कालिका पुराण अध्याय ३०

कालिका पुराण अध्याय ३०  

कालिका पुराण अध्याय ३० में शरभ वाराह युद्ध का वर्णन किया गया है ।       

कालिका पुराण अध्याय ३०

कालिकापुराणम् त्रिंशोऽध्यायः शरभवाराहयुद्धः

कालिका पुराण अध्याय ३०            

Kalika puran chapter 30

कालिकापुराण तीसवाँ अध्याय

अथ कालिका पुराण अध्याय ३०         

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततो देवागणाः सर्वे सहिता देवयोनिभिः ।

शक्रेण सहिता मन्त्रं चक्रुः सम्यग्जगद्धितम् ।। १ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब सभी देवतागण, गन्धर्वादि देव योनियों तथा इन्द्र के सहित संसार के कल्याण के लिए भलीभाँति मन्त्रणा किये ॥ १ ॥

ततो निश्चित्य ते सर्वे शक्राद्या मुनिभिः सह ।

शरण्यं शरणं जग्मुर्नारायणमजं विभुम् ।।२।।

तब सभी इन्द्रादि देवता निश्चय करके, मुनियों के साथ, शरण लेने योग्य, शरण स्थान, अजन्मा, व्यापक, नारायण के निकट गये ॥ २ ॥

तं समासाद्य गोविन्दं वासुदेवं जगत्पतिम् ।

प्रणम्य सर्वे त्रिदशास्तुस्टुवुर्गरुडध्वजम् ।। ३ ।।

उन जगत् के स्वामी, गोविन्द, वासुदेव के समीप जाकर उन्हें प्रणाम कर सभी देवताओं ने उन गरुड़ध्वज की स्तुति की ।। ३ ।।

कालिका पुराण अध्याय ३०  

अब इससे आगे श्लोक ४ से १७ में गरुड़ध्वज का स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

गरुड़ध्वज स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ३०    

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति स्तुतो देवदेवो भूतभावनभावनः ।

सेन्द्रैर्देवगणैरूचे तान् सर्वान्मेघनिस्वनः ।। १८ ।।

मार्कण्डेय बोले-ऐसी स्तुति किये जाने पर देवों के भी देव, भूतभावन शिव को भी भाने वाले, भगवान विष्णु उन सभी इन्द्रादि सहित देवगणों से मेघ के समान गम्भीर ध्वनि में बोले - ॥ १८ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

यदर्थमागता यूयं यद्वा भयमुपस्थितम् ।

तत्र यद्वा मया कार्यं तद् देवास्तूर्णमुच्यताम् ।।१९।।

श्रीभगवान बोले-हे देवगण! तुम लोग जिसलिये यहाँ आये हो अथवा भय उपस्थित हो गया है या वहाँ जो भी मुझे करना हो, उसे शीघ्र बताओ ॥ १९ ॥

।। देवा ऊचुः ।।

शीर्यते वसुधा नित्यं क्रीडया यज्ञपोत्रिणः ।

लोकाश्च सर्वे संक्षुब्धा नाप्नुवन्त्युपशान्त्वनम् ।। २० ।।

देवगण बोले- यज्ञवाराह की क्रीड़ा से धरती नित्य पीड़ित हो रही है। सभी लोक संक्षुब्ध हो, शान्त्वना को नहीं प्राप्त कर रहे हैं ॥ २० ॥

शुष्कं तुम्वीफलं घातैर्यथा जर्जरतां गतम् ।

वाराहक्षुरघातेन तथा जर्जरिता क्षितिः ।। २१ ।।

जिस प्रकार सूखा हुआ लौकी का फल मारने से जर्जर हो जाता है, उसी प्रकार वाराह के तीव्र घात से पृथ्वी भी जर्जर हो गयी है ।। २१ ।।

तस्य ये वा त्रयः पुत्राः कालाग्निसमतेजसः ।

सुवृत्तः कनको घोरस्तैश्चाप्याघातितं जगत् ।। २२ ।।

उसके जो काल के समय की अग्नि के समान तेज वाले, सुवृत्त, कनक और घोर नाम वाले तीन पुत्र हैं, उनके द्वारा भी पृथ्वी को आघात पहुँचाया जा रहा है ।। २२ ।

तेषां कर्दमलीलाभिः सरांसि जगतां पते ।

मानसादीनि भग्नानि प्रकृतिं यान्ति नाधुना ।। २३ ।।

हे जगत् के स्वामी ! इस समय उनकी कीचड़ लीला से मानसादि सरोवर नष्ट हो गये हैं । वे स्वभाविक स्थिति में नहीं हैं ॥ २३ ॥

भग्नास्तैर्देवतरवो मन्दाराद्या महाबलैः ।

देव नाद्यापि रोहन्ति फलं पुष्पं दलं च वा ।। २४ ।।

उन महान बलशालियों के द्वारा मन्दरादि पर्वत एवं कल्पवृक्ष तोड़ दिये गये हैं । हे देव ! आज भी फल, पुष्प या तुलसी आदि पत्र वृद्धि को प्राप्त नहीं कर रहे हैं ।। २४ ॥

यदा त्रिकूटमारुह्य ते सुवृत्तादयस्त्रयः ।

प्लुतं कृत्वा महाबाहो पतन्ति लवणार्णवे ।। २५ ।।

तदा तत् क्षुब्धतोयौघैः प्लाव्यते सकला मही ।

उत्प्लवन्ति जनाः सर्वे प्रयान्ति च दिशो दश ।

जीवितं रक्षमाणास्ते प्रयान्ति च दिशो दश ।। २६ ।।

वे सुवृत्तादि तीनों वाराहपुत्र जब त्रिकूटपर्वत पर चढ़कर, छलांग लगाकर, लवण समुद्र में कूदते हैं तो उससे क्षुब्ध जलराशि से सम्पूर्ण पृथ्वी डूबती है। सभी जन अपने जीवन की रक्षा के प्रयत्न में उछल-कूद करते हुए दशों दिशाओं में चले जाते हैं ।। २५-२६ ॥

यदा त्रिविष्टपं यान्ति यज्ञवाराह पुत्रकाः ।

इतस्ततस्तदा भग्ना देवाः शान्तिं न लेभिरे ।। २७ ।

जब वे यज्ञवाराह के पुत्रगण स्वर्ग को जाते हैं तो पराजित देवगण इधर-उधर कहीं भी शान्ति प्राप्त नहीं करते ॥ २७ ॥

सर्वे तैः पर्वताः पुत्रैर्वाराहस्य जगत्पते ।

क्रीडद्भिः शिखरे नीतार्भूरिभागमधोगतिम् ।। २८ ।।

हे जगत्पति ! वे पर्वत उन वाराहपुत्रों की अपने शिखरों पर की जाती हुई क्रीड़ाओं से बहुत अधिक मात्रा में अधोगति को प्राप्त हो गये हैं (रह गये हैं) ॥ २८ ॥

एवं विक्रीडतां तेषां क्रीडाभिः सकलं जगत् ।

नाशमायाति वैकुण्ठ तस्माद्रक्ष जगत्प्रभो ।। २९।।

हे जगत् के स्वामी ! हे वैकुण्ठ ! इस प्रकार खेलते हुए उन सबकी क्रीड़ा से सारा संसार नष्ट हो रहा है। उससे हमारी रक्षा कीजिए ।। २९ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तेषां निगदतां श्रुत्वा वाक्यं जनार्दनः ।

उवाच शङ्करं देवं ब्रह्माणं च विशेषतः ।।३०।।

मार्कण्डेय बोले- उन सब (देवों) की कही हुई उपर्युक्त बातों को सुनकर विष्णु ने विशेषकर शङ्कर एवं ब्रह्मा को लक्ष्य कर देवताओं से कहा- ॥ ३० ॥

यत्कृते देवताः सर्वाः प्रजाश्च सकला इमाः ।

प्राप्नुवन्ति मह दुःखं शीर्यते सकलं जगत् ।। ३१ ।।

वाराहं तदहं कायं त्यक्तुमिच्छामि शङ्कर ।

निर्वेशशक्तं तं त्यक्तुं स्वेच्छया न हि शक्यते ।

त्वं त्याजयस्व तं कायं यत्नाद्वा शङ्कराधुना ।। ३२ ।।

हे शङ्कर ! जिसके कारण सभी देवता और यह सृष्टि महान दुःख को प्राप्त कर रही है तथा सम्पूर्ण संसार नष्ट हो रहा है। मैं उस वाराह शरीर को छोड़ना चाहता हूँ किन्तु उससे अत्यधिक आशक्ति होने से मैं उसे अपनी इच्छा से छोड़ नहीं पा रहा हूँ। इस समय तुम अपने प्रयत्नों द्वारा उस शरीर को छुड़ा दो ।। ३१-३२ ।।

त्वमाप्यायस्व तेजोभिर्ब्रह्मन् स्मरहरं मुहुः ।

आप्यायन्तु तथा देवाः शङ्करो हन्तु पोत्रिणम् ।। ३३ ।।

हे ब्रह्मा आप कामारि शिव को तेज से पुष्ट करें तथा देवगण भी शिव को तेज से पुष्ट करें जिससे वे वाराह को मार डालें ।। ३३ ॥

रजस्वलायाः संसर्गाद्विप्राणां मारणात्तथा ।

कायः पापकरो भूतस्तं त्यक्तुं युज्यतेऽधुना ।। ३४।।

रजस्वला के सम्पर्क तथा ब्राह्मणों को मारने के कारण यह शरीर पापयुक्त हो गया है। उसे अब छोड़ना ही उचित है ॥ ३४ ॥

प्रायश्चित्तैरपैत्येनः प्रायश्चित्तमहं ततः ।

चरिष्यामि तदर्थं मे तनुर्यत्नेन शाम्यताम् ।। ३५ ।।

इस बुरे शरीर को प्रायश्चित से छोड़ने हेतु मैं प्रायश्चित करूँगा । इसीलिए मेरे इस शरीर को यत्नपूर्वक शमन (नाश) करो ।। ३५ ।।

प्रजापाल्या मम सदा सा हि सीदति नित्यशः ।

मत्कृते प्रत्यहं तस्मात् त्यक्ष्ये कायं प्रजाकृते ।। ३६ ।।

मेरे द्वारा सदैव पाली जाने वाली प्रजा ही अब मेरे कारण नित्य, प्रतिदिन कष्ट पा रही है अत: मैं प्रजा के हित के लिए अपने (वाराह) शरीर को छोड़ना चाहता हूँ ।।३६।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्तौ वासुदेवेन तदा तौ ब्रह्मशङ्करौ ।

त्वया तथोक्तं तत्कार्यमिति गोविन्दमूचतुः ।। ३७।।

मार्कण्डेय बोले- तब वासुदेव द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने गोविन्द से कहा "आपने जैसा कहा है वैसा ही किया जायेगा" ।। ३७ ॥

वासुदेवोऽपि तान् सर्वान् विसृज्य त्रिदशांस्तथा ।

वाराहं तेज आहर्तुं स्वयं ध्यानपरोऽभवत् ।। ३८ ।।

वासुदेव भी उन सब देवताओं को विदा किये और स्वयं अपने वाराह शरीर के तेज को हरण करने के लिए ध्यानस्थ हो गये ॥ ३८ ॥

शनैः शनैर्यदा तेजो आहरत्येष माधवः ।

तदा देहं तु वाराहं सत्त्वहीनमजायत ।। ३९ ।।

धीरे-धीरे उन माधव ने जब तेज का हरण कर लिया तब वाराह का वह शरीर सत्त्व (बल) हीन हो गया ।।३९।।

तेजोहीनं यदा देहं ज्ञातं सर्वैस्तदामरैः ।

आससाद तदा देवो यज्ञवाराहमद्भुतम् ।।४० ।।

ब्रह्माद्यास्त्रिदशाः सर्वे महादेवमुमापतिम् ।

अनुजग्मुस्तदा तेज आधातुं स्मरशासने ।। ४१ ।।

जब देवताओं को यह ज्ञात हो गया कि वह शरीर तेजरहित हो गया है तब शिव को तेज से युक्त करने के लिए वे सभी ब्रह्मा आदि देवगण, महादेव उमापति शिव का अनुगमन करते हुए उस यज्ञवाराह के समीप पहुँच गये ।। ४०-४१ ।।

ततः सर्वैर्देवगणैः स्वं स्वं तेजो वृषध्वजे ।

आदधे तेन बलवान् सोऽतीव समजायत ।।४२।।

तब सभी देवताओं ने अपने अपने तेज वृषभध्वज शिव को धारण कराया जिससे वे अत्यन्त बलवान हो गये । ४२ ॥

ततः शरभरूपी स तत्क्षणात् गिरिशोऽभवत् ।।४३।।

तब वे शिव तत्काल शरभ रूप में हो गये ।। ४३ ।।

ऊर्ध्वाधोभागतश्चाष्टपादयुक्तः सुभैरवः ।

द्विलक्षयोजनोच्छ्रायः सार्धलक्षैकविस्तृतः ।। ४४ ।।

ऊर्ध्वं वाराहकायस्तु लक्षयोजनविस्तृतः ।

लक्षार्धविस्तृतः पार्श्वे वर्धमानस्तदाभवत् ।। ४५ ।।

उस समय उनका वह रूप ऊपर और नीचे की ओर आठ पैरों से युक्त होने के कारण सुन्दर किन्तु भयानक था । वह दो लाख योजन (१६ लाख मील) ऊँचा (लम्बा ) तथा डेढ़ लाख योजन चौड़ा था जो वाराह के शरीर से एक लाख योजन ऊँचाई तथा आधा लाख (पचास हजार) योजन अगल-बगल बढ़ा हुआ हो गया ।। ४४-४५।।

