अग्निपुराण अध्याय ५६
अग्निपुराण अध्याय ५६ प्रतिष्ठा के
अङ्गभूत मण्डप निर्माण, तोरण-स्तम्भ,
कलश एवं ध्वज के स्थापन तथा दस दिक्पाल याग का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ५६
Agni puran chapter 56
अग्निपुराण छप्पनवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ५६
अग्निपुराणम् अध्यायः ५६ दिक्पालयागकथनम्
भगवानुवाच
प्रतिष्ठापञ्चकं वक्ष्ये
प्रतिमात्मा तु पूरुषः।
पिण्डिका लक्ष्मीः प्रतिष्ठा
योगकस्तयोः ।। १ ।।
इच्छाफलार्थिभिस्तस्मात्प्रतिष्ठा
क्रियते नरैः।
गर्भसूत्रं तु निः सार्य प्रासादस्याग्रतो
गुरुः ।। २ ।।
अष्टषोडशविंशान्तं
मण्डपञ्चाधमादिकम्।
स्नानार्थं कलशार्थञ्च
यागद्रव्यार्थमर्द्धतः ।। ३ ।।
त्रिभागेणार्द्धभागेन वेदिं
कुर्यात्तु शोभनाम्।
कलशैर्घटिकाभिश्च वितानाद्यैश्च
भूषयेत् ।। ४ ।।
पञ्चगव्येन सम्प्रोक्ष्य
सर्वद्रव्याणि धारयेत्।
अलङ्कृतो गुरुर्विष्णुं
ध्यात्वात्मानं प्रपूजयेत् ।। ५ ।।
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! मैं प्रतिष्ठा के पाँच अङ्गों का वर्णन करूँगा। प्रतिमा
पुरुष का प्रतीक है तो पिण्डिका प्रकृति का, अथवा प्रतिमा
नारायण का स्वरूप है तो पिण्डिका लक्ष्मी का । उन दोनों के योग को 'प्रतिष्ठा' कहते हैं। इसलिये इच्छानुरूप फल
चाहनेवाले मनुष्यों द्वारा इष्टदेवता की प्रतिष्ठा (स्थापना) की जाती हैं। आचार्य को
चाहिये कि वह मन्दिर के सामने गर्भसूत्र को निकालकर आठ, सोलह
अथवा बीस हाथ का मण्डप तैयार करे। इनमें आठ हाथ का मण्डप 'निम्न',
सोलह हाथ का 'मध्यम' और
बीस हाथ का 'उत्तम' माना गया है। मण्डप
में देवता के स्नान के लिये, कलश स्थापन के लिये तथा याग सम्बन्धी
द्रव्यों को रखने के लिये आधा स्थान सुरक्षित कर ले। फिर मण्डप के आधे या तिहाई
भाग में सुन्दर वेदी बनावे। उसे बड़े-बड़े कलशों, छोटे-छोटे
घड़ों और चंदोवे आदि से विभूषित करे। पञ्चगव्य से मण्डप के भीतर के स्थानों का
प्रोक्षण करके वहाँ सब सामग्री रखे। तत्पश्चात् गुरु वस्त्र एवं माला आदि से
अलंकृत हो, भगवान् विष्णु का ध्यान करके उनका पूजन करे॥१-५॥
अङ्गुलीयप्रभृतिभिर्मूत्तिपान्
वलयादिभिः।
कुण्डे कुण्डे स्थापयेच्च
मूर्त्तिपांस्तत्र पारगान् ।। ६ ।।
चतुष्कोणे चार्द्धकोणे वर्तुले
पद्मसन्निभेः।
पूर्वादौ तोरणार्थन्तु
पिप्पलोडुम्बरौ वटम् ।। ७ ।।
प्लक्षं सुशोभनं पूर्वं
सुभद्रन्दक्षतोरणम्।
सुकर्म च सुहोत्रञ्च आप्ये सौम्ये
समुच्छयम् ।। ८ ।।
पञ्चहस्तं तु संस्थाप्य
स्योनापृथ्वीति पूजयेत्।
तोरणस्तम्भमूले तु
कलशान्मङ्गलाङ्कुशन् ।। ९ ।।
अँगूठी आदि भूषणों तथा प्रार्थना
आदि से मूर्ति पालक विद्वानों का सत्कार करके कुण्ड- कुण्ड पर उन्हें बिठावे। वे
