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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ३३

कालिका पुराण अध्याय ३३   

कालिका पुराण अध्याय ३३ में अकाल प्रलय कथन का वर्णन किया गया है ।

कालिका पुराण अध्याय ३३

कालिकापुराणम् त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः अकालप्रलय कथनम्

कालिका पुराण अध्याय ३३               

Kalika puran chapter 33

कालिकापुराण तैंतीसवाँ अध्याय

अथ कालिका पुराण अध्याय ३३            

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तं तथा पीवरतनुं दृष्टा मात्स्यं मनुः स्वयम् ।

गृहीत्वा पाणिना फुल्लनलिनीं सरसीं ययौ ।। १ ।।

मार्कण्डेय बोले- उस मछली को उस प्रकार मोटा शरीर वाला देखकर स्वयं स्वायम्भुव मनु उसे हाथ में लेकर खिले हुए कमलिनियों से युक्त सरोवर पर गये ।। १ ।।

तत्सरस्तत्र विपुलं पुण्ये नारायणाश्रमे ।

एकयोजनविस्तीर्णं सार्धयोजनमायतम् ।

नानामीनगणोपेतं शीतामलजलोत्करम् ।।२।।

वह सरोवर, वहाँ पवित्र नारायण आश्रम में एक योजन चौड़ा तथा डेढ़ योजन लम्बा फैला हुआ था। वह अनेक मछलियों के समूह से युक्त, शीतल, निर्मल, जल से भरा हुआ था ।। २ ।।

तदासाद्य सरो मत्स्यं विनिधाय मनुस्तदा ।

पालयामास सुतवत् कृपया परया युतः ।।३।।

तब मनु ने उस सरोवर पर पहुँचकर मछली को उसमें रखकर अत्यधिक कृपापूर्वक पुत्र की तरह पाला ।। ३ ।।

सोऽचिरेणैव कालेन पीनो वैसारिणोऽभवत् ।

न ममौ तत्र सरसि बृहत्त्वात् द्विजसत्तमाः ।। ४।।

हे द्विजसत्तम ! थोड़े ही समय में ही वह मछली मोटी हो गई तथा अपने बड़े होने के कारण उस सरोवर में नहीं समायी ॥ ४ ॥

स एकदा महामत्स्यः पूर्वापरतरद्वये ।।५।।

शिरः पुच्छे निधायाशु तुङ्गदेहः समुच्छ्रितः ।

स्वायम्भुवं महात्मानं चुक्रोश त्राहि मामिति ।। ६ ।।

एक बार उस महामत्स्य ने अपने अगले और पिछले दोनों भागों, शिर और पूँछ को शीघ्र ही एक साथ करके शरीर को ऊँचा उठाकर, महात्मा स्वायंभुव मनु से "मेरी रक्षा कीजिये" यह कहा - ।। ५-६ ॥

तं तथा च मनुर्ज्ञात्वा क्रोशन्तं स्थूलपुच्छकम् ।

आससाद तदा मत्स्यं जग्राह च करेण तम् ।।७।।

न शक्नोम्यहमुद्धर्तुं पृथरोमाणमद्भुतम् ।

इति संचिन्तयन्नेव प्रोद्दधार करेण तम् ।।८।।

मनु ने उस प्रकार से पुकारती हुई उस मोटी पूँछ वाले को जानकर और उसके निकट जाकर उसे हाथ से पकड़ लिया। 'मैं इस अद्भुत मत्स्य को उठा नहीं सकूँगा' यह सोचकर उसे अपने हाथ पर धारण किया ।। ७-८ ।।

भगवानपि विश्वात्मा मत्स्यरूपी जनार्दनः ।

स्वायम्भुवकरं प्राप्य लघिमानमुपाश्रयत् ।।९।।

मत्स्य रूप धारण किये हुए विश्वात्मा भगवान विष्णु ने स्वायंभुव मनु के हाथ को प्राप्त कर हल्केपन का आश्रय लिया ।। ९ ।।

ततः कराभ्यामुद्धृत्य स्कन्धे कृत्वा द्रुतं मनुः ।

निनाय सागरं तत्र तोये च निदधे ततः ।। १० ।।

तब दोनों हाथों से उसे उठाकर कन्धे पर रखकर, मनु तेजी से उसे समुद्र में ले गये, और वहाँ उसे जल में रखा॥१०॥

यथेच्छमत्र वर्धस्व न कोऽपि त्वां वधिष्यति ।

अचिरेणैव सम्पूर्णदेहं त्वं समवाप्नुहि ।।११।।

इत्युक्त्वा स महाभागः सर्वप्राणभृतां वरः ।

लघुत्वं चिन्तयंस्तस्य विस्मयं परमं गतः ।। १२ ।।

अपनी इच्छानुसार बढ़ो, यहाँ तुम्हें कोई नहीं मारेगा, शीघ्र ही तुम अपने शरीर की पूर्णता को प्राप्त करो। ऐसा कहकर सभी प्राणियों में श्रेष्ठ, महाभाग, स्वायम्भुव मनु उसके हल्केपन के सम्बन्ध में विचार करते हुए अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त हुये ।। ११-१२ ।।

