अग्निपुराण अध्याय १२

अग्निपुराण अध्याय १२     

अग्निपुराण अध्याय १२ में हरिवंश का वर्णन एवं श्रीकृष्णावतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १२

अग्निपुराणम् अध्यायः १२     

Agni puran chapter 12

अग्निपुराण बारहवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १२      

अग्निपुराण अध्याय १- श्रीहरिवंशवर्णनम्

अग्निरुवाच

हरिवंशम्प्रवक्षयामि विष्णुनाभ्यम्बुजादजः ।

ब्रह्मणोत्रिस्ततः सोमः सोमाज्जातः पुरूरवाः ।। १ ।।

तस्मादायुरभूत्तस्मान्नहुषोऽतो ययातिकः।

यदुञ्च तुर्वसुन्तस्माद्देवयानी व्यजायत ।। २ ।।

द्रुह्यञ्चानुञ्च पूरुञ्च शर्म्मिष्ठा वार्षपर्वणी।

यदोः कुले यादवाश्च वसुदेवस्तदुत्तमः ।। ३ ।।

भूवो भारावतारार्थं देवक्यां वसुदेवतः।

हिरण्यकशिपोः पुत्राः षड्‌गर्भा योगनिद्रया ।। ४ ।।

विष्णुप्रयुक्तया नीता देवकीजठरं पुरा ।

अभूच्च सप्तमो गर्भो देवक्या जठराद् बलः ।। ५ ।।

सङ्‌क्रामितोऽभूद्रोहिण्यां रौहिणेयस्ततो इरिः ।

कृष्णाष्टम्याञ्च नभसि अर्द्धरात्रे चतुर्भुजः ।। ६ ।।

देवक्या वसुदेवेन स्तुतो बालो द्विबाहुकः ।

वसुदेवः कंसभयाद्यसोदाशयनेऽनयत् ।। ७ ।।

यशोदावालिकां गृह्य देवकीशयनेऽनयत् ।

कंसो बालध्वनिं श्रुत्वा ताञ्चिक्षएप शिलातले ।। ८ ।।

वारीतोपि स देवक्या मृत्युर्गर्भोष्टमो मम।

श्रुत्वाऽशरीणीं वाचं मत्तो गर्भास्तु मारिताः ।। ९ ।।

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं हरिवंश का वर्णन करूँगा। श्रीविष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से सोम, सोम से [बुध एवं बुध से] पुरूरवा उत्पन्न हुए। पुरूरवा से आयु, आयु से नहुष तथा नहुष से ययाति का जन्म हुआ। ययाति की पहली पत्नी देवयानी ने यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। उनकी दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा के गर्भ से, जो वृषपर्वा की पुत्री थी, द्रुह्यु, अनु और पूरु- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। यदु के वंश में 'यादव' नाम से प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए उन सब में भगवान् वासुदेव सर्वश्रेष्ठ थे। परम पुरुष भगवान् विष्णु ही इस पृथ्वी का भार उतारने के लिये वसुदेव और देवकी के पुत्ररूप में प्रकट हुए थे। भगवान् विष्णु की प्रेरणा से योग- निद्रा ने क्रमशः छः गर्भ, जो पूर्वजन्म में हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, देवकी के उदर में स्थापित किये। देवकी के उदर से सातवें गर्भ के रूप में बलभद्रजी प्रकट हुए थे। ये देवकी से रोहिणी के गर्भ में खींचकर लाये गये थे, इसलिये [संकर्षण तथा] रौहिणेय कहलाये। तदनन्तर श्रावण मास के* कृष्णपक्ष की अष्टमी को आधी रात के समय चार भुजाधारी भगवान् श्रीहरि प्रकट हुए। उस समय देवकी और वसुदेव ने उनका स्तवन किया। फिर वे दो बाँहोंवाले नन्हें-से बालक बन गये। वसुदेव ने कंस के भय से अपने शिशु को यशोदा की शय्या पर पहुँचा दिया और यशोदा की नवजात बालिका को देवकी की शय्या पर लाकर सुला दिया। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर कंस आ पहुँचा और देवकी के मना करने पर भी उसने उस बालिका को उठाकर शिला पर पटक दिया। उसने आकाशवाणी से सुन रखा था कि देवकी के आठवें गर्भ से मेरी मृत्यु होगी। इसीलिये उसने देवकी के उत्पन्न हुए सभी शिशुओं को मार डाला था ॥ १-९ ॥

