अग्निपुराण अध्याय ४१
अग्निपुराण अध्याय ४१ शिलान्यास की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ४१
Agni puran chapter 41
अग्निपुराण इकतालीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ४१
अग्निपुराणम् अध्यायः ४१ - शिलादिन्यासविधानम्
भगवानुवाच
पादप्रतिष्ठां वक्ष्यामि
शिलाविन्यासलक्षणम्।
अग्रतो मण्डपः कार्य्यः
कुण्डानान्तु चतुष्टयम् ।। १ ।।
कुम्भन्यासेष्टकान्यासौ
द्वारस्तम्भोच्छ्रयं शुभम्।
पादोनं पूरयेत् खातं तत्र वास्तुं
यजेत् समे ।। २ ।।
इष्टकाश्च सुपक्वाः स्युर्द्वादशाङ्गुलसम्मिताः।
सुविस्तारत्रिभागेन वैपुल्येन
समन्विताः ।। ३ ।।
करप्रमाणा श्रेष्ठा स्याच्छिलाप्यथ
शिलामये ।
नव कुम्भांस्ताम्रमयान्
स्थापयेदिष्टकाघटान् ।। ४ ।।
अद्भिः पञ्चकषायेण सर्व्वौषधिजलेन
च।
गन्धतोयेन च तथा
कुम्भैस्तोयसुपूरितैः ।। ५ ।।
हिरण्यव्रीहिसंयुक्तैर्गन्धचन्दनचर्च्चितैः।
आपो हिष्ठेति तिसृभिः शन्नो देवीति
चाप्यथ ।। ६ ।।
तरत समन्दीरिति च पावमानीभिरेव च।
उदुत्तमं वरुणमिति कयानश्च तथैव च
।। ७ ।।
वरुणस्येति मन्त्रेण हंसः
शुचिषदित्यपि।
श्रीसूक्तेन च तथा शिलाः संस्थाप्य
संघटाः ।। ८ ।।
शय्यायां मण्डपे प्राच्यां मण्डले
हरिमर्च्चयेत्।
जुहुयाज्जनयित्वाग्निं समिधो
द्वादशीस्ततः ।। ९ ।।
भगवान् हयग्रीव बोले- अब मैं
शिलान्यासस्वरूपा पाद-प्रतिष्ठा का वर्णन करूंगा। पहले मण्डप बनाना चाहिये;
फिर उसमें चार कुण्ड बनावे। वे कुण्ड क्रमशः कुम्भन्यास*, इष्टकान्यास*, द्वार और खम्भे के शुभ
आश्रय होंगे। कुण्ड का तीन चौथाई हिस्सा कंकड़ आदि से भर दे और बराबर करके उस पर
वास्तुदेवता का पूजन करे। नींव में डाली जानेवाली ईंटें खूब पकी हों; बारह-बारह अङ्गुल की लंबी हों तथा विस्तार के तिहाई भाग के बराबर, अर्थात् चार अङ्गुल उनकी मोटाई होनी चाहिये। अगर पत्थर का मन्दिर बनवाना
हो तो इंट की जगह पत्थर ही नींव में डाला जायगा। एक-एक पत्थर एक-एक हाथ का लंबा
होना चाहिये। (यदि सामर्थ्य हो तो) ताँबे के नौ कलशों की, अन्यथा
मिट्टी के बने नौ कलशों की स्थापना करे। जल, पञ्चकषाय*, सर्वौषधि और चन्दनमिश्रित
जल से उन कलशों को पूर्ण करना चाहिये। इसी प्रकार सोना, धान
आदि से युक्त तथा गन्ध-चन्दन आदि से भलीभाँति पूजित करके उन जलपूर्ण कलशों द्वारा 'आपो हि ष्ठा'* इत्यादि तीन ऋचाओं, 'शं नो* देवीरभिष्टय' आदि मन्त्रों 'तरत्स* मन्दी:' इत्यादि मन्त्र एवं पावमानी'* ऋचाओं के तथा 'उदुत्तमं वरुण*' 'कया* नः' और 'वरुणस्योत्तम्भनमसि*' इत्यादि मन्त्रों के पाठपूर्वक 'हंसः शुचिषद्'* इत्यादि मन्त्र तथा
श्रीसूक्त का भी उच्चारण करते हुए बहुत-सी शिलाओं अथवा ईटों का अभिषेक करे। फिर
उन्हें नींव में स्थापित करके मण्डप के भीतर एक शय्या पर पूर्वमण्डल में भगवान्
श्रीविष्णु का पूजन करे। अरणी-मन्थन द्वारा अग्नि प्रकट करके द्वादशाक्षर-मन्त्र से
उसमें समिधाओं का हवन करना चाहिये॥१-९॥
*१. कलश की स्थापना।
*२. ईट या पत्थर की स्थापना।
*३. तन्त्र के अनुसार निम्नाकित पांच वृक्षों का कषाय-जामुन, सेमर, खिरैटी, मौलसिरी और बेर। यह कषाय वृक्ष की छाल को पानी में भिगोकर निकाला जाता है
और कलश में डालने एवं दुर्गापूजन आदि के काम आता है।
*४. (यजु०, अ० ११.
