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गृहम् ।। २ ।।
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समतीतं भविष्यञ्च कुलानामयुतं नरः
।। ३ ।।
विष्णुलोकं नयत्याशु कारयित्वा
हरेर्गृहम्।
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ह्यलङ्कृताः ।। ४ ।।
विमुक्ता नारकैर्दुः खैः कर्त्तुः
कृष्णस्य मन्दिरम्।
ब्रह्महत्यादिपापौघघातकं देवतालयम्
।। ५ ।।
अग्निदेव कहते हैं—
मुनिवर वसिष्ठ ! भगवान् वासुदेव आदि विभिन्न देवताओं के निमित्त
मन्दिर का निर्माण कराने से जिस फल आदि की प्राप्ति होती है, अब मैं उसी का वर्णन करूँगा। जो देवता के लिये मन्दिर जलाशय आदि के
निर्माण कराने की इच्छा करता है, उसका वह शुभ संकल्प ही 'उसके हजारों जन्मों के पापों का नाश कर देता है। जो मन से भावना द्वारा भी
मन्दिर का निर्माण करते हैं, उनके सैकड़ों जन्मों के पापों का
नाश हो जाता है। जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण के लिये किसी दूसरे के द्वारा बनवाये
जाते हुए मन्दिर के निर्माण- कार्य का अनुमोदन मात्र कर देते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त हो उन अच्युतदेव के लोक (वैकुण्ठ अथवा
गोलोकधाम को) प्राप्त होते हैं। भगवान् विष्णु के निमित्त मन्दिर का निर्माण करके
मनुष्य अपने भूतपूर्व तथा भविष्य में होनेवाले दस हजार कुलों को तत्काल विष्णुलोक में
जाने का अधिकारी बना देता है। श्रीकृष्ण मन्दिर का निर्माण करनेवाले मनुष्य के
पितर नरक के क्लेशों से तत्काल छुटकारा पा जाते हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से
अलंकृत हो बड़े हर्ष के साथ विष्णुधाम में निवास करते हैं। देवालय का निर्माण
ब्रह्महत्या आदि पापों के पुञ्ज का नाश करनेवाला है ॥ १-५ ॥
फलं यन्नाप्यते यज्ञैर्द्धाम कृत्वा
तदाप्यते।
देवागारे कृते सर्व्वतीर्थस्नानफलं
लभेत् ।। ६ ।।
देवाद्यर्थे हतानाञ्च रणे यत्तत्फलादिकम्।
शाठ्येन पांशुना वापि कृतं धाम च
नाकदम् ।। ७ ।।
एकायतनकृत् स्वर्गी त्र्यगारी ब्रह्मलोकभाक्।
पञ्चागारी शम्भुलोकमष्टागाराद्धरौ
स्थितिः ।। ८ ।।
षोडशालयकारी तु
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात्।
कनिष्ठं मध्यमं श्रेष्ठं कारयित्वा
हरेर्गृहम् ।। ९ ।।
स्वर्गं च वैष्णवं लोकं
मोक्षमाप्नोति च क्रमात्।
श्रेष्ठमायतनं विष्णोः कृत्वा
यद्धनवान् लभेत् ।। १० ।।
कनिष्ठेनैव तत् पुण्यं
प्राप्नोत्यधनवान्नरः।
समुत्पाद्य धनं कृत्वा स्वल्पेनापि
सुरालयम् ।। ११ ।।
कारयित्वा हरेः पुण्यं
सम्प्राप्नोत्यधिकं वरम्।
लक्षेणाथ सहस्नेण शतेनार्द्धेन वा
हरेः ।। १२ ।।
कारयन् भबनं याति यत्रास्ते
गरुडध्वजः।
यज्ञों से जिस फल की प्राप्ति नहीं