* (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर कृष्णपक्ष की अमावस्या तक एक मास होता है। इस मान्यता के अनुसार गणना करने पर आज की गणना के अनुसार जो भाद्रपद कृष्ण अष्टमी है, वही श्रावण कृष्ण अष्टमी सिद्ध होती है। गुजरात, महाराष्ट्र में अब भी ऐसा ही मानते हैं।)

समर्पितास्तु देवक्या विवाहसमयेरिताः।

सा क्षिप्ता बालिका कंसमाकशस्थाब्रवीदिदम् ।। १० ।।

किं मया क्षिप्ताया कंस जातो यस्त्वां वधिष्यति।

सर्वस्वभूतो देवानां भूभारहरणाय सः ।। ११ ।।

कंस के द्वारा शिला पर पटकी हुई वह बालिका आकाश में उड़ गयी और वहीं से इस प्रकार बोली- 'कंस ! मुझे पटकने से तुम्हारा क्या लाभ हुआ? जिनके हाथ से तुम्हारा वध होगा वे देवताओं के सर्वस्वभूत भगवान् तो इस पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतार ले चुके'॥ १०-११॥

इत्युक्त्वा सा च सुम्भादीन् हत्वेन्द्रेण च संस्तुता ।

आर्या दुर्गा वेदगर्भा अम्बिका भद्रकाल्यपि ।। १२ ।।

भद्रा क्षोम्या क्षेमकरी नैकबाहुर्नमामि ताम् ।

त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नाम सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।। १३ ।।

कंसोपि पूतनादींश्च प्रैषयद् बालनाशने ।

यशोदापतिनन्दाय वसुदेवेन चार्पितौ ।। १४ ।।

रक्षणाय च संसादेर्भीतेनैव हि गोकुले।

रामकृष्णौ चेरतुस्तौ गोभिर्गोपालकैः सह ।। १५ ।।

सर्वस्य जगतः पालौ गोपालौ तौ बभूवतुः।

कृष्णश्चोलूखले बद्धो दाम्ना व्यग्रयशोदया ।। १६ ।।

यमलार्जुनमध्येऽगाद् भग्नौ च यमलार्जुनौ।

परिवृत्तश्च शकटः पादक्षेपात् स्तनार्थिना ।। १७ ।।

ऐसा कहकर वह चली गयी। उसी ने देवताओं की प्रार्थना से शुम्भ आदि दैत्यों का वध किया। तब इन्द्र ने इस प्रकार स्तुति की - 'जो आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रकाली, भद्रा, क्षेम्या, क्षेमकरी तथा नैकबाहु* आदि नामों से प्रसिद्ध हैं, उन जगदम्बा को मैं नमस्कार करता हूँ।' जो तीनों समय इन नामों का पाठ करता है, उसकी सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं। उधर कंस ने भी (बालिका की बात सुनकर ) नवजात शिशुओं का वध करने के लिये पूतना आदि को सब ओर भेजा। कंस आदि से डरे हुए वसुदेव ने अपने दोनों पुत्रों की रक्षा के लिये उन्हें गोकुल में यशोदापति नन्दजी को सौंप दिया था। वहाँ बलराम और श्रीकृष्ण- दोनों भाई गौओं तथा ग्वालबालों के साथ विचरा करते थे। यद्यपि वे सम्पूर्ण जगत्के पालक थे, तो भी व्रज में गोपालक बनकर रहे। एक बार श्रीकृष्ण के ऊधम से तंग आकर मैया यशोदा ने उन्हें रस्सी से ऊखल में बाँध दिया। वे ऊखल घसीटते हुए दो अर्जुन वृक्षों के बीच से निकले। इससे वे दोनों वृक्ष टूटकर गिर पड़े। एक दिन श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सो रहे थे। वे माता का स्तनपान करने की इच्छा से अपने पैर फेंक- फेंककर रोने लगे। उनके पैर का हलका सा आघात लगते ही छकड़ा उलट गया ॥ १२-१७॥

