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अग्नि पुराणम् अध्यायः २४- कुण्डनिर्माणादिविधिः
नारद उवाच
अग्निकार्यं प्रवक्ष्यामि येन
स्यात्सर्वकामभाक् ।
चतुरभ्यधिकं विंशमङ्गुलं चतुरस्रकं
॥२४.००१
सूत्रेण सूत्रयित्वा तु क्षेत्रं
तावत्खनेत्समं ।
खातस्य मेखला कार्या त्यक्त्वा
चैवाङ्गुलद्वयं ॥२४.००२
सत्त्वादिसञ्ज्ञा पूर्वाशा
द्वादशाङ्गुलमुच्छ्रिता ।
अष्टाङ्गुला द्व्यङुलाथ
चतुरङ्गुलविस्तृता ॥२४.००३
नारदजी कहते हैं—
महर्षियो ! अब मैं अग्नि- सम्बन्धी कार्य का वर्णन करूँगा, जिससे मनुष्य सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुओं का भागी होता है। चौबीस अङ्गुल की
चौकोर भूमि को सूत से नापकर चिह्न बना दे। फिर उस क्षेत्र को सब ओर से बराबर खोदे।
दो अङ्गुल भूमि चारों ओर छोड़कर खोदे हुए कुण्ड की मेखला बनावे। मेखलाएँ तीन होती
हैं, जो 'सत्त्व, रज और तम' नाम से कही गयी हैं। उनका मुख पूर्व,
अर्थात् बाह्य दिशा की ओर रहना चाहिये। मेखलाओं की अधिकतम ऊँचाई
बारह अङ्गुल की रखे, अर्थात् भीतर की ओर से पहली मेखला की
ऊँचाई बारह अङ्गुल रहनी चाहिये। (उसके बाह्यभाग में दूसरी मेखला की ऊँचाई आठ
अङ्गुल की और उसके भी बाह्यभाग में तीसरी मेखला की ऊँचाई चार अङ्गुल की रहनी
चाहिये।) इसकी चौड़ाई क्रमशः आठ, दो और चार अङ्गुल की होती
है ॥ १-३ ॥ *
* शारदातिलक में उद्धृत वसिष्ठसंहिता के वचनानुसार पहली मेखला बारह
अङ्गुल चौड़ी होनी चाहिये और चार अङ्गुल ऊँची, दूसरी आठ अङ्गुल चौड़ी और चार अङ्गुल ऊँची, फिर
तीसरी चार-चार अङ्गुल चौड़ी तथा ऊँची रहनी चाहिये। यथा-
प्रथमा मेखला तत्र
द्वादशाङ्गुलविस्तृता ।
चतुर्भिरङ्गुलैस्तस्याक्षोन्नतिश्च
समन्ततः ॥
तस्याथोपरि वप्रः स्याच्चतुरङ्गुलमुन्नतः
।
अष्ठभिरङ्गुलैः सम्यग्
विस्तीर्णस्तु समन्ततः ॥
तस्योपरि पुनः कार्यों
भद्रः सोऽपि तृतीयकः ।
चतुरङ्गुलविस्तीर्णक्षोन्नतश्च
तथाविधः ॥
इस क्रम से बाहर की ओर से
पहली मेखला की ऊँचाई चार अङ्गुल की होगी, फिर बादवाली उससे भी चार अङ्गुल ऊँची होने
के कारण मूलतः आठ अङ्गुल ऊँची होगी तथा तीसरी उससे भी चार अतुल ऊँची होने से मूलतः
बारह अङ्गुल ऊँची होगी। अग्निपुराण में इसी दृष्टि से भीतर की ओर से पहली मेखला को
बारह अङ्गुल ऊँची कहा गया है। चौड़ाई तो भीतर की ओर से बाहर की ओर देखने पर पहली
बारह अङ्गुल चौड़ी, दूसरी आठ
अङ्गुल चौड़ी तथा तीसरी चार अङ्गुल चौड़ी होगी। यहाँ मूल में जो आठ, दो और चार अङ्गुल का विस्तार बताया गया है, इसका
आधार अन्वेषणीय है।
योनिर्दशाङ्गुला रम्या
षट्चतुर्द्व्यङ्गुलाग्रगा ।
क्रमान्निम्ना तु कर्तव्या
पश्चिमाशाव्यवस्थिता ॥२४.००४
अश्वत्थपत्रसदृशी किञ्चित्कुण्डे
निवेशिता ।
तुर्याङ्गुलायता नालं
पञ्चदशाङ्गुलायतं ॥२४.००५
मूलन्तु त्र्यङ्गुलं योन्या अग्रं
तस्याः षडङ्गुलं ।
लक्षणञ्चैकहस्तस्य द्विगुणं द्विकरादिषु
॥२४.००६
योनि सुन्दर बनायी जाय। उसकी लंबाई
दस अङ्गुल की हो। वह आगे-आगे की ओर क्रमशः छ:, चार
और दो अङ्गुल ऊँची रहे अर्थात् उसका पिछला भाग छः अङ्गुल, उससे
आगे का भाग चार अङ्गुल और उससे भी आगे का भाग दो अङ्गुल ऊँचा होना चाहिये। योनि का
स्थान कुण्ड की पश्चिम दिशा का मध्यभाग है। उसे आगे की ओर क्रमशः नीची बनाना
चाहिये। उसकी आकृति पीपल के पत्ते की-सी होनी चाहिये। उसका कुछ भाग कुण्ड में
प्रविष्ट रहना चाहिये। योनि का आयाम चार अङ्गुल का रहे और नाल पंद्रह अङ्गुल बड़ा
