसकी आराधना नहीं
हो सकती और जो दूर वर्तमान है वे सब तप से सिद्ध हो सकते हैं इस कारण सबसे प्रबल
तप है ॥ ३ ॥
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति
किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो
यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा
यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो
यद्यस्ति किं मृत्युना ॥४ ॥
टीका – यदि लोभ है तो दूसरे दोष से
क्या, यदि चुगली है तो और पापों से क्या, यदि
मन सत्यता है तो तप से क्या, यदि मन स्वच्छ है तो तीर्थ से क्या, यदि सज्जनता है तो दूसरे गुण से क्या, यदि महिमा है
तो भूषणों से क्या, यदि अच्छी विद्या है तो धन से क्या और
यदि अपयश है तो मृत्यु से क्या ॥ ४ ॥
पितारत्नाक रोयस्यलक्ष्मीर्यस्य
सहोदरी ।
संखोभिक्षाटनं
कुर्यान्नदत्तमुपतिष्ठते ॥ ५ ॥
टीका - जिसका पिता रत्नों की खान
समुद्र है, लक्ष्मी जिसकी बहिन, ऐसा शंख भीख मांगता है सच है विना दिया नहीं मिलता ॥ ५ ॥
अशक्ततस्तु भवेत्साधुर्ब्रह्मचारी
निर्धनः ॥
व्याधिष्टोदेवभक्तश्चवृद्धानारीपतिव्रता
॥ ६ ॥
टीका - शक्तिहीन साधु होता है,
निर्धन ब्रह्मचारि, रोग्रस्त देवता का भक्त
होता है और वृद्ध स्त्री पतिव्रता होती है ॥ ६ ॥
नान्नोदकसमंदानं नतिथिर्द्वादशीसमा
॥
नगायत्रपाः परोमंत्रो
नमातुर्देवतंपरम् ॥ ७ ॥
टीका - अन्न जल के समान कोई दान
नहीं है,
न द्वादसी के समान तिथि, गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, न
माता से बढ़कर कोई देवता है ॥ ७ ॥
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु
मस्तके ।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे
दुर्जने विषम् ॥ ८॥
सांप के दांत में विष रहता है,
मक्खी के सिर में विष है, विच्छु की पूंछ में
विष है, सब अंगों में दुर्जन विष से भरा रहता है ॥८॥
पत्युराज्ञां विना नारी ह्युपोष्य
व्रतचारिणी ।
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं
व्रजेत् ॥ ९ ॥
टीका – पति की आज्ञा बिना उपवास
व्रत करनेवाली स्त्री स्वामी की आयु को हरती है और वह स्त्री आप नरक में जाती है ॥
९॥
न दानैः शुध्यते नारी नोपवासशतैरपि
।
न तीर्थसेवया तद्वद्भर्तुः
पदोदकैर्यथा ॥ १० ॥
टीका-न दान से,
न सैंकडों उपवासों से, न तीर्थ के सेवन से
स्त्री वैसी शुद्ध होती है, जैसी स्वामी के चरणोदक से ॥ १० ॥
पादशेषं पीतशेषं संध्याशेषं तथैव च
॥
श्वानमूत्रसमंतोयं पीत्वा
चांद्रायणंचरेत् ॥ ११॥
टीका-पांव धोने से जो जल बचता है,
और पीने से जो जल बच जाता है और सन्ध्या करने पर जो अवशिष्ट जल है
वह कुत्ते के मूंत्र के समान है उसको पीकर चांद्रायण का व्रत करना चाहिये ॥ ११ ॥
दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन
स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन ।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन
ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मुण्डनेन ॥ १२
॥
टीका-दान से हाथ शोभता है कंकण से
नहीं,
स्नान से शरीर शुद्ध होता है चन्दन से नहीं, सन्मान
से तृप्ति होती है भोजन से नहीं, ज्ञान से मुक्ति होती है,
छाप तिलकादि भूषण से नहीं ॥ १२ ॥
नापितस्यगृहे क्षौरं पाषाणे गंधलेपनम्
॥
आत्मरूपंजले पश्पन्शक्रस्यापिश्रियं
हरेत् ॥१३॥
टीका – नाई के घर पर बाल बनवाने
वाले,
पत्थर पर से लेकर चन्दन लेपन करनेवाला, अपने