*( नैकबाहु का अर्थ है- अनेक बाँहोंवाली। इससे द्विभुजा, चतुर्भुजा, अष्टभुजा तथा अष्टादशभुजा आदि सभी देवियों का ग्रहण हो जाता है।)

पूतना स्तनपानेन सा हता हन्तुमुद्यता ।

वृन्दावनगतः कृष्णः कालियं यमुनाह्रदात् ।। १८ ।।

जित्वा निः सार्य चाब्धिस्थञ्चकार बलसंस्तुतः।

क्षेमं तालवनं चक्रे हत्वा धेनुकगर्द्दभम् ।। १९ ।।

अरिष्टवृषभं हत्वा केशिनं हयरूपिणम् ।

शक्रोत्सवं परित्यज्य कारितो गोत्रयज्ञकः ।। २० ।।

पर्वतं घारयित्वा च शक्राद् वृप्टिर्निवारिता ।

नमस्कृतो महेन्द्रेण गोविन्दोऽथार्जुनोर्पितः ।। २१ ।।

इन्द्रोत्सवस्तु तुष्टेन भूयः कृष्णेन कारितः।

रथस्थो मथुराञ्चागात् कंसोक्ताक्रूरसंस्तुतः ।। २२ ।।

गोपीभिरनुरक्ताबिः क्रीडिताभिर्निरीक्षितः।

रजकं चाप्रयच्छन्तं इत्वा वस्त्राणि चाग्रहीत् ।। २३ ।।

पूतना अपना स्तन पिलाकर श्रीकृष्ण को मारने के लिये उद्यत थी; किंतु श्रीकृष्ण ने ही उसका काम तमाम कर दिया। उन्होंने वृन्दावन में जाने के पश्चात् कालियनाग को परास्त किया और उसे यमुना के कुण्ड से निकालकर समुद्र में भेज दिया। बलरामजी के साथ जा, गदहे का रूप धारण करनेवाले धेनुकासुर को मारकर, उन्होंने तालवन को क्षेमयुक्त स्थान बना दिया तथा वृषभरूपधारी अरिष्टासुर और अश्वरूपधारी केशी को मार डाला। फिर श्रीकृष्ण ने इन्द्रयाग के उत्सव को बंद कराया और उसके स्थान में गिरिराज गोवर्धन की पूजा प्रचलित की। इससे कुपित हो इन्द्र ने जो वर्षा आरम्भ की, उसका निवारण श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण करके किया। अन्त में महेन्द्र ने आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हें 'गोविन्द' की पदवी दी। फिर अपने पुत्र अर्जुन को उन्हें सौंपा। इससे संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने पुनः इन्द्रयाग का भी उत्सव कराया। तदनन्तर एक दिन वे दोनों भाई कंस का संदेश लेकर आये हुए अक्रूर के साथ रथ पर बैठकर मथुरा चले गये। जाते समय श्रीकृष्ण में अनुराग रखनेवाली गोपियाँ, जिनके साथ वे भाँति-भाँति की मधुर लीलाएँ कर चुके थे, उन्हें बहुत देर तक निहारती रहीं। मार्ग में अक्रूर ने उनकी स्तुति की। मथुरा में एक रजक (धोबी) को, जो बहुत बढ़ बढ़कर बातें बना रहा था, मारकर श्रीकृष्ण ने उससे सारे वस्त्र ले लिये ॥ १८-२३ ॥