वेदों के पारंगत हों। चौकोर, अर्धचन्द्र,
गोलाकार अथवा कमल सदृश आकारवाले कुण्डों पर उन विद्वानों को
विराजमान करना चाहिये। पूर्व आदि दिशाओं में तोरण(द्वार) के
लिये पीपल, गूलर, वट और प्लक्ष के वृक्ष
के काष्ठ का उपयोग करना चाहिये। पूर्व दिशा का द्वार 'सुशोभन'
नाम से प्रसिद्ध है। दक्षिण दिशा का द्वार 'सुभद्र'
कहा गया है, पश्चिम का द्वार 'सुकर्मा' और उत्तर का 'सुहोत्र'
नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी तोरण-स्तम्भ पाँच हाथ ऊँचे होने चाहिये।
इनकी स्थापना करके 'स्योना पृथिवि नो-'* इस मन्त्र से पूजन करे तोरण-स्तम्भ के
मूलभाग में मङ्गल अङ्कुर (आम्र-पल्लव, यवाङ्कुर आदि ) - से
युक्त कलश स्थापित करे ॥ ६-९ ॥
* पूरा मन्त्र इस
प्रकार है –
स्यो॒ना पृ॑थिवि नो
भवानृक्ष॒रा नि॒वेश॑नी ।
यच्छा॑ नः॒ शर्म॑
स॒प्रथाः॑ ॥ (शु० यजु० ३६ । १३)
प्रदद्यादुपरिष्टाच्च
कुर्य्याच्चक्रं सुदर्शनम्।
पञ्चहस्तप्रमाणन्तु ध्वजं
कुर्य्याद्विचक्षणः ।। १० ।।
वैपुल्यं चास्य कुर्वीत
षोडशाङ्गुलसम्मितम्।
सप्तहस्तोच्छितं वास्य कुर्य्यात्
कुण्डं सुरोत्तम ।। ११ ।।
अरुणोग्निनिभश्चैव कृष्णः शुक्लोथ
पीतकः।
रक्तवर्णस्तथा श्वेतः
श्वेतवर्णादिकक्रमात् ।। १२ ।।
कुमुदः कुमुदाक्षश्च पुण्डरीकोथ
वामनः।
शङ्कुकर्णः सर्व्वनेत्रः सुमुखः
सुप्रतिष्ठितः ।। १३ ।।
पूज्या कोटिगुणैर्युक्ताः
पूर्व्वाद्या ध्वजदेवताः।
जलाढकसुपूरास्तु पक्कविम्बोपमा घटाः
।। १४ ।।
अष्टविंशाधिकशतं कालमण्डनवर्जिताः।
सहिरण्या वस्त्रकण्ठाः
सोदकास्तोरणाद् बहिः ।। १५ ।।
तोरणस्तम्भ के ऊपरी भाग में
सुदर्शनचक्र की स्थापना करे। इसके अतिरिक्त विद्वान् पुरुषों को वहाँ पाँच हाथ का
ध्वज स्थापित करना चाहिये। उस ध्वज की चौड़ाई सोलह अङ्गुल की हो । सुरश्रेष्ठ! उस
ध्वज का दण्ड सात हाथ ऊँचा होना चाहिये। अरुणवर्ण, अग्निवर्ण (धूम्रवर्ण), कृष्ण, शुक्ल, पीत, रक्त तथा श्वेत-ये
वर्ण क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में ध्वज में होने चाहिये। कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन,
शङ्कुकर्ण, सर्वनेत्र, सुमुख
और सुप्रतिष्ठित- ये क्रमशः पूर्व आदि ध्वजों के पूजनीय देवता हैं। इनमें करोड़ों
दिव्य गुण विद्यमान हैं। कलश ऐसे पके हुए हों कि सुपक्व बिम्बफल के समान लाल
दिखायी देते हों वे एक-एक आढक जल से पूर्णतः भरे हों। उनकी संख्या एक सौ अट्ठाईस
हो। उनकी स्थापना ऐसे समय करनी चाहिये, जब कि 'कालदण्ड' नामक योग न हो। उन सभी कलशों में सुवर्ण
डाला गया हो। उनके कण्ठभाग में वस्त्र लपेटे गये हों। वे जलपूर्ण कलश तोरण से बाहर
स्थापित किये जायें ॥ १०-१५ ॥
