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की पूजा का वर्णन है।
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भगवानुवाच
शालग्रामादिचक्राङ्कपूजाः
सिद्ध्यैवदामि ते।
त्रिविधास्याद्धरेः पूजा
काम्याकाम्योभयात्मिका ।। १ ।।
मीनादीनान्त पञ्चानां काम्याथो
वोभयात्मिका
वराहस्प नृसिंहस्य वामनस्य चमुक्तये
।। २ ।।
चक्रादीनां त्रयाणान्तु
शालग्रामार्च्चनं श्रृणु।
उत्तमा निष्फला पूजा कनिष्ठा
सफलार्चना ।। ३ ।।
मध्यमा मूर्त्तिपूजा
स्याच्चक्राव्जे चतुरस्रके।
प्रणवं हृदि विन्यस्य
षडङ्गङ्करदेहयोः ।। ४ ।।
कृतमुद्रात्रयश्चक्राद् बहिः पूर्वे
गुरुं यजेत्।
आप्ये गणं वायवे च धातारं नैर्ऋते
यजेत् ।। ५ ।।
विधातारञ्च कर्त्तारं हर्त्तारं
दक्षसौम्ययोः।
विष्वकसेनं यजेदीशे आग्नेये
क्षेत्रपालकम् ।। ६ ।।
ऋगादिवेदान् प्रागादौ आधारानन्तकं
भुवम्।
पीठं पद्मं चार्क वन्द्रवह्व्याख्यं
मण्डलत्रयम् ।। ७ ।।
आसनं द्वादशार्णेन तत्र स्थाप्य
शिलां यजेत्।
व्यस्तेन च समस्तेन स्वबीजेन यजेत्
क्रमात् ।। ८ ।।
पूर्वादावथ वेदाद्यैर्गायत्रीभ्यां
जितादिना।
प्रणवेनार्च्चयेत्
पञ्चान्मुद्रास्तिस्रः प्रदर्शयेत् ।। ९ ।।
भगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन्
! अब मैं तुम्हारे सम्मुख पूर्वोक्त चक्राङ्कित शालग्राम-विग्रहों की पूजा का वर्णन
करता हूँ,
जो सिद्धि प्रदान करनेवाली है। श्रीहरि की पूजा तीन प्रकार की होती
है- काम्या, अकाम्या और उभयात्मिका । मत्स्य आदि पाँच
विग्रहों की पूजा काम्या अथवा उभयात्मिका हो सकती है। पूर्वोक्त चक्रादि से
सुशोभित वराह, नृसिंह और वामन - इन तीनों की पूजा मुक्ति के
लिये करनी चाहिये। अब शालग्राम- पूजन के विषय में सुनो, जो
तीन प्रकार की होती है। इनमें निष्कला पूजा उत्तम, सकला पूजा
कनिष्ठ और मूर्तिपूजा को मध्यम माना गया है। चौकोर मण्डल में स्थित कमल पर पूजा की
विधि इस प्रकार है- हृदय में प्रणव का न्यास करते हुए षडङ्गन्यास करे। फिर करन्यास
और व्यापक न्यास करके तीन मुद्राओं का प्रदर्शन करे। तत्पश्चात् चक्र के बाह्यभाग में
पूर्व दिशा की ओर गुरुदेव का पूजन करे। पश्चिम दिशा में गण का, वायव्यकोण में धाता का एवं नैर्ऋत्यकोण में विधाता का पूजन करे। दक्षिण और
उत्तर दिशा में क्रमशः कर्ता और हर्ता की पूजा करे। इसी प्रकार ईशानकोण में
विष्वक्सेन और अग्निकोण में क्षेत्रपाल की पूजा करे। फिर पूर्वादि दिशाओं में
ऋग्वेद आदि चारों वेदों की पूजा करके आधारशक्ति, अनन्त,
पृथिवी, योगपीठ, पद्म
तथा सूर्य, चन्द्र और ब्रह्मात्मक अग्नि-इन तीनों के मण्डलों
का यजन करे। तदनन्तर द्वादशाक्षर मन्त्र से आसन पर शिला की स्थापना करके पूजन करे।
फिर मूल मन्त्र के विभाग करके एवं सम्पूर्ण मन्त्र से क्रमपूर्वक पूजन करे। फिर
प्रणव से पूजन करने के पश्चात् तीन मुद्राओं का प्रदर्शन करे ॥ १- ९ ॥
विष्वक्सेनस्य चक्रस्य
क्षेत्रपालस्य दर्शयेत्।
शालग्रामस्य प्रथमा पूजाथो
निष्फलोच्यते ।। १० ।।
पूर्ववत् षोडशारञ्च सपद्मं मण्डलं
लिखेत्।
शङ्खचक्रगदाखड्गैर्गुर्वाद्यं
पूर्वंवद्यजेत् ।। ११ ।।
पूर्वे सौम्ये धनुर्बाणान्
वेदाद्यैरासनं ददेत्।
शिलां न्यसेद् द्वादशार्णैस्तृतीयं पूजनं
श्रृणु ।। १२ ।।
अष्टारमब्जं विलिखेत् गुर्वाद्यं
पूर्ववद्यजेत्।
अष्टर्णेनासनं दत्त्वा तेनैव च
शिलां न्यसेत् ।। १३ ।।
पूजयेद्दशधा तेन गायत्रीभ्यां जितं
तथा ।। १४ ।।
इस प्रकार यह शालग्राम की प्रथम
पूजा निष्कला कही जाती है। पूर्ववत् षोडशदलकमल से युक्त मण्डल को अङ्कित करे।
उसमें शङ्ख, चक्र, गदा
और खड्ग-इन आयुधों की तथा गुरु आदि की पहले की भाँति पूजा करे। पूर्व और उत्तर
दिशाओं में क्रमशः धनुष और बाण की पूजा करे। प्रणवमन्त्र से आसन समर्पण करे और द्वादशाक्षर
मन्त्र से शिला का न्यास करना चाहिये। अब तीसरे प्रकार की कनिष्ठ पूजा का वर्णन
करता हूँ सुनो। अष्टदलकमल अङ्कित करके उस पर पहले के समान गुरु आदि की पूजा करे।
फिर अष्टाक्षर मन्त्र से आसन देकर उसी से शिला का न्यास करे ॥ १० - १४॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
शालग्रामादिपूजाकथनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'शालग्राम आदि की पूजा का वर्णन' विषयक सैंतालीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ॥४७॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 48
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