मत्स्योsपि नचिरादेव पूर्णकायस्तदा महान् ।

सर्वतः पूरयामास देहाभोगेन सागरम् ।।१३।

तब वह मत्स्य भी शीघ्र ही पूर्ण एवं महान शरीर को धारण कर अपने शरीर के विस्तार से सब ओर से समुद्र को भर लिया ।। १३ ।।

तं पूर्णकायमालोक्य व्यतीत्याम्भः समुच्छ्रितम् ।

शिलाभिर्निचितं स्फीतं मानसाचलसंनिभम् ।। १४ ।।

रुन्धन्तं सागरं सर्वं देहाभोगाचलीकृतम् ।

स्वायम्भुवो मनुर्धीमान् मेने मात्स्यं न तं तदा ।। १५ ।।

जल की उछलती तरङ्गों से मिले हुए उस पूर्णविकसित महामत्स्य को मनु शिलाओं से घिरे हुए मानसपर्वत की भाँति देखा जो अपने पर्वत के समान शरीर के विस्तार से सम्पूर्ण सागर को घेरे हुए था। तब बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनु ने उसे सामान्य मत्स्य नहीं माना ।। १४-१५ ।।

ततः पप्रच्छ तं साम्ना मत्स्यं स्वाय्भुवो मनुः ।

विचिन्त्य लघिमानं च पश्यन् मूर्तिं तदाद्भुतम् ।। १६ ।।

तब स्वायम्भुव मनु ने उसकी लघुता का विचार कर तथा उसके अद्भुत (पर्वताकार) स्वरूप को देखकर, स्तुतिपूर्वक उस मत्स्य से पूछा ।। १६ ।।

।। मनुरुवाच ।।

न त्वां मत्स्यमहं मन्ये कस्त्वं मे वद सत्तम ।

महत्वं लघिमानं चिन्तयन् सुमहत्तर ।। १७ ।।

मनु बोले- हे श्रेष्ठ ! आप कौन हो? मुझे बताओ? क्योंकि आपकी लघुता और विशालता दोनों ही एक दूसरे से महान हैं, इनका विचार करते हुए मैं आपको सामान्य मछली नहीं मानता ।। १७ ।।

त्वं ब्रह्माप्यथवा विष्णुः शम्भुर्वा मीनरूपधृक् ।

न चेद्गुह्य महाभाग तन्मे वद महामते ।। १८ ।।

हे महान बुद्धि वाले, हे महाभाग ! आप मछली का रूप धारण किये हुए ब्रह्मा, विष्णु अथवा शिव हो ? यदि यह गुप्त बात न हो तो मुझे बताइये ॥ १८ ॥

।। मत्स्य उवाच ।।

आराध्योऽहं त्वयानित्यं यो हरिः सः सनातनः ।

तवेष्टकामसिद्ध्यर्थं प्रादुर्भूतः समाहितः ।। १९।।

मत्स्यरूप विष्णु बोले- तुम नित्य जिस सनातन विष्णु की आराधना करते हो, मैं वही हूँ और तुम्हारी इष्टकामना की पूर्ति हेतु एकाग्र हो, यहाँ प्रकट हुआ हूँ ।। १९ ।।

यत् त्वमिच्छसि भूतेश मत्तस्त्वं मीनमूर्तितः ।

तत् करिष्येऽद्य तां मूर्तिमिमां विद्धि मनो मम ।। २० ।।

हे प्राणियों के स्वामी ! मुझसे तुम जो भी चाहते हो वह मैं अपने इस मत्स्यरूप से ही करूँगा । हे मनु ! जिसकी तुमने आराधना की उस हरि का स्वरूप, मेरे इसी मत्स्यरूप को जानो ॥ २० ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा विष्णोरमिततेजसः ।

ज्ञात्वा प्रत्यक्षतो विष्णुं मनुस्तुष्टाव केशवम् ।। २१ ।।

मार्कण्डेय बोले- उस अमित तेजस्वी विष्णु के इस प्रकार के वचनों को सुनकर उसे साक्षात् विष्णु जानकर उस मनु ने मत्स्यरूपधारी केशव से कहा- ॥ २१ ॥

कालिकापुराण तैंतीसवाँ अध्याय   

अब इससे आगे श्लोक २२ से ३३ में मत्स्य स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

मत्स्य स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ३३  

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

स्वायम्भुवेन मनुना संस्तुतो मत्स्यरूपधृक् ।

वासुदेवस्तदा प्राह मेघगम्भीरनिःस्वनः ॥३४॥

मार्कण्डेय बोले-तब मत्स्यरूप धारण किये हुए वासुदेव ने स्वायम्भुव मनु के द्वारा स्तुति किये जाने के बाद, मेघ के समान गम्भीर ध्वनि में कहा ॥ ३४ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

तुष्टोऽस्मि तपसा तेऽद्य भक्त्या चापि स्तुतो मुहुः ।

सपर्यया च दानेन वरं वरय सुव्रत ।। ३५।।

भगवान बोले- हे सुन्दर व्रतों वाले ! मैं तुम्हारी तपस्या, सेवा, दान, भक्ति तथा आज की गयी, बार-बार की स्तुति से मैं सन्तुष्ट हूँ। तुम वर माँगो ।। ३५ ।।

