कालिका पुराण अध्याय ३२
कालिका पुराण अध्याय ३२ में मत्स्य
रूप कथन और कपिल अवतार आख्यान का वर्णन किया गया है ।
कालिकापुराणम् द्वात्रिंशोऽध्यायः मत्स्यावतारवर्णनम्
कालिका पुराण अध्याय ३२
Kalika puran chapter 32
कालिकापुराण बत्तीसवाँ अध्याय
अथ कालिका पुराण अध्याय ३२
।। ऋषय ऊचुः ॥
आकालिकोऽयं प्रलयो यतो भगवता कृतः ।
तच्छृण्वन्तु महाभागा वाराहं
लोकसंक्षयम् ।। १ ।।
ऋषि बोले- हे महाभाग ! वाराह ने जो
लोकसंहार किया वह अकालसम्बन्धी प्रलय, भगवान
द्वारा जिस लिये हुआ, उसके सम्बन्ध में आप सब सुनिये ॥ १ ॥
यथा वा मत्स्यरूपेण वेदास्त्राताश्च
शार्ङ्गिणा ।
तदहं संप्रवक्ष्यामि
सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २॥
या जिस प्रकार शार्ङ्गधारण करने
वाले भगवान विष्णु ने मत्स्यरूप धारण कर वेदों का उद्धार किया,
सभी पापों का नाश करने वाला वह वृतान्त मैं कहूँगा ॥ २ ॥
पुरा महामुनिः सिद्धः कपिलो
विष्णुरीश्वरः ।
साक्षात् स्वयं हरिर्योऽसौ
सिद्धानामुत्तमो मुनिः ।।३।।
प्राचीन काल में भगवान विष्णु,
कपिल नाम के सिद्ध महामुनि हुए। स्वयं साक्षात् हरि ही सिद्धों में
उत्तम वह मुनिरूप धारण किये थे ।। ३ ।।
ध्यायतः सिद्धमित्येवं सर्वं जगदिदं
स्वतः ।
यतो जातो हरेः कायात् कपिलस्तेन स
स्मृतः ।।४।।
यह सम्पूर्ण जगत् ध्यानमात्र से ही
उन्हें स्वयं सिद्ध था। हरि के शरीर से उत्पन्न होने के कारण वह कपिल के रूप में
स्मरण किये जाते थे ।। ४ ।।
स एकदा पुरा भूत्वा मनोः स्वायम्भुवेऽन्तरे
।
स्वायम्भुवं मनुं वाक्यं
मुनिवर्योऽब्रवीदिदम् ।।५।।
उन मुनिश्रेष्ठ ने प्राचीन काल में
स्वायम्भुव मन्वन्तर में अवतार लेकर स्वायंभुव मनु से ये वाक्य कहे - ।। ५ ।।
।। कपिल उवाच ।
स्वायम्भुव मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मरूप महामते
।
ममैवमीप्सितार्थं त्वं देहि प्रार्थयतोऽधुना
।। ६ ।।
कपिल बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठ
स्वायंभुव मनु, आप ब्रह्मा के स्वरूप और महान्
मति वाले हो । अब आप मेरी प्रार्थना के अनुसार मेरा अभिलषित मुझे प्रदान करें ।। ६
।।
जगत्सर्वं तवैवेदं त्वया च
परिपालितम् ।
त्वया सर्वं जगत् सृष्टं त्वमेव
जगतां पतिः ।।७।।
यह समस्त जगत् आपका ही है और आप
द्वारा ही परिपालित है, आप ही द्वारा यह
समस्त जगत् रचा गया है तथा आप ही इस जगत् के स्वामी हैं ॥ ७ ॥
स्वर्गे पृथिव्यां पाताले
देवमानुषजन्तुषु ।
त्वं प्रभुर्वरदो गोप्ता त्वमेवैकः
सनातनः ।।८।।
स्वर्ग,
पृथ्वी और पाताल में देव, मनुष्य और प्राणियों
में आप ही एक मात्र सनातन तत्त्व हो, आप ही स्वामी हो,
वर देने वाले तथा उनके रक्षक भी आप ही हो ॥ ८ ॥
त्वं वै धाता विधाता च त्वं हि
सर्वेश्वरेश्वरः ।
त्वयि प्रतिष्ठितं सर्वं सततं
भुवनत्रयम् ।। ९ ।।
आप ही पालन करने वाले तथा बनाने
वाले हो,
आप सभी ईश्वरों के भी ईश्वर हो, आप में ही यह