हो। योनि का मूलभाग तीन अङ्गुल और उससे आगे का भाग छः अङ्गुल विस्तृत हो। यह एक
हाथ लंबे-चौड़े कुण्ड का लक्षण कहा गया है। दो हाथ या तीन हाथ के कुण्ड में
नियमानुसार सब वस्तुएँ तदनुरूप द्विगुण या त्रिगुण बढ़ जायँगी ॥ ४-६ ॥*
* अर्थात् एक हाथ के कुण्ड की लंबाई-चौड़ाई २४ अङ्गुल की होती है, दो हाथ के कुण्ड को चौंतीस अङ्गुल और तीन हाथ के कुण्ड
को एकतालीस अङ्गुल होती है। इसी तरह अधिक हाथों के विषय में भी समझना चाहिये।
एकत्रिमेखलं कुण्डं वर्तुलादि
वदाम्यहं ।
कुण्डार्धे तु स्थितं सूत्रं कोणे
यदतिरिच्यते ॥२४.००७
तदर्धं दिशि संस्थाप्य भ्रामितं
वर्तुलं भवेत् ।
कुण्डार्धं कोणभागार्धं
दिशिश्चोत्तरतो वहिः ॥२४.००८
पूर्वपश्चिमतो यत्नाल्लाञ्छयित्वा
तु मध्यतः ।
संस्थाप्य भ्रामितं
कुण्डमर्धचन्द्रं भवेत्शुभं ॥२४.००९
अब मैं एक या तीन मेखलावाले गोल और
अर्धचन्द्राकार आदि कुण्डों का वर्णन करता हूँ। चौकोर कुण्ड के आधे भाग,
अर्थात् ठीक बीचो-बीच में सूत रखकर उसे किसी कोण की सीमा तक ले जाय;
मध्यभाग से कोण तक ले जाने में सामान्य दिशाओं की अपेक्षा वह सूत
जितना बढ़ जाय, उसके आधे भाग को प्रत्येक दिशा में बढ़ाकर स्थापित
करे और मध्य स्थान से उन्हीं बिन्दुओं पर सूत को सब ओर घुमावे तो गोल आकार बन
जायगा।* कुण्डार्ध से बढ़ा हुआ जो कोणभागाध
है, उसे उत्तर दिशा में बढ़ाये तथा उसी सीध में पूर्व और
पश्चिम दिशा में भी बाहर की ओर यत्नपूर्वक बढ़ाकर चिह्न कर दे। फिर मध्यस्थान में
सूत का एक सिरा रखकर दूसरा छोर पूर्व दिशावाले चिह्न पर रखे और उसे दक्षिण की ओर से
घुमाते हुए पश्चिम दिशा के चिह्न तक ले जाय। इससे अर्धचन्द्राकार चिह्न बन जायगा।
फिर उस क्षेत्र को खोदने पर सुन्दर अर्धचन्द्र कुण्ड तैयार हो जायगा ॥७-९॥*
*१. एक हाथ या २४ अङ्गुल के चौकोर क्षेत्र में कुण्डार्थ होता है-१२
अङ्गुल और कोणभागार्थ है-१८ अङ्गुल अतिरिक्त हुआ ६ अङ्गुल । उसका आधा भाग है-३
अङ्गुल । इसी को सब ओर बढ़ाकर सूत घुमाने से गोल कुण्ड बनेगा।
२. कुण्ड निर्माण के लिये
निम्नाङ्कित परिभाषा को ध्यान में रखना चाहिये-८ परमाणुओं का एक त्रसरेणु ८
त्रसरेणुओं का १ रेणु ८ रेणुओं का १ बालाग्र, ८ बालाग्रों की १ लिख्या ८ लिख्याओं की १ यूका, ८
यूकाओं का १ यव, ८ यवों का १ अङ्गुल, २१
अङ्गुलिपर्व की १ रात्रि तथा २४ अङ्गुल का १ हाथ होता है। एक-एक हाथ लंबे-चौड़े
कुण्ड को 'चतुरस्र' कहते हैं। चारों
दिशाओं की ओर एक-एक हाथ भूमि को मापकर जो कुण्ड तैयार किया जाता है, उसकी 'चतुरस्र' या 'चतुष्कोण संज्ञा है।
इसकी रचना का प्रकार यों
है-पहले पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओं का सम्यक् परिज्ञान कर ले फिर जितना बड़ा क्षेत्र
अभीष्ट हो, उतने ही में पूर्व और
पश्चिम दोनों दिशाओं में कोल गाड़ दे। यदि २४ अङ्गुल का क्षेत्र अभीष्ट हो तो ४८
अङ्गुल का सूत लेकर उसमें बारह-बारह अङ्गुल पर चिह्न लगा दे। फिर सूत को दोनों
कीलों में बाँध दे। फिर उस सूत के चतुर्थांश चिह्न को कोण की दिशा की ओर खींचकर
कोण का निश्चय करे। इससे चारों कोण शुद्ध होते हैं। इस प्रकार समान चतुरस्र
क्षेत्र शुद्ध होता है। क्षेत्रशुद्धि के अनन्तर कुण्ड का खनन करे। चतुर्भुज
क्षेत्र में भुज और कोटि के अङ्कों में गुणा करने पर जो गुणनफल आता है, वही क्षेत्रफल होता है। इस प्रकार २४ अङ्गुल के क्षेत्र में २४ अङ्गुल भुज
और २४ अङ्गुल कोटि परस्पर गुणित हों तो ५७६ अङ्गुल क्षेत्रफल होगा।