कालिका पुराण अध्याय ३०- शरभरूप वर्णन

ततः शरभरूपं तं महादेवमुमापतिम् ।

ददर्श यज्ञपोत्री सः स्पृशन्तं शिरसा विधुम् ।

सुदीर्घनासानखरं कृष्णांगारसमप्रभम् ।। ४६ ।।

दीर्घवक्त्रं महाकायमष्टदंष्ट्रासमन्वितम् ।

विभ्रतं स सटं पुच्छं दीर्घकर्णं भयानकम् ।।४७।।

तब यज्ञवाराह ने महादेव उमापति के उस शरभरूप को देखा, जो मस्तक से चन्द्रमा को स्पर्श कर रहा था, जिसकी नाक लम्बी थी, जिसके पंजे कोयले के समान काले थे, बड़े-बड़े आठ दाँतों से युक्त जिसका लम्बा मुख था, जिसकी पूँछ अयाल से शोभायनामान थी एवं जिसके कान भयानक थे ।। ४६-४७ ।।

चतुरं पृष्ठतः पादानधरे चतुरस्तथा ।

कुर्वन्तं घोरमारावमुत्पतन्तं पुनः पुनः ।।४८ ।।

वह बार-बार भयानक आवाज करता हुआ अपने चार पैरों को पीछे तथा चार पैरों को ऊपर की ओर उछाल रहा था ।। ४८ ।।

तमायान्तं ततो दृष्ट्वा क्रोधाद्धावन्तमञ्जसा ।

सुवृत्तः कनको घोर आसेदुः क्रोधमूर्च्छिताः ।।४९।।

तमासाद्य महाकायं शरभं भ्रातरस्त्रयः ।

उच्चिक्षिपुस्ते युगपत् पोत्रघातैर्महाबलाः ।। ५० ।।

उस शरभरूपधारी शिव को क्रोधवश तेजी से दौड़कर आता हुआ देखकर सुवृत्त, कनक, घोर तीनों महाबली क्रोधातिरेक से मूर्च्छित से हो गये। उन सबों ने मिलकर अपने थूथनों के सम्मिलित प्रहार से उस महाकाय शरभ को उछाल दिया ।। ४९-५० ।।

यावत् प्रमाण: शरभस्तत्प्रमाणास्तदाभवन् ।

शरभोत्क्षेपसमये मायया पोत्रिणस्त्रयः ।। ५१ ।।

शरभ को उछालते समय वे तीनों सूकर जितना बड़ा शरभ था, माया से उतने ही बड़े हो गये ॥ ५१ ॥

तेषां पोत्रप्रहारेण प्रोत्क्षिप्तः शरभस्तदा ।

पपात पृथिवीप्रान्ते गम्भीरे तोयसागरे ।। ५२ ।।

तब उनके थूथन के प्रहार से फेंका गया वह शरभ पृथ्वी के छोर पर गम्भीर तोय सागर में जा गिरा ।। ५२ ।।

तस्मिन् निपतिते तत्र सागरे मकरालये ।

उत्पत्य ते त्रयः पेतुः क्रोधात्तस्मिन् महोदधौ ।। ५३ ।।

वहाँ उसके मकरादि जल-जन्तुओं के वासस्थान, सागर में गिरने पर वे तीनों भी क्रोधवश उछल कर उस सागर में कूद पड़े ।। ५३ ।।

सुवृत्ते कनके घोरे पतिते सागराम्भसि ।

वाराहोऽपि सुतस्नेहात् क्रोधाच्च द्विजसत्तमाः ।

उत्पत्य सहसा तस्मिंस्तोयराशौ पपात ह ।।५४।।

हे द्विजसत्तमों ! सुवृत्त, कनक और घोर नामक पुत्रों के सागर के जल में गिरने पर क्रोध एवं पुत्र-स्नेह के कारण वराह भी उछल कर एकाएक उसी जलराशि में कूद गया ।। ५४ ॥

उत्पतन्तस्तदा ते वै वाराहा: शरभस्तथा ।

वभञ्जर्दिवि देवांस्तु नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा ।। ५५ ।।

उस समय उछलते हुए उन चारो वाराहों तथा शरभ ने स्वर्ग एवं वहाँ निवास करने वाले देवता, नक्षत्र एवं ग्रहों को भी भंग (तोड़-फोड़) कर दिया ।। ५५ ।।

केचित्तु निहता देवा भूमौ पेतुश्च केचन ।

केचिच्च ज्ञानिनो देवा महलोंकमुपाश्रिताः ।। ५६ ।।

उसमें कुछ देवगण मारे गये, कुछ पृथ्वी पर गिर गये, इनमें से जो कुछ ज्ञानी देवगण थे, उन्होंने महर्लोक में आश्रय ग्रहण किया ।। ५६ ।।

नक्षत्राणि विमानात्तु पतितानि महीतले ।

अदृश्यन्त द्विजश्रेष्ठा ज्वालामालाकुलानि वै ।।५७।।

हे द्विजश्रेष्ठों ! अपने विमानों से पृथ्वी पर गिरते हुए वे ज्वाला समूहों से घिरे हुये नक्षत्र दिखायी दे रहे थे ।।५७॥

तेषामुत्पतने वेगो योऽभूत् परमदारुणः ।

तेनातिवेगो जनितो वायुः परमदारुणः ।।५८।।

उनके छलांग लगाने के समय जो भयानक वेग उत्पन्न हुआ उससे बहुत ही वेगवान एवं भयानक वायु उत्पन्न हुआ ।। ५८ ।

वायुना तेन संत्रस्ता पर्वताः पृथिवीतले ।

केचिच्छैलाः पर्वतेषु पतिताः पुनरेव ते ।। ५९ ।।

विमृद्य वृक्षान् जन्तूंश्च निपेतुश्च पुनः पुनः ।

केचित्तु पर्वताघातैर्नृत्यमाना महीतले ।

वभञ्जुरचलाश्चापि व्रजन्तो बहुश: प्रजाः ।।६०।

उस वायु द्वारा भयभीत कुछ पर्वत पृथ्वी पर ढकेल दिये गये, कुछ दूसरे पर्वतों पर जा गिरे कुछ पर्वत नाचते हुए अपने आघात से पृथ्वी तल पर स्थित वृक्षों और जन्तुओं को कुचलते हुए बार-बार गिरे । उन चलते हुए पर्वतों ने बहुत-सी प्रजा को नष्ट कर दिया ।। ५९-६० ।।

पर्वता समदृश्यन्त वातवेगेन भूतले ।

सङ्घट्टमानास्तेभ्योऽन्ये व्रजन्त इव तेऽचलाः ।। ६१ ।।

अम्भोनिधौ पतद्भिस्तैर्वाराहैः शरभेण च ।

पर्वतैश्च महातुङ्गैरुत्क्षिप्तास्तोयराशयः ।। ६२ ।।

वे वायु के वेग के कारण पृथ्वी पर परस्पर टकराते और चलते हुए ऊँचे पर्वत के समान दिखाई दे रहे थे तथा समुद्र में शरभ और वाराह के गिरने पर उन पर्वतों के समान उठती हुई जलराशियाँ दिखायी दे रही थीं ।। ६१-६२ ॥

तेषां प्रपातवेगेन क्षिप्तेषु जलराशिषु ।

निस्तोया इव संजाताः क्षणं वै सर्वसागराः ।। ६३ ।।

उनके गिरने से उत्पन्न वेगवश अपनी जलराशि के उछाल दिये जाने पर क्षण भर में वे सभी समुद्र जलहीन से हो गये ।। ६३ ।।

तैः सर्वैरुदकैः क्षिप्तैः पृथिवीतलमागतैः ।

उत्प्लाविताः प्रजाः सर्वाः क्षणाज्जग्मुः क्षयं ततः ।। ६४ ।।

उन सब फेके हुए जलराशि के धरती पर आ जाने से डूबती हुई समस्त प्रजा क्षणभर में नाश को प्राप्त हुई ॥६४॥

प्लवमाना: प्रजास्तोये म्रियमाणाः समन्ततः ।। ६५ ।।

हा पितस्त्वथ हा तात हा मातर्हा सुतेति च ।

विलपन्ति स्म करुणं भीताश्चार्ता मुमूर्षवः ।। ६६ ।।

उस समय जल में सब तरफ से डूबती, मरती, मरने वाली प्रजा भयभीत तथा दुखी हो हा ! पिता, हा ! माता कहकर करुण विलाप कर रही थी ।। ६५-६६ ॥

यस्मिन् देशे निपतितो वाराहैः शरभः सह ।

तत्रैवाधोगता भूमिः पादवेगेन दारिता ।। ६७ ।।

जिस स्थान पर उन वाराहों के साथ शरभ गिरा था वहाँ की भूमि, पैर के वेग से फटकर नीचे चली गयी ॥६७॥

अपरः पृथिवीप्रान्त उत्थितः पर्वतैः सह ।

ससर्ज जनलोकेषु चलां तेषां प्रभञ्जनैः ।। ६८ ।।

पृथ्वी का दूसरा भाग उठकर पर्वतों तथा उस समय उठे हुए आंधी के साथ जनलोक को भी चञ्चल कर दिया ।। ६८ ॥

जनलोकेषु संयुक्तां पृथिवीं शरभस्तदा ।

निःश्रेणीमिव सम्बद्धामचलामपि पोत्रिभिः ।

ददर्श विस्मयाविष्टः स भीतः श्रान्तपीडितः ।। ६९ ।।

तब उस भयभीत, आश्चर्यचकित, पीड़ित और थके हुए शरभ ने वाराहों के साथ सम्बद्ध जनलोक तक पहुँची उस पृथ्वी को क्रमविहीन (अस्त-व्यस्त ) देखा ।। ६९ ।।

ततस्ते युयुधुः सर्वे पोत्राघातेन पोत्रिणः ।

खुरप्रहारैर्दंष्ट्राभिर्गात्रक्षेपैश्च दारुणैः ।। ७०।।  

शरभोऽप्यथ दंष्ट्रायैर्नखैस्तीक्ष्णैः खुरैस्तथा ।

लाङ्गुलस्य प्रहारैस्तु तुण्डघातैर्महास्वनैः ।।७१।।

तब उन सब वाराहों ने दाढ़ों, खुरों, थूथनों के भयानक आघात तथा शरीरों के उछाल से एवं शरभ ने भी अपने दांढ़ों, तीखे नाखूनों, खुरों, थूथन और पूँछ के तीव्रध्वनित प्रहार से युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया । ७०-७१ ॥

चतुर्भिः पोत्रिभिस्तैस्तु स एकः शरभो महान् ।

एकान्तं योधयामास सहस्रं परिवत्सरान् ।। ७२ ।।

एक मात्र महान् शरभ रूपधारी शिव ने, अकेले ही उन चारों वाराहों के साथ हजारों वर्षों तक युद्ध किया।।७२।।

तेषां प्रहारैर्वेगैश्च भ्रमणैश्च गतागतैः ।

आस्फोटितैस्तथारावैर्देहपातैः पृथक् पृथक् ।

पाताले पन्नगाः सर्वे विनेशुः कद्रुजैः सह ।।७३।।

उनके प्रहार से वेग, भ्रमण, आने-जाने, टकराने, आवाज तथा अलग-अलग गिरने से सभी नाग, कद्रु के पुत्र नागों सहित पाताल में प्रवेश कर गये ।। ७३ ।।

ततस्ते सागरं त्यक्त्वा पृथिवीमध्यमागताः ।

परस्परं युध्यमाना ततोऽभूत् पृथिवी समा ।। ७४ ।।

तब वे परस्पर युद्ध करते हुए समुद्र को छोड़कर पृथ्वी पर आ गये, जिससे पृथ्वी समतल हो गयी ।। ७४ ॥

शेषोऽपि महता यत्नाद्वलेनाष्टभ्यकच्छपम् ।

दधार पृथिवीं दुःखैर्भग्नशीर्षः प्रतापितः ।। ७५ ।।

उस समय क्षत-विक्षत शिर वाले शेष ने भी बड़े यत्न से बलपूर्वक कच्छप को पकड़ कर दुःख से परितप्त पृथ्वी को धारण किये रखा ।। ७५ ।।

अनन्ते वामनीभूते समत्वं पृथिवीतले ।

गतेऽम्भोभिश्चलद्भिश्च पर्वतैः सर्वजन्तुषु ।। ७६ ।।

नष्टेषु युध्यमानेषु त्रिपोत्रिशरभेषु च ।

सागरैराप्लुते सर्वजगत्यापोमये हरिम् ।

चिन्ताविष्टः सुरज्येष्ठः उवाचाथ पितामहः ।।७७ ।।

इस प्रकार तीन पुत्रों सहित वाराह तथा शरभ के युद्ध में अनन्त के दबकर वामन होने, पृथ्वी के समतल हो जाने और चलते हुए पर्वतों के कारण प्राणियों के नष्ट होने तथा उछले हुए समुद्र की जलराशि से समस्त जगत के जलमग्न हो जाने पर चिन्तित हो देवताओं ज्येष्ठ, पितामह ब्रह्मा ने विष्णु से यह कहा- ॥ ७६-७७ ।।

।। ब्रह्मोवाच ।।

भगवन् भुवनं सर्वं ससुरासुरमानुषम् ।

विध्वस्तं पृथिवी शीर्णा नष्टाः स्थावरजङ्गमाः ।।७८।।

देवदानवगन्धर्वा दैत्याश्चापि सरीसृपाः ।

विध्वस्ता जगतां नाथ मुनयश्च तपोधनाः ।।७९।।

ब्रह्मा बोले- हे भगवन् ! देवताओं, असुरों और मनुष्यों के सहित यह समस्त भुवन ध्वस्त हो गया है, पृथ्वी क्षतिग्रस्त हो गयी है, स्थावर-जङ्गम प्राणी नष्ट हो गये हैं । हे जगत के स्वामी ! देवता, दानव, गन्धर्व, दैत्य, सरीसृप (नाग) तथा तपस्वी मुनिगण भी नष्ट हो गये हैं ।। ७८-७९ ।।

