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अग्नि पुराण अध्याय ५७
अग्निपुराणम् अध्यायः ५७ कुम्भाधिवासविधिः
भगवानुवाच
भूमेः परिग्रहं कुर्य्यात् क्षिपेद्
व्रीहींश्च सर्षपान्।
नारसिंहेन रक्षोघ्नान् प्रोक्षयेत्
पञ्चगव्यतः ।। १ ।।
भूमिं घटे तु सम्पूज्य सरत्ने
साङ्गकं हरिम्।
अस्त्रमन्त्रेण करकं तत्र चाष्टशतं
यजेत् ।। २ ।।
अच्छिन्नधारया सिञ्चन् व्रीहीन्
संस्कृत्य धारयेत्।
प्रदक्षिणं परिभ्राम्य कलशं
विकिरोपरि ।। ३ ।।
सवस्त्रे कलशे भूयः पूजयेदच्युतं
श्रियम्।
योगे योगेति मन्त्रेण
न्यसेच्छय्यान्तु मण्डले ष ।। ४ ।।
कुशोपरि तूलिकाञ्च शय्यायां दिग्विदिक्षु
च।
विद्याधिपान् यजेद्विष्णुं मधुघातं
त्रिविक्रमम् ।। ५ ।।
वामनं दिक्षु वाय्वादौ श्रीधरञ्च
हृषीकपम्।
विद्याधिपान् यजेद्विष्णुं मधुगातं
त्रिविक्रमम् ।। ६ ।।
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! प्रतिष्ठा के लिये अथवा देवपूजन के लिये जिस भूमि
को ग्रहण करे, वहाँ नारसिंह- मन्त्र का पाठ करते हुए
राक्षसों का अपसारण करनेवाले अक्षत और सरसों छोटे तथा पञ्चगव्य से उस भूमि का
प्रोक्षण करे। रत्नयुक्त कलश पर अङ्ग-देवताओं सहित श्रीहरि का पूजन करके, वहाँ अस्त्र-मन्त्र से एक सौ आठ करकों (कमण्डलुओं) का पूजन करे।
अविच्छिन्न धारा से वेदी का सेचन करके वहाँ व्रीहि (धान, जौ
आदि) को संस्कारपूर्वक बिखेरे तथा कलश को प्रदक्षिणाक्रम से घुमाकर उस बिखेरे हुए
अन्न के ऊपर स्थापित करे। वस्त्रवेष्टित कलश पर पुनः भगवान् विष्णु और लक्ष्मी की पूजा करे। तत्पश्चात् 'योगे योगे"* इत्यादि मन्त्र से मण्डल में
शय्या स्थापित करे। स्नान-मण्डप में कुश के ऊपर शय्या और शय्या के ऊपर तूलिका
(रुईभरा गद्दा) बिछाकर, दिशाओं और विदिशाओं में
विद्याधिपतियों (भगवान् विष्णु के ही विभिन्न विग्रहों) का
पूजन करे । पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः विष्णु, मधुसूदन,
त्रिविक्रम और वामन का तथा अग्नि आदि कोणों में क्रमशः श्रीधर,
हृषीकेश, पद्मनाभ एवं दामोदर का पूजन करे।
दामोदर का पूजन ईशानकोण में होना चाहिये ॥ १-६॥
* योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे। सखा॑य॒ऽइन्द्र॑मू॒तये॑ ॥
(यजु० ११।१४)
अभ्यर्च्य पञ्चादैशान्यां
चतुष्कुम्बे सवेदिके।
स्नानमण्डपके सर्वद्रव्याण्यानीय
निक्षिपेत् ।। ७ ।।
स्नानकुम्भेषु कुम्भां स्तां
श्चतुर्दिक्ष्वधिवासयेत्।
कल्शाः स्थापनीयास्तु
अभिषेकार्थमादरात् ।। ८ ।।
वटोदुम्बरकाश्वत्थांश्वम्पकाशोकश्री
द्रुमान् ।
पलाशार्जुनप्लक्षांस्तु
कदम्बवकुलाम्रकान् ।। ९ ।।
पल्लवांस्तु समानीय पूर्वकुम्भे
