कालिका पुराण अध्याय २६
कालिका पुराण अध्याय २६ में सृष्टि कथनांतर्गत प्रतिसर्ग सृष्टि का वर्णन है।
कालिकापुराणम् षड्विंशोऽध्यायः सृष्टि कथनम्
कालिका पुराण
अध्याय २६
Kalika puran chapter 26
कालिकापुराण छब्बीसवाँ अध्याय- प्रतिसर्ग सृष्टि
अथ कालिका
पुराण अध्याय २६
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
वाराहोयं
श्रुतः सर्गों वराहाधिष्ठितो यतः ।
प्रतिसर्गः श्रुतः
सर्वैर्दक्षाद्यैर्यः कृतः पृथक् ॥ १ ॥
मार्कण्डेय
बोले- आप लोगों ने वराह से संचालित वाराह – सर्ग वर्णन सुना तथा दक्षादि ने जो
पश्चात्वर्ती सृष्टि की उसे भी सुना ॥ १ ॥
रुद्रो
विराणमनुर्दक्षो मरीच्याद्यास्तु मानसाः ।
यं यं सर्गं
पृथक् चक्रुः प्रतिसर्गश्च स स्मृतः ।।२।।
रुद्र, विराट्, स्वायंभुवमनु,
दक्ष, मरीचि आदि मानस पुत्रों ने अलग-अलग जो भी
सृष्टि कार्य किये उसे प्रतिसर्ग के रूप में स्मरण किया जाता है ॥ २ ॥
विराट्
सुतोऽसृजद्वंश्यान्मनून् यैर्विततं जगत् ।
मनुः सप्त
मनून् सृष्ट्वा चकार बहुशः प्रजाः ।। ३ ।।
विराट पुत्र
स्वायम्भुवमनु ने अपने वंशज मनुओं की सृष्टि की जिनसे यह जगत निष्पन्न है । उस मनु
ने सात मनुओं की सृष्टि कर बहुत-सी प्रजा की सृष्टि की ॥ ३ ॥
प्रजाः
सिसृक्षुः स मनुर्योऽसौ स्वायम्भुवाह्वयः ।
असृजत् प्रथमं
षड् वै मनून् सोऽथ परान् सुतान् ।।४।।
स्वारोचिषश्चत्तमिश्च
तामसो रैवतस्तथा ।
चाक्षुषश्च
महातेजा विवस्वानपरस्तथा ।। ५ ।।
प्रजा की सृष्टि के इच्छुक मनु जिन्हें
स्वायम्भुव नाम दिया जाता है, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस,
रैवत, चाक्षुष तथा दूसरे महातेजस्वी विवस्वान
नाम छः श्रेष्ठ पुत्रों, अन्य मनुओं की सृष्टि की ।। ४-५ ।।
यक्षरक्षः
पिशाचांश्च नागगन्धर्वकिन्नरान् ।
विद्याधरानप्सरसः
सिद्धान् भूतगणान् बहून् ।। ६ ।।
मेघान्
सविद्युतो वृक्षान् लतागुल्मतृणादिकान् ।
मत्स्यान् पशूंश्च
कीटांश्च जलजान् स्थलजांस्तथा ।।७।।
एतादृशानि
सर्वाणि मनुः स्वायम्भुवः सुतैः ।
सहितः ससृजे
सोन्यः प्रतिसर्गः प्रकीर्तितः ।।८।।
यक्षों, राक्षसों, पिशाचों,
नागों, गन्धर्वों, किन्नरों,
विद्याधरों, अप्सराओं, सिद्धों
और बहुत से प्राणियों के समूह, बिजली के सहित बादलों की,
वृक्षों, लताओं, पौधों,
झाड़ियों, मछलियों, जल
तथा स्थल में उत्पन्न होने वाले पशुओं एवं कीटों आदि सभी की स्वायम्भुव मनु ने
पुत्रों सहित जो सृष्टि की उसे ही अन्य सृष्टि या प्रतिसर्ग सृष्टि कहते हैं ।।
६-८ ॥
अन्ये षण्मनवो
ये वै तेऽपि स्वे स्वेऽन्तरेऽन्तरे ।
प्रतिसर्गं
स्वयं कृत्वा प्राप्नुवन्ति चराचरम् ।।९।।
अन्य जो छः
मनु हैं, वे भी अपने-अपने अन्तर (मन्वन्तर) में
प्रतिसर्ग करके चराचर को प्राप्त करते हैं ।। ९ ।।
यज्ञस्य
सम्भूतं यज्ञं यूपं प्राग्वंशमेव च ।
