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कालिका पुराण अध्याय ३१

कालिका पुराण अध्याय ३१  

कालिका पुराण अध्याय ३१ में यज्ञवाराह और उसके बच्चों के शरीर से यज्ञ एवं यज्ञपात्रों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है ।

कालिका पुराण अध्याय ३१

कालिकापुराणम् एकत्रिंशोऽध्यायः वाराहतनौयज्ञोत्पत्तिः

कालिका पुराण अध्याय ३१             

Kalika puran chapter 31

कालिकापुराण ईकतीसवाँ अध्याय

अथ कालिका पुराण अध्याय ३१          

।। ऋषय ऊचुः ।।

कथं यज्ञवराहस्य देहो यज्ञत्वमाप्तवान् ।

त्रेतात्वमगमन् पुत्रा वराहस्य कथं त्रयः ॥१॥

ऋषिगण बोले- यज्ञवाराह के शरीर ने किस प्रकार यज्ञत्व को प्राप्त किया? तथा वाराह के तीन पुत्र कैसे त्रेतात्व (तीन अग्नियों सामूहिक रूप) को प्राप्त हुए ? ॥ १ ॥

आकालिकोऽयं प्रलयः कस्माद् भगवता कृतः ।

जनक्षयो महाघोरो वराहेण महात्मना ।। २ ।।

महात्मा वाराह के द्वारा अत्यन्त भयानक तथा जनसमूह का विनाशक यह असामयिक महाप्रलय क्यों किया गया? ॥२॥

कथं वा मत्स्यरूपेण वेदास्त्राताश्च शार्ङ्गिणा ।

कथं पुनरभूत् सृष्टिः केन चोर्वी समुद्धृता ।।३।।

या शार्ङ्गधर विष्णु ने मत्स्यरूप धारण कर वेदों का उद्धार कैसे किया ? पुनः सृष्टि कैसे हुई ? तथा किसने पृथिवी का उद्धार किया ? ।। ३ ।।

ईश्वरः शारभं कायं त्यक्तवान् वा कथं गुरो ।

कीदृक् प्रवृत्तं तद्देहं तन्नो वद महामते ।।४।।

हे महामतिमान गुरुदेव! शिव ने अपना शरभ शरीर कैसे छोड़ा? उस शरीर की क्या गति हुई? यह सब हमें बताइये॥४॥

एतेषां द्विजशार्दूल भवान् प्रत्यक्षदर्शिवान् ।

तन्नोऽद्य श्रोष्यमाणानां कथयस्व महामते ।।५।।

हे द्विजों में सिंह के समान श्रेष्ठ, महामति! आप उन सबके प्रत्यक्ष द्रष्टा हो, अतः उस रहस्य को आज हम से कहिये। हम सब सुनने को उत्सुक हैं ॥ ५ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृणुध्वं द्विजशार्दूला यत्पृष्टोऽहमिहाद्भुतम् ।

श्रृण्वन्त्ववहिताः सर्वे सर्ववेदफलप्रदम् ।।६।।

मार्कण्डेय बोले- हे द्विजों में सिंहवत् श्रेष्ठ ऋषियों! आपने जो मुझसे पूछा है। उस अद्भुत तथा सभी वेदों के श्रवण का फल देने वाले इस वृत्तान्त को एकाग्र हो आप सब सुनें ।। ६ ॥

यज्ञेषु देवास्तुष्यन्ति यज्ञेन सर्वं प्रतिष्ठितम् ।

यज्ञेन ध्रियते पृथ्वी यज्ञस्तारयति प्रजाः ।।७।।

यज्ञों के होने पर देवगण सन्तुष्ट होते हैं। यज्ञ में ही सबकी प्रतिष्ठा है । यज्ञ से ही पृथ्वी का धारण होता है। यज्ञ प्रजा का उद्धार करता है।

अन्नेन भूता जीवन्ति पर्जन्यादन्नसम्भवः ।

पर्जन्यो जायते यज्ञात् सर्वं यज्ञमयं ततः ॥८॥

अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं। बादलों के ही कारण अन्न उत्पन्न होते हैं। वह बादल यज्ञ से ही उत्पन्न होता है। इसीलिए सब कुछ यज्ञमय है ॥ ८ ॥

