recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

कालिका पुराण अध्याय २९

कालिका पुराण अध्याय २९  

कालिका पुराण अध्याय २९ में वाराह और उसकी संततियों द्वारा उत्पीड़न का वर्णन किया गया है ।

कालिका पुराण अध्याय २९

कालिकापुराणम् एकोनत्रिंशोऽध्यायः वाराहशङ्करसंवादः

कालिका पुराण अध्याय २९           

Kalika puran chapter 29

कालिकापुराण उन्तीसवाँ अध्याय

अथ कालिका पुराण अध्याय २९        

।। ऋषयः ऊचुः ।।

ये सृष्टाः शम्भुना पूर्वं भूतग्रामाश्चतुर्विधाः ।

किमर्थं समुत्पन्नाः कथं वानेकरूपता ।। १ ।।

ऋषिगण बोले- शिव के द्वारा पहले चार प्रकार के जिन भूतों की सृष्टि की गई वे किस हेतु उत्पन्न हुए तथा उनमें अनेकरूपता क्यों थी ? ।। १ ।।

शरीरमर्द्ध वाराहमर्द्ध दन्ताबलं तथा ।

सिंहव्याघ्रशरीराच्च केचित्केचिद्गणाधिपाः ॥२॥

किन्हीं गणों का आधा शरीर शूकर का था तो आधा हाथी का, कोई गणों के स्वामी सिंह के समान शरीर वाले थे तो कोई बाघ के शरीर वाले ॥ २ ॥

कथं ते वा गणाः क्रूराः किं भोगास्ते महौजसः ।

एतत् सर्वं वयं श्रोतुमिच्छामो द्विजसत्तम ।। ३ ।।

हे द्विज श्रेष्ठ ! वे क्रूरगण कैसे थे ? उन महान ओजस्वी गणों का भोग क्या था ? यह सब हम सुनना चाहते हैं ॥ ३ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृण्वन्तु मुनयः सर्वे यथा शम्भुगणाभवन् ।

यदर्थं ते समुत्पन्ना यस्मात्ते नैकरूपिणः ॥४॥

मार्कण्डेय बोले- समस्त मुनिगण! जिस प्रकार शिव के गण उत्पन्न हुए, जिस लिये वे उत्पन्न हुए तथा जिस कारण से उनमें अनेकता आई, उसे सुनिये ॥ ४ ॥

एतद्वः परमं गुह्यमिदं धर्मार्थकामदम् ।

एतद् हि परमं तेजः सततं परमं तपः ॥५॥

यह प्रसंग अत्यन्त गुप्त तथा धर्म, अर्थ और काम जैसे पुरुषार्थों को देने वाला है । यह ज्ञान ही परम तेज है, यही निरन्तर रहने वाला श्रेष्ठ तप है ।। ५ ।।

इदं श्रुत्वा महाख्यानं परत्रेह न सीदति ।

यशस्यं धर्म्यमायुष्यं तुष्टिपुष्टिप्रदं परम् ॥ ६ ॥

परम यश को करने वाले, धर्म तथा आयुष्य, तुष्टि पुष्टि प्रदान करने वाले इस महान आख्यान को सुनकर इसे सुनने वाला इस लोक या परलोक में कहीं भी दुःखी नहीं होता अर्थात् सर्वत्र सुखी होता है ॥ ६ ॥

आदिसर्गेऽथ वाराहे सम्पूर्णे मुनिसत्तमाः ।

शङ्करः प्राह सर्वेशं वाराहं जगतां पतिम् ।।७।।

मुनिसत्तम ! सम्पूर्ण आदिवाराह सर्ग के इस आख्यान को शिव ने संसार के स्वामी, सबके ईश्वर वाराह भगवान से स्वयं कहा था ।। ७ ।।

।। ईश्वर उवाच ।।

यदर्थं भवता रूपं वाराहं कल्पितं विभो ।

तत्ते पूर्णं कृतं पृथ्वी यथावत् स्थापिता त्वया ॥८॥

शिव बोले- हे विप्र ! जिस निमित्त आपके द्वारा वाराह रूप धारण किया गया था वह आपके द्वारा पूर्ण कर दिया गया है। आप द्वारा पृथ्वी ज्यों की त्यों स्थापित हो गई है ॥ ८ ॥

