कालिका पुराण अध्याय ३५
कालिका पुराण अध्याय ३५ में शरभ का काया
त्याग और भैरव के रूप का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ३५
Kalika puran chapter 35
कालिकापुराणम् पञ्चत्रिंशोऽध्यायः शरभकायत्यागः
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ३५
॥ मार्कण्डेय उवाच ।।
ईश्वरः शारभं कायं यथा तत्याज
यत्नतः ।
तन्मे निगदतो भूयः शृणुध्वं
द्विजसत्तमाः ।।१।।
मार्कण्डेय बोले-हे द्विजसत्तमों !
ईश्वर शिव ने जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने शरभ शरीर का त्याग किया,
उसे मैं कहता हूँ । आप पुनः सुनिये ॥ १ ॥
हते यज्ञवराहे तु ब्रह्मा
लोकपितामहः ।
उवाच शरभं गत्वा सामयुक्तं
जगद्धितम् ।।२।।
यज्ञवाराह के मारे जाने पर लोक के
पितामह ब्रह्मा संसार के कल्याण कर्ता, शरभ
(रूपधारी शिव) के पास जाकर उन्हें सामपूर्वक (समझाते हुए) बोले ॥ २ ॥
।। ब्रह्मोवाच ।।
देहाभोगेन भवत:पूरितं भूरियोजनम् ।
उपसंहर तस्मात् त्वं कायं
लोकभयङ्करम् ।।३।।
ब्रह्मा बोले-आप ने अपने देह के
विस्तार से बहुत दूरी छेक लिया है। इसलिए अब आप लोक को भयभीत करने वाले अपने इस
शरीर का संयमन कीजिये ॥ ३ ॥
तव युद्धेन सकलं प्रणष्टं भुवनत्रयम्
।
आकाशं गन्तुं त्वां दृष्ट्वा
विभेत्यद्य जनार्दनः ।
तस्मात् त्वमूर्धलोकानां हिताय त्यज
वै तनुम् ।।४।।
आपके युद्ध से समस्त त्रिलोकी
अत्यधिक नष्ट हो गयी है । आपको आकाश की ओर जाते देखकर आज भगवान विष्णु भयभीत हो
रहे हैं। इसलिए आप ऊपरी लोकों के हित के लिए अपने इस शरीर को छोड़ दीजिये ॥ ४ ॥
।। मार्कण्डेय उवाच ।।
ततस्तस्य वचः श्रुत्वा
सुरज्येष्ठस्य शङ्करः ।
तत्याज शारभं कायं तोयोपर्येव
तत्क्षणात् ।।५।।
मार्कण्डेय बोले—तब उन देवताओं में ज्येष्ठ ब्रह्मा के वचन को सुनकर ने जलराशि पर ही
तत्क्षण अपने शरभ शरीर को छोड़ दिया ।। ५ ।।
त्यक्तस्य तस्य देहस्य शङ्करेण
महात्मना ।
अष्टौ पादा अष्टमूर्तेस्तेषु
चाष्टसु भेजिरे ॥६॥
महात्मा शङ्कर के द्वारा उस छोड़े
गये शरभ शरीर के आठ पैर उनकी आठ मूर्तियों में बदल गये ।। ६ ॥
आद्यन्तु दक्षिणं पादमाकाशमगमद्द्द्रुतम्
।
तद्वामं मिहिरं भेजे पश्चाद्
दक्षिणजं विधौ ।।७।।
वामन्तु ज्वलनं भेजे पृष्ठाग्रं
पद्गतं क्षितिम् ।
पृष्ठाग्रवामं सलिलं तत्पश्चाद्
दक्षिणं तथा ।
ययौ वामपदं भेजे होतारं सर्वतोमुखम्
।।८।।
उनका पहला दाहिना पैर तीव्रता से
आकाश रूप को प्राप्त किया, उससे बायाँ,
सूर्य स्वरूप को प्राप्त किया। बाद के दक्षिण में उत्पन्न पैर ने
चन्द्रमा के रूप को तथा बायें पैर ने अग्नि का रूप धारण किया। पीछे का अगला दक्षिण
पैर पृथ्वी रूप को तथा बायाँ पैर जल, पुनः दाहिना वायु तथा
बायाँ होता के सर्वतोमुखी रूप को प्राप्त किया ।। ७-८ ।।
एवं तस्याष्टमूर्तेस्तु अष्टमूर्तिषु
तत्क्षणात् ।
अष्टौ पादास्तथा भेजुः स्वं स्वं
तेजो ययुः पदम् ।।९।।
इस प्रकार इस अष्टमूर्ति (शरभ
वेषधारी शिव) की आठ मूर्तियों में उनके आठ पैरों ने अपने अनेक तेज एवं स्थान को
प्राप्त कर लिया ।। ९ ।।
मध्यं तु शारभं कायं शङ्करस्य
महात्मनः ।
कपाली भैरवो भूतश्चण्डरूपी दुरासदः
।। १० ।।
तब उस महान आत्मा वाले भगवान शिव का
मध्यवर्ती शरभशरीर, भयङ्कररूप, कपालधारी, भैरव के रूप में बदल गया ।। १०।।
मस्तिष्कमेदसा युक्तं मांसं जुह्वति
ते शुचौ ।
ब्रह्मकपालपात्रस्थं
सुराभिर्देवपूजनम् ।।११।।
बलिर्मनुष्यमांसेन पानं तु रुधिरं
सदा ।
सुरया पारणं यज्ञे कपालोक्षटधारणम्
।।१२।।
जो ब्रह्मकपाल के पात्र में रखी गयी
