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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ३४

कालिका पुराण अध्याय ३४                    

कालिका पुराण अध्याय ३४ में पुन: सृष्टि का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३४

कालिका पुराण अध्याय ३४                    

Kalika puran chapter 34

कालिकापुराणम् चतुस्त्रिंशोऽध्यायः पुनसृष्टिवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ३४                         

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

यथा पुनरभूत् सृष्टिरकालप्रलये गते ।

येन चैवोद्धृता पृथ्वी तच्छृणवन्तु द्विजोत्तमाः ।। १ ।।

हे द्विजोत्तमों ! उस अकाल प्रलयकाल के बीत जाने पर जिस प्रकार से सृष्टि पुनः उत्पन्न हुई तथा जिसके द्वारा पृथ्वी का उद्धार किया गया, उसे आप सब सुनें ॥ १ ॥

व्यतीते प्रलये विष्णुः कूर्मरूपी महाबलः ।

पृष्ठे निधाय पृथिवीमुद्धृत्याथ सपर्वताम् ।

समांचकार सकलां पूर्ववत्परमेश्वरः ।। २ ।।

उस अकालप्रलय के बीत जाने पर महाबली परमेश्वर भगवान् विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर पृथ्वी को पर्वतों के सहित उठाकर अपनी पीठ पर धारण कर लिया तथा उसे पहले की ही भाँति समतल कर दिया ।। २ ।।

शरभस्य वराहस्य तत्पुत्राणां पदक्रमैः ।

यत्र भूमिर्विशीर्णाभूत्तां तां समां कमठोऽकरोत् ।।३।।

शरभ, वराह तथा उसके तीनों पुत्रों को पैरों के चलने से पृथ्वी जहाँ-जहाँ क्षत-विक्षत हो गयी थी, कच्छप वेशधारी भगवान् विष्णु ने उसे समतल कर दिया ।। ३ ।।

कृत्वा समां ततो भूमिं पूर्ववत् परमेश्वरः ।

अनन्तं धारयामास पृथिवीतलसंश्रितम् ।।४।।

तब पहले की भाँति पृथ्वी को समतल करके परमेश्वर ने पृथ्वी तल में आश्रय के लिए अनन्त को धारण किया ॥ ४ ॥

ततो ब्रह्मा च विष्णुश्च हरश्च परमेश्वरः ।

नावोदरस्थितान् सप्तमुनीन्मनुं स्वायम्भुवं तदा ।

नरनारायणौ चोभौ दक्षञ्चोचुः समागताः ।।५॥

तब परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने आकर उस नौका के उदर में स्थित स्वायम्भुवमनु, सप्त ऋषियों, प्रजापति दक्ष तथा नर नारायण से कहा ॥ ५ ॥

शृण्वन्तु मुनयः सर्वे ब्रूमोधुना च यत् ।।६।।

हे मुनिगण, नर-नारायण एवं स्वायम्भुव मनु तथा दक्ष प्रजापति ! इस समय हम लोग जो कह रहे हैं, उसे आप सुनें॥६॥

सृष्टिर्नष्टा वराहस्य शरभस्य च सङ्गरात् ।

अतोऽस्माकं यथाकार्या सृष्टिराकर्णयन्तु तत् ।।७।।

वराह और शरभ के युद्ध के कारण यह सृष्टि नष्ट हो गयी है अत: यह कैसे पुन: की जाएगी, वह हमलोगों से सुनें ।। ७ ।।

नरनारायणावेतौ सृष्ट्यर्थं समुपस्थितौ ।

संस्थापनाय देवानां परमं तप्यतां तपः ।।८।।

यहाँ जो नर-नारायण नामक दो ऋषि उपस्थित हैं, ये सृष्टि कर्म तथा देवताओं की स्थापना के लिए परमश्रेष्ठ तपस्या करें ॥ ८ ॥

आप्याय तपसा चोभौ जनलोकगतान् सुरान् ।

आनयन्त्वपराञ्छश्वत् संसृजन्तु गणान् बहून् ।।९ ॥

तपस्या में लीन हो, ये दोनों प्रलय काल में जनलोक में चले गये देवताओं तथा अन्यों को वापस लायें और अन्य बहुत से गणों की सृष्टि करें ।। ९ ।।

नक्षत्राणि ग्रहांश्चैव तेषां स्थानानि वै मुने ।

एग्रोस्तपसा यान्तु स्थिरतां पूर्ववन्मनो ।।१०।।

हे मनु ! इनकी तपस्या से ही नक्षत्रों तथा ग्रहों को एवं सप्तर्षियों को पहले की भाँति स्थिरता प्राप्त होवे ॥ १० ॥