सागराणां च संस्थानं नदीनां च तथा क्षितेः ।

सृष्टिर्ब्रह्मकृता चापि संजाता त्वत्प्रसादतः ।।९।।

आपकी कृपा से पृथ्वी पर समुद्रों और नदियों की संरचना तथा ब्रह्मा द्वारा की गई सृष्टि भी हो गई ॥ ९ ॥

त्वं हि सर्वमयो यज्ञमयस्तेजोमयस्तथा ।

गुरूणामथ सर्वेषां त्वं गुरुस्त्वं परात्परः ।। १० ।।

क्योंकि आप सर्वमय, यज्ञमय, तेजमय तथा सभी गुरुओं के भी गुरु हैं। आप श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ हैं ॥ १० ॥

त्वां वोढुं न क्षमा पृथ्वी विशीर्णेव जगत्पते ।

यन्त्रिता शैलसङ्घातैर्भवता स्थापितैः पुरा ।। ११ ।।

हे जगत के स्वामी ! यह नष्टप्राय पृथ्वी आपको ढोने में समर्थ नहीं थी, इसीलिए प्राचीन काल में आप द्वारा यह पर्वतों के समूह से नियन्त्रित करके स्थापित की गयी ।। ११ ।।

तस्मात्त्वं त्यज वाराहं शरीरं जगतां पतेः ।

जगन्मयं जगद्रूपं जगत्कारणकारणम् ।। १२ ।।

इसलिए हे जगत् के स्वामी ! आप इस वाराह के शरीर को छोड़ दें; क्योंकि आप जगत के कारण के भी कारण हैं, जगत के स्वरूप हैं और जगन्मय हैं ॥ १२ ॥

कस्त्वां चान्यः क्षमो वोढुं वाराहं ते वपुर्विभो ।

विशेषतस्त्वया पृथ्वी सकामा धार्षिता जले ।

स्त्रीधर्मिणी त्वत्तेजोभिः साधाद्गर्भं च दारुणम् ।। १३ ।।

हे विभु ! आपके इस वाराह शरीर को धारण करने में दूसरा कौन समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई नहीं हो सकता। विशेषकर जब तुमने कामभावयुक्त स्त्री धर्म (रजो धर्म) वती पृथ्वी से जल में ही सम्पर्क किया जिससे उसने आपके वीर्य से भयानक गर्भ धारण किया है ।। १३ ।।

रजस्वला क्षमा गर्भं यमाधत्त जगत्पते ।

तस्माद्यस्तनयो भावी सोऽप्यादास्यति दुर्यशः ॥ १४ ॥

एष प्राप्यासुरं भावं देवगन्धर्वहिंसकः ।

भविष्यतीति लोकेशः प्राह मां दक्षसन्निधौ ।। १५ ।।

हे जगत्पति ! रजस्वला अवस्था में पृथ्वी देवी ने जो गर्भ धारण किया है उससे भविष्य में उत्पन्न होने वाला बालक उसे अपयश प्रदान करेगा। वह असुर भाव को प्राप्त करेगा तथा देवताओं और गन्धर्वों की हिंसा करने वाला होगा। ऐसा लोकेश ब्रह्मा ने मुझसे दक्ष प्रजापति के समीप कहा था ।। १४-१५ ।।

मलिनीरतिसंजातं दुष्टन्तेऽनिष्टकारकम् ।

कामुकं त्यज लोकेश वाराहं कायमीदृशम् ।। १६ ।।

हे लोकेश्वर ! इस प्रकार से मलिन अवस्था में रतिकार्य सम्पादित करने के कारण दूषित हुए, अनिष्टकारी भावग्रस्त अपने इस वाराह के शरीर को आप छोड़ दें ॥ १६ ॥

