कालिका पुराण अध्याय २८

कालिका पुराण अध्याय २८  

कालिका पुराण अध्याय २८ में जगत की असारता का वर्णन किया गया है ।

कालिका पुराण अध्याय २८

कालिकापुराणम् अष्टाविंशोऽध्यायः सारासारनिरूपणम्

कालिका पुराण अध्याय २८          

Kalika puran chapter 28

कालिकापुराण अट्ठाईसवाँ अध्याय- सारासारनिरूपण

अथ कालिका पुराण अध्याय २८       

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

जगत् सर्वं तु निःसारमनित्यं दुःखभाजनम् ।

उत्पद्यते क्षणादेतत् क्षणादेतद्विपद्यते । । १ ॥

मार्कण्डेय बोले- यह सम्पूर्ण जगत तत्त्वहीन, अनित्य तथा दुःखपूर्ण है। यह क्षण भर में ही उत्पन्न होता है और एक ही क्षण में नष्ट भी हो जाता है ॥ १ ॥

तथैवोत्पद्यते सारान्निःसारं जगदञ्जसा ।

पुनस्तस्मिन् विलीयन्ते महाप्रलयसङ्गमे ॥२॥

यह सारहीन जगत् जिस प्रकार सार (परम) तत्त्व से शीघ्रतापूर्वक उत्पन्न होता है वैसे ही महा प्रलयकाल में पुनः उसी में विलीन हो जाता है ॥ २ ॥

उत्पत्तिप्रलयाभ्यां तु जगन्निःसारतां हरिः ।

शम्भवे दर्शयामास भावेन जगतां पतिः ॥३॥

संसार के स्वामी भगवान् विष्णु ने शिव को भाव जगत में ही उत्पत्ति और प्रलय के माध्यम से संसार की असारता दिखायी ।। ३ ।।

एकं शिवं शान्तमनन्तमच्युतं परात्परं ज्ञानमयं विशेषम् ।

अद्वैतमव्यक्तमचिन्त्यरूपं सारं त्वेकं नास्ति सारं तदन्यत् ।।४।।

एकमात्र शिव ही शान्त, अन्तहीन, अच्युत, पर से भी पर, ज्ञानमय, विशेष, अद्वैत (भेदरहित), अव्यक्त, अचिन्त्यरूप, एवं सार तत्त्व हैं। उनसे भिन्न अन्य कोई सार तत्त्व नहीं है ॥ ४ ॥

यस्मादेतज्जायते विश्वमग्र्यं यस्माल्लीनं स्यात्तु पश्चात् स्थितञ्च ।

आकाशवन्मेघजालस्य वृत्त्या यद्विश्वं वै ध्रियते तत्त्वसारम् ।।५।।

सर्वप्रथम यह विश्व जिससे उत्पन्न होता है और स्थित होता है तथा अन्त में जिसमें लीन होता है । मेघसमूह को आकाश जिस प्रकार धारण करता है, उसी प्रकार जो विश्व को धारण करता है, वही सारतत्त्व है ॥ ५ ॥

अष्टाङ्गयोर्गैर्यदवाप्तुमिच्छन् योगी पुनात्यात्मरूपं सदैव ।

निवर्तते प्राप्य यं नेह लोके तद्वै सारं सारमन्यन्न चास्ति ॥६॥

योगीवृन्द यमनियमादि अष्टाङ्ग योग द्वारा जिसके प्राप्ति की इच्छा रखते हुए सदैव अपने को पवित्र करते हैं तथा जिसको एक बार प्राप्त करके पुनः इस लोक, संसार में नहीं लौटते, वही सारतत्त्व है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरा सार तत्त्व नहीं है ॥ ६ ॥

सारो द्वितीयो धर्मस्तु यो नित्यप्राप्तये भवेत् ।

यो वै निवर्तको नाम तत्रासारः प्रवर्तकः ॥७॥

दूसरा सार धर्म है जो पूर्व वर्णित नित्य परमसार प्राप्ति का साधन है। जो निवृत्ति (बन्धन से मुक्ति) दिलाने वाला है, वही असार तत्त्व प्रवृत्ति के बन्धन में डालने वाला है ।। ७ ।।