होती है,
वह भी देवालय का निर्माण कराने मात्र से प्राप्त हो जाता है। देवालय
का निर्माण करा देने पर समस्त तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त हो जाता है।
देवता- ब्राह्मण आदि के लिये रणभूमि में मारे जानेवाले धर्मात्मा शूरवीरों को जिस
फल आदि की प्राप्ति होती है, वही देवालय के निर्माण से भी
सुलभ होता है। कोई शठता (कंजूसी) के कारण धूल- मिट्टी से भी देवालय बनवा दे तो वह
उसे स्वर्ग या दिव्यलोक प्रदान करनेवाला होता है। एकायतन (एक ही देवविग्रह के लिये
एक कमरे का) मन्दिर बनवाने वाले पुरुष को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।
त्र्यायतन मन्दिर का निर्माता ब्रह्मलोक में निवास पाता है। पञ्चायतन मन्दिर का
निर्माण करनेवाले को शिवलोक की प्राप्ति होती है और अष्टायतन- मन्दिर के निर्माण से
श्रीहरि की संनिधि में रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है। जो षोडशायतन मन्दिर का निर्माण
कराता है, वह भोग और मोक्ष, दोनों पाता
है। श्रीहरि के मन्दिर की तीन श्रेणियाँ हैं- कनिष्ठ, मध्यम
और श्रेष्ठ इनका निर्माण कराने से क्रमश: स्वर्गलोक, विष्णुलोक
तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। धनी मनुष्य भगवान् विष्णु का उत्तम श्रेणी का
मन्दिर बनवाकर जिस फल को प्राप्त करता है, उसे ही निर्धन
मनुष्य निम्नश्रेणी का मन्दिर बनवाकर भी प्राप्त कर लेता है। धन- उपार्जन कर उसमें
से थोड़ा सा ही खर्च करके यदि मनुष्य देव मन्दिर बनवा ले तो बहुत अधिक पुण्य एवं
भगवान्का वरदान प्राप्त करता है। एक लाख या एक हजार या एक सौ अथवा उसका आधा (५०)
मुद्रा ही खर्च करके भगवान् विष्णु का मन्दिर बनवानेवाला मनुष्य उस नित्य धाम को
प्राप्त होता है, जहाँ साक्षात् गरुड की ध्वजा फहरानेवाले
भगवान् विष्णु विराजमान होते हैं ॥ ६-१२ ॥
बाल्ये तु क्रीडमाना ये
पांशुभिर्भवनं हरेः ।। १३ ।।
वासुदेवस्य कुर्व्वन्ति तेपि
तल्लोकगामिनः।
तीर्थे चायतने पुण्ये सिद्धक्षेत्रे
तथाष्टमे ।। १४ ।।
कर्त्तुरायतन विष्णोर्यथोक्तात्
त्रिगुणं फलम्।
बन्धूकपुष्पविन्यासैः सुधापङ्केन
वैष्णवम् ।। १५ ।।
ये विलिम्पन्ति भवनं ते यान्ति
भगवत्पुरम्।
पतितं पतभानन्तु तथार्द्धपतितं नरः
।। १६ ।।
समुद्धत्य हरेर्द्धाम प्राप्नोति
द्विगुणं फलम्।
पतितस्य तु यः कर्त्ता पतितस्य च
रक्षिता ।। १७ ।।
विष्णोरायतनस्येह स नरो
विष्णुलोकभाक्।
इष्टकानिचयस्तिष्ठेद् यावदायतने
हरेः ।। १८ ।।
सकुलस्तस्य वै कर्त्ता विष्णुलोके
महीयते।
स एव पुण्यवान् पूज्य इह लोके परत्र
च ।। १९ ।।
कृष्णस्य वासुदेवस्य यः कारयति
केतनम्।
जातःस एव सुकृती कुलन्तेनैव पावितम्
।। २० ।।
जो लोग बचपन में खेलते समय धूलि से