त्वमेव शृष्टिस्थित्यन्तकारको लोकभावनः ।

काले प्राप्ते स्थितिं सृष्टिं संहारं च करिष्यसि ।। १७ ।।

हे लोकों को उत्पन्न करने वाले ! आप ही सृष्टि पालन तथा अन्त के करने वाले हैं। समय आने पर आप पुनः सृष्टि, पालन और संहार का कार्य करेंगे ।। १७ ।।

तस्माल्लोकहितार्थाय त्यक्त्वा कायं महाबल ।

काले प्राप्ते पुनस्त्वन्यं कायं पोत्रं करिष्यसि ।। १८ ।।

इसलिए हे महाबली ! लोक के कल्याण के लिए इस शरीर को छोड़ दें, समय आने पर आप दूसरे वाराह शरीर को पुनः धारण करेंगे ।। १८ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा शङ्करस्य महात्मनः ।

वाराहमूर्तिर्भगवान् महादेवमुवाच ह ।। १९ ।।

मार्कण्डेय बोले- महात्मा शङ्कर की इस वाणी को सुनकर वाराह वेशधारी भगवान ने महादेव से यह वचन कहा- ॥ १९ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

करिष्येऽहं तव वचस्त्वं यथात्थमहेश्वर ।

इमं तु यज्ञवाराहं कायं त्यक्ष्ये न संशयः ।। २० ।।

श्री भगवान् वराह बोले- हे महेश्वर ! मैं तुम्हारे वचन ज्यों का त्यों पालन करूँगा और इस यज्ञवाराह के शरीर को छोड़ दूँगा । इसमें कोई संशय नहीं है ।। २०

काले प्राप्ते पुनस्त्वन्यं कायं वाराहमद्भुतम् ।

करिष्येऽहं दुराधर्षं लोकानां भावनाय वै ।। २१ ।।

समय आने पर मैं अन्य और अद्भुत वाराह शरीर को धारण कर संसार की उत्पत्ति के लिए अत्यन्त कठिन कार्य करूँगा ।। २१ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्त्वा स महाकायस्तत्रैवान्तरधीयत ।

जगत्गुरुर्जगत्स्रष्टा जगद्धाता जगत्पतिः ।। २२ ।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा कहकर महान शरीर वाले संसार के गुरु, संसार की सृष्टि तथा उसका पालन एवं संहार करने वाले, संसार के स्वामी वाराह भगवान वहीं अन्तर्धान हो गये ।। २२ ।।

तस्मिन्नन्तर्हिते देवे देवदेवो महेश्वरः ।

निजं स्थानं देवगणैः स्वगणैश्च जगाम ह ।। २३ ।।

उन वाराह देव के अन्तर्हित हो जाने पर देवों के देव महेश्वर, शिव भी देवगणों तथा अपने गणों सहित अपने वासस्थान को चले गये ।। २३ ।।

वाराहोऽपि स्वयं गत्वा लोकालोकाह्वयं गिरिम् ।

वाराह्या सह रेमे स पृथिव्या चारुरूपया ।। २४ ।।

स्वयं वाराह ने भी लोकालोक नामक पर्वत पर जाकर सुन्दर रूपवाली पृथ्वी, जो वाराह की पत्नी के रूप में थी, उसके साथ रमण किया ।। २४ ॥

स तया रममाणस्तु सुचिरं पर्वतोत्तमे ।

नावाप तोषं लोकेशःपोत्री परमकामुकः ।। २५ ।।

अत्यन्त कामासक्त, लोकों के स्वामी, वाराह रूपधारी उन वाराह भगवान ने उस उत्तम पर्वत पर, उस वाराह वेशधारिणी पृथ्वी के साथ बहुत समय तक रमण करने के बाद भी संतोष का अनुभव नहीं किया ।। २५ ।।