सूर्यस्य रथसंस्थानं तथा चन्द्ररथस्थितिम् ।

करोत्वयं महाभागः स्वयमेव जनार्दनः ।। ११ ।।

सूर्य के रथसंस्थान तथा चन्द्रमा के रथ की स्थापना और व्यवस्था स्वयं महाभाग विष्णु करें ॥। ११ ॥

पृथिव्यां सर्वबीजानि स्वायम्भुवमनो त्वया ।

उप्यन्तां सर्वतः शस्यपूर्णा भवतु मेदिनी ।। १२ ।।

स्वायम्भुवमनु ! पृथ्वी पर तुम्हारे द्वारा सभी बीज बोये जायें जिससे यह पृथ्वी पुनः सब ओर से हरी-भरी हो जावे ॥ १२ ॥

प्ररोहयौषधीवृक्षान् लतावल्लीश्च सर्वतः ।

स्वायम्भुव महान्त्येतत् प्राप्तान्यृतुफलानि च ।।१३।।

वे स्वायाम्भुव मनु सब ओर ओषधि (वनस्पति), वृक्ष, लता, वल्लियों को उत्पन्न कर बढ़ायें तथा इनसे प्राप्त होने वाले उत्तम ऋतुफलों को भी विकसित करें ॥ १३ ॥

दक्षः सप्तमुनीन्द्रस्तु यज्ञेन यजतां हरिम् ।

वराहपुत्रदेहोत्थमग्नित्रयमिदं यजन् ।। १४ ।।

दक्ष प्रजापति सप्तर्षियों के साथ वाराह के पुत्रों के शरीर से उत्पन्न इन तीन प्रकार की अग्नियों में यज्ञ करते हुए यज्ञ के द्वारा भगवान विष्णु का पूजन करें ।। १४ ।।

असौ यज्ञो वराहस्य देहाज्जातस्तु सृष्टये ।

अनेनैव तु यज्ञेन दक्षः सृष्टिं तनोत्विमाम् ।। १५ ।।

ये यज्ञदेव स्वयं वराह के शरीर से सृष्टि के लिए ही उत्पन्न हुए हैं। अतः दक्षप्रजापति इस सृष्टि का विस्तार इन यज्ञ के ही माध्यम से करें ।। १५ ।।

नरनारायणाभ्यां तु मुनिभिः सप्तभिस्तथा ।

दक्षेण भवता चापि यज्ञेनैभिस्तथाग्निभिः ।

सम्पूर्यतामियं सृष्टिः स्वर्गे भुवि रसातले ।।१६।।

इस प्रकार यह सृष्टि नर-नारायण, सप्तर्षि, यज्ञ, अग्निगण, दक्ष तथा आप स्वायम्भुव मनु के सम्मिलित प्रयास से स्वर्ग लोक, पृथ्वी लाक एवं रसातल को परिपूर्ण करे ॥ १६ ॥

वयं च सृष्टिमाप्याय्य यथा सम्पद्यते त्वियम् ।

यतिष्यामस्तथा नित्यं यूयं कुरुत सर्जनम् ।। १७ ।।

तुम सब सृष्टि करो हम भी इसी में प्रवेश कर ऐसा यत्न करेंगे, जिससे यह नित्यता को प्राप्त हो ॥ १७ ॥

ततः सम्पद्यतां सृष्टिर्यथा पूर्वं तथैव च ।

प्रथमं त्वन्तु बीजानि प्ररोहय मनोऽधुना ।। १८ ।।

इसलिए आप सब पहले की भाँति ही सृष्टि का काम करें। सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु इस समय पृथ्वी पर बीजों को उगायें तथा उन्हें बढ़ायें ॥ १८॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्यादिश्य महाभागा विधिविष्णुवृषध्वजाः ।

यथास्थानं स्थापयितुं पर्वतान् प्रययुस्ततः ।। १९।।

मेरुमन्दरकैलासहिमवत्प्रभृतिष्वथ।

पुराणि सर्वदेवानां ते वै चक्रुः पृथक् पृथक् ।।२०।।

मार्कण्डेय बोले- तब उपर्युक्त आदेश दे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जैसे महाभाग पर्वतों को यथा-स्थान स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हुए। उन्होंने मेरु, मन्दराचल, कैलाश तथा हिमालय आदि पर्वतों पर सभी देवताओं के अलग-अलग निवासस्थान (नगर) बनाये ।। १९-२० ।।