भगवान् विष्णु का मन्दिर बनाते हैं, वे
भी उनके धाम को प्राप्त होते हैं। तीर्थ में, पवित्र स्थान में,
सिद्धक्षेत्र में तथा किसी आश्रम पर जो भगवान् विष्णु का मन्दिर
बनवाते हैं, उन्हें अन्यत्र मन्दिर बनाने का जो फल बताया गया
है, उससे तीन गुना अधिक फल मिलता है। जो लोग भगवान् विष्णु के
मन्दिर को चूने से लिपाते और उस पर बन्धूक के फूल का चित्र बनाते हैं, वे अन्त में भगवान् के धाम में पहुँच जाते हैं। भगवान् का जो मन्दिर गिर
गया हो, गिर रहा हो, अथवा आधा गिर चुका
हो, उसका जो मनुष्य जीर्णोद्धार करता है, वह नवीन मन्दिर बनवाने की अपेक्षा दूना पुण्यफल प्राप्त करता है। जो गिरे
हुए विष्णु मन्दिर को पुनः बनवाता और गिरे हुए की रक्षा करता है, वह मनुष्य साक्षात् भगवान् विष्णु का स्वरूप प्राप्त करता है। भगवान् के
मन्दिर की ईंटें जबतक रहती हैं, तबतक उसका बनवानेवाला
विष्णुलोक में कुलसहित प्रतिष्ठित होता है। इस संसार में और परलोक में वही
पुण्यवान् और पूजनीय है ॥ १३ – २० ॥
विष्णुरुद्रार्कदेव्यादेर्गृहकर्त्ता
स कीर्त्तिभाक्।
किं तस्य वित्तनिचयैर्मूढस्य
परिरक्षिणः ।। २१ ।।
दुः खार्ज्जितैर्यः कृष्णस्य न
कारयति केतनम्।
नोपभोग्यं धनं यस्य
पितृविप्रदिवौकसाम् ।। २२ ।।
नोपभोगाय बन्धूनां व्यर्थस्तस्य
धनागमः।
यथा ध्रुवो नृणां
मृत्युर्वित्तनाशस्तथा ध्रुवः ।। २३ ।।
मूढस्तत्राऽनुबध्नाति जीवितेथ चले
धने।
यदा वित्तं न दानाय नोपभोगाय
देहिनाम् ।। २४ ।।
नापि कीर्त्यै न धर्मार्थं तस्य
स्वाम्येथ को गुणः।
तस्माद्वित्तं समासाद्य दैवाद्वा
पौरुषादथ ।। २५ ।।
दद्यात् सम्यग् द्विजाग्रथेभ्यः
कीर्त्तनानि च कारयेत्।
दानेभ्यस्चाधिकं यस्मात्
कीर्त्तनेभ्यो वरं यतः ।। २६ ।।
अतस्तत्कारयेद्धीमान्
विष्ण्वादेर्म्मन्दिरादिकम्।
विनिवेश्य हरेर्द्धाम
भक्तिमद्भिर्न्नरोत्तमैः ।। २७ ।।
निवेशितं भवेत् कृत्स्नं त्रैलोक्यं
सचराचरम्।
भूतं भव्यं भविष्यञ्च स्थूलं
सूक्ष्मं तथेतरत् ।। २८ ।।
आब्रह्मस्तम्बपर्य्यन्तं सर्व्वं
विष्णोः समुद्भवम्।
तस्य देवादिदेवस्य सर्वगस्य
महात्मनः ।। २९ ।।
निवेश्य भवनं विष्णोर्न्न भूयो भुवि
जायते।
यथा विष्णोर्द्धामकृतौ फलं
तद्वद्दिवौकसाम् ।। ३० ।।
शिवब्रह्मार्क्कविध्नेशचण्डीलक्षग्यादिकात्मनाम्।
देवालयकृतेः पुण्यं प्रतिमाकरणेधिकम्
।। ३१ ।।
प्रतिमास्थापने यागे फलस्यान्तो न
विद्यते।
मृण्मयाद्दारुजे पुण्यं
दारुजादिष्टकाभवे ।। ३२ ।।
इष्टकोत्थाच्छैलजे
स्याद्धेमादेरधिकं फलम्।
सप्तजमन्मकृतं पापं प्रापम्भादेव
नश्यति ।। ३३ ।।
देवालयस्य स्वर्गी स्यान्नरकं न स
गच्छति।
कुलानां शतमुद्धृत्य विष्णुलोकं
नयेन्नरः ।। ३४ ।।
यमो यमभटानाह देवमन्दिरकारिणः।
जो भगवान् श्रीकृष्ण का मन्दिर
