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चाणक्यनीति अध्याय १३
चाणक्यनीति अध्याय १३ - चाणक्य नीति
या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति त्रयोदशोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 13
चाणक्य नीति तेरहवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय १३
चाणक्य नीति
त्रयोदशोऽध्यायः
मुहूर्त्तं माप जीवेच्च नरः शुक्लेण
कर्मणा ।
न कल्पमापि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना
।।१।।
दोहा --
वरु नर जीवै मुहूर्त भर,
करिके शुचि सत्कर्म ।
नहिं भरि कल्पहु लोक दुहुँ,
करत विरोध अधर्म ॥1॥
अर्थ -- मनुष्य यदि उज्ज्वल कर्म
करके एक दिन भी ज़िन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है। इसके बदले इहलोक और परलोक इन
दोनों के विरुध्द कार्य करके कल्प भर जिवे तो वह जीना अच्छा नहीं है।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव
चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्त्तन्ते
विचक्षणाः ।।२।।
दोहा --
गत वस्तुहि सोचै नहीं,
गुनै न होनी हार ।
कार्य करहिं परवीन जन आय परे अनुसार
॥2॥
अर्थ -- जो बात बीत गयी उसके लिए
सोच न करो और न आगे होने वाली के ही लिए चिन्ता करो। समझदार लोग सामने की बात को
ही हल करने की चिन्ता करते हैं।
स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः
सत्पुरुषाः पिता ।
ज्ञातयः स्नान-पानाभ्यां वाक्यदानेन
पंडिताः ।।३।।
दोहा --
देव सत्पुरुष औ पिता,
करहिं सुभाव प्रसाद ।
स्नानपान लहि बन्धु सब,
पंडित पाय सुवाद ॥3॥
अर्थ -- देवता,
भलेमानुष और बाप ये तीन स्वभाव देखकर प्रसन्न होते हैं। भाई वृन्द
स्नान और पान से साथ वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते है।
आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या
निधनमेव च ।
पञ्चैतानि च सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव
देहिनः ।।४।।
दोहा --
आयुर्दल धन कर्म औ,
विद्या मरण गनाय ।
पाँचो रहते गर्भ में जीवन के रचि
जाय ॥4॥
अर्थ -- आयु,
कर्म, सम्पत्ति, विद्या
और मरण ये पाँच बातें तभी तै हो जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ
में ही रहता है।
अहो वत ! विचित्राणि चरितानि
महात्मनाम् ।
लक्ष्मी तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण
नमन्ति च ।।५।।
दोहा --
अचरज चरित विचित्र अति,
बडे जनन के आहि ।
जो तृण सम सम्पति मिले,
तासु भार नै जाहिं ॥5॥
अर्थ -- ओह! महात्माओं के चरित्र भी
विचित्र होते हैं। वैसे तो ये लक्ष्मी को तिनके की तरह समझते हैं और जब वह आ ही
जाती है तो इनके भार से दबकर नम्र हो जाते हैं।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो
दुःखस्य भाजनम् ।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा
वसेत्सुखम् ।।६।।
दोहा --
जाहि प्रीति भय ताहिंको,
प्रीति दुःख को पात्र ।
प्रीति मूल दु:ख त्यागि के,
बसै तबै सुख मात्र ॥6॥
अर्थ -- जिसके हृदय में स्नेह
(प्रीति) है, उसीको भय है। जिसके पास स्नेह
है, उसको दुःख है। जिसके हृदय में स्नेह है, उसी के पास तरह-तरह के दुःख रहते हैं, जो इसे त्याग
देता है वह सुख से रहता है।
अनागतविधाता च
प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा ।
द् वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो
विनश्यति ।।७।।