घटाः स्थाप्याश्च पूर्वादौ
वेदिकायाश्च कोणगान्।
चतुरः स्थापयेत् कुम्भानाजिघ्ने ति
चमन्त्रतः ।। १६ ।।
कुम्भेष्वावाह्य शक्रादीन् पूर्वादौ
पूजयेत् क्रमात्।
इन्द्रागच्छ देवराज वज्रहस्त
गजस्थिता ।। १७ ।।
पूर्वद्वारञ्च मे रक्ष देवैः सह
नमोस्तु ते।
त्रातारमिन्द्रमन्त्रेण अर्चयित्वा
यजेद् बुधः ।। १८ ।।
वेदी के पूर्व आदि दिशाओं तथा कोणों
में भी कलश स्थापित करने चाहिये। पहले पूर्वादि चारों दिशाओं में चार कलश स्थापित
करे। उस समय 'आजिघ्र कलशम्'* आदि मन्त्र का पाठ करना चाहिये।
उन कलशों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से इन्द्र आदि दिक्पालों का आवाहनपूर्वक
पूजन करे । इन्द्र का आवाहन करते समय इस प्रकार कहे- 'ऐरावत
हाथी पर बैठे और हाथ में वज्र धारण किये देवराज इन्द्र ! यहाँ आइये और अन्य
देवताओं के साथ मेरे पूर्व द्वार की रक्षा कीजिये । देवताओं सहित आपको नमस्कार है।'
इस तरह आवाहन करके विद्वान् पुरुष 'त्रातारमिन्द्रम्* - इत्यादि
मन्त्र से उनकी अर्चना एवं आराधना करे ॥ १६-१८ ॥
*१- आजि॑घ्र क॒लशं॑
म॒ह्या त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः।
पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ सा नः॑ स॒हस्रं॑ धुक्ष्वो॒रुधा॑रा॒ पय॑स्वती॒ पुन॒र्मावि॑शताद् र॒यिः ॥(यजु० ८ । ४२)
*२- त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मवि॒तार॒मिन्द्र॒
ঌ हवे॑हवे सु॒हव॒ ঌ शूर॒मिन्द्र॑म्।
ह्वया॑मि श॒क्रं
पु॑रुहू॒तमिन्द्र॑ ঌ स्व॒स्ति नो॑ म॒घवा॑ धा॒त्विन्द्रः॑ ॥ (यजु २० । ५०)
आगच्छाग्रे शक्तियुत छागस्थ बलसंयुत।
रक्षाग्नेयीं दिशं देवैः पूजां
गृह्ण नमोस्तु ते ।। १९ ।।
अग्निर्मूर्द्धेतिमन्त्रेण यजेद्वा
अग्नये नमः।
महिषस्थ यमागच्छ पण्डहस्त महाबल ।।
२० ।।
रक्ष त्वं दक्षिणद्वारं वैवस्वत
नमोस्तु ते।
वैवस्वतं सङ्गमनभित्यनेन यजेद्यमम्
।। २१ ।।
नैर्ऋ तागच्छ खङ्गाढ्य बलवाहनसंयुत
।
इदमर्घ्यमिदं पाद्यं रक्ष त्वं
नैर्ऋतीं दिशम् ।। २२ ।।
एष ते नैर्ऋते मन्त्रेण
यजेदर्घ्यादिभिर्नरः।
इसके बाद निम्नाङ्कित रूप से
अग्निदेव का आवाहन करे - 'बकरे पर आरूढ
शक्तिधारी एवं बलशाली अग्निदेव ! आइये और देवताओं के साथ अग्निकोण की रक्षा कीजिये।
यह पूजा ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है।' तदनन्तर 'अग्निर्मूर्द्धा * इत्यादि
से अथवा 'अग्नये नमः । - इस
मन्त्र से अग्नि की पूजा करे । यमराज का आवाहन - 'महिष पर
आरूढ, दण्डधारी, महाबली सूर्यपुत्र यम
! आप यहाँ पधारिये और दक्षिण द्वार की रक्षा कीजिये । आपको नमस्कार है।' इस प्रकार आवाहन करके 'वैवस्वतं
सङ्गमनम्० इत्यादि मन्त्र से यमराज की पूजा