सह रामेण मालाभृन्मालाकारे वरन्ददौ।

दत्तानुलेपनां कुब्जामृजुं चक्रेऽहनद् गजम् ।। २४ ।।

मत्तं कुवलयापीडं द्वारि रङ्गं प्रविश्य च।

कंसादीनां पश्यतां च मञ्चस्थानां नियुद्धकम् ।। २५ ।।

चक्रे चारणूरमल्लेन मुष्टिकेन बलोऽकरोत्।

चाणूरमुष्टिकौ ताभ्यां हतौ मल्लौ तथापरे ।। २६ ।।

जरासन्धस्य ते पुत्रयौ जरासन्धस्तदीरितः।

चक्रेस मथुरारोधं यादवैर्युयुधे च कंसगे ।। २७ ।।

रामकृष्णौ च मथुरां त्यक्त्वा गोमन्तमागतौ।

जरासन्धं विजित्याजौ पौण्ड्रकं वासुदेवकम् ।। २९ ।।

पुरीं च द्वारकां कृत्वा न्यवसद् यादवैर्वृतः।

भौमं तु नाकं हत्वा तेनानीताश्च कन्यकाः ।। ३० ।।

देवगन्धर्वयक्षाणां ता उवाह जनार्द्दनः।

षोडशस्त्रीसहस्त्राणि रुक्मिण्याद्यास्तथाष्ट च ।। ३१ ।।

एक माली के द्वार पर उन्होंने बलरामजी के साथ फूल की मालाएँ धारण कीं और माली को उत्तम वर दिया। कंस की दासी कुब्जा ने उनके शरीर में चन्दन का लेप कर दिया, इससे प्रसन्न होकर उन्होंने उसका कुबड़ापन दूर कर दिया- उसे सुडौल एवं सुन्दरी बना दिया। आगे जाने पर रङ्गशाला के द्वार पर खड़े हुए कुवलयापीड नामक मतवाले हाथी को मारा और रङ्गभूमि में प्रवेश करके श्रीकृष्ण ने मञ्च पर बैठे हुए कंस आदि राजाओं के समक्ष चाणूर नामक मल्ल के साथ [उसके ललकारने पर ] कुश्ती लड़ी और बलराम ने मुष्टिक नामवाले पहलवान के साथ दंगल शुरू किया। उन दोनों भाइयों ने चाणूर, मुष्टिक तथा अन्य पहलवानों को भी [बात की बात में] मार गिराया। तत्पश्चात् श्रीहरि ने मथुराधिपति कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बनाया। कंस के दो रानियाँ थीं-अस्ति और प्राप्ति। वे दोनों जरासन्ध की पुत्रियाँ थीं। उनकी प्रेरणा से जरासन्ध ने मथुरापुरी पर घेरा डाल दिया और यदुवंशियों के साथ बाणों से युद्ध करने लगा। बलराम और श्रीकृष्ण जरासन्ध को परास्त करके मथुरा छोड़कर गोमन्त पर्वत पर चले आये और द्वारका नगरी का निर्माण करके वहीं यदुवंशियों के साथ रहने लगे। उन्होंने युद्ध में वासुदेव नाम धारण करनेवाले पौण्ड्रक को भी मारा तथा भूमिपुत्र नरकासुर का वध करके उसके द्वारा हरकर लायी हुई देवता, गन्धर्व तथा यक्षों की कन्याओं के साथ विवाह किया। श्रीकृष्ण के सोलह हजार आठ रानियाँ थीं, उनमें रुक्मिणी आदि प्रधान थीं ॥ २४-३१ ॥

