मत्स्य स्तोत्र
मत्स्य स्तोत्र-एक दिन राजा
सत्यव्रत जब नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजलि के जल में एक
छोटी-सी मछली आ गयी। राजा ने अपनी अंजलि में आयी हुई मछली को जल के साथ ही फिर से
नदी में डाल दिया। उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ राजा सत्यव्रत से कहा- कि जल में
रहने वाले जन्तु अपनी जाति वालों को भी खा डालते है। मैं उनके भय से अत्यन्त
व्याकुल हो रही हूँ। अतः आप मुझे फिर इसी नदी के जल में न छोड़े । राजा सत्यव्रत
ने उस मछली की अत्यन्त दीनता से भरी बात सुनकर बड़ी दया से उसे अपने पात्र के जल
में रख दिया और अपने स्थान पर ले आये। लाने के बाद एक रात में ही वह मछली उस
कमण्डलु में इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। राजा ने मछली को
कमण्डलु से निकालकर एक बहुत बड़े पानी के मटके में रख दिया। परन्तु वहाँ डालने पर
वह मछली दो ही घड़ी में तीन हाथ बढ़ गयी। सत्यव्रत ने वहाँ से उस मछली को उठाकर एक
सरोवर में डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देर में इतनी बढ़ गयी कि उसने एक
महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवर के जल को घेर लिया । राजा ने मत्स्य को समुद्र
में छोड़ दिया। समुद्र में डालते समय मत्स्य भगवान ने सत्यव्रत से कहा- ‘वीर! समुद्र में बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे
मुझे खा जायेंगे, इसलिये आप मुझे समुद्र के जल में मत
छोड़िये’। मत्स्य भगवान की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत
मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा- ‘मत्स्य का रूप धारण करके
मुझे मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में चार सौ
कोस के विस्तार का सरोवर घेर लिया। आज तक ऐसी शक्ति रखने वाला जलचर जीव तो न मैंने
कभी देखा था और न सुना ही था।
मत्स्यस्तोत्रम्
नूनं त्वं भगवान्
साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः ।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं
जलौकसाम् ॥ २७॥
अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान
सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही आपने जलचर
का रूप धारण किया है।
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ
स्थित्युत्पत्यप्ययेश्वर ।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो
ह्यात्मगतिर्विभो ॥ २८॥
पुरुषोत्तम! आप जगत की उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो!
हम शरणागत भक्तों के लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं।
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां
भूतिहेतवः ।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता
धृतम् ॥ २९॥
यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियों
के अभ्युदय के लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह
जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है।
न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
मृषा भवेत्सर्वसुहृत्प्रियात्मनः ।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सता-
मदीदृशो यद्वपुरद्भुतं हि नः ॥ ३०॥
कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्म
पदार्थों में अपनेपन का अभिमान करने वाले संसारी पुरुषों का आश्रय व्यर्थ होता है,
उस प्रकार आपके चरणों की शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और
आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है।
इति श्रीमद्भागवतपुराणान्तर्गतं अष्टमस्कन्धे मत्स्यस्तोत्रं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥
0 Comments