अग्निपुराण अध्याय ४०

अग्निपुराण अध्याय ४०                 

अग्निपुराण अध्याय ४० वास्तुमण्डलवर्ती देवताओं के स्थापन, पूजन, अर्घ्यदान तथा बलिदान आदि की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ४०

अग्निपुराणम् अध्यायः ४०                 

Agni puran chapter 40

अग्निपुराण चालीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ४०                 

अग्निपुराणम् अध्यायः ४० - अर्घ्यदानविधानम्

भगवानुवाच

पूर्व्वमासीत् महद्भूतं सर्व्वभूतभयङ्करम्।

तद्देवैर्न्निहितं भूमौ स वास्तुपुरुषः स्मृतः ।। १ ।।

चतुः षष्टिपदे क्षेत्रे ईशं कोणार्द्धसंस्थितम्।

घृताक्षतैस्तर्प्पयेत्तं पर्ज्जन्यं पदगं ततः ।। २ ।।

उत्पलाद्भिर्जयन्तञ्च द्विपदस्थं पताकया।

महेन्द्रञ्चैककोष्ठस्थं सर्व्वरक्तैः पदे रविम् ।। ३ ।।

वितानेनार्द्धपदगं सत्यं पदे भृशं घृतैः।

व्योम शाकुनमांसेन कोणार्द्धपदसंस्थितम् ।। ४ ।।

स्रुचा चार्द्धपदे वह्नि पूषणं लाजयैकतः।

स्वर्णेन वितथं द्विष्ठं मंथनेन गृहक्षतम् ।। ५ ।।

मांसौदनेन धर्म्मेशमेकैकस्मिन् स्थितं द्वयम्।

गन्धर्वं द्विपदं गन्धैर्भृशं शाकुनजिह्वया ।। ६ ।।

एकस्थमर्धसंस्थञ्च मृगं नीलपटैस्तथा।

पितॄन् कृशरयार्द्धस्थं दन्तकाष्ठैः पदस्थितम् ।। ७ ।।

दौवारिकं द्विसंस्थञ्च सुग्रीवं यावकेन तु।

भगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन् ! पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिये भयंकर एक महाभूत था। देवताओं ने उसे भूमि में निहित कर दिया। उसी को 'वास्तुपुरुष' माना गया है। चतुःषष्टि पदों से युक्त क्षेत्र में अर्धकोण में स्थित ईश (या शिखी) को घृत एवं अक्षतों से तृप्त करे। फिर एक पद में स्थित पर्जन्य को कमल तथा जल से, दो पदों में स्थित जयन्त को पताका से, दो कोष्ठों में स्थित महेन्द्र को भी उसी से, द्विपदस्थ रवि को सभी लाल रंग की वस्तुओं से संतुष्ट करे। दो पदों में स्थित सत्य को वितान (चंदोवों) से एवं एकपदस्थ भृश को घृत से, अग्निकोणवर्ती अर्धपद में स्थित व्योम (आकाश) को शाकुननामक औषध के गूदे से, उसी कोण के दूसरे अर्धपद में स्थित अग्निदेव को स्रुक्से, एकपदस्थ पूषा को लाजा (खील) - से, द्विपदस्थ वितथ को स्वर्ण से, एकपदस्थ गृहक्षत को माखन से, एक पद में स्थित यमराज को उड़दमिश्रित भात से, द्विपदस्थ गन्धर्व को गन्ध से, एकपदस्थ भृङ्ग को शाकुनजिह्वा नामक ओषधि से, अर्धपद में स्थित मृग को नीले वस्त्र से, अर्धकोष्ठ के निम्नभाग में विद्यमान पितृगण को कृशर ( खिचड़ी) से, एकपदस्थ दौवारिक को दन्तकाष्ठ से एवं दो पदों में स्थित सुग्रीव को यव-निर्मित पदार्थ ( हलुवा आदि ) - से परितृप्त करे ॥ १-७ ॥