करे। निर्ऋतिका आवाहन - 'बल और वाहन से सम्पन्न खड्गधारी
निर्ऋति! आइये । आपके लिये यह अर्घ्य है, यह पाद्य है। आप
नैर्ऋत्य दिशा की रक्षा कीजिये।' इस तरह आवाहन करके 'एष ते निर्ऋते'* इत्यादि से मनुष्य अर्घ्य आदि उपचारों द्वारा निर्ऋति की पूजा करे ॥ १९ -
२२ ॥
*१-अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम् ।
अ॒पा ঌ रेता॑ ঌसि
जिन्वति ॥ (यजु० ३।१२)
*२- ए॒ष ते॑ निर्ऋते भा॒गस्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॒ऽग्निने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑
पुरः॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ य॒मने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यो॑ दक्षिणा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑
वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पश्चा॒त्सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्यो
वा म॒रुन्ने॑त्रेभ्यो वा दे॒वेभ्य॑ऽउत्तरा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॒ सोम॑नेत्रेभ्यो
दे॒वेभ्य॑ऽउपरि॒सद्भ्यो॒ दुव॑स्वद्भ्यः॒ स्वाहा॑ ॥ (यजु० ९।३५ )
मकरारूढ वरुण पाशहस्त महाबल ।। २३
।।
आगच्छ पश्चिमं द्वारं रक्ष रक्ष
नमोस्तु ते।
उरुं हि राजा वरुणं
यजेदर्घ्यादिभिर्गुरुः ।। २४ ।।
आग्च्छ वायो सबल ध्वजहस्त सवाहन।
वायव्यं रक्ष देवैस्त्वं
समरुद्भिर्नमोस्तु ते ।। २५ ।।
वात इत्यादिभिश्चार्चेदोन्नमो
वायवेपि वा।
वरुण का आवाहन 'मकर पर आरूढ पाशधारी महाबली वरुणदेव! आइये और पश्चिम द्वार की रक्षा
कीजिये। आपको नमस्कार है।' इस प्रकार आवाहन करके, 'उरुं हि राजा वरुणः०'* इत्यादि मन्त्रों द्वारा आचार्य वरुणदेवता का अर्घ्य आदि से पूजन करे।
वायुदेवता का आवाहन - "अपने वाहन पर आरूढ ध्वजधारी महाबली वायुदेव! आइये और
देवताओं तथा मरुद्गणों के साथ वायव्यकोण की रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार है।'
'वात आवातु०'* इत्यादि वैदिक मन्त्र से अथवा 'ॐ नमो वायवे०।'
इस मन्त्र से वायु की पूजा करे ॥ २३-२५ ॥
*१- उ॒रुं ঌहि राजा॒ वरु॑णश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒
पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑।
अ॒पदे॒ पादा॒
प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्॥(ऋ० मं० १ सू०२४।८)
*२- वात॒ आ वा॑तु भेष॒जं श॒म्भु म॑यो॒भु नो॑ हृ॒दे ।
प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
(ऋ० मं० १० सू० १८६ । २ )
अगच्छ सोम सबल गदाहस्त सवाहन ।। २६
।।
रक्ष त्वमुत्तरद्वारं सकुवेर
नमोस्तु ते।
सोमं राजानमिति वा यजेत्सोमाय वै
नमः ।। २७ ।।
आगच्छेशान सबल शूलहस्त वृषस्थित।