चतुरस्र क्षेत्र को चौबीस
भागों में विभक्त करे। फिर उसमें से तेरह भाग को व्यासार्धं माने और उतने ही
विस्तार के परकाल से क्षेत्र के मध्यभाग से आरम्भ करके मण्डलाकार रेखा खींचने पर
उत्तम वृत्त कुण्ड बन जायगा।
चतुरस्र क्षेत्र के शतांश
और पञ्चमांश को जोड़कर उतना अंश क्षेत्रमान में से घटा दे। फिर जो क्षेत्रमान शेष
रह जाय, उतने ही विस्तार का परकाल लेकर क्षेत्र के मध्यभाग में
लगा दे और अर्धवृत्ताकार रेखा खींचे। फिर अर्धचन्द्र के एक अग्रभाग से दूसरे
अर्धभाग तक पड़ी रेखा खींचे। इससे अर्धचन्द्रकुण्ड समीचीन होगा। उदाहरणार्थ- २४
अङ्गुल के क्षेत्र का पञ्चमांश ४ अङ्गुल, ६ यवा ३ यूका,
१ लिख्या (या लिक्षा) और ५ बालाग्र होगा। उस क्षेत्र का शतांश ० अङ्गुल,
० यवा, ३ यूका, ० लिक्षा
और ४ बालाग्र होगा। इन दोनों का योग ४ अङ्गुल ६ यवा, ६ यूका,
२ लिक्षा और १ बालाग्र होगा। यह मान २४ अङ्गुल में घटा दिया जाय तो
शेष रहेगा १९ अङ्गुल, १ यवा १ यूका, ५
लिक्षा और ७ बालाग्र। इतने विस्तार के परकाल से अर्धचन्द्र बनाना चाहिये।
अग्निपुराण में इन कुण्डों के निर्माण की विधि अत्यन्त संक्षेप सें लिखी गयी है
अतः अन्य ग्रन्थों का मत भी यहाँ दे दिया गया है।
पद्माकारे दलानि स्युर्मेखलानान्तु
वर्तुले ।
बाहुदण्डप्रमाणन्तु होमार्थं
कारयेत्स्रुचं ॥२४.०१०
सप्तपञ्चाङ्गुलं वापि चतुरस्रन्तु
कारयेत् ।
त्रिभागेन भवेद्गर्तं मध्ये वृत्तं
सुशोभनम् ॥२४.०११
तिर्यगूर्ध्वं समं
खाताद्वहिरर्धन्तु शोधयेत् ।
अङ्गुलस्य चतुर्थांशं शेषार्धार्धं
तथान्ततः ॥२४.०१२
खातस्य मेखलां रम्यां शेषार्धेन तु
कारयेत् ।
कण्ठं त्रिभागविस्तारं
अङ्गुष्ठकसमायतं ॥२४.०१३
सार्धमङ्गुष्ठकं वा स्यात्तदग्रे तु
मुखं भवेत् ।
चतुरङ्गुलविस्तारं पञ्चाङ्गुलमथापि
वा ॥२४.०१४
कमल की आकृतिवाले गोल कुण्ड की
मेखला पर दलाकार चिह्न बनाये जायें। होम के लिये एक सुन्दर स्रुक् तैयार करे,
जो अपने बाहुदण्ड के बराबर हो। उसके दण्ड का मूलभाग चतुरस्र हो। उसका
माप सात या पाँच अङ्गुल का बताया गया है। उस चतुरस्र के तिहाई भाग को खुदवाकर गर्त
बनावे। उसके मध्यभाग में उत्तम शोभायमान वृत्त हो। उक्त गर्त को नीचे से ऊपर तक
तथा अगल- बगल में बराबर खुदावे। बाहर का अर्धभाग छीलकर साफ करा दे (उस पर रंदा करा
दे।) चारों ओर चौथाई अङ्गुल, जो शेष आधे का आधा भाग है,
भीतर से भी छीलकर साफ (चिकना) करा दे। शेषार्धभाग द्वारा उक्त खात की
सुन्दर मेखला बनवावे। मेखला के भीतरी भाग में उस खात का कण्ठ तैयार करावे, जिसका सारा विस्तार मेखला की तीन चौथाई के बराबर हो। कण्ठ की चौड़ाई एक या
डेढ़ अङ्गुल के माप की हो। उक्त स्रुक् के अग्रभाग में उसका मुख रहे, जिसका विस्तार चार या पाँच अङ्गुल का हो॥१०-१४॥
त्रिकं द्व्यङ्गुलकं
तत्स्यान्मध्यन्तस्य सुशोभनम् ।
आयामस्तत्समस्तस्य मध्यनिम्नः
सुशोभनः ॥२४.०१५
शुषिरं कण्ठदेशे
स्याद्विशेद्यावत्कनीयसी ।
शेषकुण्डन्तु कर्तव्यं यथारुचि
विचित्रितं ॥२४.०१६
स्रुवन्तु हस्तमात्रं स्याद्दण्डकेन
समन्वितं ।
वटुकं द्व्यङ्गुलं वृत्तं
कर्तव्यन्तु सुशोभनं ॥२४.०१७
गोपदन्तु यथा मग्नमल्पपङ्के तथा
भवेत् ।
उपलिप्य लिखेद्रेखामङ्गुलां
वज्रनासिकां ॥२४.०१८
सौम्याग्रा प्रथमा तस्यां रेखे
पूर्वमुखे तयोः ।
मध्ये तिस्रस्तथा
कुर्याद्दक्षिणादिक्रमेण तु ॥२४.०१९
एवमुल्लिख्य चाभ्युक्ष्य प्रणवेन तु
मन्त्रवित् ।
विष्टरं कल्पयेत्तेन तस्मिन्
शक्तिन्तु वैष्णवीं ॥२४.०२०