इष्टार्थं सम्प्रदास्यामि तुभ्यं नात्र विचारणा ।

वरयस्वेप्सितान् कामान् लोकानां वा हितं च यत् ।। ३६ ।।

तुम्हारा जो भी इच्छित है, उसे मैं प्रदान करूँगा। इस समय कोई सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं है। संसार के हितार्थ या अपनी इच्छानुसार कामनाओं के अनुरूप वर माँगों ।। ३६ ।।

।। मनुरुवाच ।।

यदि देयो वरोमेऽद्य लोकानां यो हितो भवेत् ।

तन्मे देहि वरं विष्णो तं वक्ष्यामि शृणुष्व मे ।। ३७ ।।

मनु बोले- यदि आप आज मुझे वर देना चाहते हैं जिससे लोक का कल्याण हो, तो हे विष्णु ! आप मुझे वर दीजिए। उसे मैं आप से कहता हूँ, आप ध्यान से सुनिये ॥ ३७ ॥

शशाप कपिल: पूर्वं मदर्थे भुवनत्रयम् ।

हतप्रहतविध्वस्तं सकलं ते भवेदिति ।।३८।।

पूर्वकाल में मेरे कारण से तीनों लोकों को कपिल मुनि ने 'तुम्हारा सब कुछ क्षत-विक्षत तथा ध्वस्त हो जाय' ऐसा शाप दे दिया था ।। ३८ ।।

येनेयमुद्धृता पृथ्वी येनेयं प्रतिपालिता ।

संहरिष्यति यस्त्वेनां तेऽधुना प्लावयन्त्विमाम् ।। ३९ ।।

जिसके द्वारा इस पृथ्वी का उद्धार एवं पालन किया गया है, जो इसका संहार करेंगे वही आप इस समय पृथ्वी का उद्धार करें ।। ३९ ।।

ततोऽहं दीनहृदयस्त्वामेव शरणं गतः ।

न यथेदं त्रिभुवनं भविष्यति जलप्लुतम् ।

हतप्रहतविध्वस्तं तथा त्वं देहि मे वरम् ।।४०।।

इसीलिए मैं दीन हृदय होकर आपकी शरण में आया हूँ। जिस प्रकार से इस त्रिलोकी का जलप्लावन होने पर यह हत - प्रहत, ध्वस्त न होवे, ऐसा आप मुझे वर प्रदान करें ॥ ४० ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

न मत्तः कपिलो भिन्नस्तथा न कपिलादहम् ।

यदुक्तं तेन मुनिना मयोक्तं विद्धि तन्मनो ।। ४१ ।।

श्रीभगवान् बोले- हे मनु ! न तो मैं कपिल से भिन्न हूँ और न कपिल मुझसे भिन्न हैं। इसलिए उन मुनिवर की कही बातों को मेरे ही द्वारा कहा समझो ॥ ४१ ॥

तस्माद् यदुदितं तेन तत्सत्यं नान्यथा भवेत् ।

करिष्ये तत्र साहाय्यं स्वायम्भुव निबोध तत् ।। ४२ ।।

इसलिए उन्होंने जो कहा है उसे सच ही समझो। वह अन्यथा नहीं हो सकता । किन्तु उस समय मैं तुम्हारी सहायता करूंगा । हे स्वायम्भुव मनु ! वह कैसे होगी, यह मुझसे सुनो ॥ ४२ ॥

हतप्रहतविध्वस्ते तोयमग्ने जगत्त्रये ।

श्यामलेनाथ शृङ्गेण त्वं मां ज्ञास्यसि वै तदा ।। ४३ ।।

तीनों लोकों के क्षत विक्षत ध्वस्त हो जल में डूब जाने के बाद तुम मुझे उस समय मेरे श्यामल सींग से पहचानोगे।।४३॥

यावज्जलप्लवस्तावद्यथा कार्यं त्वया मनो ।

तन्मे निगदतः पथ्यं शृणुष्वावहितोऽधुना ।। ४४ ।।

हे मनु ! जब तक जलप्लावन रहेगा तब तक जो आपके लिए करना उचित होगा, उसे मैं कहता हूँ । अब उसे ध्यानपूर्वक सुनो ॥ ४४ ॥

सर्वयज्ञियकाष्ठौघैरेका नौका विधीयताम् ।

तामहं द्रढ़यिष्यामि यथा नो भिद्यते जलैः ।।४५।।

सब प्रकार के यज्ञीय काष्ठों के समूह से एक नौका बनाइये। मैं उसे ऐसा दृढ़ कर दूँगा, जिससे वह जल के प्रहार से न टूटे ॥ ४५ ॥

दशयोजनविस्तीर्णां त्रिंशद्योजनमायताम् ।

धारिणीं सर्वबीजानां भुवनत्रयवर्धिनीम् ।। ४६ ।।

वह दश योजन (८० मील) चौड़ी तथा तीस योजन (२४० मील) लम्बीहोगी । तीनों लाकों को वृद्धि प्रदान करने वाली तथा सब बीजों को धारण करने वाली होगी ।। ४६ ।।