पृथिव्याः पोत्रीरूपाया रमयन्त्यास्ततः सुताः ।

त्रयो जाता द्विजश्रेष्ठास्तेषां नामानि मे शृणु ।। २६ ।।

सुवृत्तः कनको घोरः सर्व एव महाबलाः ।। २७ ।।

द्विजश्रेष्ठों ! तब सूकरी के रूप वाली तथा उनके साथ रमण करती हुई पृथ्वी के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम मुझसे सुनिये - जो क्रमश: (१) सुवृत्त, (२) कनक, (३) घोर थे। वे सभी महाबलशाली थे ।। २६-२७ ।।

शिशवस्ते मेरुपृष्ठे काञ्चने वप्रसंस्तरे ।

रेमिरेऽन्योन्यसंसक्ता गह्वरेषु सरः सु च ।। २८ ।।

वे बच्चे भी स्वर्णिम मेरु पृष्ठ के शिखर की शय्या पर, गुफाओं में तथा सरोवरों में एक दूसरे से मिलकर विहार करते रहे ।। २८ ।।

स तैः पुत्रैः परिवृतो वाराहो भार्यया स्वया ।

रममाणस्तदा कायत्यागं नैवागणद्विजाः ।। २९ ।।

हे द्विजों ! उस वाराह ने उन पुत्रों से घिर कर अपनी पत्नी के साथ उस समय रमण करते हुए शरीरत्याग की भी चिन्ता नहीं की ।। २९ ।।

कदाचिच्चिशुभिस्तैस्तु संश्लिष्ट: कर्दमान्तरे ।

चकार कर्दमक्रीडां भार्यया च महाबलः ।। ३० ।।

कभी उस महाबलशाली ने उन बच्चों तथा पत्नी के साथ कीचड़ में लोटपोट कर कीचड़ सम्बन्धी खेल खेला।।३०।।

सपंकलेपः शुशुभे वराहो मधुपिंगलः ।

सन्ध्याघनो यथातोयं क्षरंस्तोयं तथाविधः ।। ३१ ।।

पंक (कीचड़) के लेप सहित जल बरसाता हुआ वह मधु पिंगल वराह अपने शरीर से सन्ध्याकालीन जल बरसाते बादल के समान सुशोभित हुआ ।। ३१ ।

स पुत्रैः परमप्रीतो भार्यया च पृथिव्यया ।

विरुजं धरणीं रेमे मध्यनिम्नाथ साभवत् ।। ३२।।

उसने पुत्रों तथा पत्नी पृथ्वी के सहित स्वयं धरणी पर रमण किया इससे वह पृथ्वी मध्यभाग में नीची हो गयी ॥ ३२ ॥

अनन्तोऽपि समाक्रम्य कूर्मं स पृथिवीतले ।

हरिं वहन् भग्नशिराः सातंकोऽभूत्प्रपीडया ।। ३३ ।।

पृथ्वी के नीचे अनन्त भी उस समय भगवान के ढोने की पीड़ावश भयभीत हो, कूर्म को कुचल कर अपने क्षत-विक्षत शिर सहित पृथ्वी के नीचे हो गये ।। ३३ ।।

सुवृत्तेन स्वर्णवप्रं घोरेण कनकेन च ।

विदारितं पोत्रघातैः स्वर्णभग्नात् कृतं समम् ।। ३४ ।।

सुवृत्त, घोर तथा कनक के द्वारा मिलकर थूथनों के प्रहार से स्वर्ण शिखर तोड़ कर समतल कर दिया गया।।३४।।

मेरुपृष्ठे यानि यानि सौवर्णानि द्विजोत्तमाः ।

रचितानि सुरैर्यनात्तानि भग्नानि तत्सुतैः ।। ३५।।

हे द्विजोत्तमों ! मेरुपृष्ठ पर देवताओं ने प्रयत्नपूर्वक जो भी स्वर्णमय आवास बनाये थे उन्हें उन वराह पुत्रों ने भंग कर दिया ।। ३५ ।।

मानसादीनि देवानां सरांसि शिशवोऽथ ते ।

आविलानि तदा चक्रुः पोत्रधातैः समन्ततः ।। ३६ ।।

तब देवताओं के मानसादि सरोवरों को भी उन बच्चों ने मिलकर अपने थूथनों के प्रहार से अपवित्र कर दिया ।। ३६ ।।