परित्यज्य ततो नावमवधृत्य वसुन्धराम् ।

स्वायम्भुवःक्षितौ बीजान्यवपत् सर्वसम्पदे ।। २१ ।।

तब स्वायम्भुमन ने नौका को छोड़कर तथा पृथ्वी पर उतर कर सभी सम्पत्तियों की प्राप्ति हेतु पृथ्वी पर बीजों को बोया ।। २१ ॥

ततो वृक्षलतावल्लीगुल्मानि च वनानि च ।

बालशस्यानि धान्यानि तथैवौषधयः समाः ।। २२ ।।

बीजकाण्डप्ररोहाश्च प्रताना जलजानि च ।

प्रफुल्लानि विकोशानि फलकन्ददलानि च ।

बभुवुः शाद्वलान्येव सर्वेषां प्राणवृद्धये ।। २३ ।।

तब सभी के प्राण वृद्धि हेतु वृक्ष, लता, वल्ली, झाड़ी, वन, छोटे हरे पौधे,अनाज, वनस्पतियाँ तथा औषधियाँ, बीज, पोर, तथा खिले हुए कमल, बिना फलीवाले फल, कन्द और पत्ते, हरी घासें उत्पन्न हुईं ॥ २२-२३ ॥

पृथिवी शस्यसम्पन्ना वृक्षास्ते शाद्वलाः शुभाः ।

दृष्टाः पूर्वं यथा तस्मान्मनुना चित्तहर्षिणा ।। २४ ।।

तब प्रसन्न मनवाले मनु द्वारा पहले की ही भाँति हरियाली सम्पन्न पृथ्वी तथा सुन्दर हरे-भरे वृक्ष देखे गये ॥२४॥

ततो नरो महायोगी तपस्तेपे महत्तमम् ।

नारायणश्च देवानां भावनाय महामतिः ।। २५ ।

तब महान बुद्धिमान नारायण तथा महानयोगी नर ने देवताओं के आह्वान हेतु महती तपस्या की ।। २५ ।।

नारायणो नरश्वोभौ परमावृषिसत्तमौ ।

तपसाराध्य परमं तेजोमयमनामयम् ।। २६ ।।

आनित्या जनगणान् देवान् देवर्षिसत्तमान् ।

ये मृता अमराः पूर्वं गणशस्तान् पृथक् पृथक् ।। २७।।

उन नर-नारायण नामक श्रेष्ठ महान ऋषियों ने तपस्या द्वारा तेजोमय,रोगरहित परम तत्त्व की आराधना की और उन जनों, देवताओं, देवर्षियों में श्रेष्ठ देवर्षियों को जो पहले मर गये थे या अमरावस्था में जन आदि अन्य लोकों में चले गये थे, उन्हें अलग-अलग लाया ।। २६-२७ ॥

तपोबलेन महता सर्जयामासतुर्मुनी ।

सूर्याचन्द्रमसौ देवौ दिक्पालांश्च तथा दश ।

जनार्दनः स्वयं चक्रे पातालतलवासिनः ।। २८ ।।

उन दोनों मुनियों ने अपनी महती तपस्या के बल से सूर्य-चन्द्रमा तथा दसों दिक्पालों की सृष्टि की तथा जनार्दन विष्णु ने स्वयं पाताल लोक में रहने वाले नागादि वर्गों की सृष्टि की ॥ २८ ॥

सूर्याचन्द्रमसोश्चक्रे यथासंस्थानमच्युतः ।

पूर्ववद् योजयामास दिवारात्रस्थितौ च तौ ।। २९ ।।

भगवान विष्णु ने उन दोनों सूर्य और चन्द्रमा को पहले की ही भाँति दिन-रात्रि की व्यस्था के लिए यथास्थान नियोजित किया ।। २९ ।।

ओषधिषु च जातासु यज्ञवृक्षेषु सत्तमाः ।

शस्यबीजेषु जातेषु देवेषु च पृथक् पृथक् ।

दक्षः कर्तुं समारेभे ज्योतिष्टोमं महाध्वरम् ।।३० ॥

हे मुनिसत्तमों ! उन ओषधियों, यज्ञीयवृक्षों, अन्न के बीजों तथा देवताओं आदि की अलग-अलग उत्पत्ति हो जाने पर दक्षप्रजापति ने ज्योतिष्टोम नामक महान् यज्ञ करना आरम्भ किया ॥ ३० ॥

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।

जमदग्निर्भरद्वाज एते सप्तर्षयोऽमलाः ।।३१।।

एतैः सप्तमुनीन्द्रैस्तु दक्षो ब्रह्मसुतः स्वयम् ।

महायज्ञं ततश्चक्रे यावद्द्वादशवत्सरान् ।।३२।।

तब कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज ये जो निर्मल चित्तवाले सप्तर्षि हैं, इन सात श्रेष्ठ ऋषियों के द्वारा तथा ब्रह्मा के पुत्र, दक्षप्रजापति ने स्वयं बारह वर्षों तक उस महान यज्ञ का सम्पादन किया।।३१-३२।।