सर्वयज्ञियवृक्षाणां भूरिवल्वलतन्तुभिः ।

नवयोजन दीर्घां तु व्यामत्रय- सुविस्तृताम् ।। ४७ ।।

कुरुष्व त्वं मनो तूर्णं बृहतीमीरिकां वटीम् ।

जगद्धात्री जगन्माया लोकमाता जगन्मयी ।

द्रढयिष्यति तां रज्जुं न त्रुट्त्यति यथा तथा ।।४८ ।।

हे मनु तुम शीघ्र सभी यज्ञीय वृक्षों की छाल के तन्तुओं से उस नौका को चलाने के लिए एक नव योजन (६२ मील) लम्बी तथा तीन व्याम (क्षैतीज फैलाए दोनों हाथों की सम्मिलित लम्बाई के बराबर नाप विशेष) मोटी बड़ी रस्सी का शीघ्र ही निर्माण करो। जगत का पालन करने वाली जगत्माया' लोकों की माता, जगत्स्वरूपा भगवती ही उस रस्सी को वैसा दृढ़ करेंगी, जिससे व टूटने न पाये ।। ४७-४८ ।।

सर्वाणि बीजान्यादाय सवेदान् सप्त वै ऋषीन् ।

तस्यां नावि निषण्णस्त्वं वर्तमाने जलप्लवे ।

दक्षेण सह संगम्य स्मरिष्यसि मनो मम ।। ४९ ।।

हे मनु ! जलप्लावन के समय तुम उस नाव पर सारे ऋषियों के सहित चारो वेद और सभी प्रकार के बीजों को लेकर दक्ष प्रजापति के साथ मिलकर मेरा स्मरण करोगे ।। ४९ ।।

स्मृतोऽहं तूर्णमायास्ये भवतो निकटं प्रति ।

श्यामलेनाथ शृङ्गेण त्वं मां ज्ञास्यसि वै तदा ।। ५० ।।

तब मैं स्मरण किये जाने पर शीघ्र ही तुम्हारे निकट आऊँगा । उस समय तुम साँवले सींग से मुझे जानोगे ।।५०।।

यावत् प्रहतविध्वस्त- हतं स्याद्भुवनत्रयम् ।

तावत् पृष्ठेन तां नावं वोढाहं नात्र संशयः ।। ५१ ।।

जब तक यह तीनों लोक क्षत-विक्षत और ध्वस्त रहेगा। तब तक मैं उस नाव को पीठ पर ढोता रहूँगा । इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ५१ ।।

जलप्लुते तु सम्पूर्णे शृङ्गे मम च तां तरीम् ।

त्वं तदा वटीरिकया सन्धानिष्यसि वै दृढम् ।।५२।।

तब मेरे सम्पूर्ण शृङ्ग के जल में डूब जाने पर भी तुम उस मजबूत संचालन करने वाले रस्सी की सहायता से उस नौका को खोज लोगे ।। ५२ ।।

बद्धायां नावि मे शृङ्गे देवमानेन वत्सरान् ।

सहस्रं प्रेरयिष्यामि तां नावं शोषयन् जलम् ।।५३।।

अपनी सींग से बँधी हुई उस नाव को मैं जल का शोषण करते हुए देवताओं के मान से एक हजार वर्षों (मानव मान से ३६०००० वर्षों) तक खींचता रहूँगा ।। ५३ ।।

ततः शुष्केषु तोयेषु प्रोत्तुङ्गे शिखरे गिरेः ।

हिमाचलस्य बद्वाहं तस्मिन्नावमहं मनो ।। ५४ ।।

मनु ! तब जलराशि के सूख जाने पर मैं उस नाव को हिमाचल पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर में बाँध दूँगा ।। ५४ ।।

अहमाराधितो येन जप्येन भवता मनो ।

सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य यस्तोषयति तेन माम् ।। ५५ ।।

हे मनु ! आप द्वारा जिस जपनीय मन्त्र से मेरी आराधना की गई है। उससे जो मुझे सन्तुष्ट करेगा उसकी सब प्रकार की कार्य सिद्धि होगी ।। ५५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति दत्वा वरं तस्मै मत्स्यस्तेन नमस्कृतः ।

अन्तर्दधे जगन्नाथो लोकानुग्रहकारकः ।।५६।।

मार्कण्डेय बोले- लोक पर कृपा करने वाले, मत्स्यवेशधारी, जगत् के स्वामी, विष्णु, उन मनु द्वारा नमस्कार किये जाने पर उनको इस प्रकार का वरदान देकर, अर्न्तधान हो गये ।। ५६ ।।

स्वायम्भुवोऽपि भगवानन्तर्धानं गते हरौ ।

यथोक्तं हरिणा पूर्वं नावं रज्जुं तथाकरोत् ।।५७ ।।

भगवान् विष्णु के अन्तर्धान हो जाने पर स्वायम्भुव मनु ने जैसा कि भगवान ने पहले कहा था वैसी ही नौका एवं रस्सी की व्यवस्था की ।। ५७ ।।

