मत्स्य स्तुति
भगवान् नारायण के मत्स्य के स्वरूप
की जो भक्त भक्ति भावना से पूजा और इस स्तुति का पाठ करता है । उसका जो भी अभीष्ट
अर्थ हो पूर्ण होता तथा मत्स्य भगवान् का शरणागति प्राप्त होता है, और उसको सभी
प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
मत्स्य स्तुति:
Matsya stuti
॥ मनुरुवाच ॥ ॥
नमस्ते जगदव्यक्त परा परपतेहरे ॥
पावकादित्यशीतांशु नेत्रत्रयधराव्यय
॥ २२ ॥
स्वायम्भुव मनु ने कहा- हे हरे ! इस
जगत के पर और अपर के आप स्वामी हैं । आप अविनाशी हैं तथा अग्नि,
सूर्य और चन्द्र इनको ही तीन नेत्रों को धारण करने वाले हैं। आपकी
सेवा में मेरा प्रतिपात निवेदित है ।
जगत्कारण सर्व्वज्ञ जगद्धाम हरे पर
॥
परापरात्मरूपात्मन्पारिणां पारकारण
॥ २३॥
हे सर्वज्ञ! आप जगत के कारण हैं,
जगत के धाम हैं, हे हरे ! आप पर हैं । आप पर
और अपर स्वरूप वाले तथा जो पार जाने वाले हैं उनको पार पहुँचाने के कारणरूप हैं।
आत्मानमात्मना धृत्वा धरारूपधरो हरे
॥
विभर्षि सकलान् लोकानाधारात्मँस्त्रिविक्रम
॥ २४ ॥
अपनी आत्मा से ही आत्मा को धारण
करके हे हरे ! आप धरा का रूप धारण करनेवाले हैं । हे त्रिविक्रम्! आप आधार स्वरूप
वाले हैं और आप समस्त लोकों का भरण किया करते हैं ।
सर्व्ववेदमयश्रेष्ठ धामधारणकारण ॥
सुरौधपरमेशान नारायण सुरेश्वर ॥ २५
॥
हे सुरेश्वर ! आप समस्त वेदों से
परिपूर्ण एवं श्रेष्ठ हैं । धाम के कारण के भी आप कारण हैं। आप देवों के समुदाय के
परम ईशान हैं और नारायण हैं।
अयोनिस्त्व जगद्योनिरपादस्त्वं सदागतिः
॥
त्वन्तेज स्पर्शहीनश्व सर्व्वेशस्त्वमनीश्वरः
॥ २६ ॥
आपका कोई भी जन्मदाता नहीं है और आप
इस जगत की योनि अर्थात् उत्पादक हैं । आप पादरहित हैं तो सदा गति वाले हैं। आप तेज
और स्पर्श से रहित हैं । हे ईश्वर! आप सभी के स्वामी हैं।
त्वमनादिः समस्तादिस्त्व नित्यानन्तरोन्तरः
॥
यद्धैममण्ड जगताम्बीजं ब्रह्माण्डसञ्ज्ञितम्
॥ २७ ॥
आपका कोई भी आदिकाल नहीं है और आप
ही सबके आदि हैं। आप नित्य अनन्तर तथा अन्तर हैं। जो हेम का अण्ड है और इन सब
जगतों का बीज हैं और ब्रह्माण्ड की संज्ञा से युक्त है ।
तद्वीजम्भवतस्तेजस्त्वयोक्तं सलिलेषु
च ॥
सर्व्वाधारो निराधारो निर्हेतुः
सर्व्वकारणम् ॥ २८ ॥
उस ब्राह्मण्ड के बीज आपका ही तेज
होता है। आप ही सबके आधार रूप हैं और आप स्वयं बिना आधार वाले हैं। आप स्वयं तो
बिना हेतु वाले हैं किन्तु सबके कारण स्वरूप हैं ।
नमो नमस्ते विश्वेश लोकानां प्रभव प्रभो
॥
सृष्टिस्थित्यन्तहेतुस्त्व विधिविष्णुहरात्मधृक्
॥ २९ ॥
हे विश्व के स्वामिन्! हे प्रभो! आप
ही समस्त लोकों के प्रभाव अर्थात् जन्म स्थान हैं अथवा जन्म देने वाले हैं। आप
सृष्टि,
स्थिति और संहार के हेतु हैं । आप विधाता, विष्णु
और आत्मा के धारण करने वाले हैं । आपकी सेवा में बारम्बार नमस्कार है।
यस्य ते दशघा मूर्तिरुर्म्मिषट्कादिवर्जिता
॥
ज्योतिः पतिस्त्वमम्भोधिस्तस्मै तुभ्यन्नमोनमः
॥ ३० ॥
आपकी मूर्ति दस प्रकार की है और वह
मूर्ति ऊर्मि षट्क आदि से रहित है । आप ज्योति के स्वामी हैं आप अम्भोधि अर्थात्
सागर हैं उन आपके किए बारम्बार प्रणाम समर्पित हैं ।
कस्ते भावं व्यक्तुमीशः
परेशस्थूलात्स्थूलो योऽणुरूपोर्थवर्गात् ॥
तस्मैनित्यम्मे नमोऽस्त्वद्य योऽभूदादित्यवर्णन्तमसः
परस्तात् ॥ ३१ ॥
हे परेश ! कौन हैं जो आपके भाव का
वर्णन करने में समर्थ हो अर्थात् ऐसा कोई भी नहीं है। जो आप स्थूल से भी स्थूल हैं,
अर्थ वर्ग से भी अणु रूप वाले हैं। जो नभ से परे आदित्य के वर्ण
वाले थे आज उनके ही लिए मेरा नमस्कार है ।
सहस्रशीर्षा पुरुषः
सहस्रपात्सहस्रचक्षुः पृथिवीसमन्ततः ॥
दशाङ्गुल यो हि समेत्यतिष्ठत् स मे प्रसीदत्विहविष्णुरुग्र:
॥ ३२ ॥
जो पुरुष सहस्र शीर्षों वाले हैं
तथा सहस्र चरणों वाले हैं, सहस्त्र चक्षुओं से
युक्त हैं और इस पृथ्वी के सभी ओर हैं, जो दश अंगुल के समान
परिमाण वाले स्थित थे वही उग्र भगवान् विष्णु यहाँ मेरे ऊपर प्रसन्न होवें ।
नमस्ते मीनमूर्ते हे नमस्ते
भगवन्हरे ॥
नमस्ते जगदानन्द नमस्ते भक्तवत्सल ॥
३३ ॥
हे भगवन्! आप तीन की मूर्ति धारण
करने वाले हैं । हे हरे ! आपको नमस्कार है । हे जगत् के आनन्द स्वरूप वाले आपको
नमस्कार है । हे भक्तों के ऊपर प्रेम करने वाले ! आपकी सेवा में मेरा प्रणाम है ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे मत्स्यस्तुति:नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥
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