हूयमानेषु तत्रैव त्रिष्वग्निषु पुनः पुनः ।

इज्यमाने वराहे तु यज्ञरूपे तदा द्विजैः ।

चतुर्विधाः प्रजा जाता यज्ञादेव द्विजोत्तमा ।। ३३ ।।

हे द्विजोत्तमों ! तब इस प्रकार से वहाँ वाराहपुत्रों के शरीर से उत्पन्न तीनों अग्नियों में उन ब्राह्मणों द्वारा बारम्बार आहुति दे, यज्ञरूप वराह का यजन किये जाने पर उसी यज्ञ से चार प्रकार की प्रजा उत्पन्न हुई।।३३॥

ततो दक्षस्य संजाताः पुत्र्यः पुण्यात्रयोदश ।

स्वरूपगुणसम्पन्नाःसृष्टयर्थममितप्रजाः ।। ३४।।

तब दक्षप्रजापति को सृष्टि हेतु अत्यधिक सन्तान उत्पन्न करने वाली, रूप गुण सम्पन्न, तेरह पवित्र कन्याएँ उत्पन्न हुई ॥ ३४ ॥

ताः पुत्रीः प्रददौ दक्षः कश्यपाय महात्मने ।

ताभ्यो जाताश्च बहवस्तैर्व्याप्तं सकलं जगत् ।। ३५ ।।

दक्षप्रजापति ने उन कन्याओं को महात्मा कश्यप को प्रदान कर दिया। उनसे बहुत सी सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनसे ही सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया ।। ३५ ।।

स सर्वासां प्रजानां तु कश्यपो जनको ह्यभूत् ।

निःसृतं द्विजशार्दूलाः कश्यपात् सकलं जगत् ।। ३६।।

हे द्विजशार्दूलों ! वह कश्यप ही उन सभी प्रजाओं के पिता हुए। यह सम्पूर्ण जगत कश्यप से उत्पन्न हुआ है।।३६।।

तासां नामानि तज्जाताः प्रजाः सर्वाः पृथक् पृथक् ।

शृण्वन्तु मुनयः सर्वे सम्यक् कथयतो मम ।। ३७ ।।

हे मुनिगण ! उन कन्याओं के नाम तथा उनसे उत्पन्न सभी सन्तानों के नाम मेरे द्वारा अलग-अलग भलीभाँति बताये जा रहे हैं। उन्हें आप सब सुनिये ।। ३७ ।।

अदितिर्दितिर्दनु; काला दनायूः सिंहिका मुनिः ।

क्रोधा प्रधा वरिष्ठा च विनता कपिला तथा ।

कद्रूस्त्रयोदशसुता एता दक्षस्य कीर्तिताः ।। ३८।।

हे मुनि ! (१) अदिति, (२) दिति, (३) दनु, (४) काला, (५) दनायू, (६) सिंहिका, (७) मुनि, (८) क्रोधा, (९) प्रधा, (१०) वरिष्ठा, (११) विनता, (१२) कपिला, (१३) कद्रू ये दक्ष प्रजापति की तेरह पुत्रियाँ कही गयी हैं ।। ३८ ।।

संजातो दक्षिणाङ्गुष्ठान्मनसा ध्यायतो विधेः ।

तेन देवमनुष्येषु दक्ष इत्येव कथ्यते ।। ३९।।

दक्षप्रजापति मन से ध्यान करते समय ब्रह्मा के दाहिने अँगूठे से वे उत्पन्न हुए थे। इसीलिए वे देवताओं एवं मनुष्यों में दक्षप्रजापति के नाम से कहे जाते हैं ॥ ३९ ॥

ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा दश पूर्वं प्रकीर्तिताः ।

तेषां षट्सृष्टिकर्तारो व्यतीतेऽस्मिन् जनक्षये ।

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।। ४० ।।

पहले ब्रह्मा के जिन दश मानसपुत्रों का वर्णन किया गया है, उनमें से इस जनप्रलय के समाप्त हो जाने पर (१) मरीचि, (२) अत्रि, (३) अंगिरस, (४) पुलस्त्य, (५) पुलह, (६) क्रतु ये छ: सृष्टिकर्त्ता होंगे ।। ४० ।।