धर्माधर्मे
गुणान् सर्वान् वराह इव सृष्टवान् ।। १० ।।
यज्ञ से
उत्पन्न यज्ञ, यूप,
प्राग्वंश तथा धर्माधर्म आदि सभी गुणों की सृष्टि वराह की ही भाँति
हुई थी ॥ १० ॥
सुतान् बहून्
समुत्पाद्य दक्षो देवर्षिसत्तमान् ।
महर्षीन्
सोमपादींश्च बहून् पितृगणांस्तथा ।
सृष्टिं
प्रवर्त्तयामास प्रतिसर्गोऽस्य सः स्मृतः ।।११।।
दक्ष ने बहुत
से पुत्रों, देवर्षिसत्तमों,
महर्षियों, सोमपा आदि बहुत से पितरों को
उत्पन्न कर जो सृष्टि प्रवर्तित की उनको प्रतिसर्ग कहा जाता है ।। ११ ।
अजायन्त
मुखाद्विप्राः क्षत्रिया बाहुयुग्मतः ।। १२ ।।
ऊर्वोवैश्याः
पदोः शूद्राश्चतुर्वेदाश्चतुर्मुखात् ।
ब्रह्मण:
प्रतिसर्गोऽयं ब्राह्मः सर्गः स्मृतस्ततः ।। १३ ।।
ब्रह्मा के
मुख से ब्राह्मण, दोनों बाहुओं से क्षत्रिय, जंघों से वैश्य तथा पैरों
से शूद्र, चारों मुखों से ऋग्, यजु,
साम, अथर्व नामक चारों वेद उत्पन्न हुए ।
ब्रह्मा से उत्पन्न होने से यह प्रतिसृष्ट ब्राह्मसर्ग कही जाती है ।। १२-१३ ॥
मरीचेः कश्यपो
जातः कश्यपात् सकलं जगत् ।
देवा दैत्या
दानवाश्च तस्य सर्गः प्रकीर्तितः ।। १४ ।।
मरीचि से
कश्यप और उनसे सारा संसार उत्पन्न हुआ । देव, दानव और दैत्य सब उन्हीं की सृष्टि कहे जाते हैं ॥ १४ ॥
अत्रेनेंत्रादभूच्चन्द्रश्चन्द्रवंशस्ततोऽभवत्
।
तेन व्याप्तं
जगत् सर्वं सोऽस्य सर्गः प्रकीर्तितः ।। १५ ।।
अत्रि ऋषि के
नेत्रों से चन्द्रमा उत्पन्न हुए तथा चन्द्रमा से चन्द्रवंश उत्पन्न हुआ, उससे संसार व्याप्त हुआ । यही अत्रि की
सृष्टि कही जाती है ।। १५ ।।
अथर्वांगिरसाः
पुत्राः पौत्राश्च बहुशोऽपरे ।
मन्त्रयन्त्रादयो
ये वै ते सर्वेऽङ्गिरसः स्मृताः ।। १६ ।।
अथर्वा, अङ्गिरा ऋषि के पुत्र और पौत्र तथा अन्य भी
बहुत से मन्त्र यन्त्रादि उत्पन्न हुए वे सभी अंगिरस कहे जाते हैं ।। १६ ।।
आज्यपाख्याः
पुलस्त्यस्य पुत्राश्चान्ये च राक्षसाः ।
प्रतिसर्गः
पुलस्त्यस्य बलवेगसमन्विताः ।।१७।।
आज्यपा नामक
पितर तथा बलवेग से युक्त राक्षस जो पुलस्त्य के पुत्र हुए वे पुलस्त्य की प्रति
सृष्टि हैं ।। १७ ।।
काद्रवेया गजा
अश्वाः प्रजा बहुतरास्तथा ।
ससृजे
पुलहेनैष सर्गस्तस्य प्रकीर्तितः ।। १८ ।।
पुलह के
द्वारा कद्रू की संतति के रूप में उत्पन्न नाग, हाथी, घोड़े आदि बहुत- सी प्रजा
(सन्तानों) की सृष्टि हुई। उनकी यह सृष्टि उन्हीं की कही गयी है ॥ १८ ॥
क्रतोः
पुत्राः बालखिल्याः सर्वज्ञा भूरितेजसः ।
अष्टाशीतिसहस्राणि
ज्वलद्भास्करसन्निभाः ।। १९ ।।
क्रतु के जलते
हुए सूर्य के समान आभा वाले, अत्यधिक तेजस्वी, सब कुछ के ज्ञाता, अस्सी हजार बालखिल्य नामक ऋषिगण हुए ।। १९ ।।
प्रचेतसः
सुताः सर्वे ये वै प्राचेतसाः स्मृताः ।
षडशीतिसहस्राणि
पावकोपमतेजसः ।।२०।।
प्रचेता के जो