पुष्पदन्तं कुशस्तम्बैः पद्मैर्व्वरुणमेकतः ।। ८ ।।

असुरं सुरया द्विष्ठं पदे शेषं घृताम्भसा।

यवैः पापं पदार्द्धस्थं रोगमध्ये च मण्डकैः ।। ९ ।।

नागपुष्पैः पदे नागं मुख्यं भक्ष्यैर्हि संस्थितम्।

मुद्गोदनेन भल्लाटं पदे सोमं पदे तथा ।। १० ।।

मधुना पायसेनाथ शालूकेन ऋषिं द्वये।

पदे दितिं लोपिकाभिरर्द्धे दितिमथापरम् ।। ११ ।।

पूरिकाभिस्ततञ्चापमीशाधः पयसा पदे।

ततोधश्चापवत्सन्तु दध्ना चैकपदे स्थितम् ।। १२ ।।

लड्ङुकैश्च मरीचिन्तु पूर्वकोष्ठचतष्टये ।

सवित्रे रक्तपुष्पाणि ब्रह्माधः कोणकोष्ठके ।। १३ ।।

तदधः कोष्ठके दद्यात् सावित्र्यै च कुशोदकम्।

विवस्वतेऽरुणं दद्याच्चन्दनञ्चतुरङ्घ्निषु ।। १४ ।।

रक्षोधः कोणकोष्ठे तु इन्द्रायान्नं निशान्वितम्।

इन्द्रजयाय तस्याधो घृतान्नं कोणकोष्ठके ।। १५ ।।

चतुष्पदेषु दातव्यमिन्द्राय गुडपायसम्।

वाय्वधः कोणदेशे तु रुद्राय पक्कमांसकम् ।। १६ ।।

तदधः कोणकोष्ठे तु यक्षायार्द्धं फलन्तथा।

महीधराय मांसान्नं माषञ्च चतुरङ्घ्रिषु ।। १७ ।।

मध्ये चतुष्पदे स्थाप्या ब्रह्मणे तिलतण्डुलाः।

चरकीं माषसर्प्पिर्भ्यां स्कन्दं कृशरयासृजा ।। १८ ।।

रक्तपत्रैर्विदारीञ्च कन्दर्पञ्च पलोदनैः।

पूतन ांपलपित्ताभ्यां मांसासृग्भ्याञ्च जम्भकम् ।। १९ ।।

पित्तासृगस्थिभिः पापं पिलिपिञ्चं स्रजासृजा।

ईशाद्यान् रक्तमांसेन अभावादक्षतैर्यजेत् ।। २० ।।

रक्षोमातृगणेभ्यश्च पिशाचादिभ्य एव च।

पितृभ्यः क्षेत्रपालेभ्यो बलीन् दद्यात् प्रकामतः ।। २१ ।।

द्विपदस्थ पुष्पदन्त को कुश-समूहों से, दो पदों में स्थित वरुण को पद्म से, द्विपदस्थ असुर को सुरा से, एक पद में स्थित शेष को घृतमिश्रित जल से, अर्धपदस्थित पाप (या पापयक्ष्मा) को यवान से, अर्धपदस्थ रोग को माँड़ से, एकपदस्थित नाग (सर्प) - को नागपुष्प से, द्विपदगत मुख्य को भक्ष्य पदार्थों से, एकपदस्थ भल्ला को मूँग भात से, एकपद संस्थित सोम को मधुयुक्त खीर से, दो पदों में अधिष्ठित ऋषि को शालूक से, एक पद में विद्यमान अदिति को लोपिका से एवं अर्धपदस्थ दिति को पूरियों द्वारा संतुष्ट करे। फिर ईशान स्थित ईश के निम्न भाग में अर्धपदस्थित 'आप'को दुग्ध से एवं उसके नीचे अर्धपद में अधिष्ठित आप वत्स को दही से संतुष्ट करे। साथ ही पूर्ववर्ती कोष्ठ-चतुष्टय में मरीचि को लड्डू देकर तृप्त करे। ब्रह्मा के ऊर्ध्वभाग के कोण स्थित कोष्ठ में अर्धपदस्थ सावित्र को रक्तपुष्प निवेदन करे। उसके निम्नवर्ती अर्ध कोष्ठक में स्थित सविता को कुशोदक प्रदान करे। चार पदों में स्थित विवस्वान्को रक्तचन्दन, नैर्ऋत्यकोणवर्ती अर्धकोष्ठ में स्थित सुराधिप इन्द्र को हरिद्रामिश्रित जल का अर्घ्य दे। उसी के अर्धभाग में कोणवर्ती कोष्ठक में स्थित इन्द्रजय (अथवा जय) को घृत का अर्घ्य दे । चतुष्पद में मित्र को गुड़युक्त पायस दे। वायव्यकोण के आधे कोष्ठक में प्रतिष्ठित रुद्र को पकायी हुई उड़द (या उसका बड़ा) एवं उसके अधोवर्ती अर्धकोष्ठ में स्थित यक्ष ( या रुद्रदास) को आर्द्रफल ( अंगूर, सेव आदि) समर्पित करे। चतुष्पदवर्ती महीधर ( या पृथ्वीधर) को उड़दमिश्रित अन्न एवं माष (उड़द) की बलि दे । मध्यवर्ती कोष्ठ-चतुष्टय में भगवान् ब्रह्मा के निमित्त तिल- तण्डुल स्थापित करे। चरकी को उड़द और घृत से, स्कन्द को खिचड़ी तथा पुष्पमाला से, विदारी को लाल कमल से, कन्दर्प को एक पल के तोलवाले भात से, पूतना को पलपित्त से, जम्भक को उड़द एवं पुष्पमाला से, पापा या पापराक्षसी को पित्त, पुष्पमाला एवं अस्थियों से तथा पिलिपित्स को भाँति-भाँति की माला के द्वारा संतुष्ट करे। तदनन्तर ईशान आदि दिक्पालों को लाल उड़द की बलि दे। इन सबके अभाव में अक्षतों से सबकी पूजा करनी चाहिये । राक्षस, मातृका, गण, पिशाच, पितर एवं क्षेत्रपाल को भी इच्छानुसार (दही- अक्षत या दही- उड़द की) बलि प्रदान करनी चाहिये ॥ ८- २१ ॥

