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अग्निपुराण अध्याय ४५

अग्निपुराण अध्याय ४५                    

अग्निपुराण अध्याय ४५ पिण्डिका आदि के लक्षण का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ४५

अग्निपुराणम् अध्यायः ४५                    

Agni puran chapter 45

अग्निपुराण पैंतालीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ४५                    

अग्निपुराणम् अध्यायः ४५ - पिण्डिकालक्षणकथनम्

भगवानुवाच

पिण्डिकालक्षणं वक्ष्ये दैर्घ्यैण प्रतिमासमा।

उच्छायं प्रतिमार्द्धन्तु चतुः षष्टिपुटां च ताम् ।। १ ।।

त्यक्त्वा पङ्‌क्तिद्वयं चाधस्तदूद्‌र्ध्वं यत्तु कोष्ठकम्।

समन्तादुभयोः पार्श्वे अन्तस्थं परिमार्जयेत् ।। २ ।।

ऊद्‌र्ध्वं पङ्‌क्तिद्वयं त्यक्त्वा अधस्ताद् यत्तु कोष्ठकम्।

अन्तः सम्मार्जयेत् यत्नात् पार्श्वयोरुभयोः समम् ।। ३ ।।

भगवान् हयग्रीव कहते हैंब्रह्मन् ! अब मैं पिण्डिका का लक्षण बता रहा हूँ। पिण्डिका लंबाई में प्रतिमा के समान ही होती है, परंतु उसकी ऊँचाई प्रतिमा से आधी होती है। पिण्डिका को चौसठ कुटों (पदों या कोष्ठकों) से युक्त करके नीचे की दो पंक्ति छोड़ दे और उसके ऊपर का जो कोष्ठ है, उसे चारों ओर दोनों पार्श्वों में भीतर की ओर से मिटा दे। इसी तरह ऊपर की दो पङ्क्तियों को त्यागकर उसके नीचे का जो एक कोष्ठ (या एक पंक्ति) है, उसे भीतर की ओर से यत्नपूर्वक मिटा दे। दोनों पार्श्व में समान रूप से यह क्रिया करे ॥ १-३॥

तयोर्मध्यगतौ तत्र चतुष्कौ मार्जयेत्ततः।

चतुर्द्धा भाजयित्वा तु ऊद्‌र्ध्वपङ्‌क्तिद्वयं बुधः ।। ४ ।।

मेखला भागमात्रा स्यात् खातं तस्यार्द्धमानतः।

भागं भागं परित्यज्य पार्श्वयोरुभयोः समम् ।। ५ ।।

दत्त्वा चैकं पदं बाह्ये प्रमाणं कारयेद् बुधः।

त्रिभागेण च बागस्याग्रे स्यात्तोयविनिर्गमः ।। ६ ।।

दोनों पार्श्वों के मध्यगत जो दो चौक हैं, उनका भी मार्जन कर दे। तदनन्तर उसे चार भागों में बाँटकर विद्वान् पुरुष ऊपर की दो पङ्क्तियों को मेखला माने। मेखलाभाग की जो मात्रा है, उसके आधे मान के अनुसार उसमें खात खुदावे। फिर दोनों पार्श्वभागों में समानरूप से एक-एक भाग को त्यागकर बाहर की ओर का एक पद नाली बनाने के लिये दे दे। विद्वान् पुरुष उसमें नाली बनवाये । फिर तीन भाग में जो एक भाग है, उसके आगे जल निकलने का मार्ग रहे ॥ ४-६ ॥

