चाणक्यनीति अध्याय १०
चाणक्यनीति अध्याय १०- चाणक्य नीति
या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति दशमोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 10
चाणक्यनीति दसवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय १०
चाणक्य नीति
दशमोऽध्यायः
अथ वृध्द चाणक्यस्योत्तरार्ध्दम् ।
धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः
।
विद्यारत्नेन हीनो यः स हीनः
सर्ववस्तुषु ।।१।।
दोहा --
हीन नहीं धन हीन है,
धन थिर नाहिं प्रवीन ।
हीन न और बखानिये,
एइद्याहीन सुदीन ॥1॥
अर्थ -- धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा
जा सकता वही वास्तव में धनी है। किन्तु जो मनुष्य विद्यारूपी रत्न से हीन है,
वह सभी वस्तुओं से हीन है।
दृष्टिपुतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं
पिबेज्जलम् ।
शास्त्रपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं
समाचरेत् ।।२।।
दोहा --
दृष्टिसोधि पग धरिय मग,
पीजिय जल पट रोधि ।
शास्त्रशोधि बोलिय बचन,
करिय काज मन शोधि ॥2॥
अर्थ -- आँख से अच्छी तरह देख-भाल
कर पैर धरे, कपडे से छान कर जल पिये,
शास्त्रसम्मत बात कहे और मन को हमेशा पवित्र रखे।
सुखार्थी चेत्यजेद्विद्यां
विद्यार्थी चेत्त्यजेत्सुखम् ।
सुखार्थीनः कुतो विद्या सुखं
विद्यार्थिनः कुतः ।।३।।
दोहा --
सुख चाहै विद्या तजै,
सुख तजि विद्या चाह ।
अर्थिहि को विद्या कहाँ,
विद्यार्थिहिं सुख काह ॥3॥
अर्थ -- जो मनुष्य विषय सुख चाहता
हो,
वह विद्या के पास न जाय। जो विद्या का इच्छुक हो, वह सुख छोडे। सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है।
कवयः किं न पश्यन्ति कि न कुर्वन्ति
योषितः ।
मद्यपाः किं न जल्पन्ति किंन
खादन्ति वायसाः ।।४।।
दोहा --
काह न जाने सुकवि जन,
करै काह नहिं नारि ।
मद्यप काह न बकि सकै,
काग खाहिं केहि वारि ॥4॥
अर्थ -- कवि क्या वस्तु नहीं देख
पाते ?
स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ? शराबी क्या
नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ?
रंक करोति राजानं राजानं रंकमेवच ।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं
विधिः ।।५।।
छन्द --
बनवै अति रंकन भूमिपती,
अरु भूमिपतीनहुँ रंक अति ।
धनिकै धनहीन फिरै करती,
अधनीन धनी विधिकेरि गती ॥5॥
अर्थ -- विधाता कड्गाल को राजा,
राजा को कड्गाल, धनी को निर्धन और निर्धन को
धनी बनाता ही रहता है।
लुब्धानां याचकः शत्रुमूर्खाणां
बोधको रिपुः ।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चौराणां
चन्द्रमा रिपुः ।।६।।
दोहा --
याचक रिपु लोभीन के,
मूढनि जो शिषदान ।
जार तियन निज पति कह्यो,
चोरन शशि रिपु जान ॥6॥
अर्थ -- लोभी का शत्रु है याचक,
मूर्ख का शत्रु है उपदेश देनेवाला, कुलटा
स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा।
येषां न विद्या न तपो न दानं
न चापि शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।७।।
दोहा --
धर्मशील गुण नाहिं जेहिं,
नहिं विद्या तप दान ।
मनुज रूप भुवि भार ते,
विचरत मृग कर जान ॥7॥
अर्थ -- जिस मनुष्य में न विद्या है,
न तप है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य
पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन-यापन करते हैं।
अन्तः सारविहीनानामुपदेशो न जायते ।
मलयाचलसंसर्गान्न वेणुश्चन्दनायते
।।८।।
सोरठा --
शून्य हृदय उपदेश,
नाहिं लगै कैसो करिय ।
बसै मलय गिरि देश,
तऊ बांस में बास नहिं ॥8॥
अर्थ -- जिनकी अन्तरात्मा में कुछ
भी असर नहीं करता। मलयाचल को किसी का उपदेश कुछ असर नहीं करता। मलयाचल के संसर्ग
से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं, पर बाँस चन्दन
नहीं होता।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं
तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं
करिष्यति ।।९।।
दोहा --
स्वाभाविक नहिं बुध्दि जेहि,
ताहि शास्त्र करु काह ।
जो नर नयनविहीन हैं,
दर्पण से करु काह ॥9॥
अर्थ -- जिसके पास स्वयं बुध्दि
नहीं है,
उसे क्या शास्त्र सिखा देगा। जिसकी दोनों आँखे फूट गई हों, क्या उसे शीशा दिखा देगा ?