विनिक्षिपेत्।
पद्मकं रोचनां दूर्व्वा
दर्भपिञ्जलमेव च ।। १० ।।
जातीपुष्पं कुन्दपुष्पञ्चन्दनं
रक्तचन्दनम्।
सिद्धार्थं तगरञ्चैव तण्डुलं
दक्षिणे न्यसेत् ।। ११ ।।
सुवर्णं रजतञ्चैव कूलद्वयमृदन्तथा।
नद्याः समुद्रगामिन्या विशेषात्
जाह्रवीमृदम् ।। १२ ।।
गोमयञ्च यवान् शालींस्तिलांश्चैवापरे
न्यसेत्।
इस तरह पूजन करने के पश्चात्
स्नानमण्डप के भीतर ईशानकोण में स्थित तथा वेदी से विभूषित चार कलशों में
स्नानोपयोगी सब द्रव्यों को लाकर डाले। उन कलशों को चारों दिशाओं में विराजमान कर
दे। भगवान्के अभिषेक के लिये संचित किये गये वे कलश बड़े आदर के साथ रखने योग्य
हैं। पूर्व दिशा के कलश में बड़, गूलर, पीपल, चम्पा, अशोक, श्रीद्रुम (बिल्व), पलाश, अर्जुन,
पाकड़, कदम्ब, मौलसिरी
और आम के पल्लवों को लाकर डाले। दक्षिण के कलश में कमल, रोचना,
दूर्वा, कुश की मुट्ठी, जातीपुष्प,
कुन्द, श्वेतचन्दन, रक्तचन्दन,
सरसों, तगर और अक्षत डाले । पश्चिम के कलश में
सोना, चाँदी, समुद्रगामिनी नदी के
दोनों तटों की मिट्टी, विशेषतः गङ्गा की मृत्तिका, गोबर, जौ, अगहनी धान का चावल
और तिल छोड़े ॥ ७ – १२ ॥
विष्णुपर्णी श्यामलतां भृङ्गराजं
शताधरीम् ।। १३ ।।
सहदेवां महादेवीं बलां व्याघ्नीं सलक्ष्मणाम्।
ऐसान्यामपरे सुम्भे
मह्गल्यान्विनिवेशयेत् ।। १४ ।।
वल्मीकमृत्तिकां सप्तस्थानोत्थामपरे
न्यसेत्।
जाह्नतीवालुकातोयं विन्यसेदपरे घटे
।। १५ ।।
वराहवृषनागेन्द्रविषाणोद्धृतमृत्तिकाम्।
मृत्तिकां पद्ममूलस्य कुशस्य त्वपरे
न्यसेत् ।। १६ ।।
तीर्थपर्वतमृद्भिस्च युक्तमप्यपरे
न्यसेत्।
नागकेशरपुष्पञ्च काश्मीरमपरे
न्यसेत् ।। १७ ।।
चन्द नागुरुकर्पूरैः पुष्पं चैवापरे
न्यसेत्।
वैदूर्यं विद्रुमं मुक्तां स्फटिकं
वज्रमेव च ।। १८ ।।
उत्तर के कलश में विष्णुपर्णी (भुई
आँवला),
शालपर्णी (सरिवन), भृङ्गराज (भँगरैया),
शतावरी, सहदेवी (सहदेइया), बच, सिंही (कटेरी या अडूसा), बला
(खरेटी), व्याघ्री (कटेहरी) और लक्ष्मणा- इन ओषधियों को
छोड़े। ईशान कोणवर्ती अन्य कलश में माङ्गलिक वस्तुएँ छोड़े। अग्निकोणस्थ दूसरे कलश
में बाँबी आदि सात स्थानों की मिट्टी छोड़े। नैर्ऋत्यकोणवर्ती अन्य कलश में
गङ्गाजी की बालू और जल डाले तथा वायव्यकोणवर्ती अन्य कलश में सूकर, वृषभ और गजराज के दाँत एवं सींगों द्वारा कोड़ी हुई मिट्टी, कमल की जड़ के पास की मिट्टी तथा इतर कलश में कुश के मूल भाग की मृत्तिका
डाले। इसी तरह किसी कलश में तीर्थ और पर्वतों की मृत्तिकाओं से युक्त जल डाले,
किसी में नागकेसर के फूल और केसर छोड़े, किसी
कलश में चन्दन, अगुरु और कपूर से पूरित जल भरे और उसमें
