अग्निपुराण अध्याय ५०

अग्निपुराण अध्याय ५०              

अग्निपुराण अध्याय ५० चण्डी आदि देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षण का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ५०

अग्निपुराणम् अध्यायः ५०              

Agni puran chapter 50

अग्निपुराण पचासवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ५०              

अग्निपुराणम् अध्यायः ५०- देवीप्रतिमालक्षणकथनम्

भगवानुवाच

चण्डी विंशतिबाहुः स्याद्‌बिभ्रती दक्षिणैः करः।

शूलासिशक्तिचक्राणि पाशं खेटायुधाभयम् ॥ १ ॥

डमरुं शक्तिकां वामैर्न्नागपाशञ्च खेटकम्।

कुठाराङ्कुशचापांश्च घण्टाध्वजगदांस्तथा ॥ २ ॥

आदर्शमुद्‌गरान् हस्तैश्चण्डी वा दशबाहुका।

तदधो महिषश्छिन्नमूर्द्धा पातितमस्तकः ॥ ३ ॥

शस्त्रोद्यतकरः क्रुद्धस्तद्‌ग्रीवासम्भवः पुमान्।

शूलहस्तो वमद्रक्तो रक्तस्रङ्‌मूर्द्धजेक्षणः ॥ ४ ॥

सिहेनास्वाद्यमानस्तु पाशबद्धो गले भृशम्।

याम्याङ्घ्न्याक्रान्तसिहा च सव्याङघ्निर्नीचगासुरे ॥ ५ ॥

श्रीभगवान् बोले- चण्डी बीस भुजाओं से विभूषित होती है। वह अपने दाहिने हाथों में शूल, खड्ग, शक्ति, चक्र, पाश, खेट, आयुध, अभय, डमरू और शक्ति धारण करती है। बायें हाथों में नागपाश, खेटक, कुठार, अंकुश, पाश, घण्टा, आयुध, गदा, दर्पण और मुद्गर लिये रहती है। अथवा चण्डी की प्रतिमा दस भुजाओं से युक्त होनी चाहिये। उसके चरणों के नीचे कटे हुए मस्तकवाला महिष हो। उसका मस्तक अलग गिरा हुआ हो। वह हाथों में शस्त्र उठाये हो । उसकी ग्रीवा से एक पुरुष प्रकट हुआ हो, जो अत्यन्त कुपित हो। उसके हाथ में शूल हो, वह मुँहसे रक्त उगल रहा हो। उसके गले की माला, सिर के बाल और दोनों नेत्र लाल दिखायी देते हों। देवी का वाहन सिंह उसके रक्त का आस्वादन कर रहा हो। उस महिषासुर के गले में खूब कसकर पाश बाँधा गया हो। देवी का दाहिना पैर सिंह पर और बायाँ पैर नीचे महिषासुर के शरीर पर हो ॥ १-५ ॥

चण्डिकेयं त्रिनेत्रा च सशस्त्रा रिपुमर्द्दनी।

नवपद्मात्मके स्थाने पूज्या दुर्गा स्वमूर्त्तितः ॥ ६ ॥

आदौ मध्ये तथेन्द्रादौ नवतत्त्वात्मभिः क्रमात्।

ये चण्डीदेवी त्रिनेत्रधारिणी हैं तथा शस्त्रों से सम्पन्न रहकर शत्रुओं का मर्दन करनेवाली हैं। नवकमलात्मक पीठ पर दुर्गा की प्रतिमा में उनकी पूजा करनी चाहिये। पहले कमल के नौ दलों में तथा मध्यवर्तिनी कर्णिका में इन्द्र आदि दिक्पालों की तथा नौ तत्त्वात्मिका शक्तियों के साथ दुर्गा की* पूजा करे ॥ ६ ॥

* इन नौ तत्त्वात्मिका शक्तियों की नामावली इस प्रकार समझनी चाहिये- अग्निपुराण अध्याय २१ में- लक्ष्मी, मेधा, कला, तुष्टि, पुष्टि, गौरी, प्रभा मति और दुर्गा-ये नाम आये हैं तथा तन्त्रसमुच्चय और मन्त्रमहार्णव के अनुसार इन शक्तियों के ये नाम हैं- प्रभा, माया, जया, सूक्ष्मा, विशुद्धा, नन्दिनी, सुप्रभा, विजया तथा सर्वसिद्धिदा।

