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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय १४

अग्निपुराण अध्याय १४      

अग्निपुराण अध्याय १४ में कौरव और पाण्डवों का युद्ध तथा उसका परिणाम का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १४

अग्निपुराणम् अध्यायः १४      

Agni puran chapter 14

अग्निपुराण चौदहवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १४      

अग्निपुराण अध्याय १४ - कुरुपाण्डवसङ्‌ग्रामवर्णनम्

अग्निरुवाच

यौधिष्ठिरी दौर्योधनी कुरुक्षेत्रं ययौ चमूः।

भीष्मद्रोणादिकान् हृष्ट्वा नायुध्यत गुरुनिति ।। १ ।।

पार्थं ह्युवाच भगवान्नशोच्या भीष्ममुख्यकाः।

शरीराणि विनाशीनि न शरीरी विनश्यति ।। २ ।।

अयमात्मा परं ब्रह्म अहं ब्रह्मास्मि विद्धि तम् ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो योगी राजधर्म्मं प्रपालय ।। ३ ।।

कृष्णोक्तोथार्जुनोऽयुध्यद्रथस्थो वाद्यशब्दवान्।

भीष्मः सेनापतिरभूदादौ दौर्योधने बले ।। ४ ।।

पाण्डवानां शिखण्डी च तयोर्युद्धं बभूव ह।

धार्त्तराष्ट्राः पाण्डवांश्च जघ्नुर्युद्धे सभीष्मकाः ।। ५ ।।

धार्त्तराष्ट्रान् शिखण्ड्याद्याः पाण्डवा जघ्नुराहेवे।

देवासुरसमं युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ।। ६ ।।

बभूव स्वः स्थदेवानां पश्यतां प्रीतिबर्द्धनम्।

भीष्मोस्त्रैः पाण्डवं सैन्यं दशाहोभिर्न्यपातयत् ।। ७ ।।

अग्निदेव कहते हैं- युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा -"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है; किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।" श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शङ्ख ध्वनि की । दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति शिखण्डी थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्म सहित कौरवपक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव पक्ष के वीर कौरव सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव सेना का वह युद्ध, देवासुर संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखनेवाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया ॥ १-७ ॥

दशमे ह्यर्जुनौ बाणैर्भिष्मं वीरं ववर्ष ह।

शिखण्डी द्रुपदोत्तोऽस्त्रैर्ववर्ष जलदो यथा ।। ८ ।।

हस्त्यश्वरथपादातमन्योन्यास्त्रनिपातितम् ।

भीष्मः स्वच्छन्दमृत्युश्च युद्धमार्गं प्रदर्श्य च ।। ९ ।।

वसूक्तो वसुलोकाय शरशय्यागतः स्थितः।

उत्तरायणमीक्षंश्च ध्यायन् विष्णुंस्तुवन् स्थितः ।। १० ।।

दुर्योधने तु शोकार्त्ते द्रोणः सेनापतिस्त्वभूत्।

पाण्डवे हर्षिते सैन्ये धृष्टद्युम्नश्चमूपतिः ।। ११ ।।

तयोर्युद्धं बभूवोग्रं यमराष्ट्रविवर्धनम्।

विराटद्रुपदाद्याश्च निमग्ना द्रोणसागरे ।। १२ ।।

दौर्योधनी महासेना हस्त्यश्वरथपत्तिनी।

धृष्टद्युम्नाधिपतिता द्रोणः काल इवाबभौ ।। १३ ।।

हतोश्वत्थामा चेत्युक्ते द्रोणः शस्त्राणि चात्यजत्।

धृष्टद्युम्नशराक्रान्तः पतितः स महीतले ।। १४ ।।

दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसानेवाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक- दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। उन्होंने युद्ध का मार्ग दिखाकर वसु देवता के कहने पर वसुलोक में जाने की तैयारी की और बाणशय्या पर सो रहे । वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। भीष्म के बाण- शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवों की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए। उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ानेवाला था। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त दुर्योधन की विशाल वाहिनी धृष्टद्युम्न के हाथ से मारी जाने लगी। उस समय द्रोण काल के समान जान पड़ते थे। इतने ही में उनके कानों में यह आवाज आयी कि 'अश्वत्थामा मारा गया' इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिये। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न के बाणों से आहत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ८ - १४ ॥

पञ्चमेहनि दुर्द्धर्षः सर्वक्षत्रं प्रमथ्य च।

दुर्योधने तु शोकार्ते कर्णः सेनापतिस्त्वभूत् ।। १५ ।।

अर्जुनः पाण्डवानाञ्च तयोर्युद्धं बभूव ह।

शस्त्रशस्त्रि महारौद्रं देवासुररणोपमम् ।। १६ ।।

कर्णार्जुनाख्ये सङ्‌प्रामे कर्णोरीनवधीच्छरैः।

द्वितीयेहनि कर्णस्तु अर्जुनेन निपातितः ।। १७ ।।

द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे। वे सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करके पाँचवें दिन मारे गये। दुर्योधन पुनः शोक से आतुर हो उठा। उस समय कर्ण उसकी सेना का कर्णधार हुआ। पाण्डव सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला। कर्ण और अर्जुन में भाँति- भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काट से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर संग्राम को भी मात करनेवाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु- पक्ष के बहुत से वीरों का संहार कर डाला; किंतु दूसरे दिन अर्जुन ने उसे मार गिराया ॥ १५ - १७ ॥