मन्त्र ५०,५१. ५२)
आपो॒ हि ष्ठा
म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ऽऊ॒र्जे द॑धातन। म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥५० ॥
यो वः॑ शि॒वत॑मो॒
रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑। उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ॥५१ ॥
तस्मा॒ऽअं॑र गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ। आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥५२ ॥
*५. शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑।
शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ॥
(अथर्व०,
१। ६। १)
*६. (ऋ०, मं०९,
सू०५८ ।१-४)
तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति॒
धारा॑ सु॒तस्यान्ध॑सः । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
उ॒स्रा वे॑द॒ वसू॑नां॒
मर्त॑स्य दे॒व्यव॑सः । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
ध्व॒स्रयो॑:
पुरु॒षन्त्यो॒रा स॒हस्रा॑णि दद्महे । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
आ ययो॑स्त्रिं॒शतं॒ तना॑
स॒हस्रा॑णि च॒ दद्म॑हे । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
*७. ऋग्वेद, नवम
मण्डल, अध्याय १, २, ३ के सूक्तों को 'पावमानसूक्त' तथा ऋचाओं को 'पावमानी ऋचाएं कहते हैं।
*८. उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒म श्र॑थाय।
अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते
तवाना॑गसो॒ऽअदि॑तये स्याम ॥ (यजु०, १२।१२)
*९. कया॑ नश्चि॒त्रऽ आ भु॑वदू॒ती स॒दावृ॑धः॒ सखा॑।
कया॒ शचि॑ष्ठया वृ॒ता ॥
(यजु०, ३६। ४)
*१०. वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ वरु॑णस्य स्कम्भ॒सर्ज॑नी स्थो॒
वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न्यसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑नमसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासी॑द ॥(यजु०.४।३६)
*११. हंसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्।
नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद्
व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत् ॥ (यजु० १०। २४; कठ० २।२।२)
आधारावाज्यभागौ तु प्रणवेनैव
कारयेत्।
अष्टाहुतीस्तथाष्टान्तैराज्यं
व्याहृतिभिः क्रमात् ।। १० ।।
लोकेशानामग्नये वै सोमायावग्रहेषु च
।
पुरुषोत्तमायेति च
व्याहृतीर्जुहुयात्ततः ।। ११ ।।
प्रायश्चित्तं ततः पूर्णां
मूर्त्तिमांसघृतांस्तिलान्।
वेदाद्यैर्द्वादशान्तेन कुम्भेषु च
पृथक् पृथक् ।। १२ ।।
प्राङमुखस्तु गुरुः
कुर्य्यादष्टदिक्षु विलिप्य च।