समस्त तीनों भुवन प्रतिष्ठित हैं ॥ ९ ॥
तपस्यतो तव समं प्रतिभास्यति
सोऽनुगम् ।
कार्यकारणतत्त्वाघ सहितानि जगन्ति वै
।।१०।।
कार्यकारण तत्त्वों के समूह के सहित
यह गतिशील जगत् आपका अनुगमन करते हुए, तप
के ही कारण आपके समान प्रतिभाषित होता है ।। १० ।।
तन्मे देहि रहः स्थानं त्रिषु
लोकेषु दुर्लभम् ।
पुण्यं पापहरं रम्यं
ज्ञानप्रभवमुत्तमम् ।। ११ ।।
इस जगत में आप मुझे तीनों लोकों में
दुर्लभ,
पवित्र, पापनाशक, सुन्दर,
उत्तमज्ञान उत्पन्न करने वाला, एकान्त स्थान
प्रदान करो ॥ ११ ॥
अहं हि सर्वभूतानां भूत्वा
प्रत्यक्षदर्शिवान् ।
उद्धरिष्ये जगज्जातं निर्माय
ज्ञानदीपिकाम् ।।१२।।
क्योंकि मैं ही ज्ञानदीपिका का
निर्माण कर संसार में उत्पन्न सभी प्राणियों को प्रत्यक्ष दिखाने वाला होऊँगा तथा
तब उनका उद्धार करूँगा ।। १२ ।।
अज्ञानसागरे मग्नमधुना सकलं जगत् ।
ज्ञानप्लवं प्रदायाहं तारयिष्ये
जगत्त्रयम् ।।१३।।
इस समय सारा संसार अज्ञानसागर में
डूबा हुआ है। मैं ज्ञान रूपी नौका प्रदान कर तीनों लोकों का उद्धार करूँगा।।१३॥
एतस्मिन्मां भवान्
सम्यगुपपन्नमिहेच्छति ।
त्वन्नो नाथश्च पूज्यश्च पालकश्च
जगत्प्रभो ।। १४ ।।
हे जगत् के स्वामी ! आप हमारे राजा
हो,
पूज्य हो, पालनकर्त्ता हो, इस संसार में मुझे भलीभाँति उपयुक्त चाहते हो ।। १४ ।।
इत्येवमुक्तः स मनुः कपिलेन
महात्मना ।
प्रत्युवाच महात्मानं कपिलं
संशितव्रतम् ।।१५।।
महात्मा कपिल के द्वारा इस प्रकार
कहे जाने पर वे मनु उन नियतव्रती महात्मा कपिल से उत्तर देते हुए बोले - ।। १५ ।।
।। मनुरुवाच ।।
यदि त्वयाखिलजगद्धितार्थं
ज्ञानदीपिकाम् ।
चिकीर्षुणा यतः कार्यं किं
स्थानार्थनया तव ।। १६ ।।
मनु बोले- यदि तुम समस्त जगत् के
हित के लिए ज्ञानदीपिका का निर्माण करने की इच्छा रखते हो तो मुझसे तुम्हारे
द्वारा स्थान की याचना क्यों की जा रही है ? क्योंकि
लोककल्याण तो कहीं भी किया जा सकता है, उसके लिए स्थान
माँगने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।। १६ ।।
हिरण्यगर्भः सुमहत् तपस्तेपे
पुराद्भुतम् ।
स मे ययाचे तपसे स्थानं कस्मै न च
द्विज ।। १७ ।।
हे द्विज ! प्राचीन काल में
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने अद्भुत रूप से महान तपस्या की और उन्होंने मुझसे तपस्या
हेतु किसी भी स्थान की याचना नहीं की ।। १७ ।।
शम्भुः सम्भोगरहितो देवमानेन
वत्सरान् ।
अयुतानि तपस्तेपे सोऽपि स्थानं न
चैक्षत ।। १८ ।।
शिव ने सम्भोग से रहित हो
ब्रह्मचर्यपूर्वक देवताओं के मान से दश हजार वर्षों (३६००००० मानव वर्षों) तक
तपस्या किया किन्तु उन्होंने भी स्थान की इच्छा नहीं की ।। १८ ।।
देवेन्द्रो वीतिहोत्रश्च शमनो रक्षसां
पतिः ।
यादः पतिर्मातरिश्वा धनाध्यक्षस्तथैव
च ।। १९ ।।
एते ते पुस्तपस्तीव्रं दिक्पालत्वमभीप्सवः
।
स्थानं न मार्गयामासुः किञ्चनापि
महामुने ।।२०।।
हे महामुनि ! देवराज इन्द्र,