सर्वयज्ञियवृक्षौघा छित्वा स्वायम्भुवस्तदा ।

उद्धृत्य कारयामास वास्यादिभिरसौ तरिम् ।। ५८ ।।

तेषां वल्कसमुद्भूतसूत्रसङ्घैर्वटीरिकाम् ।

पूर्वोक्तेन प्रमाणेन कारयामास वै मनुः ।। ५९ ।।

तब स्वायम्भुवमनु ने सभी यज्ञीय वृक्षों के समूहों को वासि (कुल्हाड़ी) आदि से काट कर तथा उनको गढ़कर, उस नौका का निर्माण एवं उन वृक्षों के छाल के तन्तुओं से उत्पन्न डोरों के समूह से नौका के संचालन हेतु पूर्व वर्णित लम्बाई और मुटायी की रस्सी का भी निर्माण किया ।। ५८-५९ ।।

ततः कालेन महता वृत्तं युद्धं महाद्भुतम् ।

विष्णोर्यज्ञवराहस्य शरभस्य हरस्य च ।। ६० ।।

तब समय आने पर वाराहवेशधारी, भगवान विष्णु एवं शरभवेशधारी भगवान शिव के बीच, महान् आश्चर्यजनक, वह महान् युद्ध सम्पन्न हुआ ।। ६० ।।

ततो जलप्लवे जाते विध्वस्ते भुवनत्रये ।

तथा रज्ज्वा तरिं बध्वा बीजान्यादाय सर्वशः ।। ६१ ।।

वेदानृषींस्तदा सप्तदशञ्चादाय वै मनुः ।

तस्यां नावि समाधाय तोयमग्रे चराचरे ।

स्वायम्भुवस्तदा मत्स्यं हरिं सस्मार नौगतः ।।६२।।

तब जलप्लावन हो, तीनों लोकों के विध्वस्त हो जाने पर तथा चराचर जगत के जलमग्न हो जाने पर नौका को रस्सी में बाँध तथा सभी बीजों, वेदों, सप्तऋषियों और दशप्रजापतियों को मनु ने उस नौका में रखा। तब स्वयं नौका में बैठकर उन्होंने मत्स्यवेशधारी भगवान् विष्णु का स्मरण किया ।। ६१-६२ ।।

ततो जलानामुपरि सशृङ्ग इव पर्वतः ।। ६३ ।।

उदितश्चैकशृङ्गेण विष्णुर्मत्स्यस्वरूपधृक् ।

आगतस्तत्र नचिराद्यत्रास्ते तरिणा मनुः ।। ६४ ।।

तब एक सींग सहित मत्स्यरूप धारण किये हुए भगवान् विष्णु शिखर युक्त पर्वत की भाँति जलराशि के ऊपर उठकर प्रकट हुए और जहाँ नौका के सहित मनु उस भयङ्कर, विशाल जलराशि में नौका पर विराजमान हो उपस्थित थे, वहीं शीघ्र आ गये ।। ६३-६४ ॥

तरिमारुह्य विपुले तोयराशौ भयङ्करे ।

यावच्चलाचलं तोयं तावत् पृष्ठे तरिं न्यधात् ।। ६५ ।।

जले प्रकृतिमापन्ने शृङ्गे बध्वा वटीरिकाम् ।

तां नावं नोदयामास सहस्रं दैववत्सरान् ।।६६।।

तथा जब तक जलप्लावन रहा तब तक उस नौका को अपनी पीठ पर धारण किये रहे । जल में निमग्न होने पर भी अपने सींग में रस्सी बाँधकर उससे एक हजार दैव वर्षों तक उस नाव का सञ्चालन करते रहे ।। ६५-६६ ।।

स्वं नावं च अवष्टभ्य दधार परमेश्वरः ।

योगनिद्रा जगद्धात्री समासीदतद्वटीरिकाम् ।।६७।।

स्वयं को तथा उस नौका को परमेश्वर संचालन कर्त्री उस रज्जु रूपिणी योगनिद्रा, जगत्पालिनी भगवती के सहारे धारण किये रहे* ॥ ६७ ॥

·         यहाँ रज्जुरूपी जगन्माया की महत्ता दिखाई गई है।

ततः शनैः शनैस्तोये शोषं गच्छति वै चिरात् ।

पश्चिमं हिमवच्छङ्ग सुमग्नं तोयमध्यतः ।। ६८ ।।

द्वे सहस्त्रे योजनानामुच्छ्रितस्य हिमप्रभोः ।

पञ्चाशत्तु सहस्राणि शृङ्गं तत्तस्य चोच्छ्रितम् ।। ६९ ।।

तब बहुत समय में जल के धीरे-धीरे सूख जाने के पश्चात्, जल के मध्य से डूबा हुआ हिमालय का पश्चिमी शिखर, जो दो हजार योजन ऊँचा था और जिसमें पचास हजार अन्य शिखर भी शाखा रूप में निकले हुए थे, प्रकट हुआ।। ६९-६९ ॥

तस्मिन् शृङ्गे ततो नावं बध्वा मत्स्यात्मधृग् हरिः ।

जगाम शोषणायाशु जलानां जगतां पतिः ।।७० ।।

इस हिमालय के शिखर में नाव को बाँधकर मत्स्य रूपधारी जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु शीघ्र ही जलराशि के शोषण हेतु प्रवृत्त हुए ।। ७० ।।

एवं हि मत्स्यरूपेण वेदास्त्राताश्च शार्ङ्गिणा ।। ७१ ।।

इस प्रकार शार्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान् विष्णु द्वारा मत्स्यरूप धारण कर वेदों की रक्षा की गयी॥७१॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