मुख का मध्य भाग तीन या दो अङ्गुल का
हो । उसे सुन्दर एवं शोभायमान बनाया जाय। उसकी लंबाई भी चौड़ाई के ही बराबर हो। उस
मुख का मध्य भाग नीचा और परम सुन्दर होना चाहिये। स्रुक् के कण्ठदेश में एक ऐसा
छेद रहे,
जिसमें कनिष्ठिका अङ्गुलि प्रविष्ट हो जाय। कुण्ड (अर्थात् स्रुक्
के मुख) का शेष भाग अपनी रुचि के अनुसार विचित्र शोभा से सम्पन्न किया जाय। स्रुक्
के अतिरिक्त एक स्रुवा भी आवश्यक है, जिसकी लंबाई दण्डसहित
एक हाथ की हो। उसके डंडे को गोल बनाया जाय। उस गोल डंडे की मोटाई दो अङ्गुल की हो।
उसे खूब सुन्दर बनाना चाहिये। स्रुवा का मुख भाग कैसा हो? यह
बताया जाता है। थोड़ी-सी कीचड़ में गाय अथवा बछड़े का पैर पड़ने पर जैसा पदचिह्न
उभर आता है, ठीक वैसा ही स्रुवा का मुख बनाया जाय, अर्थात् उस मुख का मध्य भाग दो भागों में विभक्त रहे। उपर्युक्त
अग्निकुण्ड को गोबर से लीपकर उसके भीतर की भूमि पर बीच में एक अङ्गुल मोटी एक रेखा
खींचे, जो दक्षिण से उत्तर की ओर गयी हो। उस रेखा को 'वज्र' की संज्ञा दी गयी है। उस प्रथम उत्तराग्र
रेखा पर उसके दक्षिण और उत्तर पार्श्व में दो पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे। इन दोनों
रेखाओं के बीच में पुनः तीन पूर्वाग्र रेखाएँ खींचे। इनमें पहली रेखा दक्षिण भाग में
हो और शेष दो क्रमशः उसके उत्तरोत्तर भाग में खींची जायें। मन्त्रज्ञ पुरुष इस
प्रकार उल्लेखन (रेखाकरण) करके उस भूमि का अभ्युक्षण (सेचन) करे। फिर प्रणव के
उच्चारणपूर्वक भावना द्वारा एक विष्टर (आसन) की कल्पना करके उसके ऊपर वैष्णवी
शक्ति का आवाहन एवं स्थापन करे ।। १५-२० ॥
अलं कृत्वा मूर्तिमतीं क्षिपेदग्निं
हरिं स्मरन् ।
प्रादेशमात्राः समिधो दत्वा
परिसमुह्य तं ॥२४.०२१
दर्भैस्त्रिधा परिस्तीर्य पूर्वादौ
तत्र पात्रकं ।
आसादयेदिध्मवह्नी भूमौ च
श्रुक्श्रुवद्वयं ॥२४.०२२
आज्यस्थाली चरुस्थाली कुशाज्यञ्च
प्रणीतया ।
प्रोक्षयित्वा प्रोक्षणीञ्च
गृहीत्वापूर्य वारिणा ॥२४.०२३
पवित्रान्तर्हिते हस्ते परिश्राव्य
च तज्जलं ।
प्राङ्नीत्वा प्रोक्षणीपात्रण्ज्योतिरग्रे
निधाय च ॥२४.०२४
तदद्भिस्त्रिश्च सम्प्रोक्ष्य
इद्ध्मं विन्यस्य चाग्रतः ।
प्रणीतायां सुपुष्पायां विष्णुं
ध्यात्वोत्तरेण च ॥२४.०२५
देवी के स्वरूप का इस प्रकार ध्यान
करे- 'वे दिव्य रूपवाली हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं। तत्पश्चात्
यह चिन्तन करे कि 'देवी को संतुष्ट करने के लिये अग्निदेव के
रूप में साक्षात् श्रीहरि पधारे हैं।' साधक (उन दोनों का
पूजन करके शुद्ध कांस्यादि पात्र में रखी और ऊपर से शुद्ध कांस्यादि पात्र द्वारा
ढकी हुई अग्नि को लाकर, क्रव्याद अंश को अलग करके, ईक्षणादि से शोधित उस*) अग्नि को
कुण्ड के भीतर स्थापित करे। तत्पश्चात् उस अग्नि में प्रादेशमात्र (अँगूठे से लेकर
तर्जनी के अग्रभाग के बराबर की ) समिधाएँ देकर कुशों द्वारा तीन बार परिसमूहन करे।
फिर पूर्वादि सभी दिशाओं में कुशास्तरण करके अग्नि की उत्तर दिशा में पश्चिम से
आरम्भ करके क्रमशः पूर्वादि दिशा में पात्रासादन करे-समिधा, कुशा,
स्रुक्, स्रुवा, आज्यस्थाली,
चरुस्थाली तथा कुशाच्छादित घी, (प्रणीतापात्र,
प्रोक्षणीपात्र) आदि वस्तुएँ रखे। इसके बाद प्रणीता को सामने रखकर
उसे जल से भर दे और कुशा से प्रणीता का जल लेकर प्रोक्षणीपात्र का प्रोक्षण करे।
तदनन्तर उसे बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथ में गृहीत प्रणीता के जल से भर दे।