सभी पुत्र थे वे प्राचेतस स्मरण किये जाते हैं। ये संख्या में छियासी हजार हैं तथा
अग्नि के समान तेजस्वी हैं ॥ २० ॥
सुकालिनो
वसिष्ठस्य पुत्राश्चान्ये च योगिनः ।
आरुन्धतेयाः
पञ्चाशद्वासिष्ठः सर्ग उच्यते ।। २१ ।।
सुकालिन पितर
तथा वसिष्ठ से अरुन्धती के पचास अन्य योगी पुत्र, ये वासिष्ठी सृष्टि कहे जाते हैं ॥ २१ ॥
भृगोश्च
भार्गवा जाता ये वै दैत्यपुरोधसः ।
कवयस्ते महाप्राज्ञास्तैर्व्याप्तमखिलं
जगत् ।। २२ ।।
भृगु से
भार्गव उत्पन्न हुए, जो दैत्यों के पुरोहित थे । वे महान बुद्धिमान तथा विचारक थे, जिनसे सारा संसार भरा हुआ है ।। २२ ।।
नारदात्तारका
जाता विमानानि तथैव च ।
प्रश्नोत्तरास्तथैवान्ये
नृत्यगीतं च कौतुकम् ।। २३ ।।
नारद से
तारागण तथा उसी प्रकार विमान, प्रश्नोत्तर और अन्य नृत्यगीतादि कौतुक भी उत्पन्न हुए ॥ २३ ॥
एते
दक्षमरीच्याद्याः कृतदारान् बहून् सुतान् ।
उत्पाद्योत्पाद्य
पृथिवीं दिवं च समपूरयन् ।। २४ ।।
इन दक्ष मरीचि
आदि ने विवाह कर बहुत से पुत्रों को उत्पन्न करके पृथ्वी एवं आकाश को अपनी
सन्तानों से भर दिया ॥ २४ ॥
तेषां
सुतेभ्यश्च सुतास्तत्पुत्रेभ्यः परे सुताः ।
समुत्पन्नाः प्रवर्तन्ते
ह्यद्यापि भुवनेषु वै ।। २५ ।।
उन्हीं के पुत्रों
के पुत्र, उनके पुत्रों के भी पुत्र उत्पन्न हो,
आज भी लोकों में उत्पन्न हो रहे हैं ।। २५ ॥
विष्णोस्तु
चक्षुषोः सूर्यो मनसश्चन्द्रमाः स्मृतः ।
श्रोत्राद्वायुः
समुद्भूतो मुखादग्निरजायत ।। २६ ।।
विष्णु के
नेत्र से सूर्य, मन से
चन्द्रमा, कर्ण से वायु तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुए ऐसा
कहा गया है ।। २६ ।
प्रतिसर्गोह्ययं
विष्णोस्तथा चापि दिशो दश ।
सृष्ट्यर्थं चन्द्रमाः
पश्चादत्रिनेत्रादवातरत् ।
भास्करः
कश्यपाज्जातो भार्यया च समन्वितः ।। २७ ।।
क्योंकि यह
तथा दशों दिशायें विष्णु का प्रतिसर्ग हैं। बाद में सृष्टि कार्य हेतु चन्द्रमा
अत्रि मुनि के नेत्रों से प्रकट हुआ तथा सूर्य कश्यप ऋषि की पत्नी के संयोगवश
उत्पन्न हुआ ।। २७ ।।
रुद्राश्च
बहवो जाता भूतग्रामाश्चतुर्विधाः ।
श्ववराहोष्ट्ररूपाश्च
प्लवगोमायूगोमुखाः ।। २८ ।।
ऋक्षमार्जारवदनाः
सिंहव्याघ्रमुखाः परे ।
नानाशस्त्रधराः
सर्वे नानारूपाः महाबलाः ।। २९ ।।
बहुत से
रुद्रगण तथा चार प्रकार के भूतों के समुदाय उत्पन्न हुए- उनमें कोई कुत्ते, सुअर तथा ऊँट के रूप वाले थे, कुछ बन्दर, गीदड़ और गौ के मुँह वाले, कुछ भालू तथा बिल्ली के समान मुख वाले तो दूसरे सिंह, व्याघ्र के मुख वाले थे। वे अनेक शस्त्र धारण करने तथा अनेक रूपों वाले
महाबलशाली थे ।। २८-२९ ॥
एष वः
प्रतिसर्गोऽपि कथितो द्विजसत्तमाः ।
दैनन्दिनं च
प्रलयं शृणुध्वं कल्पशेषतः ।। ३० ।।
हे द्विजसत्तम
! यह आप लोगों से प्रतिसर्ग कहा गया। अब दैनन्दिन और कल्पान्त में होने वाले प्रलय