सत्यभामासमायुक्तो गरुडे नरकार्दनः।

मणिशैलं सन्त्यश्च इन्द्रं जित्वा हरिर्दिवि ।। ३२ ।।

पारिजातं समानीय सत्यभामागृहेऽकरोत्।

सान्दीपनेश्च शश्त्रास्त्रं ज्ञात्वा, तद्बालकं ददौ ।। ३३ ।।

जित्वा पञ्चजनं दैत्यं यमेन च सुपूजितः।

अवधीत् कालयवनं मुचुकुन्देन पूजितः ।। ३४ ।।

वसुदेवं देवकीञ्च भक्तविप्रांश्च सोर्च्चयत्।

रेवत्यां बलभद्राच्च यज्ञाते निशठोन्मुकौ ।। ३५ ।।

कृष्णात् शाम्बो जाम्बवत्यामन्यास्वन्येऽभवन् सुताः ।

प्रद्युम्नोऽभूच्च रुक्मिण्यां षष्ठेऽह्नि स हृतो बलात् ।। ३६ ।।

शम्बरेणाम्बुधौ क्षिप्तोमत्स्योजग्राह धीवरः।

तं मत्स्यं शम्बरायादान्मायावत्यैच शम्बरः ।। ३७ ।।

मायावती मत्स्यमध्ये दृष्ट्वा स्वं पतिमादरात्।

पपोष सा तं चोवाच रतिस्तेऽहं पतिर्मम ।। ३८ ।।

कामस्त्वं शम्भुनानङ्गः कृतोहं शम्बरेण च।

हृता न तस्य पत्नी त्वं मायाज्ञः शम्बरं जहि ।। ३९ ।।

इसके बाद नरकासुर का दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामा के साथ गरुड पर आरूढ़ हो स्वर्गलोक में गये । वहाँ से इन्द्र को परास्त करके रत्नोंसहित मणिपर्वत तथा पारिजात वृक्ष उठा लाये और उन्हें सत्यभामा के भवन में स्थापित कर दिया। श्रीकृष्ण ने सान्दीपनि मुनि से अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण की थी। शिक्षा पाने के अनन्तर उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु के मरे हुए बालक को लाकर दिया था। इसके लिये उन्हें 'पञ्चजन' नामक दैत्य को परास्त करके यमराज के लोक में भी जाना पड़ा था। वहाँ यमराज ने उनकी बड़ी पूजा की थी। उन्होंने राजा मुचुकुन्द के द्वारा कालयवन का वध करवा दिया। उस समय मुचुकुन्द ने भी भगवान्‌ की पूजा की। भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेव, देवकी तथा भगवद्भक्त ब्राह्मणों का बड़ा आदर-सत्कार करते थे। बलभद्रजी के द्वारा रेवती के गर्भ से निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। श्रीकृष्ण द्वारा जाम्बवती के गर्भ से साम्ब का जन्म हुआ। इसी प्रकार अन्य रानियों से अन्यान्य पुत्र उत्पन्न हुए। रुक्मिणी के गर्भ से प्रद्युम्न का जन्म हुआ था। वे अभी छः दिन के थे, तभी शम्बरासुर उन्हें मायाबल से हर ले गया। उसने बालक को समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में एक मत्स्य उसे निगल गया। उस मत्स्य को एक मल्लाह ने पकड़ा और शम्बरासुर को भेंट किया । फिर शम्बरासुर ने उस मत्स्य को मायावती के हवाले कर दिया। मायावती ने मत्स्य के पेट में अपने पति को देखकर बड़े आदर से उसका पालन- पोषण किया। बड़े हो जाने पर मायावती ने प्रद्युम्न से कहा- 'नाथ! मैं आपकी पत्नी रति हूँ और आप मेरे पति कामदेव हैं। पूर्वकाल में भगवान् शङ्कर ने आपको अनङ्ग (शरीररहित) कर दिया था। आपके न रहने से शम्बरासुर मुझे हर लाया है। मैंने उसकी पत्नी होना स्वीकार नहीं किया है। आप माया के ज्ञाता हैं, अतः शम्बरासुर को मार 'डालिये ' ॥ ३२- ३९ ॥