वैदूर्य, विद्रुम, मुक्ता, स्फटिक तथा वज्र (हीरा) -ये पाँच रत्न डाले॥१३-१८ ॥
एतान्येकत्र निक्षिप्य
स्थापयेद्देवसत्तम।
नदीनदतडागानां सलिलैरपरं न्यसेत् ।।
१९ ।।
एकाशीतिपदे धान्यान्मण्डपे कलशान्
न्यसेत्।
गन्धोदकाद्यैः सम्पूर्णान्
श्रीसूक्तेनाभिमन्त्रयेत् ।। २० ।।
यवं सिद्धार्थकं गन्धं कुशाग्रं
चाक्षतं तथा।
लितान् फलं तता पुष्पमघ्यार्थं
पूर्वतो न्यसेत् ।। २१ ।।
पद्मं श्यामलतां दूर्वां
विष्णुपर्णी कुशांस्तथा।
पाद्यार्थं दक्षिणे भागे मधुपर्क्कं
तु दक्षिणे ।। २२ ।।
कक्कोलकं लवङ्गञ्च तथा जातीफलं
शुभम्।
उत्तरे ह्याचमनाय अग्नौ
दूर्वाक्षतान्वितम् ।। २३ ।।
पात्रं नीराजनार्थं च
तथोद्वर्त्तनमानिले।
गन्धुपुष्पान्वितं पात्रमैशान्यां
पात्रके न्यसेत् ।। २४ ।।
मुरामांसीं चामलकं सहदेवां
निशादिकम्।
षष्टिदीपान्न्यसेदष्टौ
न्यसेन्नीराजनाय च ।। २५ ।।
शङ्खंहचक्रञ्च श्रीवत्सं कुलिशं
पङ्कजादिकम्।
हेमादिपात्रे कृत्वा तु
नानावर्णादिपुष्पकम् ।। २६ ।।
इन सबको एक कलश में डालकर उसी के
ऊपर इष्ट देवता की स्थापना करे। अन्य कलश में नदी, नद और तालाबों के जल से युक्त जल छोड़े। इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डल में
अन्यान्य कलशों की स्थापना करे। वे कलश गन्धोदक आदि से पूर्ण हों उन सबको श्रीसूक्त
से अभिमन्त्रित करे। जौ, सरसों, गन्ध,
कुशाग्र, अक्षत, तिल,
फल और पुष्प - इन सबको अर्घ्य के लिये पात्रविशेष में संचित करके
पूर्व दिशा की ओर रख दे। कमल, श्यामलता, दूर्वादल, विष्णुक्रान्ता और कुश - इन सबको
पाद्य-निवेदन के लिये दक्षिण भाग में स्थापित करे। मधुपर्क पश्चिम दिशा में रखे।
कङ्कोल, लवङ्ग और सुन्दर जायफल - इन सबको आचमन के उपयोग के
लिये उत्तर दिशा में रखे। अग्निकोण में दूर्वा और अक्षत से युक्त एक पात्र नीराजना(
आरती उतारने) के लिये रखे। वायव्यकोण में उद्वर्तनपात्र तथा ईशानकोण
में गन्धपिष्ट से युक्त पात्र रखे। कलश में सुरमांसी (जटामांसी), आँवला, सहदेइया तथा हल्दी आदि छोड़े। नीराजना के लिये
अड़सठ दीपों की स्थापना करे। शङ्ख तथा धातुनिर्मित चक्र, श्रीवत्स,
वज्र एवं कमलपुष्प आदि रंग-बिरंगे पुष्प सुवर्ण आदि के पात्र में सज्जित
करके रखे ॥ १९ - २६ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
कलशाधिवासो नाम सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कलशाधिवास की विधि का वर्णन' नामक सतावनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ५७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 58
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