के विषय में सुनिये ॥ ३० ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे सृष्टिकथने षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
कालिका पुराण अध्याय २६- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा– यह आप लोगों ने वाराह सर्ग का श्रवण कर लिया है क्योंकि यह वाराह से ही
अधिष्ठित है । आप सबने प्रतिसर्ग का भी श्रवण किया है जो दक्ष आदि के द्वारा पृथक
किया गया था । विराट्, रुद्र, मनु, दक्ष और मरिचि आदि मानस पुत्रों ने जिस-जिस सर्ग का पृथक
किया था वह प्रतिसर्ग भी कहा गया है। विराट सुत ने वंश में होने वाले मनुओं का
सृजन किया था। जिनके द्वारा यह जगत् वितत किया गया है । मनु ने सात मनुओं की रचना
करके बहुत सी प्रजा को बना दिया था अर्थात् बहुत अधिक प्रजा की सृष्टि कर दी थी ।
प्रजा की सृष्टि की इच्छा वाले मनु ने जो स्वायम्भुव नाम वाले थे उन्होंने दूसरे
सुत छः मनुओं का सृजन किया था। उन छः मनुओं के नाम ये हैं- स्वरोचिष,
आँत्तभि, तामस, रैवत, चाक्षुष और महान तेज से संयुत विवस्वान । स्वयम्भुव मनु ने
यक्ष,
राक्षस, पिशाच, नाग, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर, अप्सरायें, सिद्ध, भूतगण, मेघ जो विद्युत के सहित थे, वृक्ष, लता, गुल्म, तृण आदि मत्स्य, पशु, कीट, जल में समुत्पन्न होने वाले और स्थल में समुत्पन्न इन सबकी
रचना की थी । इस प्रकार के सबको स्वयम्भुव मनु ने अपने सुतों के सहित सृष्ट किया
था । वह इसका प्रति सर्ग प्रकीर्तित किया गया है। अन्य जो छः मनु थे उन्होंने भी
अपने-अपने अन्तर में स्वयं प्रतिसर्ग को चराचर में प्राप्त किया करते हैं। यज्ञ का
यज्ञयूप और प्राग्वंश हुआ था तथा वाराह की भाँति धर्म और अधर्म एवं सब गुणों की
सृष्टि की थे । देवर्षि दक्ष ने परम श्रेष्ठ बहुत से सुतों का समुत्पादन करके सोमय
आदि महर्षियों को और पितृगणों को उत्पन्न किया था तथा सृष्टि को प्रवृत्त किया था
यह इसका प्रतिसर्ग कहा गया है। हे विप्रो! विप्र उसके मुख से उत्पन्न हुए थे और
क्षत्रिय दोनों बाहुओं से समुत्पन्न हुए उरुओं से वैश्यों की उत्पत्ति हुई थी तथा
शूद्र पादों से समुत्पन्न हुए चारों वेद ब्रह्माजी के चार मुखों से निःसृत हुए थे।
यह ब्रह्माजी का प्रतिसर्ग है जो ब्रह्मसर्ग इस नाम से कहा गया है। मरीचि ऋषि से
कश्यप ऋषि ने जन्म ग्रहण किया था । और कश्यप से यह सम्पूर्ण जगत समुत्पन्न हुआ था।
जिसमें देव, दैत्य और दानव सभी उत्पन्न हुए थे। यह उसका सर्ग कीर्ति हुआ था।
अत्रि ऋषि के
नेत्रों से चन्द्रदेव ने जन्म धारण किया था और तभी से यह चन्द्रवंश हुआ। उस
चन्द्रवंश से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त हैं और वह इसका ही सर्ग कीर्त्तित किया गया