अष्टादशभुजैका तु दक्षे मुण्डं च खेटकम् ॥ ७ ॥

आदर्शतर्जनीचापं ध्वजं डमरुकं तथा।

पाशं वामे बिभ्रती च शक्तिमुद्गरशूलकम् ॥ ८ ॥

वज्रखड्‌गाङ्कुशशरान् चक्रन्देवी शलाकया।

एतैरेवायुधैर्युक्ता शेषाः षोडशबाहुकाः ॥ ९ ॥

डमरुं तर्जनीं त्यक्त्वा रुद्रचण्डादयो नव।

रुद्रचण्डा प्रचण्डा च चण्डोग्रा चण्डनायिका ॥ १० ॥

चण्डा चण्डवती चैव चण्डरूपातिचण्डिका।

उग्रचण्डा च मध्यस्था रोचनाभारुणासिता ॥ ११ ॥

नीला शुक्ला धूम्रिका च पीता श्वेता चसिहगाः।

महीषोथ पुमान् शस्त्री तत्‌कचग्रहमुष्टिकाः ॥ १२ ॥

दुर्गाजी की एक प्रतिमा अठारह भुजाओं की होती है। वह दाहिने भाग के हाथों में मुण्ड, खेटक, दर्पण, तर्जनी, धनुष, ध्वज, डमरू, ढाल और पाश धारण करती है तथा वाम भाग की भुजाओं में शक्ति, मुद्गर, शूल, वज्र, खड्ग, अंकुश, बाण, चक्र और शलाका लिये रहती है। सोलह बाँहवाली दुर्गा की प्रतिमा भी इन्हीं आयुधों से युक्त होती है। अठारह में से दो भुजाओं तथा डमरू और तर्जनी इन दो आयुधों को छोड़कर शेष सोलह हाथ उन पूर्वोक्त आयुधों से ही सम्पन्न होते हैं। रुद्रचण्डा आदि नौ दुर्गाएँ इस प्रकार हैं- रुद्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा और अतिचण्डिका। ये पूर्वादि आठ दिशाओं में पूजित होती हैं तथा नवीं उग्रचण्डा मध्यभाग में स्थापित एवं पूजित होती हैं। रुद्रचण्डा आदि आठ देवियों की अङ्ग कान्ति क्रमशः गोरोचना के सदृश पीली, अरुणवर्णा, काली, नीली, शुक्लवर्णा, धूम्रवर्णा, पीतवर्णा और श्वेतवर्णा है। ये सब की सब सिंहवाहिनी हैं। महिषासुर के कण्ठ से प्रकट हुआ जो पुरुष है, वह शस्त्रधारी है और ये पूर्वोक्त देवियाँ अपनी मुट्ठी में उसका केश पकड़े रहती हैं ॥ ७-१२ ॥

आलीढा नव दुर्गाः स्युः स्थाप्याः पुत्रादिवृद्धये।

तथा गौरी चण्डिकाद्या कुण्ढ्यक्षररदाग्निधृक् ॥ १३ ॥

सैव स्म्भा वने सिद्धाऽग्निहीना ललिता तथा।

स्कन्धमूर्द्धकरा वामे द्वितीये धृतदर्प्पणा ॥ १४ ॥

याम्ये फलाञ्जलिहस्ता सौभाग्या तत्र चोर्ध्विका।

ये नौ दुर्गाएँ आलीढा* आकृति की होनी चाहिये। पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि के लिये इनकी स्थापना ( एवं पूजा) करनी उचित है। गौरी ही चण्डिका आदि देवियों के रूप में पूजित होती हैं। वे ही हाथों में कुण्डी, अक्षमाला, गदा और अग्नि धारण करके 'रम्भा' कहलाती हैं। वे ही वन में 'सिद्धा' कही गयी हैं। सिद्धावस्था में वे अग्नि से रहित होती हैं। 'ललिता' भी वे ही हैं। उनका परिचय इस प्रकार है-उनके एक बायें हाथ में गर्दनसहित मुण्ड है और दूसरे में दर्पण दाहिने हाथ में फलाञ्जलि है और उससे ऊपर के हाथ में सौभाग्य की मुद्रा ॥ १३-१४ ॥