स यज्ञोऽभूद्वराहस्य कायाच्छम्भुविदारितात् ।

यथाहं कथये तद्वः शृण्वन्त्ववहिता द्विजाः ।। ९ ।।

हे द्विजों ! जिस प्रकार वह यज्ञ शम्भु के द्वारा विदीर्ण किये हुए वाराह के शरीर से उत्पन्न हुआ, वह प्रसङ्ग मैं आप लोगों से कहता हूँ, आप उसे ध्यान से सुनें ॥ ९ ॥

विदारिते वराहस्य काये भर्गेण तत्क्षणात् ।

ब्रह्मविष्णुशिवा देवाः सर्वैश्च प्रमथैः सह ।। १० ।।

निन्युर्जलात् समुद्धृत्य तच्छरीरं नभः प्रति ।

तद्धिदुः शरीरं तत् विष्णोश्चक्रेण खण्डशः ।। ११।।

शिव द्वारा वाराह के शरीर के काटे जाने पर तत्क्षण ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता प्रमथों के साथ मिलकर उसके शरीर को जल से उठाकर आकाश की ओर ऊपर ले आये । तब विष्णु ने उस शरीर को अपने चक्र से टुकड़े-टुकड़े कर काट दिया ।। १०-११ ॥

तस्यांगसन्धयो यज्ञा जाताश्च वै पृथक् पृथक् ।

यस्मादङ्गाच्च ये जातास्तच्छृण्वन्तु महर्षयः ।। १२ ।।

उसके अङ्ग की अलग-अलग संधियों से अलग-अलग यज्ञ उत्पन्न हुए। हे महर्षियों ! जिस अङ्ग से जो यज्ञ उत्पन्न हुआ, उसे सुनो ॥ १२ ॥

भ्रूनासासन्धितो जातो ज्योतिष्टोमो महाध्वरः ।

हनुश्रवणसन्ध्योस्तु वह्निष्टोमो व्यजायत ।।१३।।

उसके भौंह और नाक के संधिस्थान से ज्योतिष्टोम नामक महान यज्ञ तथा ठुड्डी एवं श्रवण संधि के जोड़ से अग्निष्टोम उत्पन्न हुआ ।। १३ ।।

चक्षूर्भुवो सन्धिना तु व्रात्यष्टोमो व्यजायत ।

जात: पौनर्भवष्टोमस्तस्य पोत्रौष्ठसन्धितः ।। १४ ।।

नेत्र एवं भौंहों की सन्धि से व्रात्यष्टोम और उसके थूथन और होंठ की से पुनर्भवष्टोम उत्पन्न हुआ ।। १४ ।।

वृद्धष्टोमवृहत्ष्टोमौ जिह्वामूलादजायताम् ।

अतिरात्रं सवैराजमधोजिह्वान्तरादभूत् ।। १५ ।।

वृद्धष्टोम और बृहत्ष्टोम उसके जिह्वा के जड़ से तथा विराट के सहित अतिरात्र नामक यज्ञ जिह्वा के निचले भाग से उत्पन्न हुए ।। १५ ।।

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो दैवोबलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। १६ ।।

स्नानं तर्पणपर्यतं नित्ययज्ञाश्च सर्वशः ।

कण्ठसंध्धेः समुत्पन्नाः जिह्वातो विधयस्तथा ।। १७ ।।

अध्यापन (पढ़ाना) रूपी ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूपी पितृयज्ञ, होमरूपी देव और भूतबलि, अतिथि पूजनरूपी मनुष्ययज्ञ, स्नान से तर्पण पर्यन्त सब प्रकार के नित्य यज्ञ उसके कण्ठ के जोड़ों से उत्पन्न हुए तथा उनकी विधियाँ जिह्वा से उत्पन्न हुईं।।१६-१७ ।।

वाजिमेध महामेधौ नरमेधस्तथैव च ।

प्राणिहिंसाकरा येऽन्ते ते जाताः पादसन्धितः ।। १८ ।।

अश्वमेध, महामेध तथा नरमेध एवं प्राणि हिंसा सम्बन्धी अन्य जो यज्ञ थे, वे सब उसके पैरों की सन्धियों से उत्पन्न हुए । १८ ॥

राजसूयोऽर्थकारी च वाजपेयस्तथैव च ।

पृष्टसन्धौ समुत्पन्ना ग्रहयज्ञास्तथैव च ।। १९ ।।

अर्थप्रद राजसूययज्ञ, वाजपेययज्ञ तथा ग्रह सम्बन्धी अन्य यज्ञ उसके पीठ के जोड़ों से उत्पन्न हुए ।। १९ ।।