है। अथर्वाङ्गिरस के रस पुत्र और बहुत से दूसरे पौत्र हुए। जो भी मन्त्र और तन्त्र
आदि हैं वे सब अंगिरस कहे गए हैं । पुलस्त्य का प्रतिसर्ग है जो बल और वेग से
समन्वित था । काक्रदेव, गज, अश्व आदि बहुत अधिक प्रजा हुई थी । यह सर्गप्रलह ने किया था
अर्थात् इसकी सृष्टि की थी । अतएव यह इसका ही सर्ग कहा गया है । क्रतु ऋषि के
बालखिल्य पुत्र हुए थे जो सभी कुछ के ज्ञान रखने वाले और परमाधिक तेज से संयुक्त
थे । ये अट्ठासी हजार थे जो कि जाज्वल्यमान सूर्य के ही समान हुए थे प्रचेता के जो
सब पुत्र हुए थे वे सब प्राचेतस इस नाम से प्रथित हुए थे । ये छियासी हजार संख्या
में थे और अग्नि के सदृश तेजस्वी हुए थे । वशिष्ठ ऋषि के सुत सुकालिन थे और दूसरे
योगी थे । ये अरुन्धती से समुत्पन्न पचास आरुन्धतेय कहलाये थे । यह वशिष्ठ अर्थात
वशिष्ठ मुनि का सर्ग कहा जाया करता है ।
भृगु ऋषि से
जो उत्पन्न हुए थे जो दैत्यों के पुरोहित थे । वे कवि और बहुत विशाल बुद्धि वाले
हुए थे । उनसे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। नारद से तारकों ने जन्म प्राप्त किया
था तथा विमान हुए थे एवं अन्य प्रश्नोत्तर से नृत्य, गीत और कौतुक हुए थे । इन दक्ष और मरीचि आदि ने दाराओं के
ग्रहण करने वाले बहुत से पुत्रों का समुत्पादन कर, इस पृथ्वी को और देवलोक को पूरित कर दिया था। उनके सबके
पुत्रों को भी पुत्र हुए और फिर उन पुत्रों के भी पुत्र हुए थे । ये समुत्पन्न
पुत्र आज भी भुवनों में प्रवृत्त हो रहे हैं । भगवान् विष्णु की आँखों से सूर्यदेव
और मन से चन्द्रमा का उत्पन्न होना बताया गया है। श्रोत से वायु समुद्भव हुआ था
तथा भगवान विष्णु के मुख से अग्नि ने जन्म प्राप्त किया था । यह प्रतिसर्ग विष्णु
है । उसी भाँति दश दिशाएँ भी हुई थीं। पीछे सृष्टि की रचना करने के लिए चन्द्रमा
अग्नि नेत्र से अवतरित हुआ था। भगवान भुवनभास्कर कश्यप से समुत्पन्न हुए थे जो
भार्या के संयुत थे ।
बहुत से रुद्र
उत्पन्न हुए और चार प्रकार के भूतग्राम हुए थे I शृंगाल, वाराह और उष्ट्र रूप वाले प्लव,
गोमायु, गोमुख, रीछ मार्जर के मुख वाले थे तथा दूसरे सिंह और व्याघ्र के
मुख वाले थे। सभी अनेक प्रकार के शस्त्रों के धारण करने वाले थे तथा विभिन्न और
अनेकों रूप वाले थे एवं महाबल से युक्त थे । हे द्विज श्रेष्ठों! यह प्रतिसर्ग
आपको बतला दिया गया है। अब दैनन्दिन अर्थात दिनों दिन में होने वाली प्रलय को
कल्प शेष से आप लोग श्रवण कीजिए ।
॥
श्रीकालिकापुराण में सृष्टि-कथन सम्बन्धी छब्बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। २६ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 27
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