प्रणीता और हाथ के बीच में पवित्री का अन्तर रहना चाहिये। प्रोक्षणी में गिराते
समय प्रणीता के जल को भूमि पर नहीं गिरने देना चाहिये। प्रोक्षणी में अग्निदेव का
ध्यान करके उसे कुण्ड की योनि के समीप अपने सामने रखे। फिर उस प्रोक्षणी के जल से
आसादित वस्तुओं को तीन बार सींचकर समिधाओं के बोझ को खोलकर उसके बन्धन को सरकाकर
सामने रखे। प्रणीतापात्र में पुष्प छोड़कर उसमें भगवान् विष्णु का ध्यान करके उसे
अग्नि से उत्तर दिशा में कुश के ऊपर स्थापित कर दे (और अग्नि तथा प्रणीता के मध्य
भाग में प्रोक्षणीपात्र को कुशा पर रख दे ) ॥ २१ - २५ ॥
• वह्नि
शुद्धाश्रयानीतं शुद्धपात्रोपरिस्थितम्।
क्रव्यादर्श परित्यज्य
ईक्षणादिविशोधितम् ॥ इति सोमशम्भु)
आज्यस्थालीमथाज्येन सम्पूर्याग्रे
निधाय च ।
सम्प्लवोत्पवनाभ्यान्तु
कुर्यादाज्यस्य संस्कृतिं ॥२४.०२६
अखण्डिताग्रौ निर्गर्भौ कुशौ
प्रादेशमात्रकौ ।
ताभ्यामुत्तानपाणिभ्यामङ्गुष्ठानामिकेन
तु ॥२४.०२७
आज्यं तयोस्तु सङ्गृह्य
द्विर्नीत्वा त्रिरवाङ्क्षिपेत् ।
स्रुक्स्रुवौ चापि सङ्गृह्य ताभ्यां
प्रक्षिप्य वारिण ॥२४.०२८
प्रतप्य दर्भैः सम्मृज्य पुनः
प्रक्ष्याल्य चैव हि ।
निष्टप्य स्थापयित्वा तु प्रणवेनैव
साधकः ॥२४.०२९
प्रणवादिनमोन्तेन पश्चाद्धोमं
समाचरेत् ।
तदनन्तर आज्यस्थाली को घी से भरकर
अपने आगे रखे। फिर उसे आग पर चढ़ाकर सम्प्लवन एवं उत्पवन की क्रिया द्वारा घी का
संस्कार करे । (उसकी विधि इस प्रकार है- ) प्रादेशमात्र लंबे दो कुश हाथ में ले।
उनके अग्रभाग खण्डित न हुए हों तथा उनके गर्भ में दूसरा कुश अङ्कुरित न हुआ हो।
दोनों हाथों को उत्तान रखे और उनके अङ्गुष्ठ एवं कनिष्ठिका अङ्गुलि से उन कुशों को
पकड़े रहे। इस तरह उन कुशों द्वारा घी को थोड़ा- थोड़ा उठाकर ऊपर की ओर तीन बार
उछाले। प्रज्वलित तृण आदि लेकर घी को देखे और उसमें कोई अपद्रव्य (खराब वस्तु) हो
तो उसे निकाल दे। इसके बाद तृण अग्नि में फेंककर उस घी को आग पर से उतार ले और
सामने रखे। फिर स्रुक् और स्रुवा को लेकर उनके द्वारा होम-सम्बन्धी कार्य करे।
पहले जल से उनको धो ले। फिर अग्नि से तपाकर सम्मार्जन कुशों द्वारा उनका मार्जन
करे (उन कुशों के अग्रभागों द्वारा स्रुक् स्रुवा के भीतरी भाग का तथा मूल भाग से
उनके बाह्य भाग का मार्जन करना चाहिये )। तत्पश्चात् पुनः उन्हें जल से धोकर आग से
तपावे और अपने दाहिने भाग में स्थापित कर दे। उसके बाद साधक प्रणव से ही अथवा
देवता के नाम के आदि में 'प्रणव' तथा
अन्त में 'नमः' पद
लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक होम करे ॥ २६- २९॥
गर्भाधानादिकर्माणि यावदंशव्यवस्थया
॥२४.०३०
नामान्तं व्रतबन्धान्तं
समावर्तावसानकम् ।
अधिकारावसानं वा कर्यादङ्गानुसारतः
॥२४.०३१
प्रणवेनोपचारन्तु कुर्यात्सर्वत्र
साधकः ।
अङ्गैर्होमस्तु कर्तव्यो
यथावित्तानुसारतः ॥२४.०३२
गर्भादानन्तु प्रथमं ततः पुंसवनं
स्मृतम् ।
सीमन्तोन्नयनं जातकर्म
नामान्नप्राशनम् ॥२४.०३३
चूडकृतिं व्रतबन्धं
वेदव्रतान्यशेषतः ।
समावर्तनं पत्न्या च
योगश्चाथाधिकारकः ॥२४.०३४
हृदादिक्रमतो ध्यात्वा एकैकं कर्म
पूज्य च ।
अष्टावष्टौ तु
जुहुयात्प्रतिकर्माहुतीः पुनः ॥२४.०३५
हवन से पहले अग्नि के गर्भाधान से
लेकर सम्पूर्ण संस्कार अङ्ग-व्यवस्था के अनुसार सम्पन्न करने चाहिये। मतान्तर के
अनुसार नामान्तव्रत,व्रतबन्धान्तव्रत
(यज्ञोपवीतान्त), समावर्तनान्त अथवा यज्ञाधिकारान्त संस्कार