त्वं पालकोऽसि सर्वेषां त्वमेव जगतः प्रभुः ।

तस्मात् पालय नः सर्वान् पृथिवीं च जगत्पते ॥८०॥

हे जगत्पति ! आप ही सबके पालनकर्त्ता एवं जगत के स्वामी हो, इसलिए हम सबकी तथा पृथ्वी की आप रक्षा करो ॥ ८० ॥

त्वमेव कायं वाराहं स्वयमेवोपसंहर ।

संस्थापय महाबाहो पृथिवीं च चराचरैः ।।८१ ।।

हे महाबाहु ! आप स्वयं ही अपनी इस वाराह काया का उपसंहार करो तथा इस चराचर जगत एवं पृथ्वी की व्यवस्थित स्थापना करो ।। ८१ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्मणोऽथ जनार्दनः ।

यत्नं चक्रे तदा सर्वं संस्थापयितुमच्युतः ।।८२।।

मार्कण्डेय बोले- तब उन अच्युत, जनार्दन, विष्णु ने ब्रह्मा के उन वचनों को सुनकर, सबकी स्थापना के लिए यत्न आरम्भ किया ।। ८२ ।।

ततो हरी रोहितमत्स्यरूपी भूत्वा मुनीन् सप्त तदा सवेदान् ।

अधोच्छुते रक्षणतत्परो जगद्हिताय सर्वश्रुतिकोविदां वरान् ।।८३ ।।

वसिष्ठमत्रिं त्वथ कश्यपं च विश्वादिमित्रं च सगौतमं मुनिम् ।

महातपस्थं जमदग्निमुख्यं तथा भरद्वाजमुनिं तपोनिधिम् ।। ८४ ।।

निधाय पृष्ठे स हि तोयमध्ये स्थितो महानौप्रवरे मुनीन्द्रान् ।

ततः शिवं सान्त्वयितुं जनार्दनो जगाम यस्मिन् युयुधे स पोत्रिभिः ।।८५।।

तब भगवान विष्णु रोहित मछली का रूप धारण कर संसार के कल्याण के लिए नीचे से वेदों तथा सभी वेदों के जानने वाले सप्त ऋषियों की रक्षा में तत्पर हुये । इस हेतु उन्होंने जलराशि में एक महान और श्रेष्ठ नौका में विराजमान महान, तपस्वी जमदग्नि तथा तपस्या ही जिनका धन है, ऐसे भरद्वाज मुनि आदि सात मुनियों को वेदों के सहित, वसिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र, गौतम आदि मुनियों की पीठ पर धारण किया। तत्पश्चात् शरभ वेशधारी शिव को सान्त्वना देने के लिए विष्णु भगवान, जहाँ वह शूकरों के साथ युद्ध कर रहे थे वहाँ गये ।। ८३-८५ ॥

श्रान्तं वाराहैरतिपौत्रघट्टनै- र्निपिडीतं व्यात्तमुखं श्वशन्तम् ।

अथागतं वीक्ष्य हरि वाराह: सस्मार पूर्वां नरसिंहमूर्तिम् ।।८६ ।।

वे शिव वाराहों के थूथन के तीव्र चोट से पूरी तरह पीड़ित हो, मुँह खोलकर साँस ले रहे थे। इसके बाद, विष्णु को आया हुआ देखकर उन वाराह भगवान ने अपने पहले के नृसिंह रूप का स्मरण किया ।। ८६ ।।

स्मृतस्तदा तेन समाजगाम सखा वराहस्य हिते नृसिंहः ।

तमागतं वीक्ष्य तदा नृसिंहं तदीयकायान् निजतेज आदात् ।। ८७ ।।

तब उनके द्वारा स्मरण किये जाते ही वाराह के हित के लिए, उसके मित्र नृसिंह आ पहुँचे। उस समय नृसिंह को आया हुआ देखकर उनके शरीर से विष्णु ने अपने तेज का हरण कर लिया ।। ८७ ।।

दृष्टं वराहै: शरभेण तेजो यत् सूर्यतुल्यं प्रविवेश विष्णौ ।

विज्ञाय तेजोरहितं नृसिंहं ससर्ज निश्वासचयं वराहः ।।८८ ।।

उस समय वाराहों एवं शरभ ने यह देखा कि सूर्य के समान तेज निकल कर विष्णु के शरीर में प्रवेश कर गया। तब नृसिंह को तेजरहित जानकर वाराह ने निश्वासों का समूह निर्माण किया (निःश्वास छोड़ा) ।। ८८ ।।

ततस्तु जाता बहवो वराहा बहुप्रमाणाद्भुततीक्ष्णदंष्ट्राः ।

ते वै वराहा: शरभं गिरीशं मायाविनो वीतभयास्तुदन्तः । । ८९ ।।

समं नृसिंहेन तदापि युद्धं चक्रुर्ममर्दुश्च भृशं गिरीशम् ।

क्षणं महापक्षिसमानरूपाः क्षणं तु गावस्तुरगा नराश्च ।। ९० ।।

तब बहुत से वाराह उत्पन्न हो गये। वे बहुत बड़े और तीक्ष्ण दाँतों वाले थे । उन मायावी, निर्भय, दाँत वाले वराहों ने नृसिंह के साथ, शरभ वेशधारी शिव से युद्ध किया तथा गिरीश शिव का बहुत अधिक मर्दन किया। वे किसी क्षण विशाल पक्षी का रूप धारण कर लेते थे तो किसी क्षण गाय, घोड़े, मनुष्यों का रूप भी धारण कर लेते थे ।। ८९-९० ॥

क्षणं नृसिंहाश्च वराहरूपा गोमायवो वैकृतिका: क्षणं ते ।

अनेकरूपाणि भयङ्कराणि वितन्यमानाति रणे वराहैः ।।९१।।

उन वाराहों द्वारा युद्ध में अनेक भयंकर रूप धारण किये गये । वे किसी क्षण नृसिंहों, किसी क्षण वाराहों, किसी क्षण शृगालों के विकृत रूप धारण कर लेते थे ।। ९१ ॥

निरीक्ष्य भर्गं च निपीडितं तै रथासदन्माधवस्तं गिरीशम् ।

पस्पर्श विष्णुर्गिरिशं करेण तेजो न्यधात्तत्र निजं पुनः सः ।।९२।।

इस प्रकार भर्ग शिव को उन सबों के द्वारा पीड़ित देखकर विष्णुं उन शिव के पास पहुँचे तथा उन्होंने शिव को अपने हाथों से स्पर्श किया तथा उनमें अपने तेज को पुनः स्थापित किया ।। ९२ ।।

कालिका पुराण अध्याय ३०- शारभेय (रुद्र) गण वर्णन

अथ संस्पृष्टमात्रः स विष्णुना प्रभविष्णुना ।

अतीव मुदितो हृष्टो बलवान् समजायत ।। ९३ ।।

इसके बाद प्रभावशाली विष्णु द्वारा स्पर्श किये जाने पर वे शरभ वेशधारी शिव, अत्यन्त प्रसन्न, हर्षित तथा बलवान हो गये ।। ९३ ।।

अथोच्चैः शरभो नादं ननाद बलवद् दृढम् ।

आपूरितानि येनैतद्भुवनानि चतुर्दश ।। ९४ ।।

तब शरभ ने बलयुक्त, दृढ़ तथा उच्चध्वनि से गर्जन किया, जिससे चौदहों भुवन भर गये ।। ९४ ।।

नदतस्तस्य वदनाच्छीकरा ये विनिःसृताः ।

ततो गणाः समभवन् महाकाया महौजसः ।। ९५ ।।

यथा वराहनिश्वासान्नानारूपधरा गणाः ।

वराहास्तादृशा एते ततोऽप्यतिबलाः पुनः ।। ९६ ।।

गर्जना करते समय उसके मुख से निकले हुए जलकणों से विशाल शरीर एवं महान बल वाले अनेक गण उत्पन्न हुए, जैसा कि वाराह के निश्वास से अनेक रूपधारी गण उत्पन्न हुए थे। जो उन वाराहों के समान तो थे ही अपितु उनसे भी अधिक बलवान थे ।। ९५-९६ ।।

श्ववराहोष्ट्ररूपाश्च प्लवगोमायुगोमुखाः ।

ऋक्षमार्जारमातंगशिशुमारस्वरूपिणः।।९७।।

सिंहव्याघ्रमुखाः केचित् केचित् सर्पाखुमूर्तयः ।

हयग्रीवा हयमुखा महिषाकृतयः परे ।। ९८ ।।

वे कुत्ते, सुअर, ऊँट, बन्दर, सियार, गौ, भालू, बिल्ली, हाथी, सुंईस के समान स्वरूप वाले थे । उनमें कोई सिंह- बाघ के समान मुख वाले तो कोई सर्प व चूहे के समान मुख वाले, तो अन्य घोड़े के समान गले या मुख वाले और कोई भैंसे के समान आकृति वाले थे ।। ९७-९८ ।।

अन्ये तु मनुजाकारा मृगमेषमुखाः पुनः ।

कबन्धा हीनपादाश्च विहस्ता बहुपाणयः ।। ९९ ।।

केचित्तु शरभाकाराः कृकलासमुखाः परे ।

मत्स्यवक्त्रा ग्राहवक्त्रा ह्रस्वा दीर्घाबलाः कृशाः ।। १०० ।।

उनमें ही अन्य मनुष्य के आकर वाले तो दूसरे भेड़ और मृग के मुख वाले भी थे। कोई धड़मात्र थे, किन्हीं के पैर ही नहीं थे, कोई बिना हाथ का था, तो किसी के बहुत हाथ थे। कोई शरभ के आकार का था, तो दूसरा गिरगिट के समान मुख वाला, कोई मछली, ग्राह के मुख वाले भी थे । वे छोटे, लम्बे, दुर्बल और बलहीन थे ।।९९-१००।।

चतुः पादाष्टपादाश्च त्रिपादाः द्विपदाः परे ।

एकपादा भूरिहस्ता यक्षकिंपुरुषोपमाः ।। १०१।।

पश्वाकाराः पक्षयुक्ताः लम्बोदरमहोदराः ।

दीर्घोदराः स्थूलकेशा बहुकर्णा विकर्णकाः ।

स्थूलाधरा दीर्घदन्ता दीर्घश्मश्रुधराः परे ।। १०२ ।।

वे चार पैर वाले, आठ पैर वाले, तीन पैर, दो पैर वाले तो दूसरे एक पैर और बहुत से हाथ वाले थे । यक्ष और किन्नर के समान, पशुओं के आकार के, पंखों वाले, लम्बे पेट, बड़े पेट, बहुत लम्बे पेट, मोटे बाल, बहुत से कान वाले या बिना कान वाले थे । मोटे होंठ वाले, लम्बी दाँत वाले तो अन्य लम्बी दाढ़ी धारण करने वाले थे ।। १०१-१०२ ॥

ये सन्ति प्राणिनो विप्रा भुवनेषु समन्ततः ।

चतुर्दशसु ते तेषां रूपेण समतां गताः ।। १०३ ।।

नेहास्ति भुवने जन्तुः स्थावरो वा जगत् पुनः ।

यत्तुल्यरूपेण गणो न जातः शङ्करस्य च ।। १०४ ।।

हे विप्रों ! सम्पूर्ण चौदहों भुवन में जो भी प्राणी थे, वे उनकी समता करने वाले थे । संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं था, चाहे वह स्थावर हो या गतिमान जिसके समान शिव के गण उत्पन्न न हुए हों ।। १०३-१०४ ॥

ते भिन्दिपालैः खड्गैश्च परिघैस्तोमरैस्तथा ।

शङ्कुलासिगदाभिश्च पाशैः शङ्कभिरेव च ।। १०५ ।।

खट्वाङ्गैश्च त्रिशूलैश्च कपालैः शक्तिभिस्तथा ।

दात्रैः सृणिभिरीषायैर्यष्टिभिश्च त्रिकण्टकैः ।। १०६ ।।

वे भिन्दिपाल, खड्ग, परिघ, तोमर (दो धारी चाकू), शंकुल, तलवार, गदा, पाश, शंकु (बरछी), खटवाङ्ग, त्रिशूल, कपाल, शक्ति, आरे, अङ्कुश, बाण की फाल, लाठी, तथा त्रिकण्टक (कोंचों) से युक्त थे ।।१०५-१०६।।

प्रासैः परशुभिर्बाणैः कोदण्डैरतिभीषणाः ।

जटाचन्द्रकलायुक्ताः सर्व एव महाबलाः ।। १०७ ।।

वे भाला, परशु, धनुष-बाण धारण किये थे । वे सभी अत्यन्त भयानक, महाबलशाली, तथा जटा एवं चन्द्रकला से (शिव की भाँति ही) सुशोभित थे ॥ १०७ ॥

केचिद्भर्गस्य रूपेण वाहनेनाथ भूषणैः ।

तुल्या जटार्धशुभ्रांशु शुभ्रशीर्षा महाबलाः ।। १०८ ।।

अर्धनारीश्वराः केचिद् यथारुद्रस्तथैव ते ।। १०९ ।।

कुछ शिव के समान वाहन, आभूषण, जटा, अर्धचन्द्रमा से सुशोभित, धवलशीर्ष वाले महाबलवान थे तो कुछ रुद्र की भाँति अर्धनारीश्वर रूप में थे ।। १०८-१०९ ।।