सुरा से देवता का पूजन, मस्तिष्क के मेदा
से युक्त मांस से हवन, मनुष्य के मांस से बलि (भोजन),
रक्त का सदैव पान करते हैं; वे यज्ञों में
सुरा (मदिरा) से पारण तथा उक्षट (उखाड़े हुए) कपाल को धारण करते हैं ।। ११-१२ ।।
व्याघ्रचर्मपरिधानं समलं त्रिवलीवृतम्
।
एवं कुर्वन्ति सततं कपालव्रतधारिणः
।
कपाली भैरवस्तेषां देव: पूज्यंस्तु
नित्यशः ।। १३ ।।
त्रिवली पेटिका लपेटे,
व्याघ्रचर्म का वस्त्र धारण किये, मलयुक्त,
मैले रहते हैं । कपाल व्रतधारण करने वाले कपाली लोग निरन्तर इसी
प्रकार का आचरण करते हैं । कपालधारी भैरव उन कपालिकों के नित्य पूजनीय देवता हैं
।। १३ ।।
महाभैरव रूप वर्णन
श्मशान भैरवो योऽसौ यो
महाभैरवाह्वयः ।।१४।।
बालसूर्यसमोद्योतः सदाष्टादशबाहुभिः
।
बिभ्राजमानो रक्ताक्षः सर्वदा
नायिकाव्रजैः ।। १५ ।।
कालीप्रचण्डाप्रमुखैः क्रीडमानस्तु
नित्यशः ।
सद्योदग्धनृमांसाशी गलल्लोललसद्भुजः
।।१६।।
लोहिताहारविघसः प्रेताशनगतः सदा ।
स्थूलवक्त्रोऽथ लम्बोष्ठो
ह्रस्वस्थलपदालयः ।
विनोदी वादनो लोके साट्टहासत्सु
भैरवः ।। १७ ।।
जो श्मशान भैरव हैं,
उन्हें ही महाभैरव कहा जाता है । वे भैरव बालसूर्य के समान तेजयुक्त,
सदैव अठारह भुजाओं से सुशोभित, लाल-लाल
नेत्रों वाले, सर्वदा कालीप्रचण्डा आदि नायिकाओं के समूह में
नित्य क्रीड़ा करते हैं । तुरन्त जले हुए मनुष्य के मांस का भोजन करने वाले,
रक्तस्रावी चञ्चल भुजाओं से सुशोभित, रक्त का
भोजन (जूठा भोजन) करने वाले सदैव प्रेतासन पर स्थित, विशालमुँह
और लम्बेओंठ, छोटेपैर से युक्त विनोदी, बाजा बजाने वाले अट्टहासयुक्त वे भैरव रहते हैं ।। १५-१७ ।।
एवं स च महादेवो महाभैरवरूपधृक् ।
मध्यशार भकायेन कार्य द महाभुजः ।।
१८ ।।
इस प्रकार उन महादेव शिव ने अपने
शरभशरीर के मध्यभाग से महान् भुजाओं वाले महाभैरव रूपधारी शरीर को धारण किया ।। १८
।।
स जगाम ततो देवा हरस्य प्रमथान्
प्रति ।
गणैः सार्धं तथाकाशे विक्रीडति स
भैरवः ।। १९ ।।
तबसे शिव के गणों के साथ सभी देवता
तथा वह भैरववशधारी शिव गणों के साथ आकाश में नित्य क्रीड़ा करते हैं ।। १९ ॥
स महाभैरवो देवः पूज्यमानो जगज्जनैः
।
अद्यापि कुरुते नित्यमिष्टकामस्य
साधनम् ।।२०।।
वही महाभैरव देवता आज भी
सांसारिकजनों द्वारा पूजित हो नित्य उनके अभीष्ट काम का साधन करते हैं॥२०॥
चैत्र-शुक्लचतुर्दश्यां मध्वासवपयः फलैः ।
मांसैर्मत्स्यैः सरुधिरैः सकृद्यो
भैरवं यजेत् ।। २१ ।।
स सर्वकामान् संसाध्य भोगान्
भुक्त्वा यथेष्टतः ।
प्रयाति शम्भुभवनमारुह्य वृषभं वरम्
।। २२।।
जो चैत्रशुक्ल चतुर्दशी को मधु,
आसव, दूध, फल, मांस, मत्स्य, रक्तादि से एक
बार भी भैरव का पूजन करता है, वह अपनी सभी कामनाओं को पूरा
कर,इच्छानुसार भोगों को भोगकर (मृत्यु के उपरान्त) श्रेष्ठ
बैल पर सवार होकर शिवलोक को जाता है ।। २१-२२ ॥
एतद्वः कथितं सर्व यत्पृष्टोऽहं
द्विजोत्तमैः ।
भवद्भिर्यच्च वोऽन्यद् वा रोचते
पृच्छ मां तु तत् ।। २३ ।।
हे द्विजोत्तमों ! यह आप लोगों
द्वारा जो पूछा गया था वह मैंने कह दिया है । आप लोगों को और जो भी अच्छा लगे वह
मुझसे पूछिये ॥ २३ ॥
॥ इति श्रीकालिकापुराणे
शरभकायत्यागे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
॥ श्रीकालिकापुराण का शरभकायत्याग
नामक पैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥३५॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 36
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