कपिलस्य तु शापेन कृत आकालिको लयः ।।७२।।

मार्कण्डेय बोले- यह असामयिक प्रलय कपिल मुनि के शाप के कारण हुआ था ।। ७२ ।।

अकालिकोऽयं प्रलयो यतो भगवता कृतः ।

इति वः कथितं सर्वं यथावद् द्विजसत्तमाः ।।७३।।

हे द्विजसत्तमों ! यह अकालिक प्रलय जिस प्रकार से भगवान् द्वारा किया गया वह सब मैंने आपलोगों से ज्यों का त्यों कह दिया है ।। ७३ ।।

।। इति श्रीकालिकापुराणे अकालप्रलयकथने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।।३३।।

कालिका पुराण अध्याय ३३- संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- स्वायम्भुव मनु ने उस प्रकार से स्थूल शरीर वाले उस मत्स्य का अवलोकन स्वयं करके उसको अपने हाथ से ग्रहण करके वे विकसित कमलों से संयुक्त सरोवर को चले गये थे । वह सरोवर वहाँ पर परम पुण्य नर नारायण के आश्रम में बहुत विस्तृत था । वह एक योजन के विस्तार वाला तथा डेढ़ योजन आयताकार था । उसमें उनके भीत गण थे। उस सरोवर में उस मत्स्य को डाल करके उस समय में मनु ने वहाँ पर निर्धारित कर दिया था । उस मत्स्य का उन्होंने अपने पुत्र की ही भाँति परम अनुग्रह से युक्त होकर पालन किया था । वह मत्स्य बहुत ही थोड़े समय में परमाधिक स्थूल और विस्तृत हो गया था । हे श्रेष्ठ द्विजों ! वह मत्स्य उस सरोवर में भी समाया नहीं था। क्योंकि बहुत ही बड़ा हो गया था। वह मत्स्य एक बार पूर्व और उत्तर दोनों किनारों पर अपना शिर और पूँछ रखकर ऊँचे शरीर वाला हो गया था फिर वह स्वायम्भुव महात्मा से चिल्लाकर बोला- मेरी रक्षा करो। मनु ने उसको स्थूल पूँछ वाला समझकर वह उस समय में उस महामत्स्य के समीप पहुँचे और अपने हाथ के द्वारा उसको उन्होंने ग्रहण किया था।

मैं विपुल रोमों वाले अतीव अद्भुत आपका उद्धार करने के लिए समर्थ नहीं होता हूँ, ऐसा भली चिन्तन करते हुए भी उन्होंने हाथ से उसको धारण कर लिया था । विश्व के आत्मा भगवान् जनार्दन भी जिन्होंने मत्स्य का स्वरूप धारण कर रखा था स्वायम्भुव मनु के कर को प्राप्त करके फिर छोटे स्वरूप का उपाश्रय ग्रहण कर लिया। फिर मनु ने करों से उसको उठाकर अपने कन्धे पर धारण किया था और शीघ्र ही उसे सागर में ले गये थे और वहाँ जल में उसको रख दिया था। उन्होंने उस मत्स्य को कहा था वहाँ आप अपनी इच्छा के अनुसार बढ़िये यहाँ पर कोई भी आपका वध नहीं करेगा और आप शीघ्र ही सम्पूर्ण देह की प्राप्त करिए। यह कहकर समस्त प्राणधारियों में परमश्रेष्ठ वह महान भाग वाले ने उसकी लघुता (छोटेपन) का चिन्तन करते हुए ही परमाधिक विस्मय को प्राप्त हो गये थे। वह मत्स्य भी तुरन्त ही उस समय में महान् पूर्ण शरीरवाले हो गये थे और अपने देहादिक के द्वारा सभी ओर से उस महासागर को उन्होंने भर दिया था । तात्पर्य यह है कि उन्होंने इतना अधिक अपने शरीर को बढ़ा लिया था कि वह पूरा सागर उससे भी गया था। उस महासागर के जल को भी अतिक्रमण करके अत्यन्त उन्नतपूर्ण शरीर वाले का अवलोकन करके जो कि शिलाओं से घिरे हुए, लम्बा चौड़ा मानसाचल के तुल्य था । सम्पूर्ण सागर को रोकने वाले और अपने देह के विस्तार से अचल करके श्रीमान स्वायम्भुव मनु ने उस समय उनको मत्स्य नहीं माना था । उस अवसर पर स्वायम्भुव मनु ने उस मत्स्य से फिर शान्तिपूर्वक पूछा था जबकि उनकी अद्भुत मूर्ति का दर्शन किया था और उनके छोटेपन को देखा था ।

मनु ने कहा- हे परमश्रेष्ठ! मैं केवल आपको मत्स्य ही नहीं मानता हूँ । आप कौन हो, यह मुझे स्पष्ट बतलाने की कृपा करिए ? हे सुमहत्तप! मैं आपके महत्व को और छोटेपन कर चिन्तन करते हुए ही आपको सामान्य मत्स्य ही नहीं मानता हूँ । आप ब्रह्मा हैं अथवा विष्णु हैं या आप शम्भु हैं जिन्होंने यह मत्स्य का स्वरूप धारण किया है । यदि इसमें कुछ गोपनीयता न हो तो, हे महाभाग ! हे महामते ! मुझे यह स्पष्ट बतलाने की कृपा करिए ।