अग्नि, यम, राक्षसों के
स्वामी निऋति, जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण, वायु, धनाध्यक्ष कुबेर इन लोगों ने दिक्पाल पद पाने
की लालसा से तीव्र तपस्या की, किन्तु इनमें से कोई भी स्थान
नहीं माँगा ।। १९-२० ।।
देवागाराणि तीर्थानि क्षेत्राणि
सरितस्तथा ।
बहूनि पुण्यभाग्यत्र तिष्ठन्ति कपिल
क्षितौ ।। २१ ।।
तेषामेकतमं त्वं चेदासाद्य कुरुषे तपः
।
स्थानं ब्रह्मंस्तप: सिद्धिर्न
भविष्यति तत्र किम् ।। २२ ।।
हे कपिल मुनि ! पृथ्वी पर बहुत से
ऐसे क्षेत्र, नदियाँ, तीर्थ
तथा देवालय हैं, जहाँ पुण्यात्मा जन निवास करते हैं उनमें से
किसी एक स्थान को प्राप्त कर यदि तुम तपस्या करो, तो हे
ब्रह्मन्! क्या वहाँ आपको सिद्धि नहीं प्राप्त होगी ? ।।
२१-२२ ।।
मत्तः स्थानार्थना तावत् केवलं ते
विकत्थनम् ।
अयं विकत्थनो धर्मो युज्यते न
तपस्विनाम् ।। २३ ।।
ऐसी परिस्थिति में तुम्हारे द्वारा
स्थान की याचना करना तो मात्र गर्वोक्ति ही है। तपस्वी जनों के लिए गर्वोक्ति,
धर्मयुक्त नहीं लगती ॥ २३ ॥
।। मार्कण्डेय उवाच ।।
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य मनोः
स्वायम्भुवस्य तु ।
चुकोप कपिलः सिद्धः प्रोवाच च तदा
मनुम् ।। २४ ।।
मार्कण्डेय बोले- उन स्वायम्भुव मनु
के इन वचनों को सुनकर सिद्ध कपिल क्रोधित हो गये और मनु से बोले ॥४॥
।। कपिल उवाच ।।
त्वयि विश्रम्भमाधाय तपसः
सिद्धयेऽचिरात् ।
स्थानं मया प्रार्थितं ते तन्मां
क्षिपसि हेतुभिः ।। २५ ।।
कपिल बोले- मैंने तुम्हारे पर भरोसा
कर तपस्या से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए उपयुक्त स्थान की याचना की,
जिससे तुम मुझे इस प्रकार आक्षेप लगा रहे हो ।। २५ ।।
अनेनात्युग्रवचसा तवैवाहं न चक्षमे
।
स्वयं त्रिभुवनाध्यक्ष इति ते गर्व
ईदृशः ।। २६ ।।
तुम्हारे इस प्रकार के उग्र वचनों
को मैं सहने में असमर्थ हूँ । तुम स्वयं त्रिभुवन के स्वामी हो ऐसा तुम्हें गर्व
हो गया है ।। २६ ।।
अक्षम्यं ते वचो मेऽद्य
प्रार्थनायां विकत्थनम् ।
यत् त्वं वदसि तस्य त्वं
फलमेतदवाप्नुहि ।।२७।।
आज तुमने मेरे निवेदन को जो
गर्वोक्ति कह दिया यह वचन अक्षम्य है। उसका तुम शीघ्र ही फल प्राप्त करो ।। २७ ।।
इदं त्रिभुवनं सर्वं
सदेवासुरमानुषम् ।
हतप्रहतविध्वस्तमचिरेण भविष्यति ।।
२८ ।।
यह देवता असुर और मनुष्यों सहित
समस्त त्रिलोकी शीघ्र ही हत-प्रहत और ध्वस्त हो जायगी ।। २८ ।।
येनेयमुद्धृता पृथ्वी येन वा
स्थापिता पुनः ।
यो वास्या अन्नकर्ता स्याद्यो
वास्याः परिरक्षकः ।
त एव सर्वे हिंसन्तु सकलं सचराचरम्
।। २९ ।।
जिनके द्वारा इस पृथ्वी का उद्धार
किया गया,
जिसने इसे पुनः स्थापित किया जो इस पर अन्नादि उत्पन्न करने वाले
हैं अथवा जो इसके रक्षक हैं, वही सब सकल चराचर जगत् का नाश
करेंगे ।। २९ ।।
नचिराद्रक्ष्यसि मनोजलपूर्णं
जगत्त्रयम् ।
हतप्रहतविध्वस्तं तव गर्वविशातनम्
।। ३० ।।
