अग्निपुराण अध्याय ३९

अग्निपुराण अध्याय ३९                 

अग्निपुराण अध्याय ३९ विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये भूपरिग्रह का विधान का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ३९

अग्निपुराणम् अध्यायः ३९                 

Agni puran chapter 39

अग्निपुराण उन्तालीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ३९                 

अग्निपुराणम् अध्यायः ३९ - भृपरिग्रहविधानम्

हयग्रीव उवाच

विष्ण्वादीनां प्रतिष्ठादि वक्ष्ये ब्रह्मन् श्रृणुष्व मे।

प्रोक्तानि पञ्चरात्राणि सप्तरात्राणि वै मया ।। १ ।।

व्यस्तानि मुनिभिर्लेके पञ्चविंशतिसङ्ख्यया।

हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम् ।। २ ।।

वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्रादङ्गार्ग्यगालवम्।

नारदीयञ्च सम्प्रश्नं शाण्डिल्यं वैश्वकं ।। ३ ।।

सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वासिष्ठंज्ञानसागरम्।

स्वायम्भुवं कापिलञ्चातार्क्षं नारायणीयकम् ।। ४ ।।

आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणम्।

बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः ।। ५ ।।

भगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं विष्णु आदि देवताओं की प्रतिष्ठा के विषय में कहूँगा, ध्यान देकर सुनिये। इस विषय में मेरे द्वारा वर्णित पञ्चरात्रों एवं सप्तरात्रों का ऋषियों ने मानवलोक में प्रचार किया है। वे संख्यामें पच्चीस हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं -) आदिहयशीर्षतन्त्र, त्रैलोक्यमोहनतन्त्र, वैभवतन्त्र, पुष्करतन्त्र, प्रह्लादतन्त्र, गार्ग्यतन्त्र, गालवतन्त्र, नारदीयतन्त्र, श्रीप्रश्नतन्त्र, शाण्डिल्यतन्त्र, ईश्वरतन्त्र, सत्यतन्त्र, शौनकतन्त्र, वसिष्ठक्त ज्ञानसागरतन्त्र, स्वायम्भुवतन्त्र, कापिलतन्त्र, तार्क्ष्य ( गारुड) - तन्त्र, नारायणीयतन्त्र, आत्रेयतन्त्र, नारसिंहतन्त्र, आनन्दतन्त्र, आरुणतन्त्र, बौधायनतन्त्र, अष्टाङ्गतन्त्र और विश्वतन्त्र ॥ १-५ ॥

प्रतिष्ठां हि द्विजः कुर्य्यान्मध्यदेशादिसम्भवः।

न कच्छदेशसम्भूतः कावेरीकोङ्कणोद्‌गतः ।। ६ ।।

कामरूपकलिङ्गोत्थः काञ्चीकारमीरकोशलः ।

आकाशवायुतेजोम्बुभूरेताः पञ्च रात्रयः ।। ७ ।।

अचैतन्यास्तमोद्रिक्ताः पञ्चरात्रविवर्जितम्।

ब्रह्माहं विष्णुरमल इति विद्यात्स देशिकः ।। ८ ।।

सर्व्लक्षणहीनोपि स गुरुस्तन्त्रपारगः।

इन तन्त्रों के अनुसार मध्यदेश आदि में उत्पन्न द्विज देवविग्रहों की प्रतिष्ठा करे। कच्छदेश, कावेरीतटवर्ती देश, कोंकण, कामरूप, कलिङ्ग, काञ्ची तथा काश्मीर देश में उत्पन्न ब्राह्मण देवप्रतिष्ठा आदि न करे। आकाश, वायु, तेज, जल एवं पृथ्वी- ये पञ्चमहाभूत पञ्चरात्र हैं जो चेतनाशून्य एवं अज्ञानान्धकार से आच्छा हैं, वे पञ्चरात्र से रहित हैं। जो मनुष्य यह धारणा करता है कि 'मैं पापमुक्त परब्रह्म विष्णु हूँ' - वह देशिक होता है। वह समस्त बाह्य लक्षणों (वेष आदि) से हीन होने पर भी तन्त्रवेत्ता आचार्य माना गया है ॥ ६-८ ॥