मध्ये चैकां शिलां कुम्भं
न्यसेदेतान् सुरान् क्रमात् ।। १३ ।।
'आधार' और 'आज्यभाग' नामक आहुतियाँ प्रणवमन्त्र से ही करावे।
फिर अष्टाक्षर-मन्त्र से आठ आहुति देकर ॐ भूः स्वाहा, ॐ भुवः
स्वाहा, ॐ स्वः स्वाहा-इस प्रकार तीन व्याहृतियों से क्रमशः
लोकेश्वर अग्नि, सोमग्रह और भगवान् पुरुषोत्तम के निमित्त
हवन करे। इसके बाद प्रायश्चित्तसंज्ञक हवन करके प्रणवयुक्त द्वादशाक्षर मन्त्र से
उड़द, घी और तिल को एक साथ लेकर पूर्णाहुति-हवन करना चाहिये।
तत्पश्चात् आचार्य पूर्वाभिमुख होकर आठ दिशाओं में स्थापित कलशों पर पृथक्-पृथक् पद्म
आदि देवताओं का स्थापनपूजन करे। बीच में भी धरती लीपकर पत्थर की एक शिला और कलश
स्थापित करे। इन नौ कलशों पर क्रमशः नीचे लिखे देवताओं की स्थापना करनी
चाहिये॥१०-१३॥
पद्मं चैव महापद्मं मकरं कच्छपं
तथा।
कुमुदञ्च तथा नन्दं पद्मं शङ्खञ्च
पद्मिनीम् ।। १४ ।।
पद्म, महापद्म, मकर, कच्छप, कुमुद, आनन्द, पद्म और शङ्ख-इनको
आठ कलशों में और पद्मिनी को मध्यवर्ती कलश पर स्थापित करे॥१४॥
कुम्भान्न चालयेत्तेषु
न्यसेदष्टेष्टकाः क्रमात्।
ईशानान्ताश्च पूर्व्वादाविष्टकां
प्रथमं न्यसेत् ।। १५ ।।
शक्तयो विमलाद्यास्तु इष्टकानान्तुक
देवताः।
न्यसनीया यथायोगं मध्ये न्यस्या
त्वनुग्रहा ।। १६ ।।
अव्यङ्गे चाक्षते पूर्णे
मुनेरङ्गिरसः सुते।
इष्टके त्वं प्रयच्छेष्टं
प्रतिष्ठां कारयाम्यहम् ।। १७ ।।
इन कलशों को हिलावे-डुलावे नहीं;
उनके निकट पूर्व आदि के क्रम से ईशानकोणतक एक एक ईंट रख दे। फिर उन पर
उनकी देवता विमला आदि शक्तियों का न्यास (स्थापन) करना चाहिये।* बीच में 'अनुग्रहा की
स्थापना करे। इसके बाद इस प्रकार प्रार्थना करे-'मुनिवर
अङ्गिरा की सुपुत्री इष्ट का देवी, तुम्हारा कोई अङ्ग
टूटा-फूटा या खराब नहीं हुआ है; तुम अपने सभी अङ्गों से
पूर्ण हो। मेरा अभीष्ट पूर्ण करो। अब मैं प्रतिष्ठा करा रहा हूँ'॥१५-१७॥
* विमला आदि शक्तियों के नाम इस प्रकार है
विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्नी,
सत्या, ईशाना तथा अनुग्रहा।
मन्त्रेणानेन विन्यस्य इष्टका
देशिकोत्तमः।
गर्भाधानं ततः कुर्य्यान्मध्यस्थाने
समाहितः ।। १८ ।।
कुम्भोपरिष्टाद्देवेशं पद्मिनीं
न्यस्य देवताम्।
मृत्तिकाश्चैव पुष्पाणि धातवो
रत्नमेव च ।। १९ ।।
लौहानि दिक्पतेरस्त्रं यजेद्वै
गर्भभाजने।
द्वादशाङ्गुलविस्तारे
चतुरङ्गुलकोच्छ्रये ।। २० ।।
पद्माकारे ताम्रमये भाजने पृथिवीं
यजेत्।
एकान्ते सर्वभूतेशे पर्वतासनमण्डिते
।। २१ ।।
समुद्रपरिवारे त्वं देवि गर्भं
समाश्रय।
नन्दे नन्दय वासिष्ठे वसुभिः प्रजया
सह ।। २२ ।।
जये भार्गवदायादे प्रजानां