तच्छ्रुत्वा शम्बरं हत्वा प्रद्युम्नः सह भार्यया।

मा यावत्या ययौ कृष्णं कृष्णो हृष्टोऽथ रुक्मिणी ।। ४० ।।

प्रद्युम्नादनिरुद्वोभूदुषापतिरुदारधीः।

बाणो बलिसुतस्तस्य सुतोषा शोणितं पुरम् ।। ४१ ।।

तपसा शिवपुत्रोऽभूद् मायूरध्वजपातितः।

युद्धं प्राप्स्यसि बाण त्वं बाणं तुष्टः शिवोभ्यधात् ।। ४२ ।।

शिवेन क्रीडतीं गौरीं दृष्ट्वोषा सस्पृहा पतौ।

तामाह गौरी भर्त्ता ते निशि सुप्तेति दर्शनात् ।। ४३ ।।

वैशाखमासद्वादश्यां पुंसो भर्त्ता भविष्यति।

गौर्य्युक्त हर्षिता चोषा गृहे सुप्ता ददर्श तम् ।। ४४ ।।

आत्मना सङ्गतं ज्ञात्वा तत्सख्या चित्रलेखया।

लिखिताद्वै चित्रपटादनिस्द्धं समानयत् ।। ४५ ।।

कृष्णणौत्रं द्वारकातो दुहिता बाणमन्त्रिणः।

कुम्भाण्डस्यानिरुद्धोगाद्रराम ह्युषया सह ।। ४६ ।।

बाणध्वजस्य सम्पातै रक्षिभिः स निवेदितः।

अनिरुद्धस्य बाणेन युद्धमासीत्सुदारुणम् ।। ४७ ।।

यह सुनकर प्रद्युम्न ने शम्बरासुर का वध किया और अपनी भार्या मायावती के साथ वे श्रीकृष्ण के पास चले गये। उनके आगमन से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी को बड़ी प्रसन्नता हुई। प्रद्युम्न से उदारबुद्धि अनिरुद्ध का जन्म हुआ। बड़े होने पर वे उषा के स्वामी हुए। राजा बलि के बाण नामक पुत्र था। उषा उसी की पुत्री थी। उसका निवास स्थान शोणितपुर में था। बाण ने बड़ी भारी तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उसको अपना पुत्र मान लिया था। एक दिन शिवजी ने बलोन्मत्त बाणासुर की युद्धविषयक इच्छा से संतुष्ट होकर उससे कहा- ' बाण! जिस दिन तुम्हारे महल का मयूरध्वज अपने-आप टूटकर गिर जाय, उस दिन यह समझना कि तुम्हें युद्ध प्राप्त होगा।' एक दिन कैलास पर्वत पर भगवती पार्वती भगवान् शङ्कर के साथ क्रीडा कर रही थीं। उन्हें देखकर उषा के मन में भी पति की अभिलाषा जाग्रत् हुई । पार्वतीजी ने उसके मनोभाव को समझकर कहा- "वैशाख मास की द्वादशी तिथि को रात के समय स्वप्न में जिस पुरुष का तुम्हें दर्शन होगा, वही तुम्हारा पति होगा।' पार्वतीजी की यह बात सुनकर उषा बहुत प्रसन्न हुई। उक्त तिथि को जब वह अपने घर में सो गयी, तो उसे वैसा ही स्वप्न दिखायी दिया। उषा की एक सखी चित्रलेखा थी। वह बाणासुर के मन्त्री कुम्भाण्ड की कन्या थी। उसके बनाये हुए चित्रपट से उषा ने अनिरुद्ध को पहचाना कि वे ही स्वप्न में उससे मिले थे। उसने चित्रलेखा के ही द्वारा श्रीकृष्ण - पौत्र अनिरुद्ध को द्वारका से अपने यहाँ बुला मँगाया। अनिरुद्ध आये और उषा के साथ विहार करते हुए रहने लगे। इसी समय मयूरध्वज के रक्षकों ने बाणासुर को ध्वज के गिरने की सूचना दी। फिर तो अनिरुद्ध और बाणासुर में भयंकर युद्ध हुआ ॥ ४० - ४७ ॥