मरीचेस्तनयो जातः कश्यपो लोकभावनः ।

अस्यैव दक्षकन्याभ्यः प्रजा जज्ञेऽथ भूरिशः ।।४१।।

उनमें से मरीचि के पुत्र लोक के उत्पत्तिकर्त्ता प्रजापति कश्यप उत्पन्न हुये । इनकी दक्ष की कन्याओं से बहुत-सी सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनकी पत्नियों से उत्पन्न सन्तानों के नाम जानिये ।। ४१।।

अस्य जायाप्रजातानां नामतो विनिबोधत ।

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणः सोम एव च ।। ४२ ।।

भर्गो विवस्वान् पूषा च सवितृत्वष्टविष्णवः ।

अदितेर्द्वादशसुता आदित्यास्ते प्रकीर्तिताः ॥ ४३ ॥

(१) धाता, (२) मित्र, (३) अर्यमा, (४) शक्र, (५) वरुण, (६) सोम, (७) भर्ग, (८) विवश्वान्, (९) पूषा, (१०) सविता, (११) त्वष्टा, (१२) विष्णु ये अदिति के बारह पुत्र, आदित्य कहे जाते हैं ॥ ४२ -४३ ॥

एषां कनीयान् गुणवान् सदा यस्तपति प्रजाः ।

स वै वंशकरो मुख्यो गद्यते वो दिवाकरः ।।४४।।

इनमें से सबसे छोटे, गुणवान, सदा तपने वाली सन्तान, विष्णु हैं, उन्हें दिवाकर कहा जाता है तथा वही वंश प्रवर्तक हैं ॥ ४४ ॥

एक एव दितेः पुत्रो हिरण्यकशिपुर्बली ।। ४५ ।।

चत्वारस्तस्य तनया हृष्टा मदबलान्विताः ।

प्रह्लादो ह्यथ संह्लादो वाष्कलः शिविरेव च ।। ४६ ।।

दिति का हिरण्यकशिपु नामक एक ही बलशाली पुत्र हुआ, जिसके प्रसन्न एवं मद तथा बल से युक्त प्रह्लाद, संह्लाद, वाष्कल और शिवि नाम के चार पुत्र उत्पन्न हुए ।। ४५-४६ ।।

प्रह्लादस्य त्रयः पुत्रास्तेषामाद्यो विरोचनः ।

कुम्भो निकुम्भो बलवांस्त्रयः प्राह्लादयः स्मृताः ।।४७।।

प्रह्लाद के विरोचन, कुम्भ, निकुम्भ ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें विरोचन सबसे बड़ा था। ये तीनों बलवान थे और प्राह्लाद के नाम से स्मरण किये जाते हैं ॥ ४७ ॥

विरोचनसुतो जातो दानशौण्डो बलिर्महान् ।

बलेश्च पुत्रो विदितो बाणो नाम महाबली ।।४८ ।।

शम्भोरनुचरः श्रीमान् महाकालाह्वयश्च सः ।

बाणस्य च शतं पुत्राः कुसुम्भमकरादयः ।।४९ ।।

दान में निपुण महान् बली विरोचन के पुत्र हुए। बली का पुत्र अत्यन्त बलवान् विख्यात बाण नामक पुत्र हुआ। महाकाल नामक वह शिव का अनुचर था तथा धन सम्पन्न था। उस बाण के कुसुम्भ, मकर आदि एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए ।। ४८-४९ ।।