* वाचस्पत्यकोष में आलीढ का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-

भुग्नवामपदं पश्चात्स्तब्धजानूरुदक्षिणम् ।

वितस्त्यः पञ्च विस्तारे तदालीढं प्रकीर्तितम् ॥

जिसमें मुड़ा हुआ बायाँ पैर तो पीछे हो और तने हुए घुटने तथा ऊरुवाला दाहिना पैर आगे की ओर हो, दोनों के बीच का विस्तार पाँच बिता हो तो इस प्रकार के आसन या अवस्थान को 'आलीढ' कहा गया है।

लक्ष्मीर्याम्यकराम्भोजा वामे श्रीफलसंयुता ॥ १५ ॥

पुस्ताक्षमालिकाहस्ता वीणाहस्ता सरस्वती।

हुम्भाब्जहस्ता श्वेताभा मकरोपरि जाह्नवी ॥ १६ ॥

कूर्म्मगा यमुना कुम्भकरा श्यामा च पूज्यते।

सवीणस्तुम्बुरुः शुक्लः शूली मात्रग्रतो वृषे ॥ १७ ॥

गौरी चतुर्मुखी ब्राह्मी अक्षमालासुरान्विता।

कुण्डक्षपात्रिणी वामे हंसगा शाङ्करी सिता ॥ १८ ॥

शरचापौ दक्षिणेऽस्यावामे चक्रं धनुर्वृषे।

कौमारी शिखिगा रक्ता शक्तिहस्ता द्विबाहुका ॥ १९ ॥

लक्ष्मी के दायें हाथ में कमल और बायें हाथ में श्रीफल होता है। सरस्वती के दो हाथों में पुस्तक और अक्षमाला शोभा पाती है और शेष दो हाथों में वे वीणा धारण करती हैं। गङ्गाजी की अङ्गकान्ति श्वेत है। वे मकर पर आरूढ़ हैं। उनके एक हाथ में कलश है और दूसरे में कमल यमुना। देवी कछुए पर आरूढ हैं। उनके दोनों हाथों में कलश है और वे श्यामवर्णा हैं। इसी रूप में इनकी पूजा होती है। तुम्बुरु की प्रतिमा वीणासहित होनी चाहिये। उनकी अङ्गकान्ति श्वेत है। शूलपाणि शंकर वृषभ पर आरूढ़ हो मातृकाओं के आगे- आगे चलते हैं। ब्रह्माजी की प्रिया सावित्री गौरवर्णा एवं चतुर्मुखी हैं। उनके दाहिने हाथों में अक्षमाला और स्रुक् शोभा पाते हैं और बायें हाथों में वे कुण्ड एवं अक्षपात्र लिये रहती हैं। उनका वाहन हंस है। शंकरप्रिया पार्वती वृषभ पर आरूढ होती है। उनके दाहिने हाथों में धनुष-बाण और बायें हाथों में चक्र धनुष शोभित होते हैं। कौमारी शक्ति मोर पर आरूढ होती है। उसकी अङ्गकान्ति लाल है। उसके दो हाथ हैं और वह अपने हाथों में शक्ति धारण करती है ।। १५- १९ ॥