हे मनु ! तुम्हारे गर्व का आधार यह
तीनों लोक शीघ्र ही जलपूर्ण तथा क्षत-विक्षत हो, ध्वस्त हो जायेगा ॥ ३० ॥
एवमुक्त्वा मुनीन्द्रोऽसौ
कपिलस्तपसां निधिः ।
अन्तर्दधे जगामापि तदा ब्रह्मसदो
मुनिः ।। ३१ ।।
ऐसा कहकर तपस्वियों की निधि,
वे कपिल मुनि अन्तर्ध्यान हो गये तथा ब्रह्मलोक को चले गये ॥ ३१ ॥
कपिलस्य वचः श्रुत्वा विषण्णवदनो
मनुः ।
भावीति प्रतिपद्याशु मनुर्नोवाच
किञ्चन ।। ३२।।
कपिल के वचनों को सुनकर मनु
दुःखीमुख तो हुए किन्तु शीघ्र ही यही भावी है ऐसा विश्वास कर,
वे कुछ नहीं बोले ॥ ३२ ॥
ततः स्वायम्भुवो धीमांस्तपसे
धृतमानसः ।
हिताय सर्वजगतां
दिदृक्षुर्गरुडध्वजम् ।
विशालां बदरीं यातो
गङ्गाद्वारान्तिकं खलु ।। ३३ ।।
तब बुद्धिमान् स्वायंभुव मनु भी सब
प्राणियों के कल्याण के लिए तपस्या का निश्चय कर गरुड़ध्वज,
भगवान विष्णु के दर्शन की लालसा से गंगाद्वार (हरिद्वार) के निकट
विशाल, बदरी (बदरी वन) को गये ।। ३३ ।।
तत्र गत्वा जगद्धर्ता मनुः
स्वायम्भुवः स्वयम् ।
ददर्श बदरीं तत्र पुण्यां
पापप्रणाशिनीम् ।। ३४ ।।
वहाँ जाकर जगत के पालक स्वायम्भुव मनु
ने स्वयं उस पुण्यदायी, पापों का नाश करने
वाले बदरीवन को देखा ।।३४।।
सदा फलवतीं नित्यं
मृदुशाद्वलमंजरीम् ।
सुच्छायां मसृणां
शीर्णशुष्कपत्रविवर्जिताम् ।। ३५ ।।
वह सदैव फलवान्,
नित्य मुलायम, हरी-भरी घास और मञ्जरियों से
युक्त था । वहाँ सुन्दर छाया थी । सूखे तथा सड़े गले पत्तों से रहित, वह कोमल पत्तों से युक्त था ।। ३५ ।।
गङ्गातोयौधसंसिक्त शिखामूलान्तराखिलाम्
।
उपास्यमानां सततं नानामुनितपोधनैः
।।३६।।
वह जड़ से लेकर शिखर तक पूर्णरूप से
गङ्गा के जलसमूह से सिंचित थी तथा अनेक तपस्वी मुनिजन निरन्तर वहाँ निवास करते थे
।
तत्स्थानं सर्वतो भद्रं
नानाभृङ्गगणान्वितम् ।
फुल्लारविन्दसलिलं रमणीयं वृषप्रदम्
।। ३७ ।।
प्रविश्य तपसे यत्नमकरोल्लोकभावनः ।
स भूत्वा नियताहारः परमेण समाधिना
।। ३८ ।।
उस सब ओर से मङ्गलमय,
अनेक भौरों के समूह से सुशोभित, खिले हुए
कमलों वाले जल से युक्त सुन्दर, वरदायक, स्थान में प्रवेश कर लोक को प्रिय लगने वाले स्वायम्भुव मनु ने तपस्या
हेतु नियत आहारव्रती होकर परम समाधि के द्वारा यत्न प्रारम्भ किया ।। ३७-३८ ।।
कालिका पुराण अध्याय ३२ हरि की समाराधना
आराधयामास हरि जगत्कारणकारणम् ।
सर्वेषां जगतां नाथं नीलमेघाजनप्रभम्
।। ३९ ।।
जो जगत् के कारण के भी कारण हैं तथा
समस्त जगतों के नाथ हैं और नीले मेघ तथा अञ्जन की प्रभा के समान से युक्त थे ।। ३९
।।
कालिका पुराण अध्याय ३२ भगवान् विष्णु का ध्यान
मनु ने जिस भगवान के स्वरूप का
ध्यान किया था उसी का वर्णन किया जाता है।
शङ्खचक्रगदापद्मधरं कमललोचनम् ।
पीताम्बरधरं देवं गरुडोपरिसंस्थितम्
।।४०।।
जगन्मयं लोकनाथं
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणम् ।
जगद्वीजं सहस्राक्षं सहस्रशिरसं प्रभुम्
।