दोहा --
पहिलिहिं करत उपाय जो,
परेहु तुरत जेहि सुप्त ।
दुहुन बढत सुख मरत जो,
होनी गुणत अगुप्त ॥7॥
अर्थ -- जो मनुष्य भविष्य में
आनेवाली विपत्तिसे होशियार है और जिसकी बुध्दि समय पर काम कर जाती है ये दो मनुष्य
आनंद से आगे बढते जाते हैं। इनके विपरीत जो भाग्य में लिखा होगा वह होगा,
जो यह सोचकर बैठनेवाले हैं, इनका नाश निश्चित
है।
राज्ञधर्मणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः
समे समाः ।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा
प्रजाः ।।८।।
दोहा --
नृप धरमी धरमी प्रजा,
पाप पाप मति जान ।
सम्मत सम भूपति तथा,
परगट प्रजा पिछान ॥8॥
अर्थ -- राजा यदि धर्मात्मा होता तो
उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है, राजा पापी होता
है तो उसकी प्रजा भी पापी होती है, सम राजा होता है तो प्रजा
भी सम होती है। कहने का भाव यह कि सब राजा का ही अनुसरण करते है। जैसा राजा होगा,
उसकी प्रजा भी वैसी होगी।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं
धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संतुक्तो दीर्घजीवी न
संशयः ।।९।।
दोहा --
जीवन ही समुझै मरेउ,
मनुजहि धर्म विहीन ।
नहिं संशय निरजीव सो,
मरेउ धर्म जेहि कीन ॥9॥
अर्थ -- धर्मविहीन मनुष्य को मैं
जीते मुर्दे की तरह मानता हुँ। जो धर्मात्मा था, पर मर गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न
विद्यते ।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्
।।१०।।
दोहा --
धर्म, अर्थ, अरु, मोक्ष, न एको है जासु ।
अजाकंठ कुचके सरिस,
व्यर्थ जन्म है तासु ॥10॥
अर्थ -- धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक
पदार्थ भी जिसके पास नहीं है, तो बकरी के गले में लटकनेवाले स्तनों
के समान जन्म ही निरर्थक है।
दह्यमानाः सुतीब्रेण नीचाः
परयशोऽग्निना ।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां
प्रकुर्वते ।।११।।
दोहा --
और अगिन यश दुसह सो,
जरि जरि दुर्जन नीच ।
आप न तैसी करि सकै,
तब तिहिं निन्दहिं बीच ॥11॥
अर्थ -- नीच प्रकृति के लोग औरों के
यशरूपी अग्नि से जलते रहते हैं उस पद तक तो पहुँचने की सामर्थ्य उनमें रहती नहीं।
इसलिए वे उसकी निन्दा करने लग जाते हैं।
बन्धाय विषयासङ्गं मुक्त्यै
निर्विषयं मनः ।
मन एव मनुष्याणां कारणं
बन्धमोक्षयोः ।।१२।।
दोहा --
विषय संग परिबन्ध है,
विषय हीन निर्वाह ।
बंध मोक्ष इन दुहुन को कारण मनै न
आन ॥12॥
अर्थ -- विषयों में मन को,
लगाना ही बन्धन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है। भाव यह कि
मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है।
देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र
समाधयः ।।१३।।
दोहा --
ब्रह्मज्ञान सो देह को,
विगत भये अभिमान ।
जहाँ जहाँ मन जाता है,
तहाँ समाधिहिं जान ॥13॥
अर्थ -- परमात्माज्ञान से मनुष्य का
जब देहाभिमान गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन जाता है तो उसके लिए सर्वत्र
समाधि ही है।
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्
।
दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात्
संतोषमाश्रयेत् ।।१४।।
दोहा --
इच्छित सब सुख केहि मिलत,
जब सब दैवाधीन ।
यहि ते संतोषहिं शरण,
चहै चतुर कहँ कीन ॥14॥
अर्थ -- अपने मन के अनुसार सुख किसे
