अग्निपुराण अध्याय ४३
अग्निपुराण अध्याय ४३ मन्दिर के
देवता की स्थापना और भूतशान्ति आदि का कथन का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ४३
Agni puran chapter 43
अग्निपुराण तैंतालीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ४३
अग्निपुराणम् अध्यायः ४३ - प्रासाददेवतास्थापनम् भूतशान्त्यादिकथनम्
भगवानुवाच
प्रासादे देवताः स्थाप्या वक्ष्ये
ब्रह्मन् श्रृणुष्व मे।
पञ्चायतनमध्ये तु वासुदेवं
विवेशयेन् ।। १ ।।
वामनं नृहरिञ्चाश्वशीर्षं तद्वच्च
शूकरम्।
आग्नेये नैर्ऋते चैव वायव्ये
चेशगोचरे ।। २ ।।
अथ नारायणं मध्ये आग्नेय्यामम्बिकां
न्यसेत्।
नैर्ऋत्यां भास्करं वायौ ब्रह्माणं
लिङ्गमीशके ।। ३ ।।
अथवा रुद्ररूपन्तु अथवा नवधामसु।
वासुदेवं न्यसेन्मध्ये पूर्वादौ
वामवामकान् ।। ४ ।।
इन्द्रादीन् लोकपालांश्च अथवा
नवधामसु।
पञ्चायतनकं कुर्य्यात् मध्ये तु
पुरुषोत्तमम् ।। ५ ।।
हयग्रीवजी कहते हैं—
ब्रह्मन् ! अब मैं मन्दिर में स्थापित करनेयोग्य देवताओं का वर्णन
करूँगा, आप सुनें। पञ्चायतन मन्दिर में जो बीच का प्रधान
मन्दिर हो, उसमें भगवान् वासुदेव को स्थापित करे। शेष चार
मन्दिरों में से अग्निकोणवाले मन्दिर में भगवान् वामन की, नैर्ऋत्यकोण
में नरसिंह की, वायव्यकोण में हयग्रीव की और ईशानकोण में
वराहभगवान् की स्थापना करे। अथवा यदि बीच में भगवान् नारायण की स्थापना करे तो
अग्निकोण में दुर्गा की, नैर्ऋत्यकोण में सूर्य की, वायव्यकोण में ब्रह्मा की और ईशानकोण में लिङ्गमय शिव की स्थापना करे।
अथवा ईशान में रुद्ररूप की स्थापना करे। अथवा एक-एक आठ दिशाओं में और एक बीच में
इस प्रकार कुल नौ मन्दिर बनवावे । उनमें से बीच में वासुदेव की स्थापना करे और
पूर्वादि दिशाओं में परशुराम-राम आदि मुख्य- मुख्य नौ अवतारों की तथा इन्द्र आदि
लोकपालों की स्थापना करनी चाहिये। अथवा कुल नौ धामों में पाँच मन्दिर मुख्य
बनवावे। इनके मध्य में भगवान् पुरुषोत्तम की स्थापना करे ॥ १-५ ॥
लक्ष्मीवैश्रवणौ पूर्वं दक्षे
मातृगणं न्यसेत्।
स्कन्दं गणेशमीशानं सुर्य्यादीन्
पश्चिमे ग्रहान् ।। ६ ।।
उत्तरे दशमत्स्यादीनाग्नेय्यां
चण्डिकां तथा।
नैर्ॠत्यामम्बिकां स्थाप्य वायव्ये
तु सरस्वतीम् ।। ७ ।।
पद्मामैशे वासुदेवं मध्ये नारायणञ्च
वा।
त्रयोदशालये मध्ये विश्वरूपं
न्यसेद्धरिम् ।। ८ ।।
पूर्व दिशा में लक्ष्मी और कुबेर की,
दक्षिण में मातृकागण, स्कन्द, गणेश और शिव की, पश्चिम में सूर्य आदि नौ ग्रहों की
तथा उत्तर में मत्स्य आदि दस अवतारों की स्थापना करे। इसी प्रकार अग्निकोण में
चण्डी की, नैर्ऋत्यकोण में अम्बिका की, वायव्यकोण में सरस्वती की और ईशानकोण में लक्ष्मीजी की स्थापना करनी
चाहिये । मध्यभाग में वासुदेव अथवा नारायण की स्थापना करे। अथवा तेरह कमरोंवाले देवालय
के मध्यभाग में विश्वरूप भगवान् विष्णु की स्थापना करे ॥ ६-८ ॥
पूर्वांदौ केशवादीन् वा
अन्यधामस्वयं हरिम् ।
मृण्मयी दारुघटिता लोहजा रत्नजा तथा
।। ९ ।।
शैलजा गन्धजा चैव कौसुमी सप्तदा
स्मृता।
कौसुमी गन्धजा चैव मृण्मयी प्रतिमा
तथा ।। १० ।।
तत्कालपूजिताश्चैताः
सर्वकामफलप्रदाः।