बनवाता है, वही पुण्यवान् उत्पन्न हुआ है,
उसी ने अपने कुल की रक्षा की है। जो भगवान् विष्णु, शिव, सूर्य और देवी आदि का मन्दिर बनवाता है,
वही इस लोक में कीर्ति का भागी होता है। सदा धन की रक्षा में लगे
रहनेवाले मूर्ख मनुष्य को बड़े कष्ट से कमाये हुए अधिक धन से क्या लाभ हुआ,
यदि वह उससे श्रीकृष्ण का मन्दिर ही नहीं बनवाता । जिसका धन पितरों,
ब्राह्मणों और देवताओं के उपयोग में नहीं आता तथा बन्धु बान्धवों के
भी उपयोग में नहीं आ सका, उसके धन की प्राप्ति व्यर्थ हुई।
जैसे प्राणियों की मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार कमाये हुए
धन का नाश भी निश्चित है। मूर्ख मनुष्य ही क्षणभङ्गुर जीवन और चञ्चल धन के मोह में
बँधा रहता है। जब धन दान के लिये, प्राणियों के उपभोग के
लिये, कीर्ति के लिये और धर्म के लिये काम में नहीं लाया जा
सके तो उस धन का मालिक बनने में क्या लाभ है ? इसलिये
प्रारब्ध से मिले अथवा पुरुषार्थ से, किसी भी उपाय से धन को
प्राप्तकर उसे उत्तम ब्राह्मणों को दान दे, अथवा कोई स्थिर
कीर्ति बनवावे। चूँकि दान और कीर्ति से भी बढ़कर मन्दिर बनवाना है, इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य विष्णु आदि देवताओं का मन्दिर आदि बनवावे।
भक्तिमान् श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा यदि भगवान् के मन्दिर का निर्माण और उसमें
भगवान्का प्रवेश (स्थापन आदि) हुआ तो यह समझना चाहिये कि उसने समस्त चराचर
त्रिभुवन को रहने के लिये भवन बनवा दिया। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी
भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल, सूक्ष्म और इससे भिन्न है, वह सब भगवान् विष्णु से प्रकट हुआ है। उन देवाधिदेव सर्वव्यापक महात्मा
विष्णु का मन्दिर में स्थापन करके मनुष्य पुनः संसार में जन्म नहीं लेता (मुक्त हो
जाता है)। जिस प्रकार विष्णु का मन्दिर बनवाने में फल बताया गया है, उसी प्रकार अन्य देवताओं - शिव, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, दुर्गा और
लक्ष्मी आदि का भी मन्दिर बनवाने से होता है। मन्दिर बनवाने से अधिक पुण्य देवता की
प्रतिमा बनवाने में है। देव प्रतिमा की स्थापना सम्बन्धी जो यज्ञ होता है, उसके फल का तो अन्त ही नहीं है। कच्ची मिट्टी की प्रतिमा से लकड़ी की
प्रतिमा उत्तम है, उससे ईंट की, उससे
भी पत्थर की और उससे भी अधिक सुवर्ण आदि धातुओं की प्रतिमा का फल है। देवमन्दिर का
प्रारम्भ करने मात्र से सात जन्मों के किये हुए पाप का नाश हो जाता है तथा
बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी होता है; वह नरक में
नहीं जाता। इतना ही नहीं, वह मनुष्य अपनी सौ पीढ़ी का उद्धार