प्रतिष्ठोत्सर्गयज्ञाश्च दानश्राद्धादयस्तथा ।

हृत्सन्धितः समुत्पन्नाः सावित्रीयज्ञ एव च ।।२०।।

प्रतिष्ठा, दानश्राद्धादि उत्सर्गयज्ञ तथा सावित्रीयज्ञ उसके हृदय की संधियों से उत्पन्न हुए ।। २० ।।

सर्वे सांस्कारिका यज्ञाः प्रायश्चित्तकराश्च ये ।

ते मेढ्रसन्धितो जाता यज्ञास्तस्य महात्मनः ।। २१ ।।

सभी संस्कारों से सम्बन्धित्त प्रायश्चित कारक जो यज्ञ थे वे उस महात्मा वाराह के मेढ़ (जननांग) की संधि से उत्पन्न हुए ।। २१ ।

रक्षःसत्रं सर्पसत्रं सर्वं चैवाभिचारिकम् ।

गोमेधो वृक्षयागश्च खुरेभ्यो ह्यभवन्निमे ।। २२ ।।

राक्षसों से सम्बन्धित यज्ञ तथा सर्पों से सम्बन्धित यज्ञ, सभी प्रकार के अभिचार सम्बन्धी यज्ञ, गोमेध, वृक्ष-याग आदि यज्ञ उसके खुरों से उत्पन्न हुए ॥ २२ ॥

मायेष्टिः परमेष्टिश्च गीष्पतिर्भोगसम्भवः ।

लाङ्गुलसन्धौ संजाता अग्निष्टोमस्तथैव च ।। २३ ।।

नैमित्तिकाश्च ये यज्ञा: संक्रान्त्यादौ प्रकीर्तिताः ।

लाङ्गुलसन्धौ ते जातास्तथा द्वादशवार्षिकम् ।। २४ ।।

मायेष्टि, परमेष्टि, भोग से सम्बन्धित गीष्पति (वाक्पति) तथा अग्निष्टोम यज्ञ, संक्रान्ति आदि नैमित्तिक यज्ञ एवं बारह वर्षों तक चलने वाले विशिष्ट यज्ञ उसकी पूँछ की संधियों से उत्पन्न हुए ।। २३-२४ ।

तीर्थप्रयोगसामौज: यज्ञः संकर्षणस्तथा ।

आर्कमाथर्वणचैव नाडीसन्धेः समुद्भुताः ।।२५।।

तीर्थप्रयोग, साम, ओज, संकर्षण तथा सूर्यसम्बन्धी एवं अथर्ववेद सम्बन्धी विविध प्रयोग उसकी नाड़ियों के सन्धि से उत्पन्न हुए ।। २५ ।।

ऋचोत्कर्षः क्षेत्रयज्ञाः पञ्चसर्गातियोजनः ।

लिङ्गसंस्थानहेरम्बयज्ञा जाताश्च जानूनि ।। २६ ।।

ऋचोत्कर्ष आदि क्षेत्रयज्ञ, अत्यन्त अधिक आयोजन वाले पंच यज्ञ, लिङ्ग संस्थान से तथा हेरम्ब नामक यज्ञ उसके जानुओं (घुटनों) से उत्पन्न हुए ।। २६ ।।

एवमष्टाधिकं जातं सहस्रं द्विजसत्तमाः ।

यज्ञानां सततं लोका यैर्भाव्यन्तेऽधुनापि च ।। २७ ।।

हे द्विजसत्तम ! इस प्रकार एक हजार आठ यज्ञ उत्पन्न हुए तथा लोक में आज भी निरन्तर जो अनेक यज्ञ (कर्म) प्रचलित हैं। वे सभी उसी से उत्पन्न हुए हैं ॥। २७ ॥ 

स्रुगस्य पोत्रात् संजाता नासिकायाः स्रुवोऽभवत् ।

अन्ये स्रुक्स्रुबभेदा ये ते जाता पोत्रनासयोः ।।२८।।

यज्ञों की उत्पत्ति के बाद यज्ञ सम्बन्धी उपकरणों की उत्पत्ति बताते हैं- स्रुक् उसके थूथन से तथा स्रुवा उसकी नाक से और स्रुक् स्रुवा के जो अन्य प्रकार थे वे भी थूथन और नाक की संधियों से उत्पन्न हुए ।। २८ ।