अङ्गानुसार करने चाहिये। साधक सर्वत्र प्रणव का उच्चारण करते हुए पूजनोपचार अर्पित
करे और अपने वैभव के अनुसार प्रत्येक संस्कार के लिये अङ्ग सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा
होम करे। पहला गर्भाधान संस्कार है, दूसरा पुंसवन, तीसरा सीमन्तोन्नयन, चौथा जातकर्म, पाँचवाँ नामकरण, छठा चूडाकरण, सातवाँ
व्रतबन्ध (यज्ञोपवीत), आठवाँ वेदारम्भ, नवाँ समावर्तन तथा दसवाँ पत्नीसंयोग (विवाह) संस्कार है, जो यज्ञ के लिये अधिकार प्रदान करनेवाला है। क्रमशः एक-एक संस्कार कर्म का
चिन्तन और तदनुरूप पूजन करते हुए हृदय आदि अङ्ग- मन्त्रों द्वारा प्रति कर्म के
लिये आठ-आठ आहुतियाँ अर्पित करे* ॥ ३०-३५ ॥
• आचार्य सोमशम्भु ने
संस्कारों के चिन्तन का क्रम इस प्रकार बताया है-अग्निस्थापन ही श्रीहरि के द्वारा
वैष्णवी देवी के गर्भ में बीज का आधान है। शैव होम कर्म में वागीश शिव के द्वारा
वागीश्वरी शिवा के गर्भ में बीजाधान होता है। तत्पश्चात् देवी के परिधान संवरण,
शौचाचमन आदि का चिन्तन करके हृदय-मन्त्र (नमः) के द्वारा गर्भाग्नि का
पूजन करे, यथा-'ॐ गर्भाग्नये नमः'
पूजन के पश्चात् उस गर्भ की रक्षा के लिये भावना द्वारा देवी के
पाणिपल्लव में 'अस्त्राय फट्' बोलकर
कुशा का कङ्कण बाँध दे। फिर पूर्वोक्त मन्त्र से अथवा सद्योजात मन्त्र अग्नि की
पूजा कर गर्भाधान संस्कार के निमित्त हृदय-मन्त्र (हृदयाय नमः) से ही आहुतियाँ दे
तृतीय मास में पुंसवन की भावना करके, वामदेव-मन्त्र से पूजन
करके शिरोमन्त्र (शिरसे स्वाहा) द्वारा आहुति देने का विधान है। षष्ठ मास में
सीमन्तोन्नयन को भावना और पूजा करके 'शिखायै वषट्' इस मन्त्र से आहुतियाँ देनी चाहिये। इसी तरह नामकरणादि संस्कारों का भी
पूजन हवनादि के द्वारा सम्पादन कर लेना चाहिये।
पूर्णाहुतिं ततो दद्यात्श्रुचा
मूलेन साधकः ।
वौषडन्तेन मन्त्रेण प्लुतं
सुस्वरमुच्चरन् ॥२४.०३६
विष्णोर्वह्निन्तु संस्कृत्य
श्रपयेद्वैष्णवञ्चरुम् ।
आराध्य स्थिण्डिले विष्णुं मन्त्रान्
संस्मृत्य संश्रपेत् ॥२४.०३७
आसनादिक्रमेणैव साङ्गावरणमुत्तमम् ।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य ध्याता देवं
सुरोत्तमम् ॥२४.०३८
आधायेध्ममथाघारावाज्यावग्नीशसंस्थितौ
।
वायव्यनैर्ऋताशादिप्रवृत्तौ तु
यथाक्रमम् ॥२४.०३९
आज्यभागौ ततो हुत्वा चक्षुषी
दक्षिणोत्तरे ।
मध्येथ
जुहुयात्सर्वमन्त्रानर्चाक्रमेण तु ॥२४.०४०
आज्येन
तर्पयेन्मूर्तेर्दशांशेनाङ्गहोमकम् ।
शतं सहस्रं वाज्याद्यैः समिद्भिर्वा
तिलैः सह ॥२४.०४१
समाप्यार्चान्तु होमान्तां शुचीन्
शिष्यानुपोषितान् ।
आहूयाग्रे निवेश्याथ ह्यस्त्रेण
प्रोक्षयेत्पशून् ॥२४.०४२
तदनन्तर साधक मूलमन्त्र द्वारा
स्रुवा से पूर्णाहुति दे। उस समय मन्त्र के अन्त में 'वौषट्' पद लगाकर प्लुतस्वर से
सुस्पष्ट मन्त्रोच्चारण करना चाहिये। इस तरह वैष्णव अग्नि का संस्कार करके उस पर
विष्णु देवता के निमित्त चरु पकावे। वेदी पर भगवान् विष्णु की स्थापना एवं आराधना
करके मन्त्रों का स्मरण करते हुए उनका पूजन करे। अङ्ग और आवरण- देवताओं सहित
इष्टदेव श्रीहरि को आसन आदि उपचार अर्पित करते हुए उत्तम रीति से उनकी पूजा करनी
चाहिये। फिर गन्ध- पुष्पों द्वारा अर्चना करके सुरश्रेष्ठ नारायणदेव का ध्यान करने
के अनन्तर अग्नि में समिधा का आधान करे और अनीश्वर श्रीहरि के समीप 'आधार' संज्ञक दो घृताहुतियाँ दे। इनमें से एक को तो