चत्वारिंशद्दनोः पुत्राः विप्रचित्तिपुरःसराः ।

शम्बरो नमुचिश्चैव पुलोमा च तथैव च ॥ ५० ॥

असिलोमा तथा केशी दुर्जयोऽयः शिरास्तथा ।

अश्वशीर्षो क्षयः शङ्कुर्वियन्मूर्धा महाबलः ।।५१।।

वेगवान् केतुमांश्चैव स्वयं स्वर्भानुरेव च ।

अश्वो ह्यश्वपतिः कुण्डो वृषपर्वाजकस्तथा ।। ५२ ।।

अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुरुण्डुर्माण्डलस्तथा ।

ऊर्धबाहुश्चैकचक्रो विरूपाक्षो हराहरौ ।। ५३ ।।

नियन्त्रश्च निकुम्भश्च कुपटश्चपटुस्तथा ।

सरभ: सुलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा ।।५४।।

दनु के विप्रचित्ति को ज्येष्ठ मान कर चालीस पुत्र उत्पन्न हुए। जिनके नाम निम्नलिखित हैं- (१) विप्रचित्ति, (२) शम्बर, (३) नमुचि, (४) पुलोमा, (५) असिलोमा, (६) केशी, (७) दुर्जय, (८) अय, (९) शिरा:, (१०) अश्वशीर्ष, (११) क्षय, (१२) शंकु, (१३) वियन्मूर्धा, (१४) महाबल, (१५) वेगवान, (१६) केतुमान्, (१७) स्वयं, (१८) स्वर्भानु, (१९) अश्व, (२०) अश्वपति, (२१) कुण्ड, (२२) वृषपर्वा, (२३) अजक, (२४) अश्वपति, (२५) सूक्ष्म, (२६) तुरुण्डुः, (२७) माण्डल:, (२८) ऊर्ध्वबाहु, (२९) एकचक्र, (३०) विरूपाक्ष, (३१) हर, (३२) आहर, (३३) नियन्त्र, (३४) निकुम्भ, (३५) कुपट, (३६) पटु, (३७) सरभ, (३८) सुलभ, (३९) सूर्य, (४०) चन्द्रमा ।। ५०-५४ ।।

अन्यावेतौ दनोः पुत्रौ सूर्याचन्द्रमसौ तथा ।

दिवाकर निशानाथौ तावन्यौ देवपुङ्गवौ ।।५५।।

दनु के उपर्युक्त सूर्य चन्द्रमा नामक पुत्र दिवाकर, सूर्य तथा निशापति चन्द्रमा जैसे देव श्रेष्ठों से भिन्न हैं । दनु के पुत्र अन्य तथा देव अलग-अलग हैं ।। ५५ ।।

एषां पुत्रैश्च पौत्रैश्च तत्पुत्रैश्चैव भूरिभिः ।

जगद् व्याप्तमिदं सर्वं बलवीर्यसमन्वितैः ।।५६ ।।

इनके ही बल एवं पराक्रम से सम्पन्न पुत्र-पौत्रों तथा उनके बहुत से पुत्रों से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है ।। ५६ ।।

दनायूषोऽभवन् पुत्राश्चत्वारो बलवत्तराः ।

वीरभद्रो विक्षरश्च वत्सो वृत्तस्तथैव च ।। ५७ ।।

दनायू के एक से बढ़कर एक बलवान, वीरभद्र, विक्षर, वत्स तथा वृत्त नाम के चार पुत्र हुए ।। ५७ ।।

एषां चतुर्णां बहवः पुत्रा जाता द्विजोत्तमाः ।

रूपसत्वबलोपेता एकैकस्य शतं शतम् ।। ५८ ।।

हे द्विजसत्तमों ! इन चारों के एक-एक से सौ-सौ पुत्र, इस प्रकार बहुत उत्पन्न हुए। जो रूप, बल एवं सत्त्व से युक्त थे ।। ५८ ।।

कालायास्तनया जाता: कालेया इति विश्रुताः ।

विख्यातास्ते महावीर्याश्चत्वारो दानावाधिपाः ।। ५९ ।।

काला के कालेय नाम से प्रसिद्ध, चार, विख्यात, दानवों के स्वामी, महान् बलशाली पुत्र हुये ।। ५९ ।।

विनाशनश्च क्रोधश्च क्रोधहन्ता तथैव च ।

क्रोधशक्रस्तथा चैते कालापुत्राः प्रकीर्तिताः ।। ६० ।।

विनाशन, क्रोध, क्रोधहन्ता तथा क्रोधशक्र, ये चार काला के पुत्र कहे गये हैं ॥ ६० ॥

सिंहिकायाः सुतो जातो राहुश्चन्द्रार्कमर्दनः ।

सुचन्द्रश्चन्द्रहन्ता च तथा चन्द्रविमर्दनः ।। ६१ ।।

सिंहिका के चन्द्रमा और सूर्य का मर्दन करने वाला राहु, सुचन्द्र, चन्द्रहन्ता, तथा चन्द्रविमर्दन नामक चार पुत्र हुए ।। ६१ ।

गणः क्रोधवशोनाम क्रूरकर्मारिमर्दनः ।

क्रोधायास्तनया जाताःक्रूरकर्मकरास्तथा ।। ६२ ।।

गण, क्रोधवश, क्रूरकर्मा, अरिमर्दन नामक क्रूरकार्य करने वाले क्रोधा के पुत्र उत्पन्न हुए ।। ६२ ।

सिंहिका चैव क्रोधा च द्वे सुते क्रूरिके सदा ।

ताभ्यां च प्रभवो वंशो ह्यत: क्रूरतरः स्मृतः ।।६३।।

सिंहिका और क्रोधा, दक्ष प्रजापति की ये पुत्रियाँ सदैव क्रूरकर्म करने वाली हैं। इसीलिए उनसे उत्पन्न वंश क्रूरतर स्मरण किया गया है ।। ६३ ।।