धर्मं शनैः सञ्चिनुयाद्वल्मीको मृत्तिकां यथा ।

सहायार्थं परे लोके पूर्वपापविमुक्तये ॥८॥

जिस प्रकार वल्मीकि (बाँबी) में रहने वाली दीमक धीरे-धीरे मिट्टी का संग्रह करती है, उसी प्रकार धीरे-धीरे परलोक में सहायता हेतु तथा पूर्व के पापों से छुटकारा पाने के लिये धर्म का सञ्चय करना चाहिये ॥ ८ ॥

एको धर्मः परं श्रेयः सर्वसंसारकर्मसु ।

इतरे तु त्रयो धर्माज्जायन्तेऽर्थादयोऽपरे ।। ९ ।।

संसार के सभी कर्मों में एकमात्र धर्म, परम कल्याणकर हैअर्थ, काम, मोक्षादि तीन अन्य धर्म से ही उत्पन्न होते हैं ।। ९ ॥

वरं प्राणपरित्यागः शिरसो वाथ कर्तनम् ।

न तु धर्मपरित्यागो लोके वेदे च गर्हितः ।। १० ।।

प्राण का परित्याग कर देना अथवा शिर को कटवा देना उत्तम है, किन्तु धर्म का परित्याग उचित नहीं है। यह लोक और वेद दोनों में ही निन्दित है ॥ १० ॥

धर्मेण ध्रियते लोको धर्मेण ध्रियते जगत् ।

धर्मेणैव सुराः सर्वे सुरत्वमगमन् पुरा ।। ११ ।।

धर्म से लोक को धारण किया जाता है तथा धर्म से ही संसार को धारण किया जाता है । प्राचीनकाल में देवताओं ने धर्म के द्वारा ही देवत्व को प्राप्त किया है ।। ११ ।

धर्मश्चतुस्पाद्भगवान् जगत् पालयतेऽनिशम् ।

स एव मूलं पुरुषो धर्म इत्यभिधीयते ।। १२ ।।

भगवान धर्म स्वयं अपने सत्य, तप, दया, और दान इन चारों चरणों से युक्त हो निरन्तर जगत का पालन करते हैं। वस्तुतः वह मूल पुरुष परमात्मा ही धर्म कहा जाता है ॥ १२ ॥

सर्वं क्षरति लोकेऽस्मिन् धर्मो नैव च्युतो भवेत् ।

धर्माद् यो न विचलति स एवाक्षर उच्यते ।। १३ ।।

इस लोक में सब कुछ नष्ट होता किन्तु धर्म कभी विचलित नहीं होता। जो धर्म से विचलित नहीं होता है वही अक्षर कहा जाता है ॥ १३ ॥

एतद्वः कथितं सारं निःसारं सकलं जगत् ।

यथा स्वयं ददर्शासौ शम्भुर्ज्ञानेन स्वेऽन्तरे ।।१४।।

यह मैंने आप लोगों से वह सारतत्त्व बताया तथा सारहीन समस्त जगत् का वर्णन किया, जिसे स्वयं भगवान् शिव ने अपने अन्तर में ही ज्ञान के द्वारा देखा था ॥ १४ ॥

एतद्वै दर्शयामास स विष्णुर्जगतां पतिः ।

स्वयं जग्राह मनसा ध्यानेनात्मनि शङ्करः ।। १५ ।।

इस प्रकार का संसार के स्वामी विष्णु ने दिखाया तथा शंकर ने अपने में मानसिक ध्यान द्वारा उसे स्वयं ग्रहण किया ।। १५ ।।

सारं तत्त्वं परमं निष्कलं यन्मूर्त्याहीनं मूर्तिमान् धर्म एषः ।

सारोऽन्त्योऽसौ सारहीनं तदन्यज्-ज्ञात्वैवेत्थं याति नित्यं महाधीः ।।१६।।

जो सारतत्त्व अपने मूर्तिहीन रूप में परम और सम्पूर्ण है, किन्तु मूर्तरूप में यही धर्म ही सार है । इससे भिन्न जो कुछ है वह सारहीन है, जिसे जानकर महान बुद्धि वाले ज्ञानीजन नित्य तत्त्व को प्राप्त करते हैं ।। १६ ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सारासारनिरूपणं नाम अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