पृथिवीवनितारूपा रमयामास पोत्रिणम् ।

स्थावरेण तु रूपेण दुःखमाप्नोति वै दृढम् ।। ३७ ।।

पृथ्वी वनिता रूप में वराह के साथ रमण करते हुए भी अपने स्थावर रूप में अपार दुःख का अनुभव करने लगी ।।३७।।

सागराश्च सुवृत्ताद्यैरवगाह्य समन्ततः ।

विकीर्णरत्न: पोत्रौधैः सर्व एवाकुलीकृताः ॥३८॥

सभी समुद्र भी उन सुवृत्तादि द्वारा स्नान कर सम्मिलित रूप से किये गये थूथन के प्रहारों से बिखरे रत्नों वाले तथा व्याकुल कर दिये गये ॥ ३८ ॥

इतस्ततश्च शिशुभिः क्रीडद्धिः पोत्रिभिस्तदा ।

जगन्ति तत्र भग्नानि नद्यः कल्पद्रुमास्तथा ।। ३९ ।।

उस समय उन पृथ्वी पर इधर-उधर खेलते हुए वराह पुत्रों द्वारा नदियाँ एवं कल्पद्रुम आदि नष्ट कर दिये गये ।। ३९ ।।

जानन्नपि जगद्धर्ता वराहः स्वयमेव हि ।

जगत्पीड़ां सुतस्नेहाद्वारयामास नैव तान् ।। ४० ।।

संसार की इस पीड़ा को जानते हुए भी पुत्र स्नेह के कारण जगत्स्वामी वराह भगवान ने उन्हें स्वयं नहीं रोका ।। ४० ।।

सुवृत्तः कनको घोरो यदागच्छति वै दिवम् ।

तदा देवगणाः भीताः प्राद्रवन्ति दिशो दश ।। ४१ ।।

सुवृत, कनक, घोर जब स्वर्ग में जाते थे तो देवगण भयभीत हो दशों दिशाओं में भाग जाते थे ।। ४१ ।।

एवं सुतैर्भाया यज्ञपोत्री क्रीडंस्तुष्टिं नाप काञ्चित् कदाचित् ।

नित्यं नित्यं वर्ध तस्य कामः कायं त्यक्तुं नैच्छदेष प्रदिष्टः ।। ४२ ।।

इस प्रकार बच्चों तथा पत्नी के साथ क्रीड़ा से कभी भी किसी प्रकार की सन्तुष्टि की उस वराह ने अनुभूति नहीं की। उनका काम नित्य ही बढ़ता गया । शिव द्वारा कहे जाने पर भी उन्होंने अपने शरीरत्याग की इच्छा नहीं की ॥ ४२ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे वाराहशङ्कर संवादे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

कालिका पुराण अध्याय २९- संक्षिप्त कथानक       

ऋषियों ने कहा- जो भगवान शम्भु के द्वारा पूर्व में चार प्रकार के भूत ग्राम सृष्ट किये थे अर्थात जो चार तरह के भूत ग्रामों का पूर्व में सृजन किया था वे किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए समुत्पन्न हुए थे और किस तरह से उनको अनेकरूपता हुई थी ? उनका आधा शरीर तो वाराह का है और आधा दन्ताबल है । कुछ-कुछ गणों के अवयव तो सिंह, व्याघ्र के शरीर से हुए थे । वे गण किस कारण महान क्रूर थे और महान ओज वाले थे। किन भागों वाले थे यह सब हम लोग श्रवण करने की इच्छा रखते हैं हे द्विजश्रेष्ठ ! हमारी ऐसी ही इच्छा है ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- हे मुनियों! अब आप लोग श्रवण कीजिये कि जिस रीति से भगवान शम्भु के गण हुए थे और जिसके लिए वे समुत्पन्न हुए थे और जिस कारण से वे एकरूप वाले नहीं थे । यह विषय बहुत ही अधिक गोपनीय है और यह धर्म, अर्थ और काम के प्रदान करने वाला है । यह परम तेज है और निरन्तर परम तप है । इस महान आख्यान का श्रवण करके पुरुष इस लोक में और परलोक में दुःख नहीं प्राप्त किया करता है । यह आख्यान यश देने वाला है, धर्म से युक्त है, आयु की वृद्धि करने वाला है और परम तुष्टि तथा पुष्टि का प्रदान करने वाला है ।