ग्रीवाभागेण तस्याभूत् प्राग्वंशो मुनिसत्तमाः ।

इष्टापूर्तिर्वजुर्धर्मों  जाता: श्रवणरन्ध्रतः ।। २९ ।।

हे मुनिसत्तम ! उसके गले के हिस्से से प्राग्वंश उत्पन्न हुआ तथा इष्टापूर्ति यजुर्वेद वर्णितधर्म उसके कान के छिद्रों से उत्पन्न हुए ।। २९ ।।

दंष्ट्राभ्यो ह्यभवन् यूपाः कुशा रोमाणि चाभवन् ।

उद्गाता च तथाध्वर्युर्होता शामित्रमेव च ।। ३० ।।

अग्रदक्षिणवामांग पश्चात्-पादेषु सङ्गताः ।

पुरोडाशाः सचरवो जाता मस्तिष्कसंचयात् ।। ३१ ।।

दाँतों से यूप हुए तथा रोमों से कुशाएँ उत्पन्न हुईं। उद्गाता, अध्वर्यु, होता और शामित्र क्रमशः उसके अगले पिछले दायें एवं बाएँ पैरों से तथा चरुओं सहित पुरोडाश उसके मस्तिष्क से उत्पन्न हुए ।। ३०-३१ ।।

कर्सूर्नेत्रद्वयाज्जाता यज्ञकेतुस्तथा खुरात् ।

मध्यभागोऽभवद्वेदी मेढ्रात् कुण्डमजायत ।। ३२।।

कर्सु (कण्डों) की आग उसके नेत्रों से तथा यज्ञ पताकाएँ उसके खुरों से उत्पन्न हुई । उसका मध्यभाग वेदी हुआ तथा मेढ़ (जननाङ्ग) से यज्ञकुण्ड उत्पन्न हुआ ।। ३२ ।।

रेतोभागात्तथैवाज्यं स्वधामन्त्राः समुद्गताः ।

यज्ञालयः पृष्ठभागाद्हृत्पद्माद्यज्ञ एव च ।

तदात्मा यज्ञपुरुषो मुंजा: कक्षात्समुद्गताः ।। ३३ ।।

उसके रेतस् (वीर्यभाग) से घी, पृष्ठ भाग से स्वधामन्त्र और यज्ञशाला एवं उस वाराह के हृदयकमल से स्वयं यज्ञ उत्पन्न हुआ ।। ३३ ।।

एवं यावन्ति यज्ञानां भाण्डानि च हवींषि च ।

तानि यज्ञवराहस्य शरीरादेव चाभवन् ।। ३४ ।।

इस प्रकार यज्ञसम्बन्धी जितने भी पात्र या हविष्य थे वे सब उस यज्ञ वाराह के शरीर से ही उत्पन्न हुए ॥ ३४ ॥

एवं यज्ञवराहस्य शरीरं यज्ञतामगात् ।

यज्ञरूपेण सकलमाप्यायितुमिदं जगत् ।। ३५ ।।

इस प्रकार इस सम्पूर्ण संसार को यज्ञरूप से व्याप्त करने के लिए यज्ञवाराह का शरीर ही यज्ञता को प्राप्त हुआ ।। ३५ ।।

एवं विधाय यज्ञं तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।

सुवृत्तं कनकं घोरमासेदुर्यत्नतत्पराः ।। ३६ ।।

इस प्रकार यज्ञ का निर्माण कर यज्ञ के प्रयत्न में जुटे हुए वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश सुवृत्त, कनक, घोर नामक यज्ञवाराह के पुत्रों को प्राप्त किए ।। ३६ ।।

ततस्तेषां शरीराणि पिण्डीकृत्य पृथक् पृथक् ।

त्रिदेवास्त्रिशरीराणि व्यधमन्मुखवायुभिः ।। ३७ ।।

तब तीनों देवताओं ने उन तीनों के शरीरों को पिण्ड की तरह गोला बनाकर अपने मुख की वायु से अलग-अलग उन्हें तपाया (फूँका) ।। ३७ ॥

सुवृत्तस्य शरीरं तु व्यधमन्मुखवायुना ।

स्वयमेव जगत्स्रष्टा दक्षिणाग्निस्ततोऽभवत् ।। ३८ ।।

सुवृत्त के शरीर को अपने मुख की वायु से स्वयं जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने तपाया (फूँका) तो उससे दक्षिणाग्नि उत्पन्न हुए॥३८॥

