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कर्मकाण्ड

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गरुड़ध्वज स्तवन

गरुड़ध्वज स्तवन

भगवान नारायण को प्रसन्न करने के लिए सब देवों ने जिस गरुड़ध्वज स्तवन को किया था। इसका नित्य पाठ करने से सभी बाधाओं से रक्षा होता है ।

गरुड़ध्वज स्तवन

गरुड़ध्वज स्तवन

Garuddhvaj stavan

देवा ऊचुः॥

नमस्ते देवदेवेश जगत्कारण कारण ॥

कालस्वरूपिन् भगवन् प्रधान पुरुषात्मक ॥४॥

देवों ने कहा- हे देवेश्वर! हे देव ! हे जगत के कारण को करने वाले! हे काल के रूप वाले! हे प्रधान और पुरुष के स्वरूप वाले! हे भगवान! आपकी सेवा में हमारा सबका प्रणिपात समर्पित है ।

स्थूल सूक्ष्म जगद्व्यापिन् परेश पुरुषोत्तम ॥

त्वं कर्ता सर्व्वभूतानां त्वं पाता त्वव्विँनाशकृत् ॥ ५॥

हे स्थूल और सूक्ष्म ! जगत व्याप्त रहने वाले ! हे परेश! हे पुरुषोत्तम! आप ही समस्त प्राणियों के कर्ता हैं अर्थात सबका सृजन आप ही के द्वारा हुआ करता है और वही सबका पालन करने वाले रक्षक हैं तथा आप ही सबका विनाश करने वाले हैं ।

त्वं हि मायास्वरूपेण सम्मोहयसि वै जगत् ॥

यद्भूतय्यँच्चवै भाव्यय्यदिदानीम्प्रवर्तते ॥ ६ ॥

आप अपनी माया के स्वरूप के द्वारा इस जगत को सम्मोहित किया करते हैं। जो भी कुछ हो गया है, जो इस समय में हो रहा है और जो भविष्य में होनेवाला है ।

तत्सर्व्वम्परमेश त्वं स्थावरजङ्गमन्तथा॥

अर्थार्थिना त्वमर्थ स्तुकामः कामार्थिनान्तथा ॥ ७॥

हे परमेश! वह सब स्थावर हो या जंगम हो आप ही हैं । आप अर्थ के अर्थियों के अर्थ हैं तथा आप जो काम के इच्छुक हैं उनके काम हैं ।

त्वं हि धर्म्मार्थिना धर्मोमोक्षो निर्वाणमिच्छताम् ॥

त्वङ्कामुकस्त्व मेवार्थो धार्म्मिकस्त्वं सदागतिः ॥८॥

आप धर्म के चाहने वालों के लिए धर्म हैं और जो निर्वाण पद के चाहने वाले हैं आप ही मोक्ष हैं, आप कामुक हैं, आप ही अर्थ हैं और आप ही सदा गति धार्मिक हैं ।

त्वद्वकाद्ब्राह्मणा जाता बाहुजाः क्षत्रियास्तव ॥

ऊर्वेवैश्यास्तथा शूद्राः पादाभ्यान्तवनिर्गताः ॥९ ॥

आपके मुख से ब्राह्मण समुत्पन्न हुए हैं और आपकी बाहुओं से क्षत्रियों ने जन्म ग्रहण किया था, आपके उरुओं से वैश्यों की उत्पत्ति हुई है तथा आपके चरणों से शूद्र निकले हैं अर्थात् आप ही के भिन्न-भिन्न अंगों से चारों वर्णों का समुत्पादन हुआ है ।

सूर्य्योनेत्रात्तव विभोमनोजश्चन्द्रमास्तव ॥

श्रवणात्पवनो जातो दशप्राणास्तथापरे ॥ १० ॥

हे विभो ! सूर्यदेव आपके नेत्रों से समुत्पन्न हुए हैं तथा चन्द्रमा आपके मन से जायमान हुआ है। आपके काम से वायु की उत्पत्ति हुई है तथा दूसरे दश प्राण भी आप ही से हुए हैं। वायु के प्राण अपान आदि दश स्वरूप होते हैं ।