ईश्वर ने कहा- हे विभो ! आपने जिसके वाराह के स्वरूप को कल्पित किया था वह आपने पूर्ण कर दिया है कि आपने इस पृथ्वी को यथावत् स्थापित कर दिया है। आपके ही प्रसाद से सब सागरों का संस्थान और नदियों का तथा क्षिति का संस्थान हुआ था और ब्रह्मा के द्वारा की हुई सृष्टि भी उत्पन्न हुई थी । आप सबसे परिपूर्ण हैं, यज्ञमय हैं तथा तेज से परिपूर्ण हैं आप समस्त गुरुओं के भी गुरु हैं तथा आप पर से भी पर हैं । हे जगत्पते! विकीर्ण हुई पृथ्वी आपको वहन करने में समर्थ नहीं है । पहले आपके द्वारा स्थापित शैलों के संघातों से यन्त्रित यह पृथ्वी है । उस कारण से हे जगतों के स्वामिन्! इस वाराह के शरीर को त्याग दीजिए। यह जगत से परिपूर्ण, जगत् के रूप वाले और जगत के कारणों का भी कारण है । हे विभो ! आपके वाराह के शरीर को धारण करने में अन्य कौन समर्थ हो सकता है ? विशेष रूप से आपके द्वारा ही यह सकाम पृथ्वी जल में घर्षित हुई है । यह स्त्री के रूप वाली ने आपके तेजों से दारुण गर्भ को धारण किया था। हे जगत्पते! रजस्वला इसमें समर्थ होती हुई जिसने गर्भ को धारण किया था । उससे जो समय होने वाला है यह भी दुर्यश का आदान करेगा । यह असुरों के भाव को प्राप्त करते ही देवों और गन्धर्वों की हिंसा करने वाला होगा । यह लोकेश ने मुझसे दक्ष की सन्निधि में कहा था । मालिन के साथ रति से समुत्पन्न यह आपका अनिष्ट करने वाला दुष्ट है । हे लोकेश ! इस वाराह के कामुक स्वरूप का आप त्याग कर दीजिए। आप ही लोकों के भावन करने वाले हैं और सृष्टि, स्थिति और संहार के करने वाले हैं । हे महाबलवान आप लोकों के हित के सम्पादन करने के लिए इस शरीर को त्याग करके पुनः समय के सम्प्राप्त होने पर अन्य काम को पौत्र करेंगे ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा महान आत्मा वाले भगवान् शंकर के इस वचन का श्रवण करके वाराह की मूर्ति को धारण करने वाले भगवान महादेव जी से कहा ।

श्री भगवान ने कहा- हे परमेश्वर ! जैसा आप कह रहे हैं उस वचन का मैं पूर्णतया पालन करूँगा और इस यज्ञ वाराह के शरीर का मैं त्याग कर दूँगा। उसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। समय के प्राप्त हो जाने पर फिर अन्य उत्तम वाराह के रूप को धारण करूँगा जो अत्यन्त दुराधर्य है और लोकों के पावन करने के लिए हैं ।