करके उसे विष्णुलोक में पहुँचा देता है। यमराज ने अपने दूतों से देवमन्दिर
बनानेवालों को लक्ष्य करके ऐसा कहा था- ॥ २१-३५ ॥
यम उवाच
प्रतिमापूजादिकृतो नानेया नरकं नराः
।। ३५ ।।
देवालयाद्यकर्त्तार आनेयस्ते तु
गोचरे
विचरध्वं यथान्यायन्नियोगो मम
पाल्यताम् ।। ३६ ।।
नाझाभङ्गं करिष्यन्ति भवतां जन्तवः
क्कचित्।
केवलं ये जगत्तातमनन्तं
समुपाश्रिताः ।। ३७ ।।
भवद्भिः परिहर्त्तव्यास्तेषां
नात्रास्ति संस्थितिः।
येच भागवता लोके तच्चित्तास्तत्परायमाः
।। ३८ ।।
पूजयन्ति सदा विष्णुं ते
वस्त्याज्याः सुदूरतः।
यस्तिष्ठन् प्रस्वपन्
गच्छन्नुत्तिष्ठन् स्खलिते स्थिते ।। ३९ ।।
सङ्गीर्त्तयन्ति गोविन्दं ते
वस्त्याज्याः सुदूरतः।
नित्यनैमित्तिकैर्द्देवं ये यजन्ति
जनार्द्दनम् ।। ४० ।।
नावलोक्या भचवद्भिस्ते तद्गता
यान्ति तद्गतिम्।
ये
पुष्पधूपवासोभिर्भूषणैश्चातिवल्लभैः ।। ४१ ।।
यम बोले- ( देवालय और ) देव-प्रतिमा
का निर्माण तथा उसकी पूजा आदि करनेवाले मनुष्यों को तुमलोग नरक में न ले आना तथा जो
देव मन्दिर आदि नहीं बनवाते, उन्हें खास
तौर पर पकड़ लाना । जाओ! तुमलोग संसार में विचरो और न्यायपूर्वक मेरी आज्ञा का
पालन करो। संसार के कोई भी प्राणी कभी तुम्हारी आज्ञा नहीं टाल सकेंगे। केवल उन
लोगों को तुम छोड़ देना जो कि जगत्पिता भगवान् अनन्त की शरण में जा चुके हैं;
क्योंकि उन लोगों की स्थिति यहाँ (यमलोक में) नहीं होती। संसार में
जहाँ भी भगवान्में चित्त लगाये हुए, भगवान्की ही शरण में
पड़े हुए भगवद्भक्त महात्मा सदा भगवान् विष्णु की पूजा करते हों, उन्हें दूर से ही छोड़कर तुमलोग चले जाना। जो स्थिर होते, सोते, चलते, उठते, गिरते, पड़ते या खड़े होते समय भगवान् श्रीकृष्ण का
नाम-कीर्तन करते हैं, उन्हें दूर से ही त्याग देना । जो
नित्य नैमित्तिक कर्मो द्वारा भगवान् जनार्दन की पूजा करते हैं, उनकी ओर तुमलोग आँख उठाकर देखना भी नहीं; क्योंकि
भगवान् का व्रत करनेवाले लोग भगवान् को ही प्राप्त होते हैं ॥ ३६-४१ ॥
अर्च्ययन्ति न ते ग्राह्या नराः
कृष्णालये गताः ।
उपलेपनकर्त्तारः सम्मार्जनपरश्च ये
।। ४२ ।।
कृष्णालये परित्याज्यास्तेषां
पुत्रास्तथा कुलम्।
येन चायतनं विष्णोः कारितं तत्
कुलोद्भवम् ।। ४३ ।।
पुंसां शतं नावलोक्यं भवद्भिर्दुष्टचेतसा।
यस्तु देवालयं विष्णोर्द्दारुशौलमयं
तथा ।। ४४ ।।
कारयेन्मृण्मयं वापि सर्वपापैः
प्रमुच्यते।
अहन्यहनि यज्ञेन यजतो यन्महाफलम् ।।
४५ ।।
प्राप्नोति तत् फलं विष्णोर्यः
कारयति केतनम्।
सप्तलोकमयो विष्णुस्तस्य यः कुरुते
गृहम् ।। ४६ ।।
कारयन् भगवद्धाम्
नयत्यच्युतलोकताम्।
सप्तलोकमयो विष्णुस्तस्य यः कुरुते
गृहम् ।। ४७ ।।
तारयत्यक्षयांल्लोकानक्षयान्