विजयावहे।
पूर्णेङ्गिरसदायादे पूर्णकामं
कुरुष्व माम् ।। २३ ।।
भद्रे काश्यपदायादे कुरु भद्रां
मतिं मम।
सर्वबीजसमायुक्ते सर्वरत्नौषधीवृते
।। २४ ।।
जये सुरुचिरे नन्दे वासिष्ठे
रम्यतामिह।
प्रजापतिसुते देवि चतुरस्रे महीयसि
।। २५ ।।
सुभगे सुप्रभे भद्रे गृहे काश्यपि
रम्यताम्।
पूजिते परमाश्चर्य्ये
गन्धमाल्यैरलङ्कृते ।। २६ ।।
भवभूतिकरी देवि गृहे भार्गवि
रम्यताम्।
देशस्वामिपुरस्वामिगृहस्वामिपरिग्रहे
।। २७ ।।
मनुष्यादिकतुष्ट्यर्थं पशुवृद्धिकरी
भव।
एवमुत्क्वा ततः खातं गोमूत्रेण तु
सेचयेत् ।। २८ ।।
उत्तम आचार्य इस मन्त्र से इष्टकाओं
की स्थापना करने के पश्चात् एकाग्रचित्त होकर मध्यवाले स्थान में गर्भाधान करे।
(उसकी विधि यों है-) एक कलश के ऊपर देवेश्वर भगवान् नारायण तथा पद्मिनी (लक्ष्मी)
देवी को स्थापित करके उनके पास मिट्टी, फूल,
धातु और रत्नों को रखे। इसके बाद लोहे आदि के बने हुए गर्भपात्र में,
जिसका विस्तार बारह अङ्गुल और ऊँचाई चार अङ्गुल हो, अस्त्र की पूजा करे। फिर ताँबे के बने हुए कमल के आकारवाले एक पात्र में
पृथ्वी का पूजन करे और इस प्रकार प्रार्थना करे-'सम्पूर्ण
भूतों की ईश्वरी पृथ्वीदेवी! तुम पर्वतों के आसन से सुशोभित हो; चारों ओर समुद्रों से घिरी हुई हो; एकान्त में गर्भ
धारण करो। वसिष्ठकन्या नन्दा! वसुओं और प्रजाओं के सहित तुम मुझे आनन्दित करो।
भार्गवपुत्री जया! तुम प्रजाओं को विजय दिलानेवाली हो। (मुझे भी विजय दो।) अङ्गिरा
की पुत्री पूर्णा! तुम मेरी कामनाएँ पूर्ण करो। महर्षि कश्यप की कन्या भद्रा! तुम
मेरी बुद्धि कल्याणमयी कर दो। सम्पूर्ण बीजों से युक्त और समस्त रत्नों एवं औषधों से
सम्पन्न सुन्दरी जया देवी तथा वसिष्ठपुत्री नन्दा देवी! यहाँ आनन्दपूर्वक रम जाओ।
हे कश्यप की कन्या भद्रा! तुम प्रजापति की पुत्री हो, चारों
ओर फैली हुई हो, परम महान् हो; साथ ही
सुन्दरी और सुकान्त हो, इस गृह में रमण करो। हे भार्गवी देवी
! तुम परम आश्चर्यमयी हो; गन्ध और माल्य आदि से सुशोभित एवं
पूजित हो; लोकों को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली देवि! तुम इस
गृह में रमण करो। इस देश के सम्राट, इस नगर के राजा और इस घर
के मालिक के बाल-बच्चों को तथा मनुष्य आदि प्राणियों को आनन्द देने के लिये पशु
आदि सम्पदा की वृद्धि करो।' इस प्रकार प्रार्थना करके
वास्तु-कुण्ड को गोमूत्र से सींचना चाहिये॥१८-२८॥
कृत्वा निधापयेद्गर्भं गर्भाधानं
भवेन्निशि।
गोवस्त्रादि प्रदद्याच्च
गुरवेन्येषु भोजनम् ।। २९ ।।
गर्भं न्यस्येष्टका न्यस्य ततो
गर्भं प्रपूरयेत्।
पीठबन्धमतः कुर्य्यान्मितप्रासादमानत।।