कनकस्य शरीरं तु ध्मापयामास केशवः ।

ततोऽभूद्गार्हपत्याग्निः पञ्चवैतानभोजनः ।। ३९ ।।

कनक के शरीर को विष्णु ने तपाया तो उससे पञ्चाहुति ग्रहण करने वाले गार्हस्पत्य अग्नि उत्पन्न हुए ।। ३९ ।।

घोरस्य तु वपुः शम्भुर्ध्यापयामास वै स्वयम् ।

तत आहवनीयोऽग्निस्तत्क्षणात् समजायत ।। ४० ।।

घोर के शरीर को स्वयं शङ्कर ने जब तपाया तो उसी समय उससे आवहनीय अग्नि उत्पन्न हुए ॥ ४० ॥

एतैस्त्रिभिर्जगद्व्याप्तं त्रिमूलं सकलं जगत् ।

एतद् यत्र त्रयं नित्यं तिष्ठन्ति द्विजसत्तमाः ।

समस्ता देवतास्तत्र वसन्त्यनुचरैः सह ।। ४१ ।।

द्विजसत्तमों ! इन्हीं तीन अग्नियों से तीन गुणों के कारण उत्पन्न यह समस्त संसार व्याप्त है। तीनों का यह समूह जहाँ नित्य रहता है वहाँ सभी देवता अपने अनुचरों सहित निवास करते हैं ।। ४१ ।।

एतद्भद्रपदं नित्यमेतदेव त्रयात्मकम् ।

एतत्त्रयीविधिस्थानमेतत् पुण्यकरं परम् ।।४२ ।।

यही नित्य का मङ्गलमय आसन है, यही त्रयी अर्थात् तीनों वेदों या तीनों देवों का सम्मिलित रूप है। यहीं तीनों विधियों का स्थान तथा सब प्रकार से पुण्यप्रद है ॥ ४२ ॥

यस्मिन् जनपदे चैते हूयन्ते वह्नयस्त्रयः ।

तस्मिन् जनपदे नित्यं चतुर्वर्गो विवर्धते ।।४३।।

जिस जनपद में इन तीनों अग्नियों में हवन किया जाता है उस जनपद (क्षेत्र) में अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों की अभिवृद्धि होती है ।। ४३ ।।

एतद्वः कथितं सर्वं यत् पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः ।। ४४ ।।

यथा यज्ञवराहस्य देहो यज्ञत्वमाप्तवान् ।

यथा च तस्य पुत्राणां देहतो वह्नयोऽभवन् ।। ४५ ।।

हे द्विजसत्तमों ! जिस प्रकार यज्ञवाराह का शरीर यज्ञत्व को प्राप्त हुआ तथा उसके पुत्रों के शरीर अग्नि रूप हुए, आप लोगों द्वारा पूछा गया यह वृत्तान्त मैंने आप लोगों से कह दिया ।। ४४-४५ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे वाराहतनौ यज्ञोत्पत्तिर्नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

कालिका पुराण अध्याय ३१- संक्षिप्त कथानक

ऋषियों ने कहा- यज्ञ वाराह का देह यज्ञत्व को कैसे प्राप्त हुआ था और वाराह के तीन पुत्र त्रेतात्व कैसे प्राप्त हुए थे ? यह अकालिक प्रलय भगवान ने कैसे किया था और महात्मा वाराह ने महान घोर जनों का क्षय कैसे किया था । किस प्रकार से भगवान शार्ङ्गधारी से मत्स्य के स्वरूप के द्वारा वेदों का त्राण किया था अर्थात् वेदों की सुरक्षा करके उनको सुरक्षित रखा था ? फिर दुबारा यह सृष्टि की रचना कैसे हुई थी और इस भूमि को किसने समुद्धृत किया था ? वह देह कैसे प्रवृत्त हुआ था, यह सब हे महामते ! हमको बतलाइए । हे द्विज शार्दूल! इस सबका हाल आपने प्रत्यक्ष रूप से देखा । हे महती मतिवाले ! आज हम सब इसके श्रवण करने वाले हो रहे हैं। अतएव हमको आप बतलाने की कृपा कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विज शार्दूलों ! जो मैंने यहाँ पर एक अद्भुत सृजन किया था उसको सुनिए। आप सब परम सावधान हो जाइए और इस समस्त वेदों के फल को प्रदान करने वाले को सुनिए ।

