अग्निपुराण अध्याय २६
अग्निपुराण अध्याय २६ मुद्राओं के
लक्षण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २६
Agni puran chapter 26
अग्निपुराण छब्बीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय २६
अग्निपुराणम् अध्यायः २६- मुद्रालक्षणकथनम्
नारद उवाच
मुद्राणां लक्षणं वक्ष्ये
सान्निध्यादिप्रकारकम्।
अञ्चलिः प्रथमा मुद्रा वन्दनी
हृदयानुगा ।। १ ।।
ऊद्धर्वाङ्गुष्ठो
वाममुष्टिर्द्दक्षिणाङ्गुष्ठबन्धनम्।
सव्यस्य तस्य चाङ्गुष्ठो यस्य
चोद्धर्वे प्रकीर्त्तितः ।। २ ।।
तिस्नः साधरणा व्यूहे अथासाधारणा
इमाः।
कनिष्ठादिविमोकेन अष्टौ मुद्रा
यथाक्रमम् ।। ३ ।।
अष्टानां पूर्व्वबीजानां
क्रमशस्त्ववधारयेत्।
अङ्गुष्ठेन कनिष्ठान्तं
नामयित्वाङ्गुलित्रयम् ।। ४ ।।
ऊद्ध्र्वं कृत्वा सम्मुखञ्च थीजाय
नवमाय वै।
नारदजी कहते हैं - मुनिगण! अब मैं
मुद्राओं का लक्षण बताऊँगा। सांनिध्य*
(संनिधापिनी) आदि* मुद्रा के प्रकार-भेद
हैं। पहली मुद्रा अञ्जलि* है,
दूसरी वन्दनी* है और तीसरी
हृदयानुगा है। बायें हाथ की मुट्ठी से दाहिने हाथ के अँगूठे को बाँध ले और बायें
अङ्गुष्ठ को ऊपर उठाये रखे। सारांश यह है कि बायें और दाहिने- दोनों हाथों के
अँगूठे ऊपर की ओर ही उठे रहें। यही 'हृदयानुगा' मुद्रा है। (इसी को कोई 'संरोधिनी* और कोई निष्ठुरा*
कहते हैं)। व्यूहार्चन में ये तीन मुद्राएँ साधारण हैं। अब आगे ये असाधारण (विशेष)
मुद्राएँ बतायी जाती हैं। दोनों हाथों में अँगूठे से कनिष्ठा तक की तीन अँगुलियों को
नवाकर कनिष्ठा आदि को क्रमशः मुक्त करने से आठ मुद्राएँ बनती हैं। 'अ क च ट त प य श'- ये जो आठ वर्ग हैं, उनके जो पूर्व बीज (अं कं चं टं इत्यादि) हैं, उनको
ही सूचित करनेवाली उक्त आठ मुद्राएँ हैं- ऐसा निश्चय करे। फिर पाँचों अँगुलियों को
ऊपर करके हाथ को सम्मुख करने से जो नवीं मुद्रा बनती है, वह
नवम बीज ( क्षं) के लिये है ॥ १-४ ॥
*१. दोनों हाथों के अंगूठों को ऊपर करके मुट्ठी बाँधकर दोनों मुट्ठियों को
परस्पर सटाने से 'संनिधापिनी
मुद्रा' होती है।
२. 'आदि' पद से आवाहनी' आदि मुद्राओं को ग्रहण करना चाहिये। उनके लक्षण ग्रन्थान्तर से जानने
चाहिये।
३. यहाँ अञ्जलि को प्रथम
मुद्रा कहा गया है।' अञ्जलि'
और 'वन्दनी'- दोनों
मुद्राएँ प्रसिद्ध है अतः उनका विशेष लक्षण यहाँ नहीं दिया गया है। तथापि
मन्त्रमहार्णव में अञ्जलि को ही ' अञ्जलिमुद्रा' कहते हैं, यह परिभाषा दी गयी है-'अञ्जत्यञ्जलिमुद्रा स्यात्।'
४. हाथ जोड़कर नमस्कार
करना ही 'वन्दनी' मुद्रा है।
ईशानशिवगुरुदेव पद्धति में इसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है-
'बद्ध्वाञ्जलि
पङ्कजकोशकल्पं यद्दक्षिणज्येष्ठिकया तु वामाम्।
ज्येष्ठं समक्रम्य तु
बन्दनीय मुद्रा नमस्कारविधी प्रयोज्य ॥'
अर्थात् कमल-मुकुल के
समान अञ्जलि बाँधकर जब दाहिने अंगूठे से बायें अंगूठे को दबा दिया जाय तो 'वन्दिनी मुद्रा' होती है। इसका
प्रयोग नमस्कार के लिये होना चाहिये (उत्तरार्ध क्रियापाद, सप्तम
पटल ९) ।
५. यहाँ मूल में 'हृदयानुगा' मुद्रा का जो लक्षण
दिया गया है, वही अन्यत्र 'संरोधिनी
मुद्रा'का लक्षण है। मन्त्रमहार्णव में 'संनिधापिनी मुद्रा का लक्षण देकर कहा है- अन्तः प्रवेशिताङ्गुष्टा सैव
संरोधिनी मता।' अर्थात् संनिधापिनी को ही यदि
उसकी मुट्ठियों के भीतर अङ्गुष्ठ का प्रवेश हो तो 'संरोधिनी'
कहते हैं। हृदयानुगा में बायीं मुट्ठी के भीतर दाहिनी मुट्ठी का अंगूठा
रहता है और बायाँ अंगूठा खुला रहता है, परंतु संरोधिनी में
दोनों ही अँगूठे मुट्ठी के भीतर रहते हैं, यही अन्तर है।
६. ईशानशिवगुरुदेव मिश्र ने
शब्दान्तर से यही बात कही है। उन्होंने संनिरोधिनी को निष्ठुरा की संज्ञा दी है-
संलग्नमुष्टयोः करयोः
स्थितोर्ध्वज्येष्ठायुगं यत्र समुन्नताग्रम्।
सा संनिधापिन्यथ सैव
गर्भाङ्गुष्ठा भवेच्चेदिह निष्ठुराख्या ॥
वामहस्तमथोत्तानं कृत्वार्द्धं
नामयेच्छनैः ।।५ ।।
वराहस्य स्मृता मुद्रा अङ्गानाञ्च
क्रमादिमाः।
एकैकां मोचयेद् बद्ध्वा वाममुष्टौ
तथाङ्गुलीम् ।। ६ ।।
आकुञ्चयेत् पूर्वमुद्रां
दक्षिणेत्येवमेव च।
ऊद्र्ध्वाङ्गुष्ठो
वाममुष्टिर्मुद्रासिद्धिस्ततो भवेत् ।। ७ ।।
दाहिने हाथ के ऊपर बायें हाथ को
उतान रखकर उसे धीरे-धीरे नीचे को झुकाये। यह वराह की मुद्रा मानी गयी है। ये
क्रमशः अङ्गों की मुद्राएँ हैं। बायीं मुट्ठी में बँधी हुई एक-एक अँगुली को क्रमशः
मुक्त करे और पहले की मुक्त हुई अँगुली को फिर सिकोड़ ले। बायें हाथ में ऐसा करने के
बाद दाहिने हाथ में भी यही क्रिया करे।बायीं मुट्ठी के अँगूठे को ऊपर उठाये रखे।
ऐसा करने से मुद्राएँ सिद्ध होती हैं ॥ ५-७ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
मुद्राप्रदर्शनं नाम षड्विंशोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मुद्रालक्षण-वर्णन' नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ २६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 27
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