वायव्यकोण में दे और दूसरी को नैर्ऋत्यकोण में। यही इनके लिये क्रम है। तत्पश्चात्
'आज्यभाग' नामक दो आहुतियाँ क्रमशः
दक्षिण और उत्तर दिशा में दे और उनमें अग्निदेव के दायें-बायें नेत्र की भावना
करे। शेष सब आहुतियों को इन्हीं के बीच में मन्त्रोच्चारणपूर्वक देना चाहिये। जिस
क्रम से देवताओं की पूजा की गयी हो, उसी क्रम से उनके लिये
आहुति देने का विधान है। घी से इष्टदेव की मूर्ति को तृप्त करे। इष्टदेव-सम्बन्धी
हवन-संख्या की अपेक्षा दशांश से अङ्ग-देवताओं के लिये होम करे। घृत आदि से,
समिधाओं से अथवा घृताक्त तिलों से सदा यजनीय देवताओं के लिये एक-एक
सहस्र या एक-एक शत आहुतियाँ देनी चाहिये। इस प्रकार होमान्त-पूजन समाप्त करके
स्नानादि से शुद्ध हुए शिष्यों को गुरु बुलाकर अपने आगे बिठावे। वे सभी शिष्य
उपवासव्रत किये हों उनमें पाश-बद्ध पशु की भावना करके उनका प्रोक्षण करे ॥ ३६-४२ ॥
शिष्यानात्मनि संयोज्य
अविद्याकर्मबन्धनैः ।
लिङ्गानुवृत्तश्चैतन्यं सह लिङ्गेन
पाशितम् ॥२४.०४३
ध्यानमार्गेन सम्प्रोक्ष्य
वायुबीजेन शोधयेत् ।
ततो दहनबीजेन सृष्टिं
ब्रह्माण्डसञ्ज्ञिकाम् ॥२४.०४४
निर्दग्धां सकलां
ध्यायेद्भस्मकूटनिभस्थिताम् ।
प्लावयेद्वारिणा भस्म संसारं
वार्मयं स्मरेत् ॥२४.०४५
तत्र शक्तिं
न्यसेत्पश्चात्पार्थिवीं बीजसञ्ज्ञिकाम् ।
तन्मात्राभिः समस्ताभिः संवृतं
पार्थिवं शुभम् ॥२४.०४६
अण्डन्तदुद्भवन्ध्यायेत्तदाधारन्तदात्मकम्
।
तन्मध्ये चिन्तयेन्मूर्तिं पौरुषीं
प्रणवात्मिकाम् ॥२४.०४७
तदनन्तर उन सब शिष्यों को भावना द्वारा
अपने आत्मा से संयुक्त करके अविद्या और कर्म के बन्धनों से आबद्ध हो लिङ्गशरीर का
अनुवर्तन करनेवाले चैतन्य (जीव) का, जो
लिङ्गशरीर के साथ बँधा हुआ है, ध्यानमार्ग से साक्षात्कार
करके उसका सम्यक् प्रोक्षण करने के पश्चात् वायुबीज (यं) के द्वारा उसके शरीर का
शोषण करे। इसके बाद अग्निबीज (रं) के चिन्तन से अग्नि प्रकट करके यह भावना करे कि 'ब्रह्माण्ड' संज्ञक सारी सृष्टि दग्ध होकर भस्म की
पर्वताकार राशि के समान स्थित है। तत्पश्चात् भावना द्वारा ही जलबीज (वं) के
चिन्तन से अपार जलराशि प्रकट करके उस भस्मराशि को बहा दे और संसार अब वाणीमात्र में
ही शेष रह गया है-ऐसा स्मरण करे। तदनन्तर वहाँ (लं) बीजस्वरूपा भगवान्की पार्थिवी
शक्ति का न्यास करे। फिर ध्यान द्वारा देखे कि समस्त तन्मात्राओं से आवृत शुभ
पार्थिव तत्त्व विराजमान है। उससे एक अण्ड प्रकट हुआ है, जो
उसी के आधार पर स्थित है और वही उसका उपादान भी है। उस अण्ड के भीतर प्रणवस्वरूपा
मूर्ति का चिन्तन करे।।४३-४७॥
लिङ्गं सङ्क्रामयेत्पश्चादात्मस्थं
पूर्वसंस्कृतम् ।
विभक्तेन्द्रियसंस्थानं
क्रमाद्वृद्धं विचिन्तयेत् ॥२४.०४८
ततोण्डमब्दमेकं तु स्थित्वा
द्विशकलीकृतम् ।
द्यावापृथिव्यौ शकले तयोर्मध्ये
प्रजापतिम् ॥२४.०४९
जातं ध्यात्वा पुनः प्रोक्ष्य
प्रणवेन तु संश्रितम् ।
मन्त्रात्मकतनुं कृत्वा यथान्यासं
पुरोदितम् ॥२४.०५०
विष्णुर्हस्तं ततो मूर्ध्नि दत्वा
ध्यात्वा तु वैष्णवम् ।
एवमेकं बहून् वापि जनित्वा
ध्यानयोगतः ॥२४.०५१
करौ सङ्गृह्य मूलेन नेत्रे बद्ध्वा
तु वाससा ।
नेत्रमन्त्रेण मन्त्री तान्
सदनेनाहतेन तु ॥२४.०५२
कृतपूजो गुरुः सम्यक्देवदेवस्य
तत्त्ववान् ।
शिष्यान् पुष्पाञ्जलिभृतः
प्राङ्मुखानुपवेशयेत् ॥२४.०५३
तदनन्तर अपने आत्मा में स्थित पूर्व
संस्कृत लिङ्गशरीर का उस पुरुष में संक्रमण करावे, अर्थात् यह भावना करे कि वह पुरुष लिङ्गशरीर से युक्त है। उसके उस शरीर में