यज्ञों में देवगण सन्तुष्ट होते हैं और यज्ञ में सभी कुछ प्रतिष्ठित है। यज्ञ के द्वारा ही पृथ्वी धारण की जाती है और यज्ञ से ही प्रजा का वरण किया करता है । अन्न के द्वारा प्राणी जीवित रहा करते हैं और उस अन्न की उत्पत्ति मेघों के द्वारा होती है । वे मेघ यज्ञों से हुआ करते हैं । इसलिए यह सभी कुछ यज्ञ से ही परिपूर्ण है । वह यज्ञ भगवान शम्भु के द्वारा विदीर्ण किए हुए वाराह के शरीर से ही हुआ था । हे द्विजो ! जैसा भी मैं आपको कहता हूँ उसको आप लोग परम सावधान होकर श्रवण कीजिए। मर्म के द्वारा वाराह के शरीर के विदारित होने पर उसी क्षण में समस्त प्रमथों के सहित ब्रह्मा, विष्णु और शिव देवगण ने जल से समुद्धृत करके उस शरीर को वे आकाश के प्रति ले गये थे। उसके भेदन करने वाले भगवान विष्णु के चक्र के द्वारा वह शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया गया था। उसके अंग की सन्धियाँ जो थीं वे यज्ञ पृथक् पृथक् समुत्पन्न हुए थे । हे महर्षियों! जिस अंग से जो समुत्पन्न हुए थे उनका सब आप लोग श्रवण कीजिए । भौंह और नासिका की सन्धि से महान अध्वर यज्ञ ज्योतिष्टोम नाम वाला उत्पन्न हुआ था । ठोड़ी, कान की सन्धि से वह्निष्टोम नामक यज्ञ समुद्भुत हुआ था । चक्षु और भौहों की सन्धि व ओष्ठों से पौनर्भवष्टोम व क्रत्यष्टोम यज्ञ समुत्पन्न हुआ ।

जिह्वा के मूल से वृद्धष्टोम और वृहतृष्टोम दो यज्ञ उत्पन्न हुए थे। नीचे जिह्वा के अन्तर्भाग से अतिरात्र और सर्वराज नाम वाले यज्ञों ने जन्म ग्रहण किया था। अध्यापन, ब्रह्म, यज्ञ, पितृ, यज्ञ, तर्पण, होम, दैव, बलि, मौत, नृयज्ञ, अतिथि पूजन स्नान और तर्पण पर्यन्त नित्य यज्ञ सर्वकण्ठ सन्धि से समुत्पन्न हुए थे तथा समस्त विधियाँ जिह्वा से उत्पन्न हुई थीं। वाजिमेध, महामेध तथा नरमेध ये तथा जो अन्य हिंसा के करने वाले यज्ञ हैं वे सब पादों की सन्धि से समुत्पन्न हुए थे । राजसूय यज्ञ अर्थकारी तथा वाजपेय यज्ञ पृष्ठ की सन्धि से समुद्भूत हुए थे और उसी भाँति जो ग्रहण यज्ञ थे वे भी समुत्पन्न हुए थे । प्रतिष्ठा सर्ग यज्ञ तथा दान श्रद्धा आदि यज्ञ हृदय की सन्धि से पैदा हुए थे इसी तरह से सावित्री यज्ञ भी उत्पन्न हुआ था । समस्त सांसारिक अर्थात् संस्कार करने वाले अथवा संस्कारों से सम्बन्ध रखने वाले यज्ञ और जो यज्ञ प्रायश्चित करने वाले हैं । (पापों की शुद्धि के लिए जो भी व्रत, दान, होमादि किए जाते हैं वे प्रायश्चित कहे जाते हैं ।) ये सब मेढ्र की सन्धि से उत्पन्न हुए थे ।