वर्तमान समय में अक्षत से ही सबका पूजन करना चाहिये। इससे शास्त्रीय आज्ञा का भी परिपालन होता है तथा हिंसा आदि दोष की भी प्राप्ति नहीं होती है।

अहुत्वैतानसन्तप्य प्रासादादीन्न कारयेत्।

ब्रह्मस्थाने हरिं लक्ष्मीं गणं पश्चात् समर्च्चयेत् ।। २२ ।।

महीश्वरं वास्तुमयं वर्द्धन्या सहितं घटम्।

ब्रह्माणं मध्यतः कुम्भे ब्रह्मादींस्छ दिगीश्वरान् ।। २३ ।।

दद्यात् पूर्णाहुति पश्चात् स्वस्ति वाच्य प्रणम्य च।

प्रगृह्य कर्करीं सम्यक् मण्डलन्तु प्रदक्षिणम् ।। २४ ।।

सूत्रमार्गेण हे ब्रह्मांस्तोयधाराञ्च भ्रामयेत्।

पूर्व्ववक्तेन मार्गेण सप्त वीजानि वापयेत् ।। २५ ।।

प्रारम्भं तेन मार्गेण तस्य खातस्य कारयेत्।

ततो गर्त्तं खनेन्मध्ये हस्तमात्रं प्रमाणतः ।। २६ ।।

चतुरङ्गलकं चाधश्चोपलिप्यार्च्चयेत्ततः।

ध्यात्वा चतुर्भुजं विष्णुमर्घ्यं दद्यात्तु कुम्भतः ।। २७ ।।

कर्कर्या पूरयेत् श्वभ्रं शुक्लपुष्पाणि च न्यसेत्।

दक्षिणावर्त्तकं श्रेष्ठं बीजैर्मृद्भिश्च पूरयेत् ।। २८ ।।

अर्घ्यदानं विनिष्पाद्य गोवस्त्रादीन्ददेद्‌गुरौ।

कालज्ञाय स्थपतये वैष्णवादिभ्य अर्च्चयेत् ।। २९ ।।

ततस्तु खानयेद्यत्नाज्जलान्तं यावदेव तु।

पुरुषाधः स्थितं शल्यं न गृहे दोषदं भवेत् ।। ३० ।।

अस्थिशल्ये भिद्यते वै भित्तिर्वै गृहिणोऽसुखम्।

यन्नामशब्दं श्रृणुयात्तत्र शल्यं तदुद्भवम् ।। ३१ ।।

वास्तु होम एवं बलि-प्रदान से इनकी तृप्ति किये बिना प्रासाद आदि का निर्माण नहीं करना चाहिये। ब्रह्मा के स्थान में श्रीहरि, श्रीलक्ष्मीजी तथा गणदेवता की पूजा करें। फिर भूमि, वास्तुपुरुष एवं वर्धनीयुक्त कलश का पूजन करे। कलश के मध्य में ब्रह्मा तथा दिक्पालों का यजन करे। फिर स्वस्तिवाचन एवं प्रणाम करके पूर्णाहुति दे। ब्रह्मन् ! तदनन्तर गृहपति हाथ में छिद्रयुक्त जलपात्र लेकर विधिपूर्वक दक्षिणावर्त मण्डल बनाते हुए सूत्रमार्ग से जलधारा को घुमावे फिर पूर्ववत् उसी मार्ग से सात बीजों का वपन करे। उसी मार्ग से खात (गड्ढे ) का आरम्भ करे। तदनन्तर मध्य में हाथ भर चौड़ा एवं चार अङ्गुल नीचा गर्त खोद ले। उसको लीप-पोतकर पूजन प्रारम्भ करे। सर्वप्रथम चार भुजाधारी श्रीविष्णु भगवान्‌ का ध्यान करके उन्हें कलश से अर्घ्य प्रदान करे। फिर छिद्रयुक्त जलपात्र ( झारी) से गर्त को भरकर उसमें श्वेत पुष्प डाले। उस श्रेष्ठ दक्षिणावर्त गर्त को बीज एवं मृत्तिका से भर दे। इस प्रकार अर्घ्यदान का कार्य निष्पन्न करके आचार्य को गो-वस्त्रादि का दान करे। ज्यौतिषी और स्थपति (राजमिस्त्री) - का यथोचित सत्कार करके विष्णुभक्त और सूर्य का पूजन करे। फिर भूमि को यत्नपूर्वक जलपर्यन्त खुदवावे। मनुष्य के बराबर की गहराई से नीचे यदि शल्य (हड्डी आदि) हो तो वह गृह के लिये दोषकारक नहीं होता है। अस्थि (शल्य) होने पर घर की दीवार टूट जाती है और गृहपति को सुख नहीं प्राप्त होता है। खुदाई के समय जिस जीव-जन्तु का नाम सुनायी दे जाय, वह शल्य उसी जीव के शरीर से उद्भूत जानना चाहिये ॥ २२-३१ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अर्घ्यदानकथनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'वास्तु-देवताओं के अर्घ्य दान-विधान आदि का वर्णन' नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४० ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 41 

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