सर्वव्यापिनमाधारं नारायणमजं विभुम्
।।४१ ।।
वे शंख,
चक्र, गदा और पद्म के धारण करने वाले हैं,
कमल के सदृश लोचनों से युक्त हैं, पीत वर्ण के
वस्त्र के धारण करने वाले हैं जो देव गरुड़ के ऊपर विराजमान हैं । जो जगत् से
परिपूर्ण हैं, लोकों के नाथ हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त
स्वरूप वाले हैं, जो इस जगत् के बीज हैं और सहस्र नेत्रों
वाले तथा सहस्त्र शिरों से समन्वित प्रभु हैं, जो सबमें
व्यापी, सबके आधार, अज, विभु और नारायण हैं ॥४०- ४१ ॥
जपन्नेतत्परं मन्त्रं सर्ववेदमयं मनुः
।। ४२ ।।
मनु ने सर्व वेदों से परिपूर्ण इस
परम मन्त्र का जाप किया ।
हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे
।
ॐ नमो वासुदेवाय
शुद्धज्ञानस्वरूपिणे ।। ४३ ।।
उस मन्त्र का अर्थ यह है- "ॐ
नमो हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे शुद्धज्ञान स्वरूपिणे वासुदेवाय ।''
हिरण्यगर्भ पुरुष, प्रधान अव्यक्त रूप वाले,
शुद्ध ज्ञान के स्वरूप वाले भगवान वासुदेव के लिए नमस्कार है ।
इति जप्यं प्रजपतो मनोः
स्वायम्भुवस्य तु ।
प्रससाद जगन्नाथः केशवो नचिरादथ ।।४४
।।
उपर्युक्त जपनीय मन्त्र को जपकर
स्वायम्भुव मनु ने शीघ्र ही जगन्नाथ भगवान केशव को प्रसन्न कर लिया।।४४।।
कालिका पुराण अध्याय ३२ भगवान् मत्स्य का स्वरूप
ततः क्षुद्रझषो भूत्वा
दुर्वादलसमप्रभः ।
कर्पूरकलिकायुग्म तुल्यनेत्रयुगोज्ज्वलः
।। ४५ ।।
जो दुर्व़ादल के समान प्रभा से युक्त
थे,
जो कर्पूर कलिका के जोड़े के तुल्य नेत्रों के युगल से मुक्त परम
उज्ज्वल थे।। ४५ ।।
तपस्यन्तं महात्मानं मनुं
स्वायम्भुवं मुनिम् ।
आससाद तदा क्षुद्रमत्स्यरूपी
जनार्दनः ।।४६।।
उवाच तं महात्मानं मनुं स्वायम्भुवं
तदा ।
ससन्त्रस्तं स कारुण्ययुक्तं भीतिसगद्गदम्
।। ४७ ।।
तब क्षुद्रमत्स्य का रूप धारण कर,
भगवान विष्णु मौनव्रती, तपस्यारत, महात्मा, स्वायभुव मनु के समीप गये और भयभीत,
करुणायुक्त, भय से गद्गद् हो उन्होंने उनसे
कहा— ॥। ४६-४७ ।।
।। मत्स्य उवाच ।।
तपोनिधे महाभाग भीतं मां
त्रातुमर्हसि ।
नित्यमुद्वेजितं मत्स्यैर्विशालैर्भक्षितुं
प्रति ।।४८ ।।
मत्स्य (रूपधारी जनार्दन) बोले- हे
तपोनिधि ! हे महाभाग ! विशाल मछलियाँ मुझे खाने को तत्पर हैं,
उनसे मैं नित्य उद्विग्न हूँ, ऐसे मुझ डरे हुए
व्यथित की आप रक्षा कीजिए ।। ४८ ।।
प्रत्यहं मां महाभाग मीना धावन्ति
भक्षितुम् ।
समन्ततोऽधिकाहन्तुं त्वं नाथ
गोपितुं क्षमः ।। ४९ ।।
हे महाभाग ! प्रतिदिन बहुत सी
मछलियाँ इकट्ठी हो मुझे खाने को दौड़ती हैं । हे नाथ! आप ही उनसे मुझे बचाने में
समर्थ हैं ॥ ४९ ॥
अद्य प्रभूतैर्विपुलैर्दारितः
पृथुरोमभिः ।
विश्रान्तोऽहं क्षुद्रतरो न च शक्तः
पलायने ।। ५० ।।
प्राणाकांक्षी महात्मानं भवन्तं
शरणं मुनिम् ।
प्राप्तोऽहञ्चेदनुक्रोशस्तेऽस्ति
मां प्रतिपालय ।। ५१ ।।
आज बहुत-सी बड़ी मछलियों द्वारा