यज्ञमण्डपस्यैशानीं दिशं रक्ष
नमोस्तु ते ।। २८ ।।
ईशानमस्येति यजेदीशानाय नमोऽपि वा।
ब्रह्मन्नागच्छ हंसस्य स्रुक्स्रुवव्यग्रहस्तक
।। २९ ।।
सलोकोद्र्ध्वां दिशं रक्ष
यज्ञस्याज नमोस्तु ते।
हिरण्यगर्भेति यजेन्नमस्ते
ब्रह्मणेपि वा ।। ३० ।।
सोम का आवाहन - बल और वाहन से
सम्पन्न गदाधारी सोम! आप यहाँ पधारिये और उत्तर द्वार की रक्षा कीजिये। कुबेर सहित
आपको नमस्कार है।' इस प्रकार आवाहन
करके, 'सोमं राजानम्'*
इत्यादि से अथवा 'सोमाय नमः।' इस मन्त्र से सोम की पूजा करे। ईशान का आवाहन वृषभ पर आरूढ़ महाबलशाली
शूलधारी ईशान! पधारिये और यज्ञ मण्डप की ईशान दिशा का संरक्षण कीजिये। आपको
नमस्कार है।' इस प्रकार आवाहन करके 'ईशानमस्य०' इत्यादि से अथवा 'ईशानाय नमः।' इस मन्त्र से ईशानदेवता का पूजन
करे। ब्रह्मा का आवाहन - 'हाथ के अग्रभाग में स्रुक् और
स्रुवा लेकर हंस पर आरूढ हुए अजन्मा ब्रह्माजी ! आइये और लोक सहित यज्ञमण्डप की
ऊर्ध्व-दिशा की रक्षा कीजिये। आपको नमस्कार है।' इस प्रकार
आवाहन करके 'हिरण्यगर्भः ०"* इत्यादि से अथवा 'नमस्ते ब्रह्मणे' इस मन्त्र से ब्रह्माजी की
पूजा करे ।। २६-३० ॥
*१- सोमं॒ ঌराजा॑न॒मव॑से॒ऽग्निं गी॒र्भिर्ह॑वामहे
।
आ॒दि॒त्यान्विष्णुं॒
सूर्यं॑ ब्र॒ह्माणं॑ च॒ बृह॒स्पति॑म् ॥ (ऋ० मं० १० सू० १४१। ३ तथा यजु० ९।२६)
*२- हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ऽ आसीत्।
स दा॑धार पृथि॒वीं
द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ (यजु ० १३।४)
अनन्तागच्छ चक्राढ्य
कूर्म्मस्थाहिगणेश्वर।
अधोदिशं रक्ष रक्ष अनन्तेश नमोस्तु
ते ।। ३१ ।।
नमोस्तु सर्पेति यजेदनन्ताय नमोपि वा ।। ३२ ।।
अनन्त का आवाहन – कच्छप की पीठ पर
विराजमान,
नागगणों के अधिपति, चक्रधारी अनन्त ! आइये और
नीचे की दिशा की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । अनन्तेश्वर !
आपको नमस्कार है।' इस प्रकार आवाहन करके 'नमोऽस्तु सर्पेभ्यः'* इत्यादि से अथवा 'अनन्ताय नमः।' इस मन्त्र से भगवान् अनन्त की पूजा करे ॥ ३१-३२ ॥
* नमो॑ऽस्तु स॒र्पेभ्यो॒ ये के च॑ पृथि॒वीमनु॑ ।
येऽ अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये
दि॒वि तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥ (यजु० १३।६)
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये दिक्पतियागो
नाम षट्पञ्चात्तशमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'दस दिक्पालों के पूजन का वर्णन' नामक छप्पनवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ५६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 57
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