चक्रशङ्खधरा सव्ये वामे लक्ष्मीर्गदाव्जधृक्।

दण्डशङ्खासि गदया वाराही महिषस्थिता ॥ २० ॥

ऐन्द्री वामे वज्रहस्ता सहस्राक्षी तु सिद्धये।

चामुण्डा कोटरक्षीस्यान्निर्म्मंसा तु त्रिलोचना ॥ २१ ॥

निर्म्मांसा अस्थिसारा वा ऊर्ध्वकेशी कृशोदरी।

द्वीपिचर्म्मधरावामे कपालं पट्टिशङ्करे ॥ २२ ॥

शूलं कर्त्री दक्षिणेऽस्याः शवारूढास्थिभूषणा।

लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) अपने दायें हाथों में चक्र और शङ्ख धारण करती हैं तथा बायें हाथों में गदा एवं कमल लिये रहती हैं। वाराही शक्ति भैंसे पर आरूढ होती है। उसके हाथ दण्ड, शङ्ख, चक्र और गदा से सुशोभित होते हैं। ऐन्द्री शक्ति ऐरावत हाथी पर आरूढ होती है। उसके सहस्र नेत्र हैं तथा उसके हाथों में वज्र शोभा पाता है। ऐन्द्री देवी पूजित होने पर सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं। चामुण्डा की आँखें वृक्ष के खोखले की भाँति गहरी होती हैं। उनका शरीर मांसरहित-कंकाल दिखायी देता है। उनके तीन नेत्र हैं। मांसहीन शरीर में अस्थिमात्र ही सार है। केश ऊपर की ओर उठे हुए हैं। पेट सटा हुआ है। वे हाथी का चमड़ा पहनती हैं। उनके बायें हाथों में कपाल और पट्टिश है तथा दायें हाथों में शूल और कटार । वे शव पर आरूढ़ होती और हड्डियों के गहनों से अपने शरीर को विभूषित करती हैं ॥ २० - २२ ॥

विनायको नराकारो बृहत्‌कुक्षिर्गजाननः ॥ २३ ॥

बृहच्छुण्डो ह्युपवीती मुखं सप्तकलं भवेत्।

विस्ताराद्दैर्घ्यतश्चैव शुण्डं षट्‌त्रिशदङ्गुलम् ॥ २४ ॥

कला द्वादश नाडी तु ग्रीवा सार्द्धकलोच्छिता।

षट्‌त्रिंशदङ्गुलं कण्ठं गुह्यमध्यर्द्धमङ्गुलम् ॥ २५ ॥

नाभिरूरू द्वादशञ्च जङ्घे पादे तु दक्षिणे।

स्वदन्तं परशुं वामे लड्डुकञ्चोत्पलं शये ॥ २६ ॥

विनायक (गणेश) की आकृति मनुष्य के समान है; किंतु उनका पेट बहुत बड़ा है। मुख हाथी के समान है और सूँड़ लंबी है। वे यज्ञोपवीत धारण करते हैं। उनके मुख की चौड़ाई सात कला है। और सूँड़ की लंबाई छत्तीस अङ्गुल। उनकी नाड़ी (गर्दन के ऊपर की हड्डी) बारह कला विस्तृत और गर्दन डेढ़ कला ऊँची होती है। उनके कण्ठभाग की लंबाई छत्तीस अङ्गुल है और गुह्यभाग का घेरा डेढ़ अङ्गुल। नाभि और ऊरु का विस्तार बारह अङ्गुल है। जाँघों और पैरों का भी यही माप है। वे दाहिने हाथों में गजदन्त और फरसा धारण करते हैं तथा बायें हाथों में लड्डू एवं उत्पल लिये रहते हैं ॥ २३ - २६ ॥