सताया हुआ उनसे छोटा, मैं थक गया हूँ और
अब भागने में समर्थ नहीं हूँ । प्राण रक्षा की आकांक्षा लेकर आप जैसे महात्मा मुनि
की शरण में आया हूँ। यदि आपकी कृपा हो तो आप मेरी रक्षा करें ।। ५०-५१ ॥
भयोद्भ्रान्तमनाश्चाहं वृक्षच्छायां
च चञ्चलाम् ।
दृष्ट्वा चलतरङ्गांश्च मत्स्यादिव विभेम्यहम्
।। ५२ ।।
भयवश भ्रमितचित्त होने से वृक्षों
की चञ्चल छाया और चञ्चल लहरों को देखकर मछलियों की भाँति ही मैं उनसे डर रहा हूँ
।। ५२ ।।
।। मार्कण्डेय उवाच ।।
इति तस्य वचः श्रुत्वा मनुः
स्वायम्भुवस्ततः ।
कृपया परयायुक्तः प्रोचेऽहं रक्षिता
तव ।।५३।।
मार्कण्डेय बोले- तब स्वायम्भुव मनु
उसकी इस वाणी को सुनकर परम कृपा से युक्त होकर बोले- मैं तुम्हारा रक्षक हूँ ।। ५३
।।
ततः करोदरे तोयमादायाधाय तत्र तम् ।
समक्षं क्षुद्रमत्स्यस्य विहारं
समलोकयत् ।।५४।।
तब हाथ की अंजलि में जल लेकर,
उसमें उसे रखकर, सामने उस छोटी सी मछली का जल
विहार देखने लगे ।। ५४ ॥
ततो दयालुः स मनुस्तं मत्स्यं
चारुरूपिणम् ।
अलिञ्जरे तोपूर्णे न्यधाद्विपुल
भोगिनि ।। ५५ ।।
तब उस दयालु मनु ने उस सुन्दर
रूपवाली मछली को एक बड़े पूर्ण अलिञ्जर (जलपात्र) में रखा ।। ५५ ।।
स तस्मिन् मणिके मत्स्यो वर्धमानो
दिने दिने ।
सामान्यरोहितप्राय-देहोऽभून्नचिरादथ
।। ५६ ।।
वह मत्स्य उस मणिक (जलकलश) में
दिनोंदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सामान्य रोहित (रोहू) मछली के आकार का हो गया ।। ५६
।।
दशघटजलपूर्णं प्रत्यहं स महात्मा मणिकवसमतिकुर्वन्
वर्धयामास मत्स्यम् ।
स च सुविशदनेत्रो मत्स्यबालोऽचिरेण मणिकसलिलमध्ये
लोमशः पीनदेहः ॥५७॥
वह महात्मा प्रतिदिन दश घड़े
जलक्षमता के अनुपात में उस जलपात्र को बड़ा करते हुए,
उसमें मछली को बढ़ाते रहे। इस प्रकार शीघ्र ही वह बाल मत्स्य उस
जलपात्र के जल में बड़े-बड़े नेत्रों वाला, पुष्ट शरीर वाला,
रोयेंदार हो गया ॥ ५७ ॥
॥ इति श्रीकालिकापुराणे मत्स्यावतारवर्णने
द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
कालिका पुराण अध्याय ३२- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-जिस कारण
से भगवान ने आकालित यह प्रलय किया था हे महाभागो ! उस वाराह लोक संक्षय का आप
श्रवण कीजिए । अथवा जिस तरह से भगवान शार्ङ्गधारी ने मत्स्य के स्वरूप के द्वारा
वेदों का त्राण अर्थात् रक्षा की वह मैं सब पापों के विनाश करने वाला आख्यान आप
लोगों को बतलाऊँगा ।
प्राचीन समय में ईश्वर भगवान विष्णु
महामुनि सिद्ध कपिल हुए थे जो स्वयं साक्षात् हरि थे और सिद्धों के उत्तम मुनि हुए
थे । इस प्रकार से सिद्ध का ध्यान करते हुए यह सम्पूर्ण जगत् स्वतः ही समुत्पन्न
हुआ था क्योंकि यह भगवान हरि के शरीर से समुद्गत हुआ था इसी कारण से वह कपिल कहे
गये हैं। वह एक बार स्वायम्भुव मनु के अन्तर में होकर मुनि श्रेष्ठ से यह वाक्य
कहा था ।
कपिल देव ने कहा - हे स्वायम्भुव !