उध्द्वै स्वर्गादिभुवन तवशीर्षादजायत ॥

तवनाभेस्तथाकाश क्षितिः पादतलादभूत् ॥ ११ ॥

ऊपर की ओर जो स्वर्ग आदि भुवन हैं। सब आपके मस्तक से ही उत्पन्न हुए हैं । आपकी नाभि से आकाश ने जन्म लिया है तथा आपके पाद तल से पृथ्वी समुद्भव हुई है ।

कर्णाभ्यान्ते दिशो जाता जठरात्सकलञ्जगत् ॥

त्वं हि मायास्वरूपेण सम्मोहयसि वै जगत् ॥१२॥

आपके कानों से सब दिशायें उत्पन्न हुई हैं आपके जठर (उदर) से यह सम्पूर्ण जगत प्रादुर्भूत हुआ है। आप ही माया के स्वरूप से निश्चय ही जगत को सम्मोहित किया करते हैं ।

निर्गुणो गुणवौस्त्वं हि शुद्ध एकः परात्परः ॥

उत्पत्ति स्थितिहीनस्त्व त्वमच्युतगुणाधिकः ॥ १३ ॥

आप गुणों से रहित होते हुए भी गुणगण से समन्वित हैं आप परम शुद्ध, एक और पर से भी पर हैं । आप उत्पत्ति और स्थिति से रहित हैं और आप अच्युत अर्थात् क्षीण न होने वाले गुणों से अधिक हैं ।

आदित्यैर्व्वसुभिर्देवैः साध्यैर्घ्यक्षैर्म्मरुद्गणैः ॥

त्वञ्चिन्त्यसे जगन्नाथमुनिभिश्च मुमुक्षुभिः ॥ १४ ॥

हे जगत के स्वामिन! आप ही आदित्यों के द्वारा, वसुओं के द्वारा, देवों के, सतियों के, पक्षों के मरुद्गणों के द्वारा मुनियों के द्वारा और मुमुक्षुओं के द्वारा चिन्तन किये जाया करते हैं अर्थात् सभी के चिन्तन करने का विषय केवल आप ही होते हैं ।

त्वावैचिदानन्दमय व्विँदन्ति विशेषविज्ञामुनयोविभोगाः ॥

त्वमेव संसार महीरुहस्य बीज जलंस्थानमथो फलञ्च ॥ १५ ॥

विशेष विज्ञानवाले विगत भोग से संयुत मुनिगण चित्त (ज्ञान) और आनन्द से परिपूर्ण आप को ही समझते अर्थात जानते हैं । आप ही इस संसार रूपी वृक्ष के बीज हैं, जल हैं, स्थान हैं और फल हैं।

त्वम्पद्मया पद्माकरोविभासि वरासिचक्राब्ज धनुर्दरस्त्वम् ॥

त्वमेव तार्क्षे प्रतिभासिनित्यं स्वर्णाचले तोययुतो यथाब्दः ॥ १६ ॥

आप पद्मा से पद्माकर विभात होते हैं। आप वरदान, खड्ग, चक्र, कमल और धनुष के धारण करने वाले हैं। आप ही नित्य तार्क्ष्य प्रतिभाव होते हैं । जिस प्रकार से स्वर्णाचल पर जल से समन्वित शब्द हुआ करता है ।

त्वमेव पीताम्बर शङ्कराब्ज जास्त्व सर्व्वमेतन्न च किञ्चिदन्यत् ॥

न ते गुणानः परिचिन्तनीयाविधेर्हरस्यापिदिशाम्पतीनाम् ॥ १७ ॥

भीतेन भक्त्या शरणम्प्रपन्ना गता वयन्नःपरिरक्ष विष्णो ॥ १८॥

आप ही पीताम्बर शंकर कमल से समुत्पन्न हैं । यह सब आप ही हैं और अन्य कुछ भी नहीं है । आपके गुण गण हमारे द्वारा चिन्तन करने के योग्य नहीं है। विधाता, हर और दिक्पालों के भी गुण चिन्तन करने के योग्य नहीं हैं। भय से और भक्ति से आप आपकी शरणागति से प्राप्त हुए हैं । हे विष्णो! आप हमारी रक्षा करिए ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे गरुड़ध्वजस्तवननाम एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३१ ॥

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