सुमुखी च विडालाक्षी पार्श्वे स्कन्दो मयुरगः।

स्वामी शाखो विशाखश्च द्विभुजो बालरूपधृक् ॥ २७ ॥

दक्षे शक्तिः कुक्कुटोथ एकवक्त्रोथ षण्मुखः।

षड्भुजो वा द्वादशभिर्ग्रामेरण्ये द्विबाहुकः ॥ २८ ॥

शक्तीषुपाशनिस्त्रिंशतोत्रदोस्तर्जनीयुतः।

शक्त्या दक्षिणहस्तेषु षट्‌सु वामे करे तथा ॥ २९ ॥

शिखिपिच्छन्धतुः खेटं पताकाभयकुक्कुटे।

कपालकर्तरीशूलपाशेभृद्याम्यसौम्ययोः ॥ ३० ॥

गजचर्म्मभृदूर्ध्वास्यपादा स्याद् रुद्रचर्चिका।

सैव चाष्टभुजा देवी शिरोडमरुकान्विता ॥ ३१ ॥

स्कन्द स्वामी मयूर पर आरूढ हैं। उनके उभय पार्श्व में सुमुखी और विडालाक्षी मातृका तथा शाख और विशाख अनुज खड़े हैं। उनके दो भुजाएँ हैं। वे बालरूपधारी हैं। उनके दाहिने हाथ में शक्ति शोभा पाती है और बायें हाथ में कुक्कुट। उनके एक या छः मुख बनाने चाहिये । गाँव में उनके अर्चाविग्रह को छः अथवा बारह भुजाओं से युक्त बनाना चाहिये, परंतु वन में यदि उनकी मूर्ति स्थापित करनी हो तो उसके दो ही भुजाएँ बनानी चाहिये। कौमारी शक्ति की छहों दाहिनी भुजाओं में शक्ति, बाण, पाश, खड्ग, गदा और तर्जनी (मुद्रा) ये अस्त्र रहने चाहिये और छः बायें हाथों में मोरपंख, धनुष, खेट, पताका, अभयमुद्रा तथा कुक्कुट होने चाहिये। रुद्रचर्चिका देवी हाथी के चर्म धारण करती हैं। उनके मुख और एक पैर ऊपर की ओर उठे हैं। वे बायें दायें हाथों में क्रमशः कपाल, कर्तरी, शूल और पाश धारण करती हैं। वे ही देवी - 'अष्टभुजा' के रूप में भी पूजित होती हैं॥२७ - ३१॥

तेन सा रुद्रचामुण्डा नाटेश्वर्य्यथ नृत्यती।

इयमेव महालक्ष्मीरुपविष्टा चतुर्मुखी ॥ ३२ ॥

नृवाजिमहिषेभांश्च खादन्ती च करे स्थितान्।

दशबाहुस्त्रिनेत्रा च शस्त्रासिडमरुत्रिकम् ॥ ३३ ॥

बीभ्रती दक्षिणे हस्ते घण्टां च खेटकम्।

खट्‌वाङ्गं च त्रिशूलञ्च सिद्धचामुण्डकाह्वया ॥ ३४ ॥

सिद्धयोगेश्वरी देवी सर्वसिद्धिप्रदायिका।

एतद्रूपा भवेदन्या पाशाङ्कुशयुतारुणा ॥ ३५ ॥

भैरवी रूपविद्या तु भुजैर्द्वादशभिर्युता।

एताः श्मशानजा रौद्रा अम्बाष्टकमिदं स्मृतम् ॥ ३६ ॥

मुण्डमाला और डमरू से युक्त होने पर वे ही 'रुद्रचामुण्डा' कही गयी हैं। वे नृत्य करती हैं, इसलिये 'नाट्येश्वरी' कहलाती हैं। ये ही आसन पर बैठी हुई चतुर्मुखी 'महालक्ष्मी' (की तामसी मूर्ति) कही गयी हैं, जो अपने हाथों में पड़े हुए मनुष्यों, घोड़ों, भैंसों और हाथियों को खा रही हैं। 'सिद्धचामुण्डा' देवी के दस भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। ये दाहिने भाग के पाँच हाथों में शस्त्र, खड्ग तथा तीन डमरू धारण करती हैं और बायें भाग के हाथों में घण्टा, खेटक, खट्वाङ्ग, त्रिशूल (और ढाल) लिये रहती हैं। 'सिद्धयोगेश्वरी' देवी सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं। इन्हीं देवी की स्वरूपभूता एक दूसरी शक्ति हैं, जिनकी अङ्गकान्ति अरुण है। ये अपने दो हाथों में पाश और अंकुश धारण करती हैं तथा 'भैरवी' नाम से विख्यात हैं। 'रूपविद्या देवी' बारह भुजाओं से युक्त कही गयी हैं। ये सब की सब श्मशानभूमि में प्रकट होनेवाली तथा भयंकर हैं। इन आठों देवियों को 'अम्बाष्टक"* कहते हैं ॥ ३२-३६ ॥

* रुद्रचण्डा, अष्टभुजा (या रुद्रचामुण्डा), नाट्येश्वरी, चतुर्मुखी महालक्ष्मी, सिद्धचामुण्डा, सिद्धयोगेश्वरी, भैरवी तथा रूपविद्या- इन आठ देवियों को ही 'अम्बाष्टक' कहा गया है।

