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अग्निरुवाच
प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो
ब्रह्माणस्तु सः।
तन्मात्राणां द्वितीयस्तु भूतसर्गो
हि स स्मृतः ।। १ ।।
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः
स्मृतः।
इत्येष प्राकृतः सर्गः सम्भूतो
बुद्धिपूर्वकः ।। २ ।।
मुख्यः सर्गस्चतुर्थस्तु मुख्या वै
स्थावराः स्मृताः।
तिर्यक्स्त्रोतास्तु यः प्रोक्तस्तैर्य्यग्योन्यस्ततः
स्मृतः ।। ३ ।।
तथोद्र्ध्वस्त्रोतसां षष्ठो
देवसर्गस्तु स स्मृतः।
ततोर्वाकस्त्रोतसां सर्गः सप्तमः स
तु मानुषः ।। ४ ।।
अष्टमोनुग्रहः सर्गः
सात्त्विकस्तामसश्च यः।
पञ्चैते वैकृताः सर्गाः प्राकृतास्च
त्रयः स्मृताः ।। ५ ।।
प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो
नवमस्तथा।
ब्रह्मतो नव सर्गास्तु जगतो
मूलहेतवः ।। ६ ।।
ख्यात्याद्या दक्षकन्यास्तु
भृग्वाद्या उपयेमिरे।
नित्यो नैमित्तिकः सर्गस्त्रिधा
प्रकथितो जनैः ।। ७ ।।
प्राकृता दैनन्दिनी
स्यादन्तरप्रलयादन्।
जायते यत्रानुदिनं नित्यसर्गो हि
सम्मतः ।। ८ ।।
अग्निदेव कहते हैं - मुने !
(प्रकृति से) पहले महत्तत्त्व की सृष्टि हुई, इसे
ब्राह्मसर्ग समझना चाहिये। दूसरी तन्मात्राओं की सृष्टि हुई, इसे भूतसर्ग कहा गया है। तीसरी वैकारिक सृष्टि है, इसे
ऐन्द्रियकसर्ग कहते हैं। इस प्रकार यह बुद्धिपूर्वक प्रकट हुआ प्राकृतसर्ग तीन
प्रकार का है। चौथे प्रकार की सृष्टि को 'मुख्यसर्ग' कहते हैं। 'मुख्य' नाम
है-स्थावरों (वृक्ष-पर्वत आदि )-का। जो 'तिर्यक्स्त्रोता'
कहा गया है, अर्थात् जिससे पशु-पक्षियों की
उत्पत्ति हुई है, वह तैर्यग्योन्य सर्ग पाँचवाँ है। ऊर्ध्व
स्रोताओं की सृष्टि को देव सर्ग कहते हैं, यह छठा सर्ग है।
इसके पश्चात् अर्वाक्स्त्रोताओं की सृष्टि हुई - यही सातवाँ मानव-सर्ग है। आठवाँ
अनुग्रह सर्ग है, जो सात्त्विक और तामस भी है। ये अन्तवाले
पाँच 'वैकृतसर्ग' हैं और आरम्भ के तीन 'प्राकृतसर्ग' कहे गये हैं। प्राकृत और वैकृत सर्ग तथा
नवें प्रकार का कौमार-सर्ग- ये कुल नौ सर्ग ब्रह्माजी से प्रकट हुए, जो इस जगत्के मूल कारण हैं। ख्याति आदि दक्ष कन्याओं से भृगु आदि
महर्षियों ने ब्याह किया। कुछ लोग नित्य, नैमित्तिक और
प्राकृत- इस भेद से तीन प्रकार की सृष्टि मानते हैं। जो प्रतिदिन होनेवाले
अवान्तरप्रलय से प्रतिदिन जन्म लेते रहते हैं, वह 'नित्यसर्ग' कहा गया है ॥ १-८ ॥
देवौ धाताविधातारौ भृगोः
ख्यातिरसूयत।
श्रियञ्च पत्नी विष्णोर्या स्तुता
शक्रेण वृद्धये ।। ९ ।।
धातुर्विधातुर्द्वौ पुत्रौ क्रमात्
प्राणो मृकण्डुकः।
मार्कण्डेयो मृकण्डोश्च जज्ञे वेदशिरास्ततः
।। १० ।।
पौर्णमासश्च सम्भूत्यां मरीचेरभवत्
सुतः।
स्मृत्यामङ्गिरसः पुत्राः सिनीवाली
कुहूस्तथा ।। ११ ।।
राकाश्चानुमतिश्चात्रेरनसूयाप्यजीजनत्।
सोमं दुर्वाससं पुत्रं
दत्तात्रेयञ्च योगिनम् ।। १२ ।।
प्रीत्यां पुलस्त्यभार्यायां
दत्तोलिस्तत्सुतोभवत्।
क्षमायां पुलहाज्जाताः सहिष्णुः
कर्मपादिकाः ।। १३ ।।
सन्नत्याञ्च क्रतोरासन् बालिखिल्या
महौजसः।
अङ्गुष्ठपर्वमात्रास्ते ये हि
षष्टिसहस्त्रिणः ।। १४ ।।
उर्ज्जायाञ्च वशिष्ठाश्च राजा
गात्रोर्ध्वबाहुकः ।
सवनश्चालघुः सुक्रः सुतपाः सप्त
चर्षयः ।। १५ ।।
भृगु से उनकी पत्नी ख्याति ने धाता
विधाता नामक दो देवताओं को जन्म दिया तथा लक्ष्मी नाम की कन्या भी उत्पन्न की,
जो भगवान् विष्णु की पत्नी हुई। इन्द्र ने अपने अभ्युदय के लिये
इन्हीं का स्तवन किया था। धाता और विधाता के क्रमशः प्राण और मृकण्डु नामक दो
पुत्र हुए। मृकण्डु से मार्कण्डेय का जन्म हुआ। उनसे वेदशिरा उत्पन्न हुए। मरीचि के