रूप को पानी में देखनेवाला इन्द्र भी हो तो उसकी लक्ष्मी को हर लेते हैं ॥ १२ ॥
सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः
प्रज्ञाकरी वचा ।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं
पयः ॥ १४॥
टीका- कुंदरू शीघ्र ही बुद्धि हर लेता
है और बच झटपट बुद्धि देती है स्त्री तुरंत ही शक्ति हर लेती है, दूध शीघ्र ही बल
कर देता है ॥ १४ ॥
यदि रामा यदि च रमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः
।
तनये तनयोत्पत्तिः सुरवरनगरे
किमाधिक्यम् ॥१५॥
टीका- यदि कांता है,
यदि लक्ष्मी वर्तमान है, यदि पुत्र सुशीलता
गुण से युक्त है, और पुत्र के पुत्र की उत्पत्ति हुई हो,
फिर देवलोक में इससे अधिक क्या है ? ॥ १५ ॥
परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम्
।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः
पदे पदे ॥१६ ॥
टीका-जिन सज्जनों के हृदय में
परोपकार जागरूक है उनकी विपत्ति नष्ट हो जाती है और पद पद में संपत्ति होती है ॥
१६ ॥
आहारनिद्राभयमैथुनानि
समानि चैतानि नृणां पशूनाम् ।
ज्ञानं नराणामधिको विशेषो
ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ॥१७ ॥
टीका - भोजन निद्रा भय मैथुन ये
मनुष्य और पशुओं के समान ही हैं मनुष्यों को केवल ज्ञान अधिक विशेष है ज्ञान से
रहित नर पशु के समान है ॥ १७ ॥
दानार्थिनोमधुकरायादिकर्णतालै र्दूरीकृताः
करिवरेणमदान्धबुद्ध्या ॥
तस्यैव गण्डयुगमण्डन हानिरेषाश्रृंगाः
पुनर्विकचपद्मवनेवसंति॥१८॥
टीका-यदि मदान्ध गजराज ने गजमद के
अर्थी भौंरों को मदांधता से कर्ण के तालों से दूर किया तो यह उसी के दोनों
गण्डस्थल की शोभा की हानि हुई भौंरे फिर विकसित कमल बन में बसते हैं। तात्पर्य यह है
कि,
यदि किसी निर्गुण मदांध राजा वा धनी के निकट कोई गुणी जा पडे उस समय
मदान्धों को गुणी को आदर न करना मानों अपनी लक्ष्मी की शोभा की हानि करनी है काल
निरवधि है और पृथ्वी अनंत है गुणी का आदर कहीं न कहीं किसी समय होगा ॥ १८॥
राजा वेश्या यमश्चाग्निस्तस्करो
बालयाचकौ ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो
ग्रामकण्टकः ॥ १९॥
टीका--राजा,
वेश्या, यम, अग्नी,
चोर, चालक, याचक और आठवां
ग्राम कंटक अर्थात् ग्राम निवासियों को पीडा देकर अपना निर्वाह करनेवाला ये दूसरे
के दुःख को नहीं जानते हैं ॥ १९ ॥
अधः पश्यसि किं बाले पतितं तव किं
भुवि ।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं
तारुण्यमौक्तिकम् ॥२०॥
टीका- हे बाला ! तू नीचे क्यों
देखती है पृथ्वी पर तेरा क्या गिर पडा है तब स्त्री ने कहा अरे मूर्ख तू नहीं
जानता कि,
मेरा तरुणता रूप मोती चला गया ॥ २० ॥
व्यालाश्रयापि विकलापि सकण्टकापि
वक्रापि पङ्किलभवापि दुरासदापि ।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्ता
रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्
॥ २१॥
हे केतकी पुष्प! तुममे तो कीड़े
रहते है, तुमसे ऐसा कोई फल भी नहीं बनता जो खाया जाय। तुम्हारे पत्ते काटो से ढके
है, तुम टेढ़े होकर बढ़ते हो, कीचड़ में खिलते हो, कोई तुम्हे आसानी से पा नहीं
सकता, लेकिन तुम्हारी अतुलनीय खुशबु के कारण दुसरे पुष्पों की तरह सभी को प्रिय हो,
इसीलिए एक ही अच्छाई अनेक बुराइयों पर भारी पड़ती है ॥ २१ ॥
इतिश्रीचाणक्यनीति-दर्पण सप्तदशोऽध्यायः
॥ १७ ॥
इस प्रकार श्री चाणक्यनीतिदपर्ण भाषा टीका सहित समाप्त हुआ ॥
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