मिलता है। क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है। इसीलिए जितना सुख प्राप्त हो
जाय,
उतने में ही सन्तुष्ट रहो।
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति
मातरम् ।
तथा यच्च कृतं कर्म
कर्तारमनुगच्छाति ।।१५।।
दोहा --
जैसे धेनु हज़ार में,
वत्स जाय लखि मात ।
तैसे ही कीन्हो करम,
करतहि के ढिग जात ॥15॥
अर्थ -- जैसे हजारों गौओं में बछडा
अपनी ही माँ के पास जाता है। उसा तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्म (भाग्य) अपने स्वामी
के ही पास जा पहुँचता है।
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम्
।
जनो दहति संसर्गाद्वनं
संगविवर्जनात् ।।१६।।
दोहा --
अनथिर कारज ते न सुख,
जन औ वन दुहुँ माहिं ।
जन तेहि दाहै सङ्ग ते,
वन असंग ते दाहि ॥16॥
अर्थ -- जिसका कार्य अव्यवस्थित
रहता है,
उसे न समाज में सुख है, न वन में। समाज में वह
संसर्ग से दुःखी रहता है तो वन में संसर्ग त्याग से दुखी रहेगा।
यत् खनित्वा खनित्रेण भुतले वारि
विन्दति ।
तथा गुरुगतां विद्या
शुश्रुषुरधिगच्छति ।।१७।।
दोहा --
जिमि खोदत ही ते मिले,
भूतल के मधि वारि ।
तैसेहि सेवा के किये,
गुरु विद्या मिलि धारि ॥17॥
अर्थ -- जैसे फावडे से खोदने पर
पृथ्वी से जल निकल आता है। उसी तरह किसी गुरु के पास विद्यमान विद्या उसकी सेवा
करने से प्राप्त हो जाती है।
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुध्दिः कर्मानुसारिणी
।
तथाऽपि सुधियश्चार्या सुविचार्यैव
कुर्वते ।।१८।।
दोहा --
फलासिधि कर्म अधीन है,
बुध्दि कर्म अनुसार ।
तौहू सुमति महान् जन,
करम करहिं सुविचार ॥18॥
अर्थ -- यद्यपि प्रत्येक मनुष्य को
कर्मानुसार फल प्राप्त होता है और बुध्दि भी कर्मानुसार ही बनती है। फिर भी
बुध्दिमान् लोग अच्छी तरह समझ-बूझ कर ही कोई काम करते हैं।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं
नाऽभिवन्दते ।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा
चांडालेष्वभिजायते ।।१९।।
दोहा --
एक अक्षरदातुहु गुरुहि,
जो नर बन्दे नाहिं ।
जन्म सैकडों श्वान ह्वै,
जनै चण्डालन माहिं ॥19॥
अर्थ -- एक अक्षर देनेवाले को भी जो
मनुष्य अपना गुरु नहीं मानता तो वह सैकडों बार कुत्ते की योनि में रह-रह कर अन्त
में चाण्डाल होता है।
युगान्ते प्रचलेन्मेरुः कल्पान्ते
सप्त सागराः ।
साधवः प्रतिपन्नार्थान्न चलन्ति
कदाचन ।।२०।।
दोहा --
सात सिन्धु कल्पान्त चलु,
मेरु चलै युग अन्त ।
परे प्रयोजन ते कबहुँ,
नहिं चलते हैं सन्त ॥20॥
अर्थ -- युग का अन्त हो जाने पर
सुमेरु पर्वत डिग जाता है। कल्प का अन्त होने पर सातो सागर भी चंचल हो उठते हैं,
पर सज्जन लोग स्वीकार किये हुए मार्ग से विचलित नहीं होते।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि अन्नमापः
सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डॆषु रत्नसंख्या
विधीयते ।।२१।।
म० छ० --
अन्न बारि चारु बोल तीनि रत्न भू
अमोल ।
मूढ लोग के पषान टूक रत्न के पषान ॥21॥
अर्थ -- सच पूछो तो पृथ्वी भर में
तीन ही रत्न हैं - अन्न, जल और मीठ-मीठी
बातें। लेकिन बेवकूफ लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न मानते हैं।
इति चाणक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥13॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 14
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