सम्भूति के गर्भ से पौर्णमास नामक पुत्र हुआ और अङ्गिरा के स्मृति के गर्भ से अनेक
पुत्र तथा सिनीवाली, कुहू, राका और
अनुमति नामक चार कन्याएँ हुई। अत्रि के अंश से अनसूया ने सोम, दुर्वासा और दत्तात्रेय नामक पुत्रों को जन्म दिया। इनमें दत्तात्रेय
महान् योगी थे। पुलस्त्य मुनि की पत्नी प्रीति के गर्भ से दत्तोलि नामक पुत्र
उत्पन्न हुआ । पुलह से क्षमा के गर्भ से सहिष्णु एवं सर्वपादिक• का जन्म हुआ। क्रतु के सन्नति से
बालखिल्य नामक साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए, जो अँगूठे के
पोरुओं के बराबर और महान् तेजस्वी थे। वसिष्ठ से ऊर्जा के गर्भ से राजा, गात्र, ऊर्ध्वबाहु, सवन,
अनघ, शुक्र और सुतपाये सात ऋषि प्रकट हुए । ९
- १५ ॥
• कहाँ-कहीं कर्मपादिक
नाम मिलता है।
पावकः पवमानोभूच्छुचिः
स्वाहाग्निजोभवत्।
अग्निस्वात्ता वर्हिषदोऽनग्नयः
साग्नयो ह्यजात् ।। १६ ।।
पितृभ्यश्च स्वधायाञ्च मेना
वैधारिणी सुते ।
हिंसाभार्या त्वधर्मस्य तयोर्जज्ञे
तथानृतम् ।। १७ ।।
कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयन्नरकमेव
च।
माया च वेदना चैव
मिथुनन्त्विदमेतयोः ।। १८ ।।
तयोर्जज्ञेथ वै मायां मृत्युं
भूतापहारिणम्।
वेदना च सुतं चापि दुः खं जज्ञेथ
रौरवात् ।। १९ ।।
मृत्योर्व्याधिजराशोकतृष्णाक्रोधाश्च
जज्ञिरे।
ब्रह्मणश्च रुदन् जातो
रोदनाद्रुद्रनामकः ।। २० ।।
भवं शर्वमथेशानं तथा पशुपतिं द्विज।
भीममुग्रं महादेवमुवाच स पितामहः ।।
२१ ।।
दक्षकोपाच्च तद्भार्या देहन्तत्याज
सा सती।
हिमवद्दुहिता भूत्वा पत्नी
शम्भोरभूत् पुनः ।। २२ ।।
ऋषिभ्यो नारदाद्युक्ताः पूजाः
स्नानादिपूर्विकाः।
स्वायम्भुवाद्यास्ताः कृत्वा
विष्णवादेर्भुक्तिमुक्तिदाः ।। २३ ।।
स्वाहा एवं अग्नि से पावक,
पवमान और शुचि नामक पुत्र हुए। इसी प्रकार अज से अग्निष्वात्त,
बर्हिषद्, अनग्नि एवं साग्नि पितर हुए। पितरों
से स्वधा के गर्भ से मेना और वैधारिणी नामक दो कन्याएँ हुई। अधर्म की पत्नी हिंसा
हुई; उन दोनों से अमृत नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्या की
उत्पत्ति हुई। (इन दोनों ने परस्पर विवाह किया और इनसे भय तथा नरक का जन्म हुआ।
क्रमशः माया और वेदना इनकी पत्नियाँ हुई। इनमें से माया ने (भय के सम्पर्क से)
समस्त प्राणियों के प्राण लेनेवाले मृत्यु को जन्म दिया और वेदना ने नरक के संयोग से
दुःख नामक पुत्र उत्पन्न किया। इसके पश्चात् मृत्यु से व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की
उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी से एक रोता हुआ पुत्र हुआ, जो रुदन
करने के कारण 'रुद्र' नाम से प्रसिद्ध
हुआ। तथा हे द्विज ! उन पितामह (ब्रह्माजी) ने उसे भव, शर्व,
ईशान, पशुपति, भीम,
उग्र और महादेव आदि नामों से पुकारा। रुद्र की पत्नी सती ने अपने
पिता दक्ष पर कोप करने के कारण देहत्याग किया और हिमवान्की कन्या रूप में प्रकट
होकर पुनः वे शंकरजी की ही धर्मपत्नी हुई। किसी समय नारदजी ने ऋषियों के प्रति
विष्णु आदि देवताओं की पूजा का विधान बतलाया था। स्नानादि-पूर्वक की जानेवाली उन
पूजाओं का विधिवत् अनुष्ठान करके स्वायम्भुव मनु आदि ने भोग और मोक्ष- दोनों
प्राप्त किये थे । १६- २३ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
जदत्सर्गवर्णनं नाम विंशतितमोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'जगत् सृष्टि का वर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ २० ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 21
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