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि
भूतले ।
अपानं शतधा धौतं न
श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ।।१०।।
दोहा --
दुर्जन को सज्जन करन,
भूतल नहीं उपाय ।
हो अपान इन्द्रिय न शचि,
सौ सौ धोयो जाय ॥10॥
अर्थ -- इस पृथ्वीतल में दुर्जन को
सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं। अपान प्रदेश को चाहे सैकडों बार क्यों न धोया
जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता।
आप्तद्वेषाद्भवैन्मृत्युः
परद्वेषाध्दनक्षयः ।
राजद्वेषाद्भवेन्नशो
ब्रह्मद्वेषात्कुलक्षयः ।।११।।
दोहा --
सन्त विरोध ते मृत्यु निज,
धन क्षय करि पर द्वेष ।
राजद्वेष से नसत है,
कुल क्षय कर द्विज द्वेष ॥11॥
अर्थ -- बडे बूढो से द्वेष करने पर
मृत्यु होती है। शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है। राजा से द्वेष करने पर
सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं
द्रुमालयं पक्वफलाम्बुसेवनम् ।
तृणेषु शय्या शतजीर्णबल्कलं
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ।।१२।।
छन्द --
गज बाघ सेवित वृक्ष धन वन माहि बरु
रहिबो करै ।
अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु
लहिबो करै ॥
शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु,
चाल यह गहिबो करै ।
निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं,
नहिं जीवनो चहिबो करै ॥12॥
अर्थ -- बाघ और बडॆ-बडॆ हाथियों के
झुण्ड जिस वन में रहते हो उसमें रहना पडे, निवास
करके पके फल तथा जल पर जीवनयापन करना पड जाय, घास फूस पर
सोना पडे और सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे तो अच्छा पर अपनी विरादरी में दरिद्र
होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है।
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या
वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मात् मूलं यत्नो रक्षणीयम्
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्
।।१३।।
छ्न्द --
विप्र वृक्ष हैं मूल सन्ध्या वेद
शाखा जानिये ।
धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल को
नहिं नाशिये ॥
जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख
पात न फूटिये ।
यही नीति सुनीति है की मल रक्षा
कीजिये ॥13॥
अर्थ -- ब्राह्मण वृक्ष के समान है,
उसकी जड है संध्या, वेद है शाखा और कर्म पत्ते
हैं। इसलिए मूल (सन्ध्या) की यत्न पूर्वक रक्षा करो। क्योंकी जब जड ही कट जायगी तो
न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा।
माता च कमला देवी पिता देवो
जनार्दनः ।
बान्धवा विष्णु भक्ताश्च स्वदेशे
भुवनत्रयम् ।।१४।।
दोहा --
लक्ष्मी देवी मातु हैं,
पिता विष्णु सर्वेश ।
कृष्णभक्त बन्धू सभी,
तीन भुवन निज देश ॥14॥
अर्थ -- भक्त मनुष्य की माता हैं
लक्ष्मीजी, विष्णु भगवान पिता हैं, विष्णु के भक्त भाई बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है।
एकवृक्षे समारूढा नानावर्णा
बिहंगमाः ।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र
परिवेदना ? ।।१५।।
दोहा --
बहु विधि पक्षी एक तरु,
जो बैठे निशि आय ।
भोर दशो दिशि उडि चले,
कह कोही पछिताय ॥15॥
अर्थ -- विविध वर्ण (रंग) के पक्षी
एक ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं और दशों दिशाओं में उड जाते हैं। यही दशा
मनुष्यॊं की भी है, फिर इसके लिये
सन्ताप करने की क्या ज़रूरत ?
बुध्दिर्यस्य बलं तस्य
निर्बुध्दैश्च कुतो बलम् ।
वने हस्ती मदोन्मत्तः शशकेन
निपातितः ।।१६।।
दोहा --
बुध्दि जासु है सो बली,
निर्बुध्दिहि बल नाहिं ।
अति बल हाथीहिं स्यारलघु,
चतुर हतेसि बन माहिं ॥16॥
अर्थ -- जिसके पास बुध्दि है उसी के
पास बल है, जिसके बुध्दि ही नहीं उसके बल
कहाँ से होगा। एक जंगल में एक बुध्दिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिविश्वन्भरो
गीयते ।
नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं
निःसरेत् ।।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते
लक्ष्मीपते केवलम् ।
त्वत्पदाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया
नीयते ।।१७।।
छन्द --
है नाम हरिको पालक मन जीवन शंका
क्यों करनी ।
नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय निरस
तक्यों जननी ॥
यही जानकर बार है यदुपति लक्ष्मीपते
तेरे ।
चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ
सदा मेरे ॥17॥
अर्थ -- यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते
हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता?
यदि वे विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए
माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता। बार-बार इसी बात को सोचकर हे यदुपते! हे
लक्ष्मीपते! मैं केवल आप के चरणकमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ।
गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुध्दि-
स्तथापि भाषान्तरलालुपोऽहम् ।
यथा सुधायाममरिषु सत्यां
स्वर्गड्गनानामधरासवे रुचिः ।।१८।।
सोरठा --
देववानि बस बुध्दि,
तऊ और भाषा चहौं ।
यदपि सुधा सुर देश,
चहैं अवस सुर अधर रस ॥18॥
अर्थ -- यद्यपि मैं देववाणी में
विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का
लोभ है ही। जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को
देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है।
अनाद्दशगुणं पिस्टं पिस्टाद्दशगुणं
पयः ।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं
घृतम् ।।१९।।
दोहा --
चूर्ण दश गुणो अन्न ते,
ता दश गुण पय जान ।
पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत
मान ॥19॥
अर्थ -- खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना
बल रहता है पिसान में। पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में। दूध से अठगुना बल रहता
है मांस से भी दसगुना बल है घी में।
शाकेन रोगा वर्ध्दते पयसो वर्ध्दते
तनुः ।
घृतेन वर्ध्दते वीर्यं मांसान्मासं
प्रवर्ध्दते ।।२०।।
दोहा --
राग बढत है शाकते,
पय से बढत शरीर ।
घृत खाये बीरज बढे,
मांस मांस गम्भीर ॥20॥
अर्थ -- शाक से रोग,
दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की
वृध्दि होती है।
इति चाणक्ये दशमोऽध्यायः ॥10॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 11
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