मत्स्य भगवान ने कहा- आपके द्वारा मेरी नित्य ही आराधना करनी चाहिए जो सनातन हरि भगवान हैं वही मैं हूँ । इस समय आपकी कामना की सिद्धि के ही लिए मैं समादित होकर प्रकट हुआ हूँ । हे भूतों के स्वामिन्! आप जो भी मुझ मीन की मूर्ति वाले से जो भी कुछ चाहते हैं वही आज करूँगा । मेरी इस मूर्ति को मन ही समझिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- अपरिमित तेज के धारण करने वाले भगवान विष्णु के इस वचन का श्रवण करके और प्रत्यक्ष रूप के केवल भगवान् विष्णु का ज्ञान प्राप्त करके मनु प्रसन्न हुए थे।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- स्वायम्भुव मनु के द्वारा वे भगवान् मत्स्य के स्वरूप धारण करने वाले प्रभु की इस रीति से भली-भाँति स्तुति की गई थी। उस अवसर पर भगवान वासुदेव मेघों के सदृश परम गम्भीर ध्वनि से संयुत होकर बोले थे ।

श्री भगवान ने कहा- आज मैं आपकी इस तपश्चर्या से परम प्रसन्न हूँ और आपके द्वारा बड़ी ही भक्ति की भावना से बारम्बार मेरी स्तुति भी की गयी है। मुझे आपकी पूजा से और दान भी परम सन्तोष हुआ है। हे सुव्रत ! अब आप वरदान माँग लो। आपका जो भी अभीष्ट अर्थ होगा आपको मैं दूँगा । इसमें कुछ भी विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।

स्वायम्भुव मनु ने कहा- हे विष्णो! आज यदि मुझे कोई वरदान देना है जो कि तीनों लोकों की भलाई करने वाला ही हो तो आप मुझे वरदान देवें । उसको मैं बतलाऊँगा उसमें आप मुझसे श्रवण कीजिए । पूर्व में कपिल मुनि ने मेरे लिए शाप दिया था कि सम्पूर्ण जगत अर्थात् तीनों भुवन हत-प्रहत और विध्वंस हो जायेंगे। जिसने इस पृथ्वी को उद्धृत किया है और जिसके द्वारा यह पृथ्वी प्रतिपालित की गई है और जो इसका संहार करेंगे उन्हीं के द्वारा इसका इस समय प्लावन होवे । इसके उपरान्त मैं दीन हृदय वाला आपकी ही शरणागति में प्राप्त हुआ । जिस रीति से यह त्रिभुवन जल से प्लुत ( डुबा हुआ ) न होवे एवं हत-प्रहत और विध्वंस्त न होवे आप वही वरदान मुझे प्रदान कीजिए।

श्री भगवान् ने कहा- हे मनुदेव! मुझसे कपिल कोई भिन्न नहीं है और उसी भाँति मेरे द्वारा ही कहा हुआ समझिए। इस कारण से उन्होंने जो भी कुछ कहा है वह सर्वथा सत्य है । मैं आपकी सहायता करूँगा । हे स्वायम्भुव ! इसको आप समझ लीजिए ।

इस तीनों भुवनों के हत, प्रहत और विध्वंस होने पर एवं जल में निमग्न हो जाने पर में श्यामल श्रृंग समन्वित होऊँगा और आप उस समय में मुझको जान लेंगे अर्थात् आपको मेरा ज्ञान प्राप्त हो जायेगा । हे मनुदेव ! जब तक यह जल का प्लवन रहे तभी तक जो भी कुछ आपको करना चाहिए वह अब आप परम सावधान होकर श्रवण कीजिए जो कि परम पथ्य अर्थात् हितकर है वहीं मैं कह रहा हूँ । सब यज्ञ सम्बन्धी कोष्ठों के समूह के द्वारा एक नौका निर्माण कराइये । उस नौका को मैं ऐसी परम बना दूँगा जिससे कि जलों से वह भिदी हुई न होवे । नौका ऐसी होनी चाहिए कि वह दश योजनों के विस्तार से युक्त होवे और तीस योजन पर्यन्त आयत अर्थात् चौड़ी होवे, जो सम्पूर्ण बीजों के अर्थात् बीज के स्वरूप में रहने वालों के धारण करने वाली हो और तीनों भुवनों के वर्धन करने वाली होवे । समस्त यज्ञों से सम्बन्ध रखने वाले वृक्षों के तन्तुओं से निर्मित की जावे । जो नौ योजन तक दीर्घ होने तथा व्यास त्रय तक विस्तृत होवे अर्थात् तीन व्योमों के विस्तार से युक्त होवे । हे मनुदेव! आप शीघ्र ही वृहती वरीरिका बटी करिए जो जगत की धात्री जगत की माया, लोकों की माता और जगतों से परिपूर्ण वह उस रज्जु (रस्सी) को सुदृढ़ कर देंगी जो किसी प्रकार से भी त्रुटि न होवे। इस वर्तमान जल के प्लवन होने के समय उस नौका में सब बीजों को अर्थात् बीज स्वरूपों को रखकर तथा समस्त वेदों को और सात ऋषियों को बिठाकर आप भी उसमें निषण्ण हो जाइए ।