सभी इन्द्रियों के आकार पृथक्-पृथक् अभिव्यक्त हैं तथा वह पुरुष क्रमश: बढ़ता और
पुष्ट होता जा रहा है। फिर ध्यान में देखे कि वह अण्ड एक वर्ष तक बढ़कर और पुष्ट
होकर फूट गया है। उसके दो टुकड़े हो गये हैं। उसमें ऊपरवाला टुकड़ा द्युलोक है और
नीचेवाला भूलोक। इन दोनों के बीच में प्रजापति पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। इस
प्रकार वहाँ उत्पन्न हुए प्रजापति का ध्यान करके पुनः प्रणव से उन शिशुरूप
प्रजापति का प्रोक्षण करे। फिर यथास्थान पूर्वोक्त न्यास करके उनके शरीर को
मन्त्रमय बना दे। उनके ऊपर विष्णुहस्त रखे और उन्हें वैष्णव माने। इस तरह एक अथवा
बहुत से लोगों के जन्म का ध्यान द्वारा प्रत्यक्ष करे (शिष्यों के भी नूतन दिव्य
जन्म की भावना करे )। तदनन्तर मूलमन्त्र से शिष्यों के दोनों हाथ पकड़कर
मन्त्रोपदेष्टा गुरु नेत्रमन्त्र ( वौषट्) - के उच्चारणपूर्वक नूतन एवं छिद्ररहित
वस्त्र से उनके नेत्रों को बाँध दे। फिर देवाधिदेव भगवान् की यथोचित पूजा सम्पन्न
करके तत्त्वज्ञ आचार्य हाथ में पुष्पाञ्जलि धारण करनेवाले उन शिष्यों को अपने पास
पूर्वाभिमुख बैठावे ॥ ४८- ५३ ॥
अर्चयेयुश्च तेप्येवम्प्रसूता
गुरुणा हरिम् ।
क्षिप्त्वा पुष्पाञ्जलिं तत्र
पुष्पादिभिरनन्तरम् ॥२४.०५४
अमन्त्रमर्चनं कृत्वा गुरोः
पादार्चनन्ततः ।
विधाय दक्षिणां दद्यात्सर्वस्वं
चार्धमेव वा ॥२४.०५५
गुरुः संशिक्षयेच्छिष्यान् तैः
पूज्यो नामभिर्हरिः ।
विश्वक्सेनं यजेदीशं
शङ्खचक्रगदाधरम् ॥२४.०५६
तज्जपन्तञ्च तर्जन्या मण्डलस्थं
विसर्जयेत् ॥५७॥२४.०५७
विष्णुनिर्माल्यमखिलं विष्वक्सेनाय
चार्पयेत् ।
प्रणीताभिस्तथात्मानमभिषिच्य च
कुण्डगं ॥२४.०५८
वह्निमात्मनि संयोज्य विष्वक्सेनं
विसर्जयेत् ।
बुभुक्षुः सर्वमाप्नोति
मुमुक्षुर्लीयते हरौ ॥२४.०५९
इस प्रकार गुरु द्वारा दिव्य नूतन
जन्म पाकर वे शिष्य भी श्रीहरि को पुष्पाञ्जलि अर्पित करके पुष्प आदि उपचारों से
उनका पूजन करें। तदनन्तर पुनः वासुदेव की अर्चना करके वे गुरु के चरणों का पूजन
करें। दक्षिणारूप में उन्हें अपना सर्वस्व अथवा आधी सम्पत्ति समर्पित कर दें। इसके
बाद गुरु शिष्यों को आवश्यक शिक्षा दें और वे (शिष्य) नाम- मन्त्रों द्वारा
श्रीहरि का पूजन करें। फिर मण्डल में विराजमान शङ्ख, चक्र, गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्वक्सेन का यजन
करें, जो द्वारपाल के रूप में अपनी तर्जनी अङ्गुलि से लोगों को
तर्जना देते हुए अनुचित क्रिया से रोक रहे हैं। इसके बाद श्रीहरि की प्रतिमा का
विसर्जन करे। भगवान् विष्णु का सारा निर्माल्य विष्वक्सेन को अर्पित कर दे।
तदनन्तर प्रणीता के जल से अपना और
अग्निकुण्ड का अभिषेक करके वहाँ के अग्निदेव को अपने आत्मा में लीन कर ले। इसके
पश्चात् विष्वक्सेन का विसर्जन करे। ऐसा करने से भोग की इच्छा रखनेवाला साधक
सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तु को पा लेता है और मुमुक्षु पुरुष श्रीहरि में विलीन
होता-सायुज्य मोक्ष प्राप्त करता है ।। ५४-५९ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
अग्निकार्यादिकथनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कुण्ड निर्माण और अग्नि-स्थापन सम्बन्धी कार्य आदि का वर्णन' विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 25
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