३० ।।
पीठोत्तमं चोच्छ्रयेण
प्रासादस्यार्द्धविस्तरात्।
पादहीनं मध्यमं स्यात् पनिष्ठं
चोत्तमार्द्धतः ।। ३१ ।।
पीठबन्धोपरिष्टातु पुनर्यजत्।
पादप्परतिष्ठकारी तु निष्पापो दिवि
मोदते।। ३२ ।।
यह सब विधि पूर्ण करके कुण्ड में
गर्भ को स्थापित करे। यह गर्भाधान रात में होना चाहिये। उस समय आचार्य को
गौ-वस्त्र आदि दान करे तथा अन्य लोगों को भोजन दे। इस प्रकार गर्भपात्र रखकर और
ईंटों को भी रखकर उस कुण्ड को भर दे। तत्पश्चात् मन्दिर की ऊँचाई के अनुसार
प्रधानदेवता के पीठ का निर्माण करे। 'उत्तम
पीठ' वह है, जो ऊँचाई में मन्दिर के
आधे विस्तार के बराबर हो। उत्तम पीठ की अपेक्षा एक चौथाई कम ऊँचाई होने पर मध्यम
पीठ कहलाता है और उत्तम पीठ की आधी ऊँचाई होने पर 'कनिष्ठ
पीठ' होता है। पीठ-बन्ध के ऊपर पुनः वास्तुयाग (वास्तुदेवता का
पूजन) करना चाहिये। केवल पाद-प्रतिष्ठा करनेवाला मनुष्य भी सब पापों से रहित होकर
देवलोक में आनन्द-भोग करता है ॥ २९-३२॥
देवागारं करोमीति मनसा यस्तु
चिन्तयेत्।
तस्य कायगतं पापं तदह्रा हि
प्रणश्यति ।। ३३ ।।
कृते तु किं पुनस्तस्य प्रासादे
विधिनैव तु।
अष्टेष्टकसमायुक्तं यः
कुर्य्याहेवतालयम् ।। ३४ ।।
न तस्य फलसम्पत्तिर्वक्तुं शक्येत
केनचित्।
अनेनैवानुमेयं हि फलं
प्रासादविस्तरात् ।। ३५ ।।
मैं देवमन्दिर बनवा रहा हूँ,
ऐसा जो मन से चिन्तन भी करता है, उसका शारीरिक
पाप उसी दिन नष्ट हो जाता है। फिर जो विधिपूर्वक मन्दिर बनवाता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है? जो आठ ईंटों का भी
देवमन्दिर बनवाता है, उसके फल की सम्पत्ति का भी कोई वर्णन
नहीं कर सकता। इसी से विशाल मन्दिर बनवाने से मिलनेवाले महान् फल का अनुमान कर
लेना चाहिये॥३३-३५॥
ग्राममध्ये च पूर्वे च
प्रत्यग्द्वारं प्रकल्पयेत्।
विदिशासु च सर्वासु ग्रामे
प्रत्यङ्मुखो भवेत् ।।३६ ।।
दक्षिणे चोत्तरे चैव पश्चिमे
प्राङ्मुखो भवेत् ।। ३७ ।।
गाँव के बीच में अथवा गाँव से
पूर्वदिशा में यदि मन्दिर बनवाया जाय तो उसका दरवाजा पश्चिम की ओर रखना चाहिये और
सब कोणों में से किसी ओर बनवाना हो तो गाँव की ओर दरवाजा रखे। गाँव से दक्षिण,
उत्तर या पश्चिमदिशा में मन्दिर बने, तो उसका
दरवाजा पूर्वदिशा की ओर रखना चाहिये॥३६-३७॥
इत्यागदिमहापुराणे आग्नेये
पातालयोगकथनं नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'सर्वशिलाविन्यासविधान आदि का कथन' नामक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ॥४१॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 42
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