हरिस्तोत्र
कालिकापुराणान्तर्गत इस पृथिवी कृत् हरिस्तोत्र का पाठ करने
से सभी कष्ट बाधा का नाश होता है। स्त्रियॉं को यदि गर्भावास्था अथवा गर्भ
धारण में यदि कोई बाधा आये अथवा संतान जन्म देने में कोई परेशानी
आये तो इसका पाठ या इस पाठ द्वारा अभिमंत्रित जल पिलाने से शीघ्र लाभ मिलता है ।
पृथिवीकृतं हरिस्तोत्रम्
Hari stotram
हरि स्तोत्र
।। पृथिव्युवाच ।।
नमस्ते जगदव्यक्तरूप-कारणकारण ।
प्रधान-पुरुषातीत-स्थित्युत्पत्तिलयात्मक ।। १५ ।।
पृथ्वी बोली- हे जगत् के प्रकट रूप,
हे कारण के भी कारण, हे प्रधान, हे पुरुष से अतीत जगत की स्थिति उत्पत्ति और लयस्वरूप आपको नमस्कार है
॥ १५ ॥
जगन्नियोजनपरः स्वाहाभोगधरोत्तम
।
जगदानन्दनन्दात्मन् भगवन्
जगदीश्वर ।। १६ ।।
नियोजको नियोज्यश्च विभ्राजन्
विष्णुरव्यय ।
नमस्तुभ्यं
जगद्धातस्त्रिलोकालय विश्वकृत् ।। १७ ।।
आप संसार के नियोजन में लगे रहते हो
आप उत्तम स्वाहायुत भोग अर्थात् हविष्य के धारण करने वाले हो । आप जगत के आनन्द को
भी आनन्दित करने वाले, भगवान् तथा जगत्
के स्वामी हो । आप ही नियोजन करने वाले हो, तथा आप ही
नियोजन किये जाने योग्य हो। आप प्रकाशमान, अनश्वर,
पुण्यवान्, जगत के पालनकर्त्ता, तीनों लोकों के आश्रय तथा विश्व के कर्त्ता हो। आपको नमस्कार है ।।
१६-१७ ॥
यः पालयति नित्यानि
स्थापयत्येव तत्परः ।
त्वं त्वां नियमरूपेण नमामि
जगदीश्वर ।। १८ ।।
जो पालन करते हैं,
जो उन्हें नित्य पदार्थों में रत हों स्थापित करते हैं। हे जगदीश्वर
! उस तुम्हें तथा तुम्हारे नियम रूप को मैं नमस्कार करती हूँ ॥ १८ ॥
त्वं माधवः प्रवेकश्च कामः
कामालयो लयः ।
प्रसूतिच्युतिहेत्वर्थ त्राणकारणमीश्वर
।। १९ ।।
हे ईश्वर ! आप लक्ष्मी के पति,
अत्यन्त श्रेष्ठ, काम तथा कामनाओं के
आश्रय, अन्तिम स्थान हो । आप जन्म-मरण के हेतु और अर्थ से
उद्धार करने वाले हो ॥ १९ ॥
न यस्य ते क्लेदाय स्युरापो
नोष्मा तथोष्मणे ।
न शीताय भवेच्छीतं तस्मै
तुभ्यं नमो नमः ।। २० ।।
तुम्हें भिंगोने का सामर्थ्य न तो
जल में और न तपाने की गर्मी अग्नि में है, जिसे ठण्डा करने वाली कोई ठण्डक ही नहीं है, उस
आपको बारम्बार नमस्कार है ।। २० ।।
न समुद्रः प्लवकरो न शोषाय
दहात्मकः ।
न मृत्यवे यस्य यमस्तस्मै
तुभ्यं नमो नमः ।।२१।।
जिसे डुबोने वाला न कोई समुद्र है
और न सुखाने वाली अग्नि ही है, न जिसे मारने
वाला कोई यमराज है, उस आपको बारम्बार नमस्कार है ।। २१ ।।
यच्चिद्धार्यं योगिभिः
शान्तदेहै-
रुन्मार्गाणां
यात्यरिध्येयकृत्यम् ।
नित्यं यद्रूपमार्गावसक्तं
स त्वं त्राहि त्राणमिच्छन्
धरित्रीम् ।। २२ ।।
शान्ति देहवाले योगीजन उत्पथगामि
कदाचारियों के शत्रुवत् व्यवहार को छोड़कर जिसे सदैव चित्त में धारण करते हैं ।
नित्य जिसके अनुरूप मार्ग में सम्पर्कशील रहते हैं वह परमात्मा मुझ त्राण चाहने
वाली धरती की रक्षा करे ॥ २२ ॥
इति कालिकापुराणे पृथिवीकृतं हरिस्तोत्रम् अध्याय ३६ ।।
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