केचित्तु चारुरूपेण मोहनेन मनोभुवः ।

तुल्येन वनितासंघैः समं जाता रतोत्सुकाः ।। ११०।।

कोई कामदेव के समान आकर्षक रूप से सुन्दर तथा अपने ही समान युवती समूह के रतिकर्म के प्रति उत्सुक से थे ।। ११० ॥

आकाशचारिणः सर्वे सर्वे स्वच्छन्दगामिनः ।। १११ ।

वे सभी आकाश में विचरण करने तथा स्वच्छन्द रूप से गमन करने वाले थे ।। १११ ।।

नीलोत्पलदलश्यामाः शुक्ला: केचन लोहिताः ।

रक्ताः पीतास्तथा चित्रा हरिताः कपिलाः परे ।

अर्धपीता ह्यर्द्धरक्ता नीलार्धा धवलाः परे ।। ११२ ।।

कोई नीलकमल की पङ्खुड़ियों के समान साँवले, कोई श्वेत, लाल, रक्त, पीत, चितकबरे, हरे तथा अन्य भूरे, आधे लाल, आधे पीले, आधे नीले तो दूसरे सफेद रंग के थे ॥ ११२ ॥

सकृष्णपीताः शुक्लेन कृष्णेनार्धेन रञ्जिताः ।

एकवर्णा द्विवर्णाश्च त्रिवर्णाश्च तथापरे ।

चतुःषट्पञ्चवर्णाश्च केचिद् दशवर्णाः द्विजाः ।। ११३ ।।

हे द्विजों ! कोई कालापन लिये हुए पीले रंग, कोई आधे सफेद और आधे काले रंग से सुशोभित थे। वे एक रंग, दो रंग, तीन रंग दूसरे चार-पाँच और छं: रंगों वाले थे। कोई दश वर्णों वाले थे ।। ११३ ॥

डिण्डिमान् पटहान् शङ्खान् भेर्यानकसकाहलान् ।। ११४ ।।

मण्डूकान् झर्झरांश्चैव झर्झरीश्च समर्दलाः ।

वीणास्तन्त्री: पञ्चतन्त्रीः शकटान् दर्दरांस्तथा ।। ११५ ।।

गोमुखानानकान् कुण्डान् सतालकरतालिकान् ।

वादयन्तो गणाः सर्वे हसन्तश्च मुहुर्मुहुः ।। ११६ ।।

वे रुद्रगण, डिण्डिम, पटह (नगाड़े), शङ्ख, भेरी (सैनिक नगाड़े) काहल (बड़े सैनिक नगाड़े), झांझर, मण्डूक, झांझरी, मर्दल (ढोल विशेष), वीणा, तन्त्री (एकतारा) पंचतन्त्री (पंच तारा), शकर, दुर्दुर (बंशी विशेष), गोमुख,

आनक, कूँड़, करताल और हाथ की तालियों को बजा रहे थे तथा बारम्बार हँस रहे थे ।। ११४-११६ ॥

वराहाभिमुखा भूत्वा तस्थुस्ते हृष्टमानसाः ।

तान् सर्वानाह शरभो भगवान् वृषभध्वजः ।। ११७ ।।

वे सब प्रसन्नता से वाराहों के सामने खड़े हो गये। तब शरभ वेशधारी भगवान वृषभध्वज शङ्कर ने उनसे कहा- ॥ ११७ ॥

निध्नतैतान् वराहस्य गणान् वै क्रूरकर्मभिः ।

क्रूरदृष्ट्या क्रूरयुद्धैः क्रूरा भूत्वा महाबलाः ।। ११८ ।

हे महाबलिओं! तुम सब क्रूर होकर, क्रूरकर्म, क्रूरदृष्टि, क्रूर युद्ध के द्वारा वाराह के इन गणों को मार डालो ।। ११८ ॥

ततस्ते वै गणाः सर्वे नानाकारवरायुधाः ।

सार्धं वराहस्य गणैर्युयुधुः क्रूरदर्शनाः ।। ११९ ।।

तब वे सब अनेक आकर और श्रेष्ठ शस्त्र धारण करने वाले क्रूर दिखाई देने वाले शारभेय रुद्र गण वराह के गणों के साथ युद्ध करने लगे ।। ११९ ।।

आकाशचारिणः सर्वे जलपूर्णं जगत्त्रयम् ।

ते परित्यज्य युयुधुर्वियत्येवोभये गणाः ।। १२० ।।

वे सब दोनों पक्षों के गण प्रलयकालीन जल में डूबे हुये त्रिलोकी को छोड़कर आकाश में ही संचरण करते हुए, आकाश में ही युद्ध किये ॥ १२० ॥

ततः क्षणाद् वराहास्य गणान् सर्वान् महाबलान् ।

हरस्य प्रमथा जघ्नुर्महावाता इवाम्बुदान् ।। १२१ ।।

तब जिस प्रकार महान् आँधी बादलों को क्षण भर में नष्ट कर देती है, उसी प्रकार शिव के गणों ने महाबलशाली उन वाराहगणों को क्षणभर में मार दिया ।। १२१ ॥

हतेषु तेषु वीरेषु वाराहेषु गणेष्वथ ।

दध्यौ वराहः किमिति प्राक् पश्चाद्वृत्तमास्थितम् ।। १२२ ।।

उन वीर वाराहगणों के मारे जाने पर समुद्र में पूर्व-पश्चिम फैला हुआ वाराह, यह क्या ? ऐसा सोचने लगा ।। १२२ ।।

अथ चिन्तयतस्तस्य स्वान्तं गत्वा जनार्दनः।

तत् सर्वं ज्ञापयामास वराहवपुषो हितम् ।

ततो देह – परित्यागं कर्तुं समयतस्तदा ।। १२३ ।।

इस प्रकार सोचते हुए उसके अपने ही अन्तर में जाकर जनार्दन विष्णु ने उस वराह शरीर के हित में, देह त्याग करने सम्बन्धी सभी बातों का ज्ञान करा दिया ।। १२३ ।।

ततो दंष्ट्राप्रघातेन नरसिंहं महाबलः ।

शरभो भगवान् भर्गो द्विधा मध्ये चकार ह ।। १२४ ।।

तब महाबलशाली शरभरूप भगवान शिव ने अपने दाँतों के अगले भाग से नरसिंह को कमर से दो भागों में बाँट दिया ।। १२४ ।।

नरसिंहे द्विधाभूते नरभागेण तस्य च ।

नर एव समुत्पन्नो दिव्यरूपी महाऋषिः ।। १२५ ।।

तस्य पञ्चास्यभागेन नारायण इतिश्रुतः ।

अभवत् सुमहातेजा मुनिरूपी जनार्दनः ।। १२६ ।।

नरसिंह के दो भागों में बँट जाने पर उनके मनुष्य वाले भाग से दिव्यरूप वाले नर नामक महान ऋषि उत्पन्न हुए तथा सिंह वाले भाग से नारायण नाम के ख्यात महान तेजस्वी मुनि के रूप में जनार्दन हो गये।।१२५-१२६।।

नरो नारायणश्चोभौ सृष्टिहेतू महामती ।

द्वयोः प्रभावो दुर्धर्षः शास्त्रे वेदे तपःसु च ।। १२७ ।।

नर-नारायण दोनों ही सृष्टि के लिए उत्पन्न हुए ये दोनों ही महान बुद्धिशाली थे। दोनों ही का शास्त्र, वेद और तपस्या में अद्वितीय प्रभाव था ।। १२७ ।।

तौ नावि विनिधायाथ मत्स्यमूर्त्यवितात्मनि ।

आससाद पुनर्देवो वाराहः शरभं हरिः ।। १२८ ।।

उन दोनों को अपने मत्स्यरूप आश्रित नौका में रखकर वाराह वेशधारी विष्णु पुनः शरभ के समीप पहुँच गये ॥ १२८ ॥

वपुस्त्यागो मयावश्यं कर्तव्यो जगतां हिते ।। १२९ ।।

इति पूर्वं प्रतिज्ञातं तदर्थोऽयं समुद्यमः ।

क्रियते हरिणा सार्धं शम्भुना ब्रह्मणापि च ।।१३० ।।

इति संचिन्त्य स तदा शूकरः परमेश्वरः ।

जगाद शरभं देवं महादेवं महाबलम् ।। १३१ ।।

"संसार के कल्याण हेतु मैं अवश्य शरीर त्याग कर दूँगा ।" मेरी इस प्रतिज्ञा को जो मैंने पहले किया था, उसी (पूर्णता) के लिए ही यह उद्यम ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सम्मिलित रूप से किया है। तब उस सूकर शरीरधारी परमेश्वर ने ऐसा सोचकर शरभ रूपधारी देवाधिदेव महाबली शिव से कहा - ॥१२९-१३१ ।।

।। वाराह उवाच ।।

जहि मां त्वं महादेव त्यक्ष्ये कायमसंशयम् ।

हिताय सर्वजगतां देवानामपि ऋत्विजान् ।। १३२ ।।

मम देहप्रतीकौ धैर्यज्ञं यूपं प्रकल्प्य च ।

पृथक् पृथक् महाभागा सशामित्रं श्रुवादिकम् ।। १३३ ।।

वाराह बोले- हे महादेव! तुम मुझे मार दो, इस शरीर को मैं निःसन्देह देवताओं, ऋत्विजों एवं जगत के कल्याण के लिए छोड़ दूँगा । हे महाभाग ! मेरे अङ्गों के समूह से अलग-अलग यज्ञ, यूप, श्रुवादि यज्ञपात्रों का निर्माण करो ।। १३२-१३३ ।।

ततस्ते तान् त्रिभिः पुत्रैर्विधध्वं जगतां हिते ।

कनकेन सुवृत्तेन घोरेण च जगन्मयीम् ।। १३४।।

तब संसार के कल्याण के लिए इन कनक, सुवृत्त, और घोर नामक तीनों से जगन्मयी पृथ्वी का कल्याण करो ।। १३४ ॥

यज्ञाद् देवाः प्रजाश्चैव यज्ञादन्नान् नियोगिनः ।

सर्वं यज्ञात् सदा भावि सर्वं यज्ञमयं जगत् ।। १३५ ।।

यमिमं पृथिवीगर्भमाधत्त मलिनी पुनः ।

तमुत्पन्नं स्वयं देवीं चिरं संगोपयिष्यति ।। १३६ ।।

यज्ञ से ही देवता तथा अन्न का उपयोग करने वाली प्रजा, सबकुछ यज्ञ से ही सदा उत्पन्न होने वाला है, क्या सारा जगत ही यज्ञमय है। इस पृथ्वी ने अपनी मलिनावस्था में जिसे गर्भ में धारण किया था उससे उत्पन्न हुए को स्वयं यह देवी बहुत समय तक छिपाये रखेगी ।। १३५-१३६ ।।

प्राप्ते काले यदा देवी तदायुष्मान् सुभाषते ।

वधस्तस्यातिमारार्ता तदैवैनं हनिष्यथ ।। १३७ ।।

हे आयुष्मान् ! समय पर जब दुःखी होकर वह स्वयं तुमसे इसके वध के लिए कहेगी उस समय तुम सब इसे मारोगे ।। १३७ ॥

भारतीं पृथिवीं मग्नां यदाधः शतयोजनम् ।

शृङ्गिवराहरूपेण प्रोद्धरिष्ये तदात्विमाम् ।।१३८ ।।

जब यह भारती, पृथ्वी सौ योजन ( आठ सौ मील) तक नीचे समुद्र में डूब जायेगी तब शृङ्गी - वाराह रूप से इसका पुनः उद्धार करूँगा ।। १३८ ॥

कृतकृत्यं तु तं कायं त्याजयिष्यति ते सुतः ।

यो भावी देवसेनानी रुद्रात् षाण्मातुराह्वयः ।। १३९।।

कार्य हो जाने पर तुम्हारा पुत्र उस शरीर को छोड़ देगा, और रुद्र से उत्पन्न हो षाणमातुर नाम से देवताओं का सेनापति बनेगा ।। १३९ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवं यज्ञवराहे तु भाषमाणे महाबले ।

निःसृत्य सुमहत्तेजो ज्वालामालातिदीपितम् ।। १४० ।।

सूर्यकोटिप्रतीकाशं वराहवपुषस्तदा ।

हरेर्भगवतो देहे विवेश महद्दभुतम् ।। १४१ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब महाबली यज्ञवाराह द्वारा ऐसा कहने पर, ज्वालासमूह से अत्यन्त प्रज्वलित, करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशित, एक महान आश्चर्यजनक तेज वाराह के शरीर से निकलकर भगवान विष्णु के शरीर में प्रवेश कर गया ।।१४०-१४१।।

तस्मिन् विष्णौ प्रविष्टे तु वाराहे तेजसि द्विजाः ।

सुवृत्तात् कनकाद्घोरात्तेज आदात् स्वयं हरिः ।। १४२ ।।

हे द्विजों ! वाराह के उस तेज के विष्णु में प्रवेश हो जाने पर स्वयं विष्णु ने सुवृत्त, कनक और घोर से तेज का हरण कर लिया ।। १४२ ।।

तेषामपि शरीरेभ्यस्तेजोभागः पृथक् पृथक् ।

विनिःसृत्य विनिःसृत्य ज्वालामालातिदीपितः ।

प्रविवेश हरेः काये यथा तेषां पितुस्तथा ।। १४३ ।।

उनके भी शरीर से ज्वालासमूह सा प्रज्ज्वलित तेज अलग-अलग निकल कर उनके पिता की ही भाँति ही विष्णु में प्रवेश कर गया ।। १४३ ।।

ततो हरिश्च ब्रह्मा च महादेवश्च तद्वचः ।

वाराहस्य प्रतिश्रुत्य ओमित्युक्त्वा पुनः पुनः ।। १४४ ।।

तेषां कायपरित्यागे अकार्षुर्यत्नमुत्तमम् ।। १४५ ।।

तब हरि, ब्रह्मा और महादेव ने वाराह के उपर्युक्त वचनों को सुनकर उत्तर में हाँ ऐसा कहकर उनके शरीर त्याग के लिए उत्तम प्रयत्न किया ।। १४४-१४५ ।।

