चाणक्यनीति अध्याय ४
चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र
(४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें
सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये
हैं।
चाणक्यनीति चतुर्थोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 4
चाणक्यनीति चौथा अध्याय
चाणक्य नीति अध्याय ४
चतुर्थोऽध्यायः
आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या
निधनमेव च ।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते
गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।१।।
सोरठा --
आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।
नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥१॥
अर्थ -- आयु,
कर्म, धन, विद्या,
और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।
साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते
पुत्रामित्राणि बान्धवाः ।
ये च तैः सह
गन्तारस्तध्दर्मात्सुकृतं कुलम् ।।२।।
दोहा --
बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।
ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥२॥
अर्थ -- संसार के अधिकांश पुत्र,
मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है।
दर्शनाध्यानसंस्पर्शैर्मत्सी कूर्मी
च पक्षिणी ।
शिशुपालयते नित्यं तथा सज्जनसड्गतिः
।।३।।
दोहा --
मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।
शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥३॥
अर्थ -- जैसे मछली दर्शन से,
कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है,
उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है।
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो
यावन्मृत्युश्च दूरतः ।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते
किं करिष्यति।।४।।
दोहा --
जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।
तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥४॥
अर्थ -- जब तक कि शरीर स्वस्थ है और
जब तक मृत्यु दूर है। इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो
जाने पर कोई क्या करेगा ?
कामधेनुगुण विद्या ह्यकाले फलदायिनी
।
प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं
धनं स्मृतम् ।।५।।
दोहा --
बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।
माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥५॥
अर्थ -- विद्या में कामधेनु के समान
गुण विद्यमान है। यह असमय में भी फल देती है। परदेश में तो यह माता की तरह पालन
करती है। इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है।
एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च
शतैर्वरः ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः
सहस्त्रशः ।।६।।
दोहा --
सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।
एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हज़ार ॥६॥
अर्थ -- एक गुणवान पुत्र सैकडों
गुणहीन पुत्रों से अच्छा है। अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है,
पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते।
मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि
तस्माज्जातमृतो वरः ।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं
जडोदहेत् ।।७।।
दोहा --
मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।
मरे अल्प दु:ख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥७॥
अर्थ -- मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर
जीना अच्छा नहीं है। बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय। क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है,
पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।
कुग्रामवासः कुलहीनसेवा
कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या ।
पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या
विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम् ।।८।।
दोहा --
घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।
मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥८॥
अर्थ -- ख़राब गाँव का निवास,
नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, ख़राब भोजन,
कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री
ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।
किं तया क्रियते धेन्वा या न
दोग्ध्री न गर्भिणी ।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न
विद्वान्न भक्तिमान् ।।९।।
दोहा --
कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।
कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥९॥
अर्थ -- ऎसी गाय से क्या लाभ जो न
दूध देती है और न गाभिन हो। उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ,
जो न विद्वान् हो और न भक्तिमान् ही होवे।
संसारतापदग्धानां त्रयो
विश्रान्तेहेतवः ।
अपत्यं च कलत्रं च सतां सड्गतिरेव च
।।१०।।
सोरठा --
यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।
हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥१०॥
अर्थ -- सांसारिक ताप से जलते हुए
लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं। पुत्र, स्त्री
और सज्जनों का संग।
सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति
पण्डिताः ।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते
त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ।।११।।
दोहा --
भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।
एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥११॥
अर्थ -- राजा लोग केवल एक बात कहतें
हैं,
उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, (आर्य धर्मावलम्बियों के यहाँ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।
एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं
त्रिभिः ।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं
पंचभिर्बहुभी रणम् ।।१२।।
दोहा --
तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।
कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥१२॥
अर्थ -- अकेले में तपस्या,
दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती
का काम और ज़्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।
सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या
या पतिव्रता ।
सा भार्या या पतिप्रीता साभार्या
सत्यवादिनो ।।१३।।
दोहा --
सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।
पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥१३॥
अर्थ -- वही भार्या (स्त्री) भार्या
है,
जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः
शुन्यास्त्वबांधवाः ।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या
दरिद्रता ।।१४।।
दोहा --
है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।
मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥१४॥
अर्थ -- जिसके पुत्र नहीं जओ,
उसका घर सूना है। जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं। मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और
दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं
विषम् ।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृध्दस्य
तरुणी विषम् ।।१५।।
दोहा --
भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।
सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥१५॥
अर्थ -- अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान
रहता है,
अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है। दरिद्र के लिए सभा विष
है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।
त्यजेध्दर्म दयाहीनं विद्याहीनं
गुरुं त्यजेत् ।
त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्यान्निः
स्नेहानबंधवांस्त्यजेत् ।।१६।।
दोहा --
दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।
क्रोधमुखी प्रिय प्रीति
बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥१६॥
अर्थ -- जिस धर्म में दया का उपदेश
न हो,
वह धर्म त्याग दे। जिस गुरु में विद्या न हो, उसे
त्याग दे। हमेशा नाराज़ रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को
त्याग देना चाहिये।
अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बंधनं
जरा ।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां
वस्त्राणामातपं जरा ।।१७।।
दोहा --
पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।
जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥१७॥
अर्थ -- मनुष्यों के लिए रास्ता
चलना बुढापा है। घोडे के लिए बन्धन बुढापा है। स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव
बुढापा है। वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।
कःकालः कानि मित्राणि को देशः को
व्ययागमौ ।
कस्याहं का च मेशक्तिरिति चिन्त्यं
मुहुर्मुहुः ।।१८।।
दोहा --
हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।
लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥१८॥
अर्थ -- यह कैसा समय है,
मेरे कौन 2 मित्र हैं, यह
कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है,
मैं किसेके अधीन हूँ और मुझ में कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार
सोचते रहना चाहिये।
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां
हृदि दैवतम् ।
प्रतिमा त्वल्पबुध्दीनां सर्वत्र
समदर्शिनाम् ।।१९।।
दोहा --
ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।
मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥१९॥
अर्थ -- द्विजातियों के लिए अग्नि
देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है,
साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के
लिए सारा संसार देवमय है।
इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 5
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