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अग्निपुराण अध्याय ५५
अग्निपुराण अध्याय ५५ पिण्डिका का
लक्षण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ५५
Agni puran chapter 55
अग्निपुराण पचपनवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ५५
अग्निपुराणम् अध्यायः ५५- पिण्डिकालक्षणकथनम्
भगवानुवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रतिमानान्तु
पिण्डिकाम्।
दैर्घ्येण प्रतिमातुल्या तदर्द्धेन
तु विस्तृता ।। १ ।।
उच्छितायामतोर्द्धेन
सुविस्तारार्द्धभागतः।
तृतीयेन तु वा तुल्यं तत्त्रिभागेण
मेखला ।। २ ।।
खातं च तत्प्रमाणं तु
किञ्चिदुत्तरतो नतम्।
विस्तारस्य चतुर्थेन प्रणालस्य
विनिर्गमः ।। ३ ।।
सममूलस्य विस्तारमग्ने
कुर्य्यात्तदर्द्धतः।
विस्तारस्य तृतीयेन तोयमार्गन्तु
कारयेत् ।। ४ ।।
पिण्डिकार्द्धेन वा तुल्यं
दैर्घ्यमीशस्य कीर्तितम्।
ईशं वा तुल्यदीर्घञ्च ज्ञात्वा
सूत्रं प्रकल्पयेत् ।। ४ ।।
उच्छायं पूर्ववत् कुर्य्याद्भागषोडशसङ्ख्यया।
अधः षट्कं द्विभागन्तु कण्ठं
कुर्यात्त्रिभागकम् ।। ५ ।।
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं -
ब्रह्मन् ! अब मैं प्रतिमाओं की पिण्डिका का लक्षण बता रहा हूँ। पिण्डिका लंबाई
में तो प्रतिमा के बराबर होनी चाहिये और चौड़ाई में उससे आधी उसकी ऊँचाई भी
प्रतिमा की लंबाई से आधी हो और उस अर्द्धभाग के बराबर ही वह सुविस्तृत हो । अथवा
उसका विस्तार लंबाई के तृतीयांश के तुल्य हो । उसके एक तिहाई भाग को लेकर मेखला
बनावे। पानी बहने के लिये जो खात या गर्त हो, उसका
माप भी मेखला के ही तुल्य रहे। वह खात उत्तर दिशा की ओर कुछ नीचा होना चाहिये।
पिण्डिका के विस्तार के एक चौथाई भाग से जल के निकलने का मार्ग (प्रणाल) बनाना
चाहिये। मूल भाग में उसका विस्तार मूल के ही बराबर हो, परंतु
आगे जाकर वह आधा हो जाय। पिण्डिका के विस्तार के एक तिहाई भाग के अथवा पिण्डिका के
आधे भाग के बराबर वह जलमार्ग हो। उसकी लंबाई प्रतिमा की लंबाई के तुल्य ही बतायी
गयी है अथवा प्रतिमा ही उसकी लंबाई के तुल्य हो। इस बात को अच्छी तरह समझकर उसका सूत्रपात
करे ॥ १-५ ॥
शेषास्त्वेकैकशः कार्याः
प्रतिष्ठानिर्गमास्तथा।
पट्टिका पिण्डिका चेयं
सामान्यप्रतिमासु च ।। ६ ।।
प्रासादद्वारमानेन
प्रतिमाद्वारमुच्यते ।
गजव्यालकसंयुक्ता प्रभा स्यात् प्रतिमासु च ।।७ ।।
प्रतिमा की ऊँचाई पूर्ववत् सोलह भाग की संख्या के अनुसार करे। छः और दो अर्थात् आठ भागों को नीचे के आधे अङ्ग में गतार्थ करे। इससे ऊपर के तीन भाग को लेकर कण्ठ का निर्माण करे। शेष भागों को एक-एक करके प्रतिष्ठा, निर्गम तथा पट्टिका आदि में विभाजित करे। यह सामान्य प्रतिमाओं में पिण्डिका का लक्षण बताया गया है। प्रासाद के द्वार के दैर्ध्य विस्तार के अनुसार प्रतिमा गृह का भी द्वार कहा गया है। प्रतिमाओं में हाथी और व्याल (सर्प या व्याघ्र आदि) की मूर्तियों से युक्त तत्तत्-देवताविषयक शोभा की रचना करे ॥ ६-७ ॥
पिण्डिकापि यथाशोभं कर्त्तव्या सततं हरेः।
सर्वेषामेव देवानां विष्णूक्तं मानमुच्यते।
देवीनामपि सर्वासं लक्ष्म्युक्तं मानमुच्यते ।। ८ ।।
श्रीहरि की पिण्डिका भी सदा यथोचित शोभा से सम्पन्न बनायी जानी चाहिये। सभी देवताओं की प्रतिमाओं के लिये वही मान बताया जाता है, जो विष्णु प्रतिमा के लिये कहा गया है तथा सम्पूर्ण देवियों के लिये भी वही मान बताया जाता है, जो लक्ष्मीजी की प्रतिमा के लिये कहा गया है ॥ ८ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये पिण्डिकालक्षणं
नाम इति पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'पिण्डिका के लक्षण का वर्णन' नामक पचपनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ५५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 56
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