क्षमा शिवावृता वृद्धा द्विभुजा विवृतानना।

दन्तुरा क्षेमकारी स्याद्‌भूमौ जानुकरा स्थिता ॥ ३७ ॥

यक्षिण्यः स्तब्धदीर्घाक्षाः शाकिन्यो वक्रदृष्टयः ।

पिङ्गाक्षाः स्युर्म्महारम्या रूपिण्योप्सरसः सदा ॥ ३८ ॥

'क्षमादेवी' - शिवाओं (शृगालियों) से आवृत हैं। वे एक बूढ़ी स्त्री के रूपमें स्थित हैं। उनके दो भुजाएँ हैं। मुँह खुला हुआ है। दाँत निकले हुए हैं तथा ये धरती पर घुटनों और हाथ का सहारा लेकर बैठी हैं। उनके द्वारा उपासकों का कल्याण होता है। यक्षिणियों की आँखें स्तब्ध (एकटक देखनेवाली) और बड़ी होती हैं। शाकिनियाँ वक्रदृष्टि से देखनेवाली होती हैं। अप्सराएँ सदा ही अत्यन्त रमणीय एवं सुन्दर रूपवाली हुआ करती हैं। इनकी आँखें भूरी होती हैं ॥ ३७-३८ ॥

साक्षमाली त्रिशूली च नन्दीशो द्वारपालकः।

महाकाल

महाकालोसिमुण्डी स्याच्छूलखेटकवांस्तथा ॥ ३९ ॥

कृशो भृङ्गी च नृत्यन् वै कूष्माण्डस्थूलखर्ववान्।

गजगोकर्णवक्त्राद्या वीरभद्रादयो गणाः ॥ ४० ॥

घण्टाकर्णोष्टदशदोः पापरोगं विदारयन्।

वज्रासिदण्डचक्रेषुमुषलाङ्कुशमुद्गरान् ॥ ४१ ॥

दक्षिणे तर्जनीं खेटं शक्तिं मुण्डञ्च पाशकम्।

चापं घण्टा कुठारश्च द्वाभ्याञ्चैव त्रिशूलकम् ॥ ४२ ॥

घण्टामालाकुलो देवो विस्फोटकविमर्दनः ॥ ४३ ॥

भगवान् शंकर के द्वारपाल नन्दीश्वर एक हाथ में अक्षमाला और दूसरे में त्रिशूल लिये रहते हैं। महाकाल के एक हाथ में तलवार, दूसरे में कटा हुआ सिर, तीसरे में शूल और चौथे में खेट होना चाहिये। भृङ्गी का शरीर कृश होता है। वे नृत्य की मुद्रा में देखे जाते हैं। उनका मस्तक कूष्माण्ड के समान स्थूल और गंजा होता है। वीरभद्र आदि गण हाथी और गाय के समान कान और मुखवाले होते हैं। घण्टाकर्ण के अठारह भुजाएँ होती हैं। वे पाप और रोग का विनाश करनेवाले हैं। वे बायें भाग के आठ हाथों में वज्र, खड्ग, दण्ड, चक्र, बाण, मुसल, अंकुश और मुद्रर तथा दायें भाग के आठ हाथों में तर्जनी, खेट, शक्ति, मुण्ड, पाश, धनुष, घण्टा और कुठार धारण करते हैं। शेष दो हाथों में त्रिशूल लिये रहते हैं। घण्टा की माला से अलंकृत देव घण्टाकर्ण विस्फोटक (फोड़े, फुंसी एवं चेचक आदि) का निवारण करनेवाले हैं ॥ ३९-४३ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये देवीप्रतिमालक्षणं नाम पञ्चाशोऽध्यायः।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'चण्डी आदि देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षणों का निरूपण' नामक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५० ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 51 

अग्निपुराण के पूर्व के अंक पढ़ें-

अध्याय 30              अध्याय 31          अध्याय 32         अध्याय 33     अध्याय 34

अध्याय 35              अध्याय 36         अध्याय 37         अध्याय 38      अध्याय 39 

अध्याय 40              अध्याय 41         अध्याय 42         अध्याय 43      अध्याय 44

अध्याय 45              अध्याय 46         अध्याय 47          अध्याय 48      अध्याय 49  

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