ततस्तुण्डप्रहारेण शरभः कण्ठमध्यतः ।

भित्वा वपुर्वराहस्य पातयामास तज्जले ।। १४६ ।।

तब शरभ ने अपने थूथन के प्रहार से कण्ठ के मध्य प्रहार करके, उसे काट कर, वाराह के शरीर को उस जल में गिरा दिया ।। १४६ ।।

तं पातयित्वा प्रथमं सुवृत्तं कनकं तथा ।

घोरं च कण्ठदेशेषु भित्वा भित्वा जघान ह ।। १४७ ।।

उसको पहले मार कर सुवृत्त, कनक एवं घोर का भी गला काट कर उन्हें मार दिया ।। १४७ ॥

त्यक्तप्राणास्तु ते सर्वे पेतुस्तोये महार्णवे ।

जले शब्दं वितन्वानाः कालानलसमत्विषः ।। १४८ ।।

उस महासमुद्र के जल में प्राण छोड़े हुए वे सब कालानल के समान शब्द करते हुए गिर गये ।। १४८ ॥

पतितेषु वराहेषु ब्रह्माविष्णुर्हरस्तथा ।

सृष्ट्यर्थं चिन्तयामासुः पुनरेव समागताः ।। १४९ ।।

उन वाराहों के जल में गिर जाने पर पुनः ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश एकत्रित हो, सृष्टि के सम्बन्ध में विचार करने लगे ।। १४९ ॥

हरस्य तु गणाः सर्वे तदा भर्गं समागताः ।

उपतस्थुर्महाभागाश्चतुर्भागेन भाजिताः ।। १५० ।।

तब हर के सभी गण, शिव के समीप आ गये। वे महाभाग वहाँ चार भागों में विभक्त हो उनके निकट उपस्थित हुए ।। १५० ।।

षट्त्रिंशत्तु सहस्राणि प्रमथा द्विजसत्तमाः ।

तत्रैकत्र सहस्राणि भागे षोडश संस्थिताः ।। १५१ ।।

हे द्विजसत्तम ! वे प्रमथ छत्तीस हजार की संख्या में थे, जिसमें एक भाग में सोलह हजार गण उपस्थित थे।।१५१।।

नानारूपधरा ते वै जटाचन्द्रार्धमण्डिताः ।

ते सर्वे सकलैश्वर्ययुक्ता ध्यानपरायणाः ।। १५२ ।।

योगिनो मदमात्सर्यदम्भाहङ्कार वर्जिताः ।

क्षीणपापा महाभागाः शम्भोः प्रीतिकराः पराः ।। १५३ ।।

वे अनेक रूप धारण करने वाले जटाजूट तथा अर्धचन्द्र से सुशोभित थे । वे सभी, सब प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त, ध्याननिरत, मद-मत्सर (दम्भ, अहंकार आदि दोषों से) मुक्त थे जिनके पाप क्षीण हो गये थे ऐसे वे महाभाग शिव से अत्यधिक प्रीति करने वाले श्रेष्ठ योगीजन थे ।। १५२-१५३ ।।

न ते परिग्रहं रागं कांक्षन्ति स्म कदाचन ।

संसार - विमुखाः सर्वे यतयो योगतत्पराः ।। १५४ ।।

ध्यानावस्थं महादेवं परिवार्य धृतव्रताः ।

कृत्वा परिषदं रुच्या तिष्ठन्ति विगतक्लमाः ।। १५५ ।।

वे न तो कभी विशेष संचय करते थे, न किसी के प्रेम-बन्धन में बँधते थे । वे सब यति, संसार से विमुख एवं योग में निरत थे । वे व्रतधारी, निर्दोष, ध्यानावस्थित महादेव को घेरकर, परिषद् करके रुचिपूर्वक रह रहे थे ।। १५४-१५५ ।।

यदैव परमं ज्योतिश्चिन्तयत्यम्बिकापतिः ।

तदैव ते पारिषदाः सर्वे संवेष्टयन्ति तम् ।। १५६।।

ज्योंही अम्बिकापति शिव, परम ज्योति के रूप का चिन्तन करते है, त्यों ही वे सब शिव के पार्षद उन्हें घेर लेते हैं ।। १५६ ॥

ते षोडश समाख्याताः कोटयो ये यतव्रताः ।

सिंहव्याघ्रादि सारूप्या अणिमादिसमायुताः ।। १५७।।

वे सोलह करोड़ गण, यति व्रत को धारण करने वाले, सिंह बाघ के समान रूप वाले तथा अणिमादि सिद्धियों से युक्त होते हैं ।। १५७ ॥

अपरे कामिनः शम्भोः सुनर्मसचिवाः स्मृताः ।

विचित्ररूपाभरणा जटाचन्द्रार्धमण्डिताः ।। १५८ ।।

हरस्य तुल्यरूपेण विशदा वृषभध्वजाः ।

उमासदृशरूपाभिः प्रमदाभिः समागताः ।। १५९ ।।

दूसरे शिव की कामना करने वाले तथा उनके मनोविनोद में सहयोगी बताये गये हैं । वे सब विचित्ररूप, विचित्र आभूषणधारी और जटा तथा अर्धचन्द्र से सुशोभित, शिव के समान रूप वाले, विशालकाय, वृषभ की चिन्ह वाली ध्वजा धारण किये, पार्वती के रूप वाली स्त्रियों के साथ वहाँ आये ।। १५८-१५९ ।।

विचित्रमाल्याभरणा दिव्यस्रग्गन्धभूषिताः ।

उमासहायं क्रीडन्तमनुगच्छन्ति भूषिताः ।

शृङ्गारवेषाभरणा अष्टौ ते कोटयो गणाः ।। १६० ।।

वे विचित्र मालाओं तथा आभूषणों को धारण किये दिव्य चन्दन के गन्ध से सुशोभित थे । वे सुसज्जित हो क्रीड़ा करते शिव के पीछे चल रहे थे। शृङ्गारयुक्त वेष तथा आभूषण से युक्त ये गण आठ करोड़ थे ।। १६० ।।

अर्धनारीश्वराश्चान्ये ह्यर्धनारीश्वरं हरम् ।

ध्यानस्थं प्रविविशुस्ते तुल्यरूपा हरस्य ये ।। १६१।।

उमासहायो हि यदा रमते ससुखं हरः ।

अर्धनारीशरीरास्तु द्वारपाला भवन्ति ते ।। १६२ ।।

आकाशमार्गे गच्छन्तमनुगच्छन्ति नित्यशः ।

ध्यानस्थं परिचर्यन्ति सलिलादिभिरीश्वरम् ।। १६३ ।।

वे अर्धनारीश्वर होते हैं क्योंकि भगवान शिव स्वयं अर्धनारीश्वर हैं। वे जो हर के समान हैं और ध्यानवस्था में प्रवेश करते हैं। जब शिव, उमा के साथ सुखपूर्वक रमण करते रहते हैं उस समय ये अर्धनारीश्वरगण उनके द्वारपाल होते हैं। जब वे आकाशमार्ग से जाते रहते हैं उस समय वे उनका अनुगमन करते हैं तथा ध्यान में स्थित शिव की जलादि से नित्य सेवा करते हैं ।। १६१-१६३ ।।

नानाशस्त्रधराः शम्भोर्गणास्ते प्रमथाः स्मृताः ।। १६४ । ।

प्रमथ्नन्ति च युद्धेषु युध्यमानान् महाबलान् ।

ते वै महाबलाः शूराः सङ्ख्यया नव कोटयः ।। १६५।।

अनेक शस्त्रों को धारण करने वाले शिव के गण प्रमथ कहे जाते हैं । ये युद्ध में लड़ने वाले महान बलशालियों का भी वध कर डालते हैं। वे महाबली वीर संख्या में नौ करोड़ हैं ।। १६४-१६५ ।।

अपरे गायनास्तालमृदङ्गपणवादिभिः ।

नृत्यन्ति वाद्यं कुर्वन्ति गायन्ति मधुरस्वरम् ।।१६६।।

शिव के दूसरे गण, ताल, मृदङ्ग, पणव आदि के बाजे बजाते तथा मधुर स्वर में गान गाते और नृत्य करते हैं ।। १६६ ।।

नानारूपधरास्ते वै सङ्ख्यया कोटयस्त्रयः ।

सततं चानुगच्छन्ति विचरन्तं महेश्वरम् ।।१६७।।

वे संख्या में तीन करोड़ शिवगण, अनेक रूप धारण कर महेश्वर शिव के विचरण करते समय निरन्तर उनका अनुगमन करते हैं ॥ १६७ ॥

सर्वे मायाविनः शूराः सर्वे शास्त्रार्थपारगाः ।

सर्वे सर्वत्र सर्वज्ञाः सर्वे सर्वत्रगाः सदा ।। १६८ ।।

वे सभी मायावी, वीर, शास्त्रार्थ में निपुण, सब जगह सब कुछ जानने वाले तथा सदैव सब जगह गमन करने वाले हैं ।। १६८ ।।

मुहूर्तात् सर्वभुवनं गत्या यान्ति पुनर्भवम् ।

अणिमाद्यष्टकैश्वर्ययुक्तास्ते वै महाबलाः ।। १६९ ।।

वे क्षणभर में अपनी गति से सभी भवनों में बार-बार जाते हैं वे अणिमादि आठ ऐश्वर्यों से युक्त तथा महान बलशाली हैं ।। १६९ ।।

अपरे रुद्रनामानो जटाचन्द्रार्धमण्डिताः ।

देवेन्द्रस्य नियोगेन वर्तन्ते त्रिदिवे सदा ।

तेषां सङ्ख्या चैककोटिस्ते सर्वे बलवत्तराः ।। १७० ।।

दूसरे रुद्र नामक गण है, जो जटा और अर्धचन्द्र से सुशोभित हो देवराज इन्द्र की सेवा में सदैव स्वर्ग में रहते हैं। इनकी संख्या एक करोड़ है और वे सभी अधिक बलवान हैं ।। १७० ॥

कुर्वन्ति हि सदा सेवां हरस्य सततं गणाः ।

विस्मयन्ति च पापिष्ठान् धर्मिष्ठान् पालयन्ति च ।। १७१ ।।

अनुगृणन्ति सततं धृतपाशुपतव्रतान् ।

विघ्नांश्च सततं घ्नन्ति योगिनां प्रयतात्मनाम् ।। १७२ ।।

ये गण निरन्तर शिव की सेवा किया करते हैं, पापियों को मोहित करते हैं, धार्मिकों का पालन तथा पाशुपत व्रतधारी शिव भक्तों पर कृपा किया करते हैं । ये निरन्तर प्रयत आत्मा (समर्पित) योगियों के विघ्नों का नाश करते हैं ।। १७१-१७२ ॥

षट्त्रिंशत् कोटयश्चैते हरस्य सकला गणाः ।

वराहगणनाशार्थं हिताय जगतां तथा ।। १७३ ।

शङ्करस्याथ सेवायै समुत्पन्ना इमे गणाः ।। १७४।।

ये शिव के सभी गण छत्तीस करोड़* हैं। ये वाराह गणों के नाश के लिए तथा संसार के कल्याण के लिए एवं शङ्कर की सेवा के लिए उत्पन्न हुये थे । १७३- १७४॥

* यहाँ गणों की संख्या ३७ करोड़ है किन्तु छत्तीस करोड़ ही बताया है। सम्भवतः १ करोड़ स्वस्थ रुद्र गणों की गणना नहीं है। १. पारिषद् २ नर्म सचिव, ३ प्रमथ, ४. शायका: शिव गणों के भाग हैं।

वराहस्य गणान् दृष्ट्वा नरसिंहं तथा हरिम् ।

स्वयं शरभरूपः सन् ध्यायन्नादं तदाकरोत् ।

तच्छीत्कराद्यतो जातास्तत्तेषां बहुरूपता ।। १७५ ।।

वाराह के गणों, तथा नरसिंह को देखकर हरि का ध्यान करते हुए जब स्वयं शरभ रूपधारी शिव ने ध्वनि किया था उस समय उनके सीकर बिन्दुओं से उत्पन्न होने के कारण इनमें ऐसी भिन्नता पाई जाती है ।। १७५ ।।

क्रूरदृष्ट्या क्रूरयुद्धैः क्रूरकृत्यैरिमान् गणान् ।

वराहस्य घ्नतेत्येवं यतः प्रोक्तं कपर्दिना ।

अतस्ते क्रूरकर्माणः प्रजाताश्च भयङ्कराः ।। १७६ ।।

क्रूरदृष्टि, क्रूरकर्म तथा क्रूरयुद्ध से इन वाराहगणों को मार डालो। ऐसा शिव के कहने के कारण ही ये क्रूरकर्म वाले तथा भयंकर रूप में उत्पन्न हुये ।। १७६ ॥

न सदा क्रूरकर्माणि ते कुर्वन्ति महौजसः ।

दृष्टिमात्रस्य ते क्रूराः क्रूरास्ते न तु कार्यतः ।। १७७ ।।

ये महान् ओजस्वी रुद्रगण सदैव क्रूर कर्म नहीं करते। वे देखने में ही क्रूर होते हैं कार्य से नहीं ।। १७७ ॥

फलं जलं तथा पुष्पं पत्रं मूलं तथैव च ।। १७८ ।।

निवेदितानि भुञ्जन्ति वनपर्वतसानुषु ।

आहृत्यापि च भुञ्जन्ति पत्रं पुष्पादिकं च यत् ।। १७९ ।।

इन्हें जो कुछ फल, जल, पुष्प, पत्र, जड़ (मूल) निवेदन किया जाता है। उसका तथा वनों और पर्वतों के शिखरों आदि से ये जो कुछ पत्र-पुष्पांदि ले आते  हैं, ये उसी का भोग करते हैं ।। १७८-१७९ ।।