इतना कहकर महान कार्य वाले वे वहाँ पर ही अन्तर्धान हो गए थे जो इस जगत के गुरु हैं और इस जगत के सृजन करने वाले हैं जो जगत् के धाता हैं और जगत् के स्वामी हैं । उन देव के अन्तर्धान हो जाने पर देवों के देव महेश्वर प्रभु देवगणों के तथा अपने गणों के साथ- ही अपने स्थान को गमन कर गये थे । भगवान वाराह भी लोकालोक नामक पर्वत पर स्वयं चले गये थे और वहाँ पर वे अपनी पत्नी वाराही के साथ रमण करने लग गये थे जो कि परमसुन्दर स्वरूप वाली पृथ्वी थी। वह उस उत्तम पर्वत में बहुत लम्बे समय तक रमण करते हुए वह लोकेशपौत्री और परमाधिक कामुक तोष को प्राप्त नहीं हुए थे अर्थात् रमण करने पर भी उनको संतोष नहीं हुआ था। पौत्री के स्वरूप वाली पृथ्वी के साथ रमण किए जाने वाले से तीन पुत्र समुत्पन्न हुए थे । हे द्विजोत्तमो ! आप अब उनके नामों को भी श्रवण करिए। वे सुवृत्त, कनक और घोर नामों वाले थे जो कि सभी महान बल से समन्वित थे । वे शिशु ही सुवर्ण के मेरु पर्वत के पृष्ठ पर व प्रस्तर में, गह्वरों में और सरोवरों में परस्पर में संसक्त हुए रमण करते थे ।

हे द्विजो! वह वाराह उन पुत्रों से परिवृत्त अपनी भार्या के साथ रमण करने वाले थे और उस समय में उन्होंने शरीर के त्याग करने का कुछ भी ध्यान नहीं किया था। किसी समय में महान बलवान् वह कर्दमों अन्तर में शिशुओं के साथ संश्लिष्ट होकर भार्या के साथ कर्दम क्रीड़ा किया करता था । कीच के लेप से संयुत मधु पिंगल वराह शोभित हुए थे। जिस प्रकार से सन्ध्या का मेघ जल का क्षरण किया करता है उसी भाँति वह भी जल का क्षरण करने वाले थे । वह पुत्रों के सहित और पृथ्वी भार्या के साथ परम प्रीत और वह मध्य में निम्न हो गये थे । सुवृत्त ने और घोर तथा कनक ने सुवर्ण के व प्रपोत्र पातों से विदारित कर दिया था । मेरु पर्वत के पृष्ठ भाग पर सुरों के द्वारा जो भी सुवर्ण द्वारा रचित हुए थे उसके पुत्रों ने यत्नपूर्वक उनको भग्न कर दिया था ।

मानस आदि तो देवों के सरोवर थे उस समय में उसके पुत्रों ने अर्थात् शिशुओं के पौत्र धात्रों से सब ओर आविल अर्थात् यतिन कर दिए थे। वनिता के स्वरूप वाली पृथ्वी ने पौत्रिण से रमण किया और स्थावर रूप से सुदृढ़ सुख को प्राप्त किया करती हैं । सुवृत्त आदि के द्वारा सभी ओर सागरों का अवगाहन करके पत्रौद्यों के द्वारा विकीर्ण रत्न वाले सब ही आकुलकृत हो गये थे । उस समय में इधर-उधर क्रीड़ा करने वाले पौत्री शिशुओं के द्वारा वहाँ पर जगतों को तथा नदियों को और कल्प द्रुमों को भग्न कर दिया था । जगत के भरण करने वाले वाराह ने स्वयं ही जगत् की पीड़ा को जानते हुए भी सुतों के स्नेह से उनका निवारण नहीं किया था। सुवृत्त कनक और घोर जब दिव्यलोक में आगमन करते हैं उस अवसर पर देवों का समुदाय परमभीत होकर दशों दिशाओं में भाग जाया करते हैं। इस प्रकार से अपने पुत्रों के तथा भार्या के साथ जो यज्ञ पौत्री था वह क्रीड़ा करता हुआ भी किसी भी समय में कोई तुष्टि के प्राप्त करने वाले नहीं हुए थे अर्थात् उनको सन्तोष नहीं हुआ था । नित्य नित्य ही उनकी कामवासना बढ़ती ही जाती है और ऐसा प्रदिष्ट हो गये थे कि वह अपने शरीर का त्याग करने की इच्छा नहीं किया करते हैं ।

॥ श्रीकालिकापुराण में वाराहशङ्करसंवाद का उन्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। २९ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 30 

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]