अथ शैलमयी वक्ष्ये शिला यत्र च
गृह्यते ।। ११ ।।
पूर्व आदि दिशाओं में केशव आदि
द्वादश विग्रहों को स्थापित करे तथा इनसे अतिरिक्त गृहों में साक्षात् ये श्रीहरि
ही विराजमान होते हैं। भगवान् की प्रतिमा मिट्टी, लकड़ी, लोहा, रत्न, पत्थर, चन्दन और फूल - इन सात वस्तुओं की बनी हुई
सात प्रकार की मानी जाती है। फूल, मिट्टी तथा चन्दन की बनी
हुई प्रतिमाएँ बनने के बाद तुरंत पूजी जाती हैं। (अधिक काल के लिये नहीं होतीं ।)
पूजन करने पर ये समस्त कामनाओं को पूर्ण करती हैं। अब मैं शैलमयी प्रतिमा का वर्णन
करता हूँ, जहाँ प्रतिमा बनाने में शिला (पत्थर) - का उपयोग
किया जाता है ॥ ९-११ ॥
पर्वतानामभावे च गृह्णीयाद् भूगतां
शिलाम्।
पाण्डरा ह्यरुणा पीता कृष्णा शस्ता
तु वर्णिनाम् ।। १२ ।।
न यदा लभ्यते सम्यग् वर्णिनां
वर्णतः शिला।
वर्णाद्यापादनं तत्र जुहुयात्
सिंहविद्यया ।। १३ ।।
शिलायां शुक्लरेखाग्र्या
कृष्णाग्र्या सिंहहोमतः।
कांस्यघण्टानिनादा स्यात् पुंलिङ्गा
विस्फुलिङ्गिका ।। १४ ।।
तन्मन्दलक्षणा स्त्री
स्याद्रूपाभावान्नपुंसका।
दृश्यते मण्डलं यस्यां सगर्भां तां विवर्जयेत्
।। १५ ।।
उत्तम तो यह है कि किसी पर्वत का
पत्थर लाकर प्रतिमा बनवावे। पर्वतों के अभाव में जमीन से निकले हुए पत्थर का उपयोग
करे। ब्राह्मण आदि चारों वर्णवालों के लिये क्रमशः सफेद,
लाल, पीला और काला पत्थर उत्तम माना गया है।
यदि ब्राह्मण आदि वर्णवालों को उनके वर्ण के अनुकूल उत्तम शिला न मिले तो उसमें
आवश्यक वर्ण की कमी की पूर्ति करने के लिये नरसिंह-मन्त्र से हवन करना चाहिये ।
यदि शिला में सफेद रेखा हो तो वह बहुत ही उत्तम है, अगर काली
रेखा हो तो वह नरसिंह- मन्त्र से हवन करने पर उत्तम होती है। यदि शिला से काँसे के
बने हुए घण्टे की-सी आवाज निकलती हो और काटने पर उससे चिनगारियाँ निकलती हों तो वह
'पुल्लिङ्ग' है, ऐसा
समझना चाहिये। यदि उपर्युक्त चिह्न उसमें कम दिखायी दें, तो
उसे 'स्त्रीलिङ्ग' समझना चाहिये और
पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग-बोधक कोई रूप न होने पर उसे 'नपुंसक'
मानना चाहिये। तथा जिस शिला में कोई मण्डल का चिह्न दिखायी दे उसे
सगर्भा समझकर त्याग देना चाहिये ॥ १२-१५ ॥
प्रतिमार्थं वनं गत्वा वनयागं
समाचरेत्।
तत्र खात्वोपलिप्याथ मण्डपे तु हरिं
यजेत् ।। १६ ।।
बलिं दत्त्वा कर्म्मशस्त्रं
टङ्कादिकमथार्च्चयेत्।
हुत्वाथ शालितोयेन अस्त्रेण
प्रोक्षयेच्छिलाम् ।। १७ ।।
रक्षां कृत्वा नृसिंहेन मूलमन्त्रेण
पूजयेत् ।
हुत्वा पूर्णाहुतिं दद्यात्ततो
भूतबलिं गुरुः ।। १८ ।।
अत्र ये संस्थिताः सत्त्वा
यातुधानाश्च गुह्यकाः।
सिद्धादयो वा ये चान्ये तान्
सम्पूज्य क्षमापयेत् ।। १९ ।।
प्रतिमा बनाने के लिये वन में जाकर
वनयाग आरम्भ करना चाहिये। वहाँ कुण्ड खोदकर और उसे लीपकर मण्डप में भगवान् विष्णु का
पूजन करना चाहिये तथा उन्हें बलि समर्पण कर कर्म में उपयोगी टंक आदि शस्त्रों की
भी पूजा करनी चाहिये। फिर हवन करने के पश्चात् अगहनी के चावल के जल से
अस्त्र-मन्त्र (अस्त्राय फट् ) - के उच्चारणपूर्वक उस शिला को सींचना चाहिये।
नरसिंह- मन्