शल्यो दिनार्द्धं युयुधे ह्यबधीत्तं युधिष्ठिरः।

युयुधे भीमसेनेन हतसैन्यः सयोधनः ।। १८ ।।

बहून् हत्वा नरादींश्च भीमसेनमथाब्रबीत्।

गदया प्रहरन्तं तु भीमस्तन्तु न्यपातयत् ।। १९ ।।

गदयान्यानुजांस्तस्य तस्मिन्नष्टादशेहनि।

रात्रौ सषुप्तञ्च बलं पाण्डवानां न्यपातयत् ।। २० ।।

अक्षौहिणीप्रमाणन्तु अश्वत्थामा महाबलः।

द्रौपदेयान् सापञ्चालान् धृष्टद्युन्नञ्च सोऽवधीत् ।। २१ ।।

पुत्रहीनां द्रौपदीं तां रुदन्तीमर्जुनस्ततः।

शिरोमणिं तु जग्राह ऐषिकास्त्रेण तस्य च ।। २२ ।।

तदनन्तर राजा शल्य कौरव सेना के सेनापति हुए; किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार गिराया। दुर्योधन की प्राय: सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी। अन्ततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध हुआ। उसने पाण्डव पक्ष के पैदल आदि बहुत से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया। उस समय गदा से प्रहार करते हुए दुर्योधन को भीमसेन ने मौत के घाट उतार दिया। दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये थे। महाभारत संग्राम के उस अठारहवें दिन रात्रिकाल में महाबली अश्वत्थामा ने पाण्डवों की सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेना को सदा के लिये सुला दिया। उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पाञ्चालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को भी जीवित नहीं छोड़ा। द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने बिलखने लगी। तब अर्जुन ने सींक के अस्त्र से अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। [ उसे मारा जाता देख द्रौपदी ने ही अनुनय-विनय करके उसके प्राण बचाये ।] ॥ १८-२२ ॥

अश्वत्थामास्त्रनिर्द्दग्धं जीवयामास वै हरिः।

उत्तरायास्ततो गर्भं स परीक्षिदभून्नृपः ।। २३ ।।

कृतवर्म्मा कृपो द्रौणिस्त्रयो मुक्तास्ततो रणात् ।

पाण्डवाः सात्यकिः कृष्णः सप्त मुक्ता न चापरे ।। २४ ।।

स्त्रियश्चार्त्ताः समाश्वास्य भीमाद्यैः स युधिष्ठिरः ।

संस्कृत्य प्रहतान् वीरान् दत्तोदकधनादिकः ।। २५ ।।

भीष्माच्छान्तनवाच्छ्रुत्वा धर्म्मान् सर्वांश्च शान्तिदान् ।

राजधर्म्मान्मोक्षधर्न्मान्दानधर्म्मान् नृपोऽभवत् ।। २६ ।।

अश्वमेधे ददौ दानं ब्राह्मणेभ्योरिमर्द्दनः।

श्रुत्वार्जुनान्मौषलेयं यादवानाञ्च सङ्‌क्षयम् ।।

राज्ये परीक्षितं स्थाप्य सानुजः स्वर्गमाप्तवान् ।। २७ ।।

इतने पर भी दुष्ट अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उस पर अस्त्र का प्रयोग किया। वह गर्भ उसके अस्त्र से प्रायः दग्ध हो गया था; किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने उसको पुनः जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित्के नाम से विख्यात हुआ। कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा-ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे। दूसरी ओर पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा भगवान् श्रीकृष्ण- ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था। भीमसेन आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह संस्कार करके उनके लिये जलाञ्जलि दे धन आदि का दान किया। तत्पश्चात् कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्षधर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए। इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने अश्वमेध यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान किया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित्को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये ॥ २३ - २७ ॥ *

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये महाभारतवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'भीष्मपर्व से लेकर अन्त तक की महाभारत कथा का संक्षेप से वर्णन' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

* यद्यपि इस अध्याय के अन्त तक महाभारत की पूरी कथा समाप्त हुई-सी जान पड़ती है, तथापि आश्रमवासिक पर्व से लेकर स्वर्गारोहण पर्व तक का वृतान्त कुछ विस्तार से कहना शेष रह गया है इसलिये अगले (पंद्रहवें अध्याय में उसे पूरा किया गया है।

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 15 

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