हे मनुदेव! आप दक्ष के साथ मिलाकर मेरा स्मरण करेंगे उसी समय में स्मरण किया हुआ मैं आपके समीप में आ जाऊँगा । मैं श्यामल श्रृंग से समन्वित होऊँगा । उसी समय में आपको मेरा ज्ञान प्राप्त हो जायेगा । जिस समय पर्यन्त यह तीनों भुवन हत, प्रहत, विध्वंस रहेंगे तभी तक मैं अपने पृष्ठ भाग के द्वारा उस नौका के वहन करने वाला रहूँगा । इसमें लेशमात्र भी संशय का अवसर नहीं है । मेरे शृंग के जल में प्लवित हो जाने पर उस नौका को उस समय में आप वरीरिका से दृढ़ता के साथ सन्धन करेंगे। मेरे श्रृंग में नौका के निबद्ध हो जाने पर देवों के परिमाण से एक सहस्र वर्षों तक जल का शोषण करते हुए उस नौका को प्रेरित करूँगा । हे मनुदेव! फिर जलों के शुष्क हो जाने पर हिमालय पर्वत के बहुत ऊँचे शिखर पर उसमें नाव को बाँधकर जिस जाप के योग्य मन्त्र के द्वारा आपने मेरी आराधना की है उस मन्त्र के द्वारा जो मुझे सन्तुष्ट करता है उसको सभी प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार के वरदान देकर वह मत्स्य उनके द्वारा नमस्कृत हुए थे अर्थात् उसने मत्स्य को प्रणाम किया था । फिर वह जगत् के स्वामी लोकों पर अनुग्रह करने वाले अन्तर्धान हो गये थे । स्वायम्भुव मनु भी भगवान हरि के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान हरि ने जैसा कहा वैसी ही नौका और रज्जु का निर्माण कराया था । उस समय में स्वायम्भुव मनु ने समस्त यज्ञों से सम्बन्धित वृक्षों को छेदन कराकर उनको उद्धृत करके वस्यादि के द्वारा नौका का निर्माण कराया था । उन वृक्षों के वल्कल (छाल) से समुद्भुत सूत्रों के समूहों से पूर्व में कथित परिमाण से मनु ने वरीरिका की रचना कराई थी । उसके अनन्तर बहुत अधिक काल तक भगवान यज्ञ वाराह विष्णु का, शरभ का और हर का महान अद्भुत युद्ध हुआ था । इसके उपरान्त जल से प्लावन होने पर तथा तीनों के विध्वंस हो जाने पर उसी समय रज्जु से नौका को बाँध करके बीजों का आदान करके मनु ने वेदों को और ऋषियों को लाकर उस नौका में रखकर चराचर सबके जल में मग्न हो जाने पर उसी सवार पर मनुदेव ने नाव में स्थित होते हुए मत्स्य मूर्ति भगवान् हरि का स्मरण किया था। इसके अनन्तर शिखर से संयुक्त पर्वत के ही सदृश जलों के ऊपर भगवान् मत्स्य समागत हो गये थे ।

मत्स्य का स्वरूप धारण करने वाले भगवान् विष्णु एक श्रृंग से समन्वित वहीं पर समागत हो गये थे और तनिक भी विलम्ब नहीं किया था जहाँ पर नाव से मनुदेव संस्थित हो रहे थे। उस महान भयंकर और बहुत ही विस्तृत जल के समुदाय में नौका पर समारूढ़ होकर जब तक जल चलाचल था तभी तक उस जल के पृष्ठ भाग पर नौका को निधापित कर दिया था। जल के प्रकृति में समापन्न होने पर वरीरिका को श्रृंग में बाँधकर एक सहस्र देवों के  वर्षों तक उस नौका को सम्प्रेरित किया था । परमेश्वर प्रभु ने अपनी नाव को अवष्टंन्ध करके धारण किया था । जगत् की धात्री योगनिद्रा उस बटीरिका में समासीन हो गयी थी । फिर धीरे-धीरे चिरकाल में जल के शोषण हो जाने पर उस जल के मध्य में पश्चिम हिमालय पर्वत का शिखर सुमग्न हो गया था । हिमालय प्रभु के जो दो सहस्र योजन ऊंचा था उसके पचास सहस्र उच्छ्रिष्ट (ऊँचा ) श्रृंग था । फिर उस शृंग में उस नाव को बाँधकर मत्स्य के स्वरूप को धारण करने वाले हरि जो जगतों के स्वामी थे उन जलों शोषण करने के लिए तुरन्त गये थे। इसी रीति से भगवान् शार्गंधारी विष्णु ने मत्स्य के स्वरूप के द्वारा वेदों की रक्षा की थी ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- कपिल मुनि के शाप से यह आकालिक लय किया गया था। क्योंकि यह अकालिक लय भगवान् के द्वारा ही किया गया था । हे द्विज सत्तमों! यह जैसा हुआ था वैसा ही हमने आपको वर्णन करके बतला दिया है ।

॥ श्रीकालिकापुराण में अकालप्रलयकथन नामक तैतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३३ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 34 

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