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या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति षोडशोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 16
चाणक्य नीति सोलहवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय १६
चाणक्य नीति
अथ षोडशोऽध्यायः
न ध्यातं पदमीश्वरस्य
विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धमोऽपि
नोपार्जितः ।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितम्,
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा
वयम् ॥१॥
जो प्राणी इस संसार के मोहमाया जाल
में फंसे हुए हैं और जो इस जाल से बाहर निकलने के लिए न तो वेदों का पाठ करते,
न ईश्वर की उपासना करते हैं। न ही अपने लिए स्वर्ग के द्वार खोलने
के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह करते, न स्वप्न में स्त्री के
सुंदर स्तनों व जंघाओं का आलिंगन करते, वे लोग माता के यौवन
रूपी वृक्ष को काटने वाले कुल्हाड़ी रूप होते हैं ॥ १ ॥
जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं
सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तंयन्त्यन्यं न
स्त्रीणामेकतो रतिः ॥ २ ॥
(वेश्या स्त्री)भाषण दूसरे के साथ
करती हैं,
दूसरे को बिलास से देखती हैं और हृदय में दूसरे ही की चिन्ता करती
है स्त्रियों की प्रीति एक में नहीं रहती ॥ २ ॥
यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि
कामिनी।
स तस्या वशगो भूत्वा नृत्येत्
क्रीडा-शकुन्तवत् ॥ ३ ॥
जो मूर्ख अविवेक से,
समझता है कि, यह कामिनी मेरे ऊपर प्रेम करती
है वह उसके वश होकर खेल के पक्षी के समान नाचा करता है ॥ ३ ॥
कोऽर्थानं प्राप्य न गर्वितो
विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः
को नाम राज्ञां प्रियः।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत्कोऽर्थी
गतो गौरवं
को वा दुर्जनवागुरासु पतितः क्षेमेण
यातः पथि ॥ ४ ॥
ऐश्वर्य को पाकर किसे अभिमान नहीं
हुआ,
किस विषयलोलुप की विपत्ति नष्ट नहीं हुई? इस
दुनिया में नारी के रूप से किसका मन बेचैन नहीं हुआ? सत्य
में राजा का प्रिय कौन हुआ? मृत्यु के वश में आज तक कौन नहीं
हुआ? किस याचक ने गौरव पाया? पापी के
फंदे में फंसकर इस संसार के मार्ग में कुशलता से कौन वापस आया और कौन गया? ॥ १ ॥
न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न
श्रूयते हेममयः कुरङ्गः।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य
विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥ ५ ॥
सोने की मृगी न पहिले किसी ने रची,
न देखी और न किसी को सुन पड़ती है। तो भी रघुनंदन की तृष्णा उस पर
हुई। विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है ॥ ५ ॥
गुणैरुत्तमतां याति
नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं
गरुडायते ॥६ ॥
प्राणी गुण से उत्तमता पाता है ऊंचे
आसन पर बैठकर नहीं। कोठों के ऊपर के भाग में बैठा कौवा क्या गरुड़ हो जाता है ॥ ६
॥
गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न
महत्योऽपि सम्पदः।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो
निष्कलङ्को यथा कृशः ॥७॥
सब स्थानों में गुण पूजे जाते हैं
बड़ी संपति नहीं, पूर्णिमा का पूर्ण भी
चंद्रमा क्या वैसा वंदित होता है जैसा बिना कलंक के द्वितीया का दुर्बल भी ॥७॥
परैरुक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि
गुणी भवेत्।
इंद्रोऽपि लघुतां याति स्वयं
प्रख्यापितैर्गुणैः ॥८॥
जिसके गुण को दूसरे लोग वर्णन करते
हैं वह निर्गुण भी हो तो गुणवान् कहा जाता है। इन्द्र भी यदि अपने गुणों की आप
प्रशंसा करे तो उससे लघुता पाता है ॥ ८॥
विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति
मनोज्ञताम् ।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ॥९॥
विवेकी को पाकर गुण सुंदरता पाते
हैं जब रत्न सोने में जड़ा जाता है तब अत्यंत सुंदर दीख पड़ता है ॥९॥
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको
निराश्रयः।
अनर्थ्यमपि माणिक्यं