एक एव मुनेः पुत्रो जातः शुक्रः कविर्महान् ।

दैत्यदानवकालेयप्रभृतीनां सदा गुरुः ।। ६४ ।।

मुनि को एक ही शुक्र नामक महान विद्वान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सदैव दैत्य (दिति के पुत्रों), दानव (दनु के पुत्रों), कालेय (काला के पुत्रों) आदि का गुरु हुआ ॥ ६४ ॥

चत्वारस्तस्य तनया जाता असुरयाजकाः ।

त्वष्टावरस्तथात्रिश्च सौकलश्चेति वाग्मिनः ।

तेजसा सूर्यसदृशा ब्रह्मलोक - प्रभावनाः ।। ६५ ।।

उनके त्वष्टा, वर, अत्रि तथा सौकल नाम के चार पुत्र उत्पन्न हुए जो तेज में सूर्य के समान, ब्रह्मलोक को प्रभावित करने वाले वक्ता तथा असुरों के यज्ञकर्ता पुरोहित थे ।। ६५ ।।

असुराणां सदैत्यानां कालेयानां तथैव च ।। ६६ ।।

क्रोधात्मजानाञ्च तथा सिंहिकातनयस्य च ।

सूतिप्रसूतिभिः सर्वं जगद्व्याप्तं चराचरम् ।।६७।।

दैत्यों के सहित असुरों, कालेय, क्रोधा के पुत्रों तथा सिंहिका के बेटों और उनके पुत्र-पौत्रों से यह चराचर जगत व्याप्त हो गया ।। ६६-६७ ।।

तेषां तु यान्यपत्यानि वर्धितानि क्रमाद्विजाः ।

तेषां बहुत्वात् सङ्ख्यातुं चिरेणापि न शक्यते ।। ६८ ।।

हे द्विजों ! उनके क्रमशः बढ़े हुए सन्तानों की अधिकता के कारण उनकी गणना चिरकाल में भी नहीं हो सकती ।। ६८ ।।

तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च अनूरुर्गरुडस्तथा ।

आरुणिर्वारुणिश्चैव विनतातनयाः स्मृताः ।। ६९ ।।

तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, अनूरु, गरुड़, आरुणि और वारुणि ये विनता के पुत्र स्मरण किये गये हैं ।। ६९ ।।

शेषो वासुकिराजश्च तक्षकः कुलिकस्तथा ।

कूर्मश्च सुमनाचेति काद्रवेयाः प्रकीर्तिताः ।।७० ।।

शेष, वासुकिराज, तक्षक, कुलिक, कूर्म और सुमन ये कद्रू की सन्तानें काद्रवेय कही गई हैं ।। ७० ।।

भीमसेनोग्रसेनश्च सुपर्णो गरुडस्तथा ।

गोपतिर्धृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चाश्च वीर्यवान् ।।७१।।

अर्कदृष्टः प्रयुक्तश्च विश्रुतः सुश्रुतस्तथा ।

भीमश्चित्ररथश्चैव विख्यातः सर्वविद्दली ।।७२।

शालिशीर्षश्च पर्जन्य:कलिर्नारद एव च ।

इत्येते देव गन्धर्वा मुनिपुत्राः प्रकीर्तिताः ।। ७३ ।।

भीमसेन, उग्रसेन, सुपर्ण, गरुड़, गोपत्रि, धृतराष्ट्र, सूर्यवर्च, वीर्यमान, अर्कदृष्ट,प्रयुक्त, विश्रुत, सुश्रुत, भीम, चित्ररथ, विख्यात, सर्वविद्, बली, शालिशीर्ष, पर्जन्य, कलि तथा नारद ये प्रमुख देवता, गन्धर्व एवं मुनियों को पुत्र कहे गये हैं ।। ७१-७३ ।।

अनवद्यां सानुरागां संवरां मार्गणां प्रियाम् ।

असूयां सुभगां भीमामिति कन्यामसूयत ।

प्राधा सर्वगुणोत्थानात् कश्यपात्तु तपोधनात् ।। ७४ ।।

प्राधा नामवाली दक्षकन्या ने सभी गुणों से उन्नत, तपस्या ही जिनका धन है, ऐसे कश्यप ऋषि से अनवद्या, सानुरागा, संवरा, मार्गणा, प्रिया, असूया, सुभगा तथा भीमा नाम्नि कन्याओं को जन्म दिया ॥ ७४ ॥