नानाप्रकारभेदेन भद्रेयं पिण्डिका शुभा।

अष्टताला तु कर्त्तव्या देवी लक्ष्मीस्तथा स्त्रियः ।। ७ ।।

भ्रुवौ यवाधिके कार्य्ये यवहीना तु नासिका।

गोलकेनाधिकं वक्त्रमूद्‌र्ध्वं तिर्य्यग्विवर्जितम् ।। ८ ।।

आयते नयने कार्य्यं त्रिभागोनैर्यवैस्त्रिभिः।

तदर्द्धेन तु वैपुल्यं नेत्रयोः परिकल्पयेत् ।। ९ ।।

कर्णपाशोऽधिकः कार्य्यः सृक्कणीसमसूत्रतः।

नम्रं कलाविहीनन्तु कुर्य्यादंशद्वयं तथा ।। १० ।।

ग्रीवा सार्द्धकला कार्य्या तद्विस्तारोपशोभिता।

नेत्रं विना तु विस्तारौ ऊरू जानू च पिण्डिका ।। ११ ।।

अङ्‌घ्निपृष्ठौ स्फिचौ कट्यां यथायोगं प्रकल्पयेत्।

नाना प्रकार के भेद से यह शुभ पिण्डिका 'भद्रा' कही गयी है। लक्ष्मी देवी की प्रतिमा ताल (हथेली) के माप से आठ ताल की बनायी जानी चाहिये। अन्य देवियों की प्रतिमा भी ऐसी ही हो। दोनों भौहों को नासिका की अपेक्षा एक-एक जौ अधिक बनावे और नासिका को उनकी अपेक्षा एक जौ कम । मुख की गोलाई नेत्रगोलक से बड़ी होनी चाहिये। वह ऊँचा और टेढ़ा-मेढ़ा न हो। आँखें बड़ी-बड़ी बनानी चाहिये। उनका माप सवा तीन जौ के बराबर हो। नेत्रों की चौड़ाई उनकी लंबाई की अपेक्षा आधी करे। मुख के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक की जितनी लंबाई है, उसके बराबर के सूत से नापकर कर्णपाश (कान का पूरा घेरा) बनावे। उसकी लंबाई उक्त सूत से कुछ अधिक ही रखे। दोनों कंधों को कुछ झुका हुआ और एक कला से रहित बनावे। ग्रीवा की लंबाई डेढ़ कला रखनी चाहिये। वह उतनी ही चौड़ाई से भी सुशोभित हो। दोनों ऊरुओं का विस्तार ग्रीवा की अपेक्षा एक नेत्र* कम होगा। जानु (घुटने), पिण्डली, पैर, पीठ, नितम्ब तथा कटिभाग- इन सबकी यथायोग्य कल्पना करे॥७-११॥

* नेत्र की जो लंबाई और चौड़ाई है, उतने माप को 'एक नेत्र' कहते हैं।

सप्तांशोनास्तथाङ्गुल्यो दीर्घं विष्कम्भनाहतम् ।। १२ ।।

नेत्रैकवर्जितायामा जङ्घोरू च तथा कटिः।

मध्यपार्श्वं च तद्‌वृत्तं घनं पीनं कुचद्वयम् ।। १३ ।।

तालमात्रौ स्तनौ कार्य्यौ कटिः सार्द्धकलाधिका।

लक्ष्म शेषं पुरावत्स्यात् दक्षिणे चाम्बुजं करे ।। १४ ।।

वामे विल्वं स्वियौ पार्श्वे शुभे चामरहस्तके।

दीर्घघोणस्तुगरुडश्चक्राङ्गाद्यानथो वदे ।। १५ ।।

हाथ की अँगुलियाँ बड़ी हों। वे परस्पर अवरुद्ध न हों। बड़ी अँगुली की अपेक्षा छोटी अँगुलियाँ सातवें अंश से रहित हों। जंघा, ऊरु और कटि - इनकी लंबाई क्रमशः एक-एक नेत्र कम हो । शरीर के मध्यभाग के आस-पास का अङ्ग गोल हो। दोनों कुच घने (परस्पर सटे हुए) और पीन (उभड़े हुए) हों। स्तनों का माप हथेली के बराबर हो। कटि उनकी अपेक्षा डेढ़ कला अधिक बड़ी हो। शेष चिह्न पूर्ववत् रहें। लक्ष्मीजी के दाहिने हाथ में कमल और बायें हाथ में बिल्वफल हो।* उनके पार्श्वभाग में हाथ में चँवर लिये दो सुन्दरी स्त्रियाँ खड़ी हों।* सामने बड़ी नाकवाले गरुड की स्थापना करे। अब मैं चक्राङ्कित (शालग्राम ) मूर्ति आदि का वर्णन करता हूँ ॥ १२-१५ ॥

*१. मत्स्यपुराण में दाहिने हाथ में श्रीफल और बायें हाथ में कमलका उल्लेख है-

पद्मं हस्ते प्रदातव्यं श्रीफलं दक्षिणे करे।' (२६१। ४३)

*२. मत्स्यपुराण में अनेक चामरधारिणी स्त्रियों का वर्णन है

'पार्श्वे तस्याः स्त्रियः कार्याश्चामरव्यग्रपाणयः। (२६१ । ४५)

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये पिण्डिकालक्ष्मादिलक्षणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'पिण्डिका आदि के लक्षण का वर्णन' नामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४५ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 4

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