आप तो मुनियों में बहुत ही अधिक श्रेष्ठ हैं । हे महापते ! आप तो ब्रह्मा के ही
रूप से समन्वित हैं इस समय में आप प्रार्थना करने वाले मेरे ही अभीष्ट को मुझे
प्रदान करिए। यह सम्पूर्ण जगत आपका ही है और आपके द्वारा ही परिपालित है । आपने ही
इस सम्पूर्ण जगत् की रचना की है और आप ही इन जगतों के स्वामी हैं । स्वर्ग में,
पृथ्वी में और पाताल में, देव, मनुष्य और जन्तुओं में आप ही स्वामी हैं, वरदान देने
वाले हैं। रक्षा करने वाले हैं और आप ही एक सनातन हैं अर्थात सर्वदा से चले आने
वाले हैं। आप ही धाता, विधाता हैं और आप ही सब ईश्वरों के
ईश्वर हैं आप में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है इस कारण से आप कृपा करके ऐसा स्थान
प्रदाए करिए जो तीनों लोकों में महान दुर्लभ होवे। मैं समस्त प्राणियों में होकर
प्रत्यक्षदर्शी हूँ । मैं ज्ञानरूपी दीपिका का निर्माण करके इस जगत जात का अर्थात्
पूरे जगत् का उद्धार करूँगा । इस समय अज्ञानरूपी सागर में मग्न इस सम्पूर्ण जगत को
ज्ञानरूपी प्लव अर्थात् सन्तरण का साधन प्रदान करके मैं तीनों का तारण करूँगा । हे
प्रभो! आप हमारे नाथ हैं । पूजा के योग्य हैं और जगत के पालक हैं। महात्मा कपिल के
द्वारा इस रीति से कहे गए उन मनु ने फिर उन संशित व्रतों वाले महात्मा कपिल को
उत्तर दिया ।
मनु ने कहा- यदि आप समस्त जगत का
भला करने के लिए ज्ञान दीपिका के करने की इच्छा वाले हैं तो फिर आपको इस स्थान की
प्रार्थना से क्या करना है ? आपने पहले
हिरण्यगर्भ के महान अद्भुत तप का तपन किया था जो बहुत ही अद्भुत स्वरूप वाला था ।
हे द्विज ! उसने मुझसे किसी भी स्थान के लिए याचना नहीं की थी कि जहाँ पर
तपश्चर्या की जावेगी । भगवान शम्भु तो सम्भोग से सर्वथा शून्य हैं उन्होंने देवों
के भाव से वर्षों तक अर्थात् दस हजार वर्षों तक तपश्चर्या की थी किन्तु उन्होंने भी
स्थान की कभी इच्छा नहीं की थी । देवेन्द्र, नीतिहोत्र,
शमक, राक्षसों का स्वामी, यादवों के पति, मातरिश्वा तथा धनाध्यक्ष कुबेर इन
सबने तीव्रतम तप किया था। जो दिक्पाल के पद की इच्छा रखने वाले थे अर्थात् दिक्पाल
के पद की प्राप्ति के ही लिए इन सबने तपस्या की थी । हे महामुने ! उन्होंने भी
किसी भी स्थान के अनुसन्धान करने की इच्छा नहीं की थी । हे कपिल! देवों के आलय,
तीर्थ, स्थल, क्षेत्र
तथा पवित्र सरितायें बहुत से पुण्य परिपूर्ण स्थान इस भूमि में स्थित हैं उनमें से
आप किसी भी एक स्थान की प्राप्त करके तपश्चर्या करते हैं । हे ब्रह्मन् ! क्या
वहाँ पर तपश्चर्या की सिद्धि नहीं होगी ! फिर मुझसे किसी भी स्थान की प्रार्थना
करना केवल आपका विकत्थन ही है । यह ऐसा विकत्थन करना तपस्वियों को धर्म युक्त नहीं
होता है ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-
स्वायम्भव मनु के इस वचन का श्रवण करके सिद्ध कपिल बहुत अधिक कुपित हुए थे और उस
समय उन्होंने मनु से कहा ।
कपिल देव बोले- शीघ्र ही सिद्धि
प्राप्त करने के लिए मैंने आपसे स्थान की प्रार्थना की थी किन्तु आप तो बहुत से
हेतुओं के द्वारा मेरे ही ऊपर आक्षेप कर रहे हैं। आपके इस अत्यन्त उग्र वचन को मैं
सहन करने में असमर्थ हूँ । आप स्वयं तीनों भुवनों के अध्यक्ष हैं यही आपका ऐसा
गर्व है । आज मुझे आपका यह वचन क्षमा करने के योग्य नहीं है कि आप मेरी की हुई
प्रार्थना विकत्थन कह रहे हैं। ऐसा जो आप कहते हैं उसका यह फल प्राप्त करिए। यह
तीनों भुवनों जिसमें देव, असुर और दानव निवास
किया करते हैं इनका अब हत-प्रहत और विध्वंस बहुत ही शीघ्र हो जायेगा ।
जिसने इस पृथ्वी का उद्धार दिया था
अथवा जिसके द्वारा यह पुनः स्थापित की गयी थी, जो
इसका अन्तकर्ता है अथवा जो इसकी परिरक्षा करने वाला है वे ही सब सम्पूर्ण चराचर की
हिंसा करे । हे मनुदेव! आप शीघ्र ही इन तीनों भुवनों को जल से पूर्ण देखेंगे ।
आपके गर्व के कारण यह सब हत-प्रहत और विध्वंस हो जायेगा । तपों के निधि मुनीन्द्र