श्रुत्वा तु नारदात् कृष्णः प्रद्युम्नबलभद्रवान्।

गरुडस्थोथ जित्वाग्नीञ्ज्वरं माहेश्वरन्तथा ।। ४८ ।।

हरिशङ्करयोर्युद्धं बभूवाथ शराशरि।

नन्दिविनायकस्कन्दमुखास्ताक्षर्यादिभिर्जिताः ।। ४९ ।।

जृम्भिते शङ्करे नष्टे जृम्भणास्त्रेण विष्णुना।

छिन्नं सहस्त्रं बाहूनां रुद्रेणाभयमर्थितम् ।। ५० ।।

विष्णुना जीवितो बाणो द्विबाहुः प्राब्रवीच्छिवम्।

त्वया यदभयं दत्तं बाणस्यास्य मया च तत् ।। ५१ ।।

नारदजी के मुख से अनिरुद्ध के शोणितपुर पहुँचने का समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण प्रद्युम्न और बलभद्र को साथ ले, गरुड पर बैठकर वहाँ गये और अग्नि एवं माहेश्वर ज्वर को जीत कर शङ्करजी के साथ युद्ध करने लगे। श्रीकृष्ण और शङ्कर में परस्पर बाणों के आघात – प्रत्याघात से युक्त भीषण युद्ध होने लगा। नन्दी, गणेश और कार्तिकेय आदि प्रमुख वीरों को गरुड आदि ने तत्काल परास्त कर दिया। श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र का प्रयोग किया, जिससे भगवान् शङ्कर जंभाई लेते हुए सो गये। इसी बीच में श्रीकृष्ण ने बाणासुर की हजार भुजाएँ काट डालीं। जृम्भणास्त्र का प्रभाव कम होने पर शिवजी ने बाणासुर के लिये अभयदान माँगा, तब श्रीकृष्ण ने दो भुजाओं के साथ बाणासुर को जीवित छोड़ दिया और शङ्करजी से कहा- ॥ ४८- ५१ ॥

आवयोर्नास्ति भेदो वै भेदी नरकमाप्नुयात्।

शिवाद्यैः पूजितो विष्णुः सोनिरुद्ध उषादियुक् ।। ५२ ।।

श्रीकृष्ण बोले- भगवन्! आपने जब बाणासुर को अभयदान दिया है, तो मैंने भी दे दिया। हम दोनों में कोई भेद नहीं है। जो भेद मानता है, वह नरक में पड़ता है ॥ ५२ ॥

द्वारकान्तु गतो रेमे उग्रसेनादियादवैः।

अनिरुद्धात्मजो वज्रो मार्कण्डेयात्तु सर्ववित् ।। ५३ ।।

बलभद्रः प्रलम्बघ्नो यमुनाकर्षणोऽभवत्।

द्विविदस्य कपेर्भेत्ता कौरवोन्मादनाशनः ।। ५४ ।।

हरी रेमेनेकमूर्त्ती रुक्मिण्यादिभिरीश्वरः।

पुत्रानुत्पादयामास त्वसंख्यातान् स यादवान् ।।

हरिवंशं पठेद् यः स प्राप्तकामो हरिं व्रजेत् ।। ५५ ।।

अग्निदेव कहते हैं- तदनन्तर शिव आदि ने श्रीकृष्ण का पूजन किया। वे अनिरुद्ध और उषा आदि के साथ द्वारका में जाकर उग्रसेन आदि यादवों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। अनिरूद्ध के वज्र नामक पुत्र हुआ। उसने मार्कण्डेय मुनि से सब विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया। बलभद्रजी ने प्रलम्बासुर को मारा, यमुना की धारा को खींचकर फेर दिया, द्विविद नामक वानर का संहार किया तथा अपने हल के अग्रभाग से हस्तिनापुर को गङ्गा में झुकाकर कौरवों के घमंड को चूर-चूर कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण अनेक रूप धारण करके अपनी रुक्मिणी आदि रानियों के साथ विहार करते रहे। उन्होंने असंख्य पुत्रों को जन्म दिया। [अन्त में यादवों का उपसंहार करके वे परमधाम को पधारे।] जो इस हरिवंश का पाठ करता है, वह सम्पूर्ण कामनाएँ प्राप्त करके अन्त में श्रीहरि के समीप जाता है ॥ ५३-५५ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये हरिवंशवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'हरिवंश का वर्णन' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 13   

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