हेमाश्रयमपेक्षते ॥१०॥
गुणवान पुरुष यदि परमात्मा के समान
हो तो भी अकेला होने पर दुःख उठाता है। जैसे बहुत कीमती हीरा भी सोने में जड़े
जाने का इंतजार करता है। इसी प्रकार उस गुणवान पुरुष को भी किसी न किसी सहारे की
तलाश रहती है॥ १० ॥
अतिक्लेशेन ये चार्था
धर्मस्यातिक्रमेण तु ।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा
भवन्तु मे ॥ ११ ॥
जो भी धन दूसरों को दुःख पहुंचाकर,
धर्म का उल्लंघन करके कमाया जाता है। ऐसे धन को कभी भी स्वीकार न
करें। यह पाप का धन आपको भी पापी बना देगा ॥११॥
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या
वधूरिव केवला ।
या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि
भुज्यते ॥१२॥
उस धन का क्या लाभ जो कुलवधू की
भांति केवल एक ही मनुष्य के उपयोग के लिए हो। धन का असली आनन्द तो वही होता है जो
की वेश्या की भांति सबको आनन्द दे ॥ १२॥
धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु
चाहारकर्मसु ।
अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता
यास्यन्ति यान्ति च ॥१३॥
धन, दैनिक जीवन, नारी सेवन और विविध प्रकार के अन्न सेवन
के विषयों में सारे प्राणी प्यासे रहकर ही चले गए, चले
जाएंगे और चले जाते हैं ॥ १३ ॥
क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोम
बलिक्रियाः।
न क्षीयते पात्रदानमभयं
सर्वदेहिनाम् ॥ १४ ॥
सब दान, यज्ञ, होम, बलि ये सब नष्ट हो जाते हैं सत्पात्र को दान और सब जीवों को अभय दान ये क्षीण नहीं होते॥१४॥
तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च
याचकः ।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं
याचयिष्यति ॥ १५ ॥
इस संसार में तिनके को सबसे हल्का
माना जाता है। किन्तु तिनके से भी हल्की रुई होती है और रुई से भी हल्का याचक होता
है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि याचक रुई से भी अधिक हल्का होता है तो उसे हवा
उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती ? इसका उत्तर यह
है कि यह याचक मुझसे भी कुछ न मांग बैठे। इसी कारण वायु उसे उड़ाकर नहीं ले जाती ॥
१५ ॥
वरं प्राणपरित्यागो मानभङ्गे न
जीवनात् ।
प्राणत्यागे क्षणं दुःखं मानभङ्ग
दिने दिने ॥ १६ ॥
मानभंगपूर्वक जीने से प्राण का
त्याग श्रेष्ठ है प्राण त्याग के समय क्षणभर दुःख होता है मान के नाश होने पर दिन
दिन ॥ १६ ॥
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति
जन्तवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने किं
दरिद्रता ॥ १७ ॥
जो लोग मीठा बोलते हैं,
उन वाणी में प्यार होता है। मीठा एवं मधुर बोलने से तो सभी प्राणी
खुश होते हैं। इसलिए कभी भी कड़वा न बोले, कभी भी क्रोध भरे बोल
न बोलें, मीठा बोलने से तो प्यार ही प्यार मिलता है ॥ १७ ॥
संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे
।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सुजने
जने ॥ १८ ॥
यह संसार एक विष वृक्ष है। इस पर दो
ही प्रकार के फल अमृत के समान लगते हैं। पहला मधुर वचन व दूसरा सज्जनों की संगति ।
अर्थात मधुरभाषी व्यक्ति शत्रु को भी वशीभूत कर सकता है और जो सज्जन पुरुषों की
संगति करता है उसका निश्चय ही कल्याण होता है ॥ १८ ॥
बहुजन्मसुचाभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः
।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्ते
पुनः ॥ १९
जो जन्म जन्म दान,
पढना, तप, इनका अभ्यास
किया जाता है उस अभ्यास के योग से देह का अभ्यास फिर फिर करता है ॥ १९ ॥
पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तगतं
यद्धनम् ।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या
न तद्धनम् ॥ २० ॥
पुस्तकों में लिपिबद्ध विद्या और
पराये हाथों में गया धन आवश्यकता पड़ने पर काम नहीं आते । धन वही होता है जो गांठ
का हो और विद्या वही है जिसे जीवन में व्यवहृत किया जाए॥ २० ॥
इति चाणक्ये षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 17
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