प्रातिपद्यते।
इष्टकाचयविन्यासो यावनत्यब्दानि
तिष्ठति ।। ४८ ।।
तावद्वर्षसहस्नाणि तत्कर्त्तु
र्द्दि वि संस्थितिः।
प्रतिमाकृद्विष्णुलोकं स्थापको
लीयते हरौ ।।
देवसद्मप्रतिकृतिप्रतिष्ठाकृत्तु
गोचरे ।। ४९ ।।
जो लोग फूल,
धूप, वस्त्र और अत्यन्त प्रिय आभूषणों द्वारा
भगवान्की पूजा करते हैं, उनका स्पर्श न करना; क्योंकि वे मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण के धाम को पहुँच चुके हैं। जो भगवान्
के मन्दिर में लेप करते या बुहारी लगाते हैं, उनके पुत्रों को
तथा उनके वंश को भी छोड़ देना । जिन्होंने भगवान् विष्णु का मन्दिर बनवाया हो,
उनके वंश में सौ पीढ़ीतक के मनुष्यों की ओर तुमलोग बुरे भाव से न
देखना। जो लकड़ी का, पत्थर का अथवा मिट्टी का ही देवालय
भगवान् विष्णु के लिये बनवाता है, वह समस्त पापों से मुक्त
हो जाता है। प्रतिदिन यज्ञों द्वारा भगवान्की आराधना करनेवाले को जो महान् फल
मिलता है, उसी फल को, जो विष्णु का
मन्दिर बनवाता है, वह भी प्राप्त करता है जो भगवान् अच्युत का
मन्दिर बनवाता है, वह अपनी बीती हुई सौ पीढ़ी के पितरों को
तथा होनेवाले सौ पीढ़ी के वंशजों को भगवान् विष्णु के लोक को पहुँचा देता है।
भगवान् विष्णु सप्तलोकमय हैं। उनका मन्दिर जो बनवाता है, वह
अपने कुल को तारता है, उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति कराता
है और स्वयं भी अक्षय लोकों को प्राप्त होता है। मन्दिर में ईंट के समूह का जोड़
जितने वर्षोंतक रहता है, उतने ही हजार वर्षों तक उस मन्दिर के
बनवानेवाले की स्वर्गलोक में स्थिति होती है। भगवान् की प्रतिमा बनानेवाला
विष्णुलोक को प्राप्त होता है, उसकी स्थापना करनेवाला
भगवान्में लीन हो जाता है और देवालय बनवाकर उसमें प्रतिमा की स्थापना करनेवाला सदा
भगवान् के लोक में निवास पाता है ॥ ४२ – ४९ ॥
अग्निरुवाच
यमोक्ता नानयंस्तेथ प्रतिष्ठादिकृतं
हरेः।
हयशीर्षः प्रतिष्ठार्थं देवानां
ब्रह्मणेऽब्रवीत् ।। ५० ।।
अग्निदेव बोले- यमराज के इस प्रकार
आज्ञा देने पर यम के दूत भगवान् विष्णु की स्थापना आदि करनेवालों को यमलोक में
नहीं ले जाते। देवताओं की प्रतिष्ठा आदि को विधि का भगवान् हयग्रीव ने ब्रह्माजी से
वर्णन किया था ॥ ५० ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
देवालयादिमाहत्म्यवर्णनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः॥
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'देवालय निर्माण माहात्म्यादि का वर्णन' नामक अड़तीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ॥३८॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 39
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