कालिका पुराण अध्याय २८- संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- यह सम्पूर्ण जगत् सारहीन है, अनित्य है और महान दुःखों का पात्र अर्थात् आधार है। यह एक ही क्षण में तो उत्पन्न होता है और एक ही क्षण में विपन्नता को प्राप्त हो जाया करता है । यह निस्सार जगत शीघ्र ही उस भाँति सार से उत्पन्न होता है और फिर महाप्रलय के संगम में उसमें विलीन हो जाया करते हैं। भगवान हरि ने उत्पत्ति और प्रलयों से जगत की निःसारता शम्भु के लिए भाव से जगतों के पति ने दिखलाई थी। एक शिव, शान्त, अनन्त, अच्युत, पर से भी पर, ज्ञान से परिपूर्ण, विशेष अद्वैत, अव्यक्त और अचिन्त्य रूप ही सार है उससे अन्य सार नहीं है । जिससे यह उत्तम जगत् अर्थात् विश्व उत्पन्न होता है जिससे महास्थिति को प्राप्त होता है और पीछे लीन हुआ करता है । मेघों के जल को आकाश की ही भाँति वृत्ति से जो इस विश्व को धारण किया जाता है वह तत्व सार है । योगी के द्वारा योगी जिसकी प्राप्ति के लिए इच्छा करता हुआ सदा ही आत्मरूप को पवित्र किया करता है और जिसको प्राप्त करके वह निवृत्त हो जाया करता है । इस लोक में निश्चय ही अन्य कुछ सार नहीं हैं।

द्वितीय सार धर्म है जो नित्य ही प्राप्ति के लिए होता है। जो निवर्त्तक नाम है वहाँ पर असार प्रवर्त्तक हैं। धर्म का धीरे-धीरे संचय करना चाहिए जिस प्रकार से वाल्मीक मिट्टी का संचय किया करता । इस धर्म का संचय परलोक से सहायता के लिए और पूर्व में किए गये पापों की विमुक्ति के लिए होता है। संसार के समस्त कर्मों में एक धर्म ही परमश्रेय होता है और दूसरे तीनों अर्थात् अर्थ, काम और मोक्ष धर्म से ही समुत्पन्न हुआ करते हैं । तात्पर्य यही है कि धर्म ही सबसे अधिक एवं प्रमुख होता है। प्राणों का त्यागकर देना श्रेष्ठ है तथा शिर का काट देना ही अच्छा है किन्तु धर्म का परित्याग करना उचित नहीं है। ऐसा करना लोक और वेद में बुरा होता है । धर्म से ही लोक को धारण किया जाता है और धर्म से जगत् को धारण किया जाता है। धर्म के द्वारा ही सब सुरगण पहले सुरत्व को प्राप्त हुए थे । चार चरणों वाला भगवत् धर्म निरन्तर इस जगत का पालन किया करता है वह ही पुरुष मूल है जो धर्मइस नाम से कहा जाता है ।

इस लोक में सभी कुछ क्षरित हो जाया करता है किन्तु धर्म कभी भी च्युत नहीं हुआ करता है । जो पुरुष धर्म से कभी विचलित नहीं होता है वही अक्षरयह कहा जाता है । यह ही हमने आपको सार बतला दिया है और यह सम्पूर्ण जगत सार से रहित है । जिस प्रकार से भगवान शम्भू ने अपने अन्तर में ज्ञान से देखा था । जगतों के पति भगवान विष्णु ने यहीं दिखलाया था और शंकर ने स्वयं ही ध्यान के द्वारा मन से आत्मा को ग्रहण किया था। जो सार तत्व, परम, निष्फल है और मूर्ति से हीन हैं वही यह मूर्तिमान धर्म है । यह अन्यसार है, सार है और इसके अतिरिक्त अन्य सब सारहीन है। इसी प्रकार से इसका ज्ञान प्राप्त करके महा बुद्धिमान नित्य ही गमन किया करते हैं ।

॥ श्रीकालिकापुराण में सारासारनिरूपण नामक अट्ठाइसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। २८ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 2

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