विश्वावसुः सुचन्द्रश्च सुपर्णः सिद्धः एव च ।। ७५ ।।

बर्हिः पूर्णश्च पूर्णाङ्गो ब्रह्मचारी रतिप्रियः ।

भानुश्च दशमश्चैते प्राधापुत्राः प्रकीर्तिताः ।। ७६ ।।

(१) विश्वावसु, (२) सुचन्द्र, (३) सुपर्ण, (४) सिद्ध, (५) बर्हि, (६) पूर्ण, (७) पूर्णांग, (८) ब्रह्मचारी, (९) रतिप्रिय, (१०) भानु ये दश प्राधा के पुत्र कहे गये हैं ।। ७५-७६ ।।

इत्येते देवगन्धर्वाः सन्ततं पुण्यलक्षणाः ।

प्राधासूत महामागा देवी देवर्षिसत्तमात् ।।७७।।

इस प्रकार से ऊपर वर्णित निरन्तर पुण्यमय लक्षणों से युक्त देवता, और गन्धर्व, देवर्षियों में श्रेष्ठ कश्यप मुनि एवं महान् भाग्यशाली देवी प्राधा से उत्पन्न हुये ॥ ७७ ॥

अलम्बुषा मिश्रकेशी गामिनी च मनोरमा ।

विद्युत्पन्नानधारम्भा ह्यरुणा रक्षितातुला ।।७८ ।।

सुबाहुः सुरता चैव मुरजा सुप्रिया तथा ।

वपुस्तिलोत्तमा चेति मुख्या अप्सरसः स्मृताः ।।७९।।

अलम्बुषार, मिश्रकेशी, गामिनी, मनोरमा, विद्युत्पन्ना, अनघा, रम्भा, अरुणा, रक्षिता, तुला, सुबाहु, सुरता, मुरंजा, सुप्रिया, वपु,तिलोत्तमा ये मुख्य अप्सरायें कही गयी हैं ।। ७८-७९ ।।

अतिबाहुस्तुम्बुरुश्च हाहा हूहूस्तथैव च ।

गन्धर्वाणामि मुख्या देवतुल्याः प्रकीर्तिताः ।। ८० ।।

अतिबाहु, तुम्बुरु, हाहा, हूहू, ये मुख्य गन्धर्व भी देवताओं के समान बताये गये हैं ॥ ८० ॥

अमृतं ब्राह्मणा गावो मुनयोऽप्सरसस्तथा ।

कपिलातनयाः प्रोक्ता महाभागा महोत्सवाः ।। ८१ ।।

अमृत, ब्राह्मण, गौ, मुनिगण, अप्सरायें ये महान्भाग्यशाली और अत्यधिक आनन्दपूर्ण हैं । ये सभी दक्ष- कन्या कपिला के पुत्र कहे गये हैं ॥ ८१ ॥

इति दक्षसुतानां ये कश्यपात्तनयाः स्मृताः ।

तैरिदं सकलं व्याप्तं जगत्स्थावरजङ्गम् ।।८२।।

इस प्रकार दक्ष कन्याओं के जो कश्यप ऋषि से उत्पन्न पुत्र थे, उनका वर्णन किया । इन्हीं से यह समस्त स्थावर एवं जङ्गम संसार व्याप्त है ॥ ८२ ॥

एवं यज्ञवराहस्य यज्ञरूपस्य पातनात् ।

त्रिभ्योऽग्निभ्यो मनोस्तस्मात् स्वायम्भुवमहात्मनः ।। ८३ ।।

मुनिभ्यश्चैव सप्तम्यः कश्यपादिभ्य एव च ।

नरनारायणाभ्यां तु व्यतीतेऽकालिके लये ।

पुनः प्रजा: पुरा सृष्टा हरिणानेकरूपिणा ।। ८४ ।।

इस प्रकार प्राचीनकाल में यज्ञ वराह के यज्ञरूप के अवतरण तथा अकालिक प्रलय के व्यतीत होने पर तीन अग्नियों, कश्यपादि सप्तर्षियों एवं नर-नारायण के सहयोग से अनेकरूपधारी भगवान् विष्णु के द्वारा महात्मा स्वायम्भुव मनु रूप से प्रजा की पुनः सृष्टि की गयी ।। ८३-८४ ।।

एवं पुनरभूत् सृष्टिः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ।

हरेस्तस्य प्रसादेन नरनारायणात्मनः ।। ८५ ।।

इस प्रकार सृष्टि, स्थिति और अन्त करने वाले भगवान विष्णु तथा उनकी ही कृपा से उन्हीं के नर-नारायण रूप द्वारा पुनः सृष्टि की गयी ।। ८५ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे पुनः सृष्टिवर्णने चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥

॥ श्रीकालिकापुराण में पुनः सृष्टिवर्णन नामक चौतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३४ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 35

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