भवेद्भर्गस्य यद्धोग्यं तद्भोगास्ते महौजसः ।

आमिषाणि च नाश्नन्ति हित्वा चैत्रचतुर्दशीम् ।।१८० ।।

शिव का जो भोग पदार्थ होता है वही इन महाबलियों का भी होता है। चैत्र की चतुर्दशी को छोड़कर कभी भी ये मांस नहीं खाते ॥ १८० ॥

तत्रामिषं हरो भुंक्ते चतुर्दश्या मधौ सदा ।

ततः सर्वे गणास्तत्र भुंजते पललान्यपि ।। १८१ ।।

वे शिव सदैव मधु (चैत्र) मास की चतुर्दशी को मांसभक्षण करते हैं। इसीलिए सभी गण भी उस दिन मांसभक्षण करते हैं ।। १८१ ॥

हते वराहस्य गणे भर्गमासाद्य ते गणाः ।

चतुर्भागाः स्वयं भूत्वा भूतकर्मेति वै जगुः ।

भूतत्वमभवत्तेषां चतुर्भागवतां तदा ।

वचनात् पद्मयोस्तु भूतग्रामस्ततो मतः ।। १८२ ।।

वाराह के गणों के मारे जाने पर वे स्वयं शिव के पास गये तथा स्वयं चार भागों में बँट गये और वे भूतकर्मा कहे जाने लगे। तब ब्रह्मा के वचनों के अनुसार उन चार भाग वाले शिव गणों में भूततत्त्व आ गया और वे भूतग्राम (भूतसमूह) माने जाने लगे ।। १८२ ॥

यो लोकविदितः पूर्वं भूतग्रामश्चतुर्विधः ।

यतस्तेभ्योऽधिको यत्तद्भूतग्रामः स उच्यते ।। १८३ ।।

जो लोक में पहले ही अण्डज, पिण्डज, स्वेदज् और उद्भिज नामक चार प्राणिसमूह बताये गये हैं उनसे अतिरिक्त होने के कारण से ही इन्हें भी भूतग्राम (भूत समुदाय) कहा जाता है ।। १८३ ॥

इति वः कथितं सर्वं भूताः शम्भुगणाः यथा ।

यदाहारा यदाकारा यत्कृत्यास्ते महौजसः ।। १८४ । ।

इस प्रकार जैसे शिव गण हुए जो इन महाबलियों का भोजन, आकार या कार्य था, वह सब मैंने आप लोगों से कह दिया ।। १८४ ॥

य इदं शृणुयान्नित्यमाख्यानं महदद्भुतम् ।

स दीर्घायुः सदोत्साही योगयुक्तश्च जायते ।। १८५ ।।

जो इस महान् अद्भुत आख्यान को नित्य सुनता है, वह दीर्घायु, सा उत्साही, और योगयुक्त होता है ।। १८५ ।।

इति श्रीकालिकापुराणे शरभवाराहयुद्धो नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

कालिका पुराण अध्याय ३०- संक्षिप्त कथानक       

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सब देवगणों ने देव योनियों के साथ और रुद्रदेव के सहित मिलकर भली-भाँति जगत के हित के लिए सलाह की थी। फिर मुनियों के साथ शक्र (इन्द्र) आदि उन सबने निश्चय करके शरण्य, विभु, अज भगवान नारायण की शरणागति में गये थे । उन गोविन्द, वासुदेव जगत के स्वामी के समीप में पहुँचकर सब देवों को प्रणाम किया था और फिर भगवान गरुड़ध्वज का स्तवन किया था।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा - इस प्रकार से देवों के देव, भूतों के भावन करने वालों के भी भावन इस रीति से स्तुति किए गए थे जो इन्द्रदेव के सहित देवगणों के द्वारा स्तवन किए गये थे । मेघ के समान ध्वनि वाले प्रभु ने उन सबसे कहा था ।

श्री भगवान ने कहा- जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आप लोग यहाँ पर समागात हुए हैं अथवा जो भी कुछ भय आपको हुआ है अथवा वहाँ पर जो भी कुछ कार्य मुझे करना चाहिए हे देवों! वह शीघ्र ही बतलाइए।

देवों ने कहा- यह पौत्री अर्थात् यज्ञ वाराह के क्रीड़ा से यह वसुधा अर्थात् पृथ्वी नित्य विकीर्ण हो रही है और सभी लोक विशेष रूप से क्षुब्ध हो रहे हैं और वह उपसान्त्वना प्राप्त नहीं कर रहे हैं। जिस प्रकार से सूखा हुआ तुम्बी का फल धातों से जर्जरता को प्राप्त हो जाता है ठीक उसी भाँति यह भूमि यज्ञ वाराह के खुरों के प्रहारों से जर्जरित हो गई है ।

उसके जो तीन कालाग्नि के तेज से समान पुत्र हैं जिनके नाम सुवृत्त, कनक और घोर हैं उनके द्वारा भी यह सम्पूर्ण जगत आपतित हो रहा है । उनकी कर्दम लीलाओं से हे जगतों के पति ! मानस आदि सब सरोवर भग्न हो गये हैं और अभी भी प्राकृतिक स्वरूप को प्राप्त नहीं होते हैं । महान बल वाले उनके द्वारा मन्दार आदि देवों के तरु भग्न कर दिए गए हैं । हे देव! वे आज तक भी प्ररोह को प्राप्त नहीं हो रहे हैं । जिस समय से वे सृवृत्त प्रभृति तीनों त्रिकूट पर्वत पर समारोहण किया करते हैं । हे महाबाहो । वहाँ से वे प्लुति करके क्षीर सागर में गिर जाया करते हैं । उस समय में क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के जल के समुदायों से यह सम्पूर्ण भूमि प्लावित हो जाया करती है । उस समय में सभी मनुष्य उत्प्लवन को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जल से निमग्न हो जाया करते हैं और दशों दिशाओं में जहाँ कभी भी जीवन की रक्षा करते हुए परिभ्रमण करने लगते हैं । जिस समय में यज्ञ वाराह के पुत्र त्रिविष्ट अर्थात् स्वर्ग को गमन नहीं किया करते थे । हे जगत्पते ! सभी पर्वत उस वाराह के पुत्रों ने शिखर पर क्रीड़ा करते हुए अधिक भाग नीचे की ओर गया हुआ कर दिया था । इस प्रकार से विशेष क्रीड़ा करते हुए उनकी क्रीड़ाओं से सम्पूर्ण जगत् हे वैकुण्ठ! नाश के भाव को प्राप्त हो जाता है । हे जगत् के प्रभो ! उससे आप रक्षा कीजिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- भगवान जनार्दन ने इस प्रकार से कहते हुए उनके वाक्य का श्रवण करके भगवान ने देव शंकर से और विशेष रूप से ब्रह्माजी ने कहा। जिसके लिए सभी देवगण और ये समस्त प्रजा महान दुःख को पा रहे हैं और यह सम्पूर्ण जगत शीर्ण हो रहा है । हे शंकर! मैं इस वाराह के शरीर को त्याग करने की इच्छा कर रहा हूँ । निर्वेश में शक्त उसका त्याग करना स्वेच्छा से नहीं हो सकता है। हे शंकर! अब आप यत्न से उसका त्याग कराइए। हे ब्राह्मण! आप भी अपने नेत्रों से पुनः समर के विनाशक शिव को आप्याप्ति कीजिए तथा सब देवगण भी शंकर को आप्यादित करें कि वे इस पौत्री का हनन करने को उद्यत हो जावें । रजस्वला के संसर्ग से तथा विप्रगण के मारने से यह शरीर पापों के करने वाला हो गया है। इस समय में उसका त्याग करना युक्त होता है । यह पाप प्रायश्चितों के द्वारा ही दूर होता है । अतएव मैं प्रायश्चित करूँगा । उसके लिए मेरा शरीर यत्न से साम्यता को प्राप्त होवे ।

मुझे सदा ही प्रजा का पालन करना ही चाहिए। वह प्रजा नित्य ही दुःखित हुआ करती है और वह मेरे ही द्वारा दुःखित हो रही है अतएव प्रजा की भलाई के लिए मैं शरीर का त्याग कर दूँगा ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस रीति से वे दोनों ब्रह्मा और शंकर उस समय में वासुदेव प्रभु के द्वारा कहे गये थे । तब उन्होंने वासुदेव प्रभु के कहा था कि जैसा भी आपने कहा है वही मुझे सब करना ही चाहिए। भगवान वासुदेव ने भी उन सब देवगणों को विदा करके वाराह के तेज का आहरण करने के लिए वे फिर ध्यान में परायण हो गए थे। जब धीरे-धीरे माधव प्रभु उस तेज का अपहरण करते हैं तो उस समय में वह वाराह का देह सत्व से हीन हो गया था। जब सभी देवों ने उस देह को तेज से हीन समझ लिया था उसी समय में देव अद्भुत यज्ञ वाराह के समीप में प्राप्त हुए थे । ब्रह्मा आदि समस्त देव उमा के स्वामी महोदव के समीप में गये थे कि उस समय में उस तेज को कामदेव के शासन करने के लिए अधीन करें। फिर इसके अनन्तर सभी देवों के समुदाय ने अपना-अपना तेज भगवान वृषभध्वज में समायोजित कर दिया था उससे वे भगवान शम्भु बहुत ही अधिक बलवान हो गये थे ।

इसके अनन्तर शरभ के वाले रूप उसी क्षण में गिरीश हो गये थे । वे ऊपर और नीचे भाग से आठों पादों से युक्त अत्यन्त भैरव हो गये । वह वाराह का शरीर दो लाख योजन ऊँचाई वाला था और डेढ़ लाख योजन विस्तार से युक्त था। ऊपर की ओर वह वाराह का शरीर एक लाख योजन के विस्तार वाला था । आधा लाख योजन पाश्वर्व में विस्तृत था। उस समय में ऐसा वह वाराह शरीर वर्तमान हो गया था। इसके अनन्तर उस यज्ञ पौत्री ने शिर पर चन्द्र का स्पर्श करने वाले शरभ के रूप वाले उमापति महादेव का दर्शन किया था । उनका स्वरूप लम्बी नाक, और नखों वाला था तथा काले अंगार के समान प्रभा से युक्त था। उनका मुख दीर्घ था, महान शरीर से समन्वित था और उसमें आठ दाढ़ें थीं, जटायें धारण करने वाली पूँछ थी तथा लम्बे कानों वाला परमाधिक भयानक स्वरूप था। उसके चार पद पृष्ठ भाग में थे तथा चार अधर में थे। वह महान घोर शब्द कर रहे थे तथा बारम्बार उछाल खा रहे थे। इसके अनन्तर आगमन करते हुए उनको देखकर तो तुरन्त ही क्रोध से दौड़ लगा रहे थे । सुवृत्त, कनक और घोर वहाँ पर क्रोध से मूर्च्छित होते हुए प्राप्त हो गये थे ।

फिर वे तीनों भाई महान शरीरधारी शरभ के समीप में आ गये थे और उन्होंने एक ही साथ पौत्र घातों से उत्क्षेप किया था जो कि महान बल से समन्वित थे। वे सब जितने प्रमाण वाले शरभ था उतने ही प्रमाण वाले उस समय में हो गये थे । वे तीनों पौत्री माया के द्वारा शरभ के उत्पक्षेप अवसर पर बन गये थे । वह शरभ पृथ्वी के भाग में गहन जल के सागर में पतित हो गया था । मकरों के निवास स्थान सागर में सृवृत्त कनक और घोर के गिर जाने पर वाराह भी अपने पुत्रों के स्नेह से वशीभूत होकर और क्रोध से हे द्विजसत्तमो ! उछाल खाकर सहसा उस जल से समुदाय वाले सागर में गिर गया था । उस समय में वे सब वाराह और शरभ उछाल खाते हुओं ने दिव्यलोक में सब देवों का और समस्त नक्षत्रों का भग्न कर दिया था। उनमें कुछ देवगण तो निहित हो गए थे और कुछ भूमि में नियति हो गये थे और उनमें कुछ देवज्ञान से समन्वित थे जो महर्लोक का समुपाश्रय ग्रहण करके वहाँ पर संस्थित हो गये थे ।

हे द्विज श्रेष्ठों ! नक्षत्र विमान से महीबल में पतित हो गये थे वे सब ज्वालाओं की मालाओं से समाकुल दिखलाई दे रहे थे। उनके उत्पतन में जो वेग था वह बहुत ही अधिक दारुण था। उनसे अत्यधिक वेग वाला वायु उत्पन्न हो गया था जो बहुत ही अधिक दारुण था । उस वायु से प्रेरित हुए पर्वत पृथ्वीतल में गिर गये थे और कुछ पर्वत पुनः ही पर्वतों में पतित हो गये थे। वह वृक्षों का और जन्तुओं का विभर्दित करके बारम्बार निपातित हो गये थे । कुछ तो पर्वतों के आघातों से महीतल में नृत्यमान हो रहे थे। उन पर्वतों ने गमन करते हुओं ने बहुत सी प्रजाओं का भग्न कर दिया था। वायु के वेग से भूतल में पर्वत दिखलाई दिए थे। उनसे सदृश्यमान होते हुए अर्थात् रगड़ खाते हुए अन्य पर्वत गमन करते हुए से प्रतीत हो रहे थे । अम्भीनिधि में पतित हुए वाराहों से और शरभ से दिखाई दे रहे थे। महान ऊँचे पर्वतों से जल की राशियाँ उत्क्षिप्त हो गयी थी ।