रक्ष सत्र अर्थात् राक्षस यज्ञ, सर्प सत्र और सभी जो भी अभिचारिक यज्ञ हैं अर्थात् अन्य प्राणियों के मारणात्मक हैं वह सभी उनके खुरों से हुए थे । माया सृष्टि, परमेष्टिग्रीष्यति, भोग सम्भव तथा अग्निष्टोम यज्ञ गूल की सन्धि में समुद्भूत हुए थे। जो नैमित्तिक यज्ञ हैं जिनको कि संकालि आदि पर्वों पर कीर्त्तित किया गया है वे और द्वादश वार्षिक सभी लांगुल सन्धि में समुत्पन्न हुए हैं । तीर्थ, प्रयोग, साम, संकर्षण यज्ञ, आर्क, आकर्षण यज्ञ ये समस्त नाड़ियों की सन्धि से उत्पन्न हुए थे । ऋचोत्कर्ष, क्षेत्रयज्ञ, ये सब जानु में समुत्पन्न हुए थे । हे द्विजसत्तमो ! इस रीति के एक सहस्त्र आठ यज्ञ समुद्भुत थे । निरन्तर यज्ञों के लोक जिनके द्वारा इस समय में भी विभावित किए जाते हैं, उत्पन्न हुए थे । इसके पौत्र से स्रुक् उत्पन्न हुई थी और नासिका से स्रुक् हुआ था । अन्य जो भी स्रुक् और स्रुव के भेद अभेद हैं वे पौत्र और नासिका से समुद्भुत हुए थे ।

हे मुनिसत्तमो ! उसके ग्रीवा के भाग से प्राग्वंश समुद्भूत हुआ था । इष्टा पूर्ति, जय धर्म्म श्रवण के छिद्र से उत्पन्न हुए थे । दाढ़ों से यूप, कुशा और रोम समुत्पन्न हुए थे । उद्गाता, अध्वर्यु, होता और शामित्र ने जन्म ग्रहण किया था। ये अग्र, दक्षिण, वाम अंग, प्रचात् पादों में संगत हैं । पुरोडाश चरु के सहित मस्तिष्क के सञ्चव से समुद्गत हुए थे । खुर से यज्ञ केतु ने जन्म ग्रहण किया था । रेतोभाग से आज्य और स्वधा मन्त्र समुद्गत हुए थे। यज्ञ का आलय पृष्ठभाग से और हृदय कमल से यज्ञ समुत्पन्न हुआ था । उसकी आत्मा यज्ञ पुरुष है उनकी भुजायें कक्ष से समूद्भुत हुई थीं । इसी प्रकार से जितने भी यज्ञों के भाण्ड हैं और हवियाँ हैं वे सभी यज्ञ वाराह के शरीर से हुए थे । इस रीति से उन यज्ञ वाराह का शरीर यज्ञता को प्राप्त था ।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ने इस प्रकार से यज्ञ को करके वे फिर यत्नों में तत्पर हुए सुवृत्त, कनक और घोर के समीप में प्राप्त हुए थे । इसके अनन्तर उनके शरीरों को पिण्ड बनाकर पृथक्-पृथक् तीनों देवों ने तीन शरीरों को मुख की वायु से अर्थात् फूँक लगाकर विशेष रूप से धमन किया था। स्वयं ही जगत के सृजन करने वाले फिर दक्षिणाग्नि हो गए थे। भगवान केशव ने कनक के शरीर का धारण किया था। फिर पञ्च वैतान के भोजन करने वाला गार्हपत्याग्नि हुआ था । फिर वाह्ववानीय अग्नि उसी क्षण में समुद्भूत हो गया था ।

इन तीनों से सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया था और वह समस्त जगत् तीन मूलों वाला है। हे द्विज श्रेष्ठों ! जहाँ पर ये तीनों नित्य ही स्थित रहते हैं वहाँ पर समस्त देवगण अपने अनुचरों के साथ निवास किया करते हैं । यह तीनों का स्वरूप नित्य ही कल्याण का स्थान है और यही तीनों का स्वरूप है । यह त्रयी की विधि का स्थान हैं और यह परम पुण्य का करने वाला है। जिस जनपद में ये तीनों वह्नियों का हवन किया जाता है उस जनपद में नित्य ही चतुर्वर्ग विद्यमान रहा करता है । चारों वर्ग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। हे द्विज श्रेष्ठो! जो मुझसे आपने पूछा है वह मैंने सब ही आपको बतला दिया है। जिस प्रकार से यज्ञ वाराह का देह यज्ञत्व को प्राप्त हुआ था और जिस तरह से उनके पुत्रों के देह से वह्नियाँ हुई थी ।

॥ श्रीकालिकापुराण में वाराह तन से यज्ञोत्पत्ति नामक एकतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३१ ।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 32 

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