नगराभिमुखाः स्थाप्या देवा न च पराङ्‌मुखाः ।। ९ ।।

कुरुक्षेत्रे गयादौ च नदीनान्तु समीपतः।

ब्रह्मा मध्ये तु नगरे पूर्वे शक्रस्य शोभनम् ।। १० ।।

अग्नावग्नेश्च मातॄणां भूतानाञ्च यमस्य च।

दक्षिणे चण्डिकायाश्च पितृदैत्यादिकस्य च ।। ११ ।।

नैर्ऋते मन्दिरं कुर्यात् वरूणादेश्चवारुणे।

वायोर्न्नागस्य वायव्ये सौम्ये यक्षगुहस्य च ।। १२ ।।

चण्डीशस्य महेशस्य ऐशे विष्णोश्च सर्वशः।

पूर्वदेवकुलं पीड्य प्रासादं स्वल्पकं त्वथ ।। १३ ।।

देवताओं की नगराभिमुख स्थापना करनी चाहिये। नगर की ओर उनका पृष्ठभाग नहीं होना चाहिये । कुरुक्षेत्र, गया आदि तीर्थस्थानों में अथवा नदी के समीप देवालय का निर्माण कराना चाहिये। ब्रह्मा का मन्दिर नगर के मध्य में तथा इन्द्र का पूर्व दिशा में उत्तम माना गया है। अग्निदेव तथा मातृकाओं का आग्नेयकोण में, भूतगण और यमराज का दक्षिण में, चण्डिका, पितृगण एवं दैत्यादि का मन्दिर नैर्ऋत्य- कोण में बनवाना चाहिये। वरुण का पश्चिम में, वायुदेव और नाग का वायव्यकोण में, यक्ष या कुबेर का उत्तर दिशा में, चण्डीश महेश का ईशानकोण में और विष्णु का मन्दिर सभी ओर बनवाना श्रेष्ठ है। ज्ञानवान् मनुष्य को पूर्ववर्ती देव मन्दिर को संकुचित करके अल्प, समान या विशाल मन्दिर नहीं बनवाना चाहिये ।। ९-१३ ॥

समं वाप्यधिकं वापि न कर्त्तव्यं विजानता।

उभयोर्द्विगुणां सीमांत्वक्त्वा चोच्छयसम्मिताम् ।। १४ ।।

प्रासादं कारयेदन्यं नोभयं पीडयेद् बुधः।

भूमौ तु शोधितायां तु कुर्याद्‌भूमिपरिग्रहम् ।। १५ ।।

प्राकारसीमापर्य्यन्तं ततो भूतबलिं हरेत्।

माषं हरिद्राचूर्णन्तु सलाजं दधिसक्तुभिः ।। १६ ।।

अष्टाक्षरेण सक्तूँश्च पातयित्वाष्टदिक्षु च।

राक्षसाश्च पिशाचाश्च यस्मिंस्तिष्ठन्ति भूतले ।। १७ ।।

सर्व्वे ते व्यपगच्छन्तु स्थानं कुर्य्यामहं हरेः।

हलेन वाहयित्वा गां गोभिश्चैवावदारयेत् ।। १८ ।।

परमाण्वष्टकेनैव रथरेणुः प्रकीर्तितः।

रथरेण्वष्टकेनैव त्रसरेणुः प्रकीर्त्यते ।। १९ ।।

तैरष्टभिस्तु बालाग्रं लिख्या तैरष्टभिर्मता।

ताभिर्यूकाष्टभिः ख्याता ताश्चाष्टौ यवमध्यमः ।। २० ।।

यवाष्टकैरङ्गुलं स्याच्चतुर्विंशाङ्गुलः करः।

चतुरङ्गुलसंयुक्तः स हस्तः पद्महस्तकः ।। २१ ।।

 (किसी देव मन्दिर के समीप मन्दिर बनवाने पर) दोनों मन्दिरों की ऊँचाई के बराबर दुगुनी सीमा छोड़कर नवीन देव प्रासाद का निर्माण करावे । विद्वान् व्यक्ति दोनों मन्दिरों को पीडित न करे। भूमि का शोधन करने के बाद भूमि परिग्रह करे। तदनन्तर प्राकार की सीमातक माष, हरिद्राचूर्ण, खील, दधि और सक्तु से भूतबलि प्रदान करे। फिर अष्टाक्षरमन्त्र पढ़कर आठों दिशाओं में सक्तु बिखेरते हुए कहे- 'इस भूमिखण्ड पर जो राक्षस एवं पिशाच आदि निवास करते हों, वे सब यहाँ से चले जायें। मैं यहाँ पर श्रीहरि के लिये मन्दिर का निर्माण करूँगा।" फिर भूमि को हल से जुतवाकर गोचारण करावे। आठ परमाणु का 'रथरेणु' माना गया है। आठ रथरेणु का 'त्रसरेणु' माना जाता है। आठ त्रसरेणु का 'बालाग्र' तथा आठ बालाग्र की 'लिक्षा' कही जाती है। आठ लिक्षा की 'यूका,' आठ यूका का 'यवमध्यम', आठ यव का 'अङ्गुल, ' चौबीस अङ्गुल का 'कर' और अट्ठाईस अङ्गुल का 'पद्महस्त' होता है ॥ १४-२१ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये भूपरिग्रहो नाम ऊनचत्वारिंशोऽध्यायः।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के लिये 'भूपरिग्रह का वर्णन' नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 40

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