एक ही क्षण सब सागर बिना जल वाले हो गये थे क्योंकि वे सब जल की राशियों समुत्पिक्षप्त होकर पृथ्वी जल में समागत हो गई थीं । उत्प्लावित हुई समस्त प्रजा एक ही क्षण में क्षय को प्राप्त हो गयी थी । प्लवमान होती हुई अर्थात् डुबकियाँ खाती हुई प्रजा सभी ओर से क्रियमाण हो गयी थीं । उस समय में बहुत ही अधिक करुण दृश्य हो गया था। मरने वाले लोग परस्पर में विलाप कर रहे थे। कुछ लोग कह रहे थे हा पिता, हा माता! हा तात ! हा सुता! इस प्रकार से कहते हुए परमभीत और आर्त्त मनुष्य करुणापूर्वक विलाप कर रहे थे। जिस देश में वाराहों के साथ शरभ निपातित हुआ था यहाँ पर ही अधोभाग में गई हुई पृथ्वी पादों के वेग से विदारित हो गई थी। दूसरा पृथ्वी का प्रान्त पर्वतों के साथ उत्थित हुआ था जन लोकों में उनके प्रभञ्जनों सृजन किया था । उस समय में शरभ ने जन लोकों में संयुक्त पृथ्वी को पोत्रियों कचला भी सम्बद्धा को निःश्रेणी की ही भाँति देखा था । वह विस्मय से आविष्ट हुआ भीतर भ्रान्त एवं पीड़ित था । इसके अनन्तर पौत्रीगण वे सब पौत्राघात से युद्ध करने लगे थे तथा उन्होंने खुरों के प्रहरों के द्वारा दाढ़ों से और महान दारुण गात्र से क्षेत्रों से ही युद्ध किया था ।

इसके अनन्तर एक ही उस महान शरभ उन चारों पौत्रियों के साथ एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त एकान्त में दाढ़ों के अग्रभागों से, तीक्ष्ण नक्षों से, खुरों से, लांगुल के प्रहारों के द्वारा और महान शब्द वाले तुण्डाघातों से चारों उन पौत्रियों के साथ लड़ा था अर्थात् उसने युद्ध किया था । उनके प्रहारों से, वेगों से, भ्रमणों से और गमनागमनों से, आस्फोटितों से तथा अरावों से पृथक-पृथक देह के पातों से पाताल में समस्त पन्नग कद्रुजों के साथ विनिष्ट हो गये थे । इसके उपरान्त वे सब सागर का परित्याग करके पृथ्वी के मध्य में समागत हो गये थे। ये परस्पर युद्ध करते हुए रहे थे फिर यह पृथ्वी सम हो गई थी। शेष भगवान भी बड़े भारी यत्न से बल के द्वारा कच्छप को अवष्टब्ध करके भग्नशीर्ष वाले प्रत्यापित होते हुए बड़े दुःख के साथ इस पृथ्वी को धारण करने वाले हुए थे अर्थात् बड़ी कठिनाई से उन्होंने पृथ्वी को धारण किया था । अनन्त के वामनीभूत होने पर और पृथ्वी तल के समत्व को प्राप्त हो जाने पर सागरों के और पर्वतों के चलायमान होने के समस्त जन्तुओं के विनष्ट हो जाने पर त्रिपौत्रि शरभों के युद्धमान होने पर सागरों के द्वारा सम्पूर्ण जगत के आलुप्त होने पर उस समय में जलमय में चिन्ता से आविष्ट सुरश्रेष्ठ पितामह भगवान हरि से बोला- हे भगवान्! सुर-असुर और मनुष्यों के सहित समस्त भुवन विध्वंस हो गया है, यह पृथ्वी विशीर्ण हो गई है और स्थावर तथा जंगम (चेतन) नष्ट हो गये हैं ।

देव, गन्धर्व, दैत्य, सरीसृप के ही धन वाले मुनिगण सब, हे जगतों के नाथ! इस समय में विध्वंस हो गये हैं। आप ही सबके पालन करने वाले हैं और आप ही जगत के प्रभु अर्थात् स्वामी हैं । इस कारण से आप हम सबका और इस पृथ्वी का, हे जगत् के स्वामिन! पालन कीजिए। आप ही वाराह का शरीर हैं आप स्वयं ही इसका उपसंहार करिए । हे महाबाहो ! चर और अचरों के साथ इस पृथ्वी को संस्थापित करिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- उन भगवान जनार्दन ने इस ब्रह्माजी के वचन का श्रवण करके अच्युत प्रभु उस समय में सबकी संस्थापना करने के लिए यत्न किया था । इसके उपरान्त भगवान हरि रोहित मत्स्य के रूप को धारण करने वाले होकर इस समय में वेदों के सहित सात मुनियों को धारण करने वाले हुए थे । वे श्रुति की रक्षा के परायण होकर जगत के हित के साधन करने के लिए सभी श्रुति के श्रेष्ठ कोविदों का धारण किया था । उन मुनियों के शुभ नाम बतलाये जा रहे हैं, उन मुनियों में वशिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र, गौतम मुनि और महती तपश्चर्या में संस्थित जमदग्नि तथा तप के निधि भरद्वाज मुनि थे। इन सबको अपने पृष्ठ भाग पर रखकर जल के मध्य में महान नौका में मुनीन्द्र को बिठाकर स्थित हुए थे । इसके अनन्तर शिव को सान्त्वना देने के लिए भगवान जनार्दन वहाँ पर गये थे जहाँ पर उन्होंने पौत्रियों के साथ युद्ध किया था ।

अति पौत्र पहनों से वराही के साथ भ्रान्त, निष्पीडित, प्याप्त ( खुले ) मुख से संयुत तथा श्वासों को लेते हुए हरि को देखकर समागत हुए थे वाराह ने पूर्व में होने वाली नृसिंह भगवान की मूर्ति का स्मरण किया था । उनके द्वारा स्मरण किए हुए वाराह ने सखा वाराह के हित में भगवान नृसिंह समागत हुए थे। उस अवसर पर आए हुए उन भगवान नृसिंह का वीक्षण करके उनके कामों को अपने ही तेज में ले लिया था । वाराहों के साथ शरभ ने देखा था कि वह तेज सबके तुल्य विष्णु भगवान के अन्दर प्रवेश कर गया था। तेज से रहित भगवान नृसिंह का ज्ञान प्राप्त करके वाराह ने निःश्वासों के समूह को छोड़ा था अर्थात् वे बहुत कुछ निःश्वास लेने लग गये थे । फिर तो बहुत से वाराह समुद्भूत हो गये थे जिनका बहुत बड़ा आकार था और अद्भुत एवं तीक्ष्ण दाढ़ों वाले थे । वे वाराह शरभगिरीश मायाधारी और भय रहित होते हुए पीड़ित करने वाले थे। उस समय में भी नृसिंह भगवान के साथ युद्ध किया था और बहुत अधिक गिरीश का मर्दन किया था । एक क्षण में तो पक्षियों के समान स्वरूप वाले थे और क्षण में गौऐं, तुरंग और मनुष्य हो जाते थे । एक ही क्षण में नृसिंह वाराह के रूप वाले थे और वे किसी क्षण में गोमायु ( शृंगाल) और वैकृतिक अर्थात् बिगड़े हुए हो जाते थे । उस युद्ध में वाराहों में अनेक भाँति के महाभयंकर स्वरूप वितन्यमान किए थे ।

उस अवसर पर भर्ग को उनके द्वारा निपीड़ित देखकर उन गिरिश के समीप में भगवान् माधव आ गये थे । भगवान विष्णु ने अपने कर कमल से गिरीश का स्पर्श किया था और फिर उसने अपना तेज पुनः उनमें निर्धारित कर दिया। इसके अनन्तर प्रभाविष्णु भगवान विष्णु के कर से स्पर्श होते हुए ही वह अत्यधिक प्रसन्न हृष्ट और बलवान हो गये थे। इसके अनन्तर शरभ में बहुत ऊँचा, बलवान और दृढ़नाद (गर्जन की ध्वनि ) किया था जिससे ये चौदह भुवन भर गए थे अर्थात् चौदह भुवनों में फैलकर पहुँच गया था। इस रीति से नाद करने वाले उसके मुख से जो भी सीकर अर्थात् जल के कण निकले थे उनसे महान शरीरों से धारण करने वाले तथा विशाल ओज से समन्वित समुत्पन्न हो गये । जिस प्रकार से वाराह के निःश्वास से नाना रूपों को धारण करने वाले गुण हुए थे। ये वैसे ही वाराह थे प्रत्युत उनसे भी अधिक बलवान थे । श्वान, वाराह, उष्ट्र के रूप वाले, प्लव, गोमायु और गौ के मुख से संयुत, रीछ, मातंग, मार्जार और शिशुमार के स्वरूप वाले कुछ सिंह और व्याघ्र के मुख वाले और कुछ सर्प और भूकक के समान मुख वाले थे, हंस की सी ग्रीवा से युक्त हय के समान वाले तथा दूसरे महिष के समान आकृति वाले थे।

दूसरे मनुष्य के समान आकार वाले थे और फिर मृग तथा मेघ के सदृश मुख से समन्वित थे । कुछ केवल कबन्ध ही थे जिनके मुख नहीं थे । कुछ बिना हाथों वाले और कुछ बहुत हाथों से युक्त थे। उनके कुछ शरभ के सदृश आकारवाले थे और दूसरे कृकलास के जैसे मुख से संयुत थे । कुछ मत्स्य के सदृश मुख से युक्त थे और कुछ ग्राह के से मुख वाले थे, कुछ बहुत छोटे, कुछ बहुत बड़े बल वाले तथा कुछ कृश थे । कुछ ऐसे थे जिनके चार पैर थे, कुछ आठ पैरों से युक्त कुछ तीन एवं दो पैरों वाले थे। कुछ एक ही पैर वाले थे और कुछ बहुत अधिक हाथों से संयुक्त थे । कुछ यक्ष तथा किंपुरुषों के समान थे। कुछ पशुओं के समान आकार वाले थे तो कुछ पंखों से संयुत थे । कुछ लम्बे उदर वाले थे तो कुछ महान उदर से संयुक्त थे । कुछ ऐसे थे जिनके उदर दीर्घ थे तथा स्थूल केशों से समन्वित एवं कुछ बहुत कानों वाले तथा कुछ बिना ही कानों वाले थे । कुछ उनमें ऐसे थे जिनके स्थूल अधर थे तो कुछ दीर्घ दाँतों से समन्वित थे और दूसरे बड़ी लम्बीदाढ़ी मूँदों वाले थे। हे विप्रो ! सभी ओर चौदह भुवनों में जो प्राणधारी थे 'उनके रूप की समानता को प्राप्त हुए थे । इस भुवन में कोई भी जन्तु अथवा स्थावर या जंगम नहीं था जिनके समान रूप से भगवान् शंकर के गण उत्पन्न न हुए हों। वे सब भिन्दिपाल, खग, परिघ और तोमरों से समन्वित थे ।

शकुल, आस और गदाओं से, पाशों से खट्वांग से, त्रिशूलों से, कपालों से, शक्तियों से, दोत्रों से, क्षुणियों से, ईषाग्रों से, यष्टियों से, त्रिकण्टकों से, पाशों से, परशुओं से, बाणों से और कोणदण्डों से महान भीषण थे। सभी महान बल वाले और जटा और चन्द्रकाल से युक्त थे । कुछ मार्ग के रूप से, वाहन से और भूषणों तुल्य जटा, अर्धचन्द्र और शुभ्रांशु और शुभ्रशीर्ष वाले महा बलवान थे । उनमें कुछ अर्धनारीश्वर थे और कुछ ऐसे ही थे जैसे रुद्रदेव ही होंवे । कुछ तो अपने सुन्दर रूप से तथा मोहने वाले स्वरूम से कामदेव के तुल्य थे जो वनिताओं के समुदाय के साथ रति करने में समुत्सुक थे। सभी आकाश में चरण करने वाले थे और सभी स्वतन्त्रता से गमन करने वाले थे । उनमें कुछ नीलकमल के सदृश श्याम वर्ण वाले थे तो कुछ शुक्ल और लोहित थे । कुछ रक्त, पीत तथा विचित्र वर्ण से संयुत और दूसरे हरि एवं कपिल थे । कुछ आधे पीत, आधे रक्त, आधे भाग में नील और दूसरे धवल थे ।

कुछ कृष्ण और पीत वर्ण से युक्त थे तथा कपितय अर्द्धकृष्ण और शुक्ल वर्ण से रञ्जित थे । एक ही वर्ण वाले, कतिपय दो वर्णों से संयुत तथा दूसरे तीन वर्णों से समन्वित थे । कुछ चार पाँच और छः वर्णों से युक्त थे और हे द्विजो ! कुछ दश गुणों वाले थे। सभी गज वादन करने वाले थे जिनमें कुछ डिण्डिम, पट्टह, शंख, भेरी, आनक, सकहल, गोमुख, मण्डूक, झर्झर, झर्झरी, समर्दल, वीणा, तन्त्री, पञ्चतन्त्री, शकर और दर्दर, कुण्ड, सतालकर तलिकाओं को वादन करते हुए सभी गण बार-बार हँसने वाले थे । वे सब वाराह की ओर मुख वाले होते हुए स्थित हो गये थे । उन सबसे वृषभध्वज भगवान शरभ ने कहा । इन वाराह के गणों का विहनन कर दो। ये निश्चय ही अपने क्रूर कर्मों द्वारा, क्रूर दृष्टि से, क्रूर युद्धों के द्वारा क्रूर होकर महान बल वाले थे । इसके अनन्तर वे सब गण अनेक आकार वाले और नाना श्रेष्ठ आयुधों से समन्वित थे । उन क्रूर दिखलाई देने वालों ने वाराह के गणों के साथ युद्ध किया था ।

ये सभी आकाश में सञ्चरण करने वाले थे उन्होंने जल से पूर्ण तीनों जगतों का परित्याग करके दोनों पक्ष के गण आकाश में ही युद्ध कर रहे थे । इसके पश्चात भगवान हर के प्रमथों ने वाराह के गणों को एक क्षण में महान वायु जिस तरह से मेघों को हटा देता है और विनष्ट कर दिया करता है वैसे ही महान बल के रखने वाले सभी वाराह के गणों को मार दिया था । उस सब वाराह के वीर गणों के निहित हो जाने पर वराह ने चिन्तन किया था कि वह क्या पहले और पीछे ऐसा वृत्त उपस्थित हुआ है । उसके उपरान्त चिन्तन करते हुए उसके हृदय में भगवान जनार्दन ने गमन करके वह सभी कुछ वाराह वपु हित को विज्ञापित कर दिया था । इसके अनन्तर उस समय में देह का परित्याग करने के लिए महान बलशाली ने नरसिंह को दाढ़ों के अग्रभाग के घातों से विभक्त कर दिया था । शरभ भगवान भर्ग ने मध्य में दो भागों में कर दिया था । नरसिंह के दो भागों में विभक्त होने पर उसके नर भाग से नर ही समुत्पन्न हुआ था जो दिव्य रूपशाली महान ऋषि था । उसके पाँच मुखों के भाग से नारायण श्रुत हुआ था ।

वह महान तेज वाले महामुनि जनार्दन हो गये थे । नर और नारायण दोनों महती मति वाले इस दृष्टि के हेतु हो गये थे । उन दोनों का प्रभाव बहुत ही दुर्धर्ष था और शास्त्र में, वेद में और तपों में सब उनका प्रभाव सहन करने के योग्य नहीं था । मत्स्य मूर्ति रक्षक के स्वरूप वाली नौका उन दोनों को निर्धारित किया था और फिर वाराह हरि देव शरभ के समीप में प्राप्त हुए । मुझे समस्त जगतों के हित के सम्पादन करने के लिए वपु का त्याग अवश्य ही करना चाहिए। यह पूर्व में मैंने प्रतिज्ञा की थी उसी के लिए यह समुद्यम किया जा रहा है । वह समुद्यम भगवान हरि के द्वारा, शम्भु के द्वारा और ब्रह्म के द्वारा किया जा रहा है। ऐसा भली-भाँति चिन्तन करके उस समय में परमेश्वर शूकर के शरभ महान बलवान देव महादेव से कहा था- हे महादेव! आप मुझे परित्याग कर दो। मैं बिना किसी संशय के इस शरीर का त्याग करूँगा । यह मेरे शरीर का ज्ञात समस्त जगतों के और देवों के तथा ऋत्विजों के हित के सम्पादन करने के ही लिए हैं । देह के प्रतीकों के समूहों से यज्ञ का यूप प्रकल्पित करके, हे महाभागे ! पृथक-पृथक शामित्र के सहित स्रुवा आदि की कल्पना की है ।

इसके अनन्तर तीन पुत्रों के द्वारा वे उनका जगतों के हित के लिए निबंध करें। इस जगत से परिपूर्ण को सुवृत्त, घोर और कनक से रक्षा करो। यज्ञ से देव और प्रजा, यज्ञ से अन्य नियोगी यह सभी कुछ यज्ञ से ही सदा होने वाला है। यह सब जगत यज्ञों से परिपूर्ण है । मालिनी पृथ्वी पुनः जिससे इस गर्भ को धारण किया था वह देवी स्वयं उस समुत्पन्न पुत्र का भली-भाँति रक्षण करेगी। जिस समय में काल प्राप्त होता है उसी समय में देवी आयुष्मान बोलती है । उसके वध के विषय में जब काम से अत्यन्त आर्त्त होती है तभी इसका वध करेगी। जिस समय में भग्न हुई भारती पृथ्वी को नीचे की ओर होगी तभी भृंगी वाराह के रूप से उसी समय मैं उसका उद्धार करूँगा । तब आपका पुत्र अपने शरीर को कृतकृत्य अर्थात् सफल समझकर उसका त्याग कर देगा । इस प्रकार से यज्ञ वाराह के कहे जाने पर जो कि बलवान थे एक महान तेज जो ज्वालाओं की महामालाओं से दीप्त था, महाकाल था वह तेज करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान था और महान अद्भुत था। वह उस समय में वाराह के शरीर से निकलकर भगवान हरि के शरीर में प्रवेश कर गया था । हे द्विजो ! उन भगवान विष्णु में वाराह के तेज से प्रविष्ट होने पर फिर भगवान हरि ने सुवृत्त, कनक और घोर से तेज से प्रविष्ट होने पर फिर भगवान हरि ने सुवृत्त, कनक और घोर से तेज को स्वयं ही आदान कर लिया था। उनके शरीर में भी तेज का भाग अलग-अलग निकलकर ज्वालाओं की माला से अत्यधिक दीप्त हो गया । वह भगवान हरि के शरीर में प्रवेश कर गया था जैसे उनका पिता को ठीक वैसे ही प्रविष्ट हो गया था । इसके अनन्तर भगवान हरि, ब्रह्मा और महादेव वराह के उस वचन की प्रतिज्ञा करके और बार-बार 'ओम' यह कहा था । 'ओम्' यह स्वीकृति के लिए प्रयुक्त होता है । उनके शरीर के परित्याग करने में उत्तम यत्न किया था । उसके उपरान्त शरभ के तुण्ड के प्रहारों से कुछ के मध्य में वाराह से शरीर का भेदन करके उसे जल में गिरा दिया था। उसका प्रथम पतन करके उसी भाँति सुवृत्त, कनक और घोर को कण्ठ भाग में भेदन कर-करके हनन कर दिया था ।

प्राणों के परित्याग कर देने वाले वे सब महार्णव के जल में गिर गये थे । जल में पात करने के अवसर में घोर ध्वनि का विस्तार करते हुए कालानल के समय कान्ति वाले हो गये थे । वाराहों के पतित हो जाने पर ब्रह्मा, विष्णु तथा हर फिर समागत होकर सृष्टि की रचना करने के लिए चिन्तन करने लगे थे। उस अवसर पर हर के समस्त गण भर्ग के समीप में समागत हो गये थे । वे महाभाग चार भागों में विभाजित होकर उपस्थित हुए थे । हे द्विज सत्तमों! वे प्रथम छत्तीस सहस्त्र थे । वहाँ पर एक भाग में सोलह सहस्त्र संस्थित हुए थे । जो निश्चित रूप से अनेक स्वरूपों के धारण करने वाले थे । वे जटा जूटों में चन्द्रमा के अर्धभाग के द्वारा विभूषित थे । वे सभी सम्पूर्ण ऐश्वर्य से समन्वित थे और ध्यान में तत्पर हो रहे थे । वे सब योगी थे तथा पद, मात्सर्य, दम्भ और अहंकार से रहित थे । उनके समस्त पाप क्षीण हो गये थे और महान भाग वाले भगवान शम्भू के अत्यधिक प्रीति के करने वाले थे । उन्होंने परिग्रह रोग की कभी भी आकांक्षा नहीं की थी। वे सभी संसार से विमुख थे और योग से तत्पर योगी थे ।

ध्यान की अवस्था में विराजमान् इन भगवान् महादेव को परिवारित करके धृत व्रत थे । वे रुचि से एक परिषद का निर्माण करके क्लम से रहित होते हुए स्थित थे । जिस समय में ही अम्बिका देवी के स्वामी परमज्योति का चिन्तन किया करते हैं उसी समय में वे समस्त उनको वेष्टित कर लिया करते हैं। जो यति व्रत वाले थे वे सोलह करोड़ कहे गऐ हैं। वे सब सिंह और व्याघ्र आदि के समान रूप वाले और अणिमा आदि सिद्धियों के द्वारा संयुत थे। अन्य कामुक शम्भु के सचिव अर्थात् प्रणय विधान के मन्त्री थे । भगवान् हर के ही समान रूप से वे वृषभध्वज विशद हो रहे थे तथा वे उमादेवी के तुल्य सुन्दर स्वरूप वाले प्रमदाओं से समागत थी । विचित्र माल्यों के आवरणों से युक्त थीं तथा हिमस्त्र की गन्ध से मण्डित थीं । उमा देवी की सहायता से संयुत और क्रीड़ा करते हुए भगवान शम्भु के पीछे भूषित होती हुई अनुगमन कर रही थीं। शृंगार और वेष के आभरण वाले वे आठ करोड़ गण थे । उनमें अन्य अर्ध नारीश्वर थे जो हर के समीप थे ।

भगवान शंकर ने ही सदृश रूप वाले ध्यान में संस्थित में प्रवेश कर गये थे जिस समय में उमादेवी के साथ भगवान हर सुख के सहित रमण किया करते थे। वे द्वारपाल भी अर्ध नारीश्वर हैं जो नित्य ही आकाश के मार्ग के द्वारा गमन करते हुए उनके पीछे ही अनुगमन किया करते हैं । ध्यान में संस्थित करने वाले ईश्वर का सलिल आदि के द्वारा परिचर्या किया करते हैं । अनेक शास्त्रों के धारण करने वाले शम्भु भगवान के वे गण प्रमथ किया करते हैं। वह महान बलवान शूर संख्या में नौ करोड़ थे। दूसरे गायन करने वाले थे जो ताल मृदंग आदि के द्वारा वादन किया करते हैं तथा नृत्य करते हैं और मधुर स्वर में गाते हैं । वे अनेक रूपों के धारण करने वाले वे संख्या में तीन करोड़ थे । वे निरन्तर विचरण करने वाले महेश्वर भगवान के पीछे गमन किया करते हैं । वे सभी मायावी, शूर थे और सब शास्त्रों के अर्थ के पारगामी ज्ञाता थे । सब जगह सभी कुछ के ज्ञान रखने वाले और सभी सर्वत्र सदा गमन करने वाले थे ।

वे सब मूहूर्त मात्र में सम्पूर्ण भुवन में जाकर फिर गति के द्वारा पुनः भव को प्राप्त हो जाया करते थे । वे सब महान बल से युक्त थे तथा अणिमा महिमा आदि आठों प्रकार के ऐश्वर्यों से समन्वित थे । दूसरे रुद्र नामों वाले जरा और अर्धचन्द्र से मण्डित थे । वे देवेन्द्र के आदेश से सदा ही स्वर्ग में रहा करते हैं। उनकी संख्या एक करोड़ थी और वे सब विशेष बलवान थे। वे सदा ही हर के गण भगवान शम्भू की सेवा किया करते हैं तथा जो धर्मिष्ठ हैं अर्थात धर्म का समादर करने वाले हैं उनका पालन किया करते हैं। जो पाशुपत व्रत के धारण करने वाले हैं उनके ऊपर निरन्तर अनुग्रह किया करते हैं । जो प्रयत आत्माओं वाले योगीजन हैं उनके विघ्नों का निरन्तर हनन किया करते हैं। ये भगवान हर के गण जो कि समस्त संख्या में छत्तीस करोड़ थे । ये गण वाराह के गणों के नाश करने के लिए तथा समस्त जगतों के हित सम्पादन करने के लिए और भगवान शंकर की सेवा के लिए समुत्पन्न हुए थे । वाराह के गणों को देखकर तथा नसिंह हरि को अवलोकित करके स्वयं शरभ के स्वरूप वाला होता हुआ और ध्यान करते हुए उस समय में नाद किया था ।

उनके सीकरों से (जल कणों से) जो उत्पन्न हुए थे इसी कारण से उनके स्वरूप भी बहुत थे। क्रूर दृष्टि से, क्रूर गति से, क्रूर युद्धों से, क्रूर कृत्यों से वाराह के इन गणों का हनन करने वाले थे क्योंकि भगवान कपर्दी (शिव) ने कहा है । अतएव वे क्रूर कर्मों के करने वाले और भयंकर समुत्पन्न हुए थे । वे महान ओज वाले सदा क्रूर हैं।वे कर्मों को नहीं किया करते हैं। दृष्टिमात्र से ही वे क्रूर हैं वे कार्यों से क्रूर नहीं थे । वे फल, पुष्प, जल, पाक तथा मूल को भोग करते हैं। वनों पर्वतों की शिखरों में फलादि जो निवेदित किये जाते हैं उनका ग्रहण करते हैं और आहरण करने के जो पत्र पुष्पादिक हैं उनका प्राशन किया करते हैं। भर्ग का जो भोग होता है उसी भोग वाले वे महान ओज वाले भी थे। चैत्र की चतुर्दशी को छोड़कर वे आमिषों का प्राशन नहीं किया करते हैं। फिर सब गण भी वहाँ पर आमिषों का उपभोग किया करते हैं ।

वाराह के गणों के निहत हो जाने पर वे गण मार्ग के समीप में पहुँचकर स्वयं चारों भागों वाले होकर भूतकर्म का गान करते थे । चार भाग वाले में उनका भूतत्व उस समय में हो गया था। जो पूर्व में लोक और वेद में विदित भूतग्राम चार प्रकार का था क्योंकि यह उनसे भी अधिक था। अतएव वह भूतग्राम कहा जाया करता है । यह सब आपको बतला दिया है जिस तरह से शम्भु के गणभूत हैं । वे जो भी आहार वाले हैं, जैसे आकार वाले हैं और जो कृत्य करने वाले हैं वे महान ओज से युक्त हैं। जो इस महान अद्भुत आख्यान का नित्य श्रवण किया करता है वह दीर्घ आयु वाला, सदा उत्साह से सम्पन्न और योग से युक्त होता है ।

श्रीकालिकापुराण में शरभवाराहयुद्ध नामक तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 31

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