कपिलदेव यह वचन कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये थे और फिर वे मुनि उसी समय ब्रह्माजी
के स्थान को चले गये थे । कपिल देव के इस वचन को सुनकर मनु का मुख विषाद से युक्त
हो गया था । वह होनहार है, ऐसा समझकर उस मनु ने कुछ भी नहीं
कहा था। इसके अनन्तर परम बुद्धिमान स्वायम्भुव मनु ने तपस्या करने के लिए ही मन
में धारणा की थी। वे समस्त जगतों की भलाई के लिए भगवान गरुड़ध्वज के दर्शन प्राप्त
करने की इच्छा वाले हुए थे। वे गंगा द्वार के समीप में परम विशाल बद्रीविशाल को
गमन कर गए थे । वहाँ पहुँचकर जगत के धर्ती स्वायम्भुव मनु ने स्वयं ही पापों के
विनाश करने वाली पुण्यतोया बदरी का वहाँ पर दर्शन किया था। जो सदा फलों वाली थी और
नित्य ही कोमल शाद्वल की मञ्जरी से समन्वित थी, जो सुन्दर
छाया वाली, मसृण और सूखे हुए यंत्रों से रहित थी ।
वह गंगा के जल की राशि से संसिक्त
शिखा और मूल सम्पूर्ण मध्य भाग से समन्वित थी, जो
निरन्तर अनेक मुनियों और तपस्वियों के द्वारा उपासना की गई थी। वह स्थान सभी
प्रकार से परम शुभ था और नाना मृगों के समुदाय से संयुक्त था जिसके जल में विकसित
कमल थे, वह परमाधिक रमणीक था । उस स्थान प्रवेश करके लोकों
के भावन करने वाले मुनि ने तपश्चर्या करने के लिए यत्न किया था। वे वहाँ पर नियत
आहार वाले परम समाधि से संयुत हो गये थे । वहाँ पर उन्होंने भगवान हरि की समाराधना
की थी ।
उस समय में एक बहुत छोटे मत्स्य के
स्वरूप से युक्त भगवान जनार्दन तपस्या करते हुए स्वायम्भुव मुनि मनु के सामने आये
थे जो मनु महान आत्मा वाले थे।
वे प्रभु उस समय में महान् आत्मा
वाले,
कारुण्य से युक्त, सुमन्त्रस्त अर्थात भययुक्त
गद्गदता से समन्वित उन स्वायम्भुव मनु से बोले - हे तपोनिधि! हे महाभाग! आप डरे
हुए मेरी रक्षा करने के योग्य होते हैं । विशाल मत्स्यों से मैं परमभीत (डरा हुआ) हूँ जो मुझे कहीं खा न जावें इसीलिए मैं नित्य ही उद्वेग वाला रहता है। हे
महाभाग ! प्रतिदिन की बड़े-बड़े मत्स्य मुझे खाने के लिए मेरे पीछे दौड़ लगाया
करते हैं । सभी ओर से बड़ी संख्या में बड़े मत्स्य मुझे खाने के लिए आया करते हैं
। हे नाथ! आप मेरी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं ।
आज बड़े-बड़े रोमों वालो से,
बड़े और बहुतों के द्वारा मैं विदारित किया गया हूँ। सबसे छोटा थक
गया हूँ और भागने में परम असमर्थ हूँ। मैं अपने प्राणों के रक्षित करने की इच्छा
वाला हूँ । आप महान आत्मा वाले हैं ऐसे मुनि मैं आपकी शरणागति मैं प्राप्त हुआ हूँ
। आपका परम अनुग्रह हैं । आप मेरी रक्षा कीजिए । भय से उद्भ्रान्त मन वाला मैं चंचल
तरंगों वाली परम चंचल इस वृक्षों की छाया का अवलोकन करके मत्स्य की ही भाँति डर
रहा हूँ ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके
अनन्तर इस अनेक वचन का श्रवण करके स्वायम्भुव मनु परमाधिक कृपा से समन्वित होकर
उनसे बोले थे कि मैं आपकी रक्षा करने वाला हूँ । फिर हाथ में जल लेकर उस मत्स्य को
उसमें निधापति करके समक्ष में उस परमक्षुद्र मत्स्य के विहार का अवलोकन करने लगे
थे । इसके अनन्तर परम दयालु मनु ने सुन्दर स्वरूप वाले उस मत्स्य को जल से पूर्ण
विपुल योग वाले अलिञ्जर में रखा दिया था । वह मत्स्य उन मणिक में दिन-दिन में बढ़ता
हुआ सामान्य रोहित के शरीर वाला शीघ्र ही हो गया । वह महात्मा प्रतिदिन दश घट जल
से पूरिपूर्ण उस मणिक को बढ़ाते रहे थे और मत्स्य को वर्धित कर दिया था । अर्थात्
वह मत्स्य बड़ा होता चला गया था और बड़े-बड़े नेत्रों वाला एक बालक मत्स्य थोड़े
ही समय में उस मणिक के जल के मध्य में लोमों से युक्त पीन देह वाला हो गया था ।
॥ श्रीकालिकापुराण में
मत्स्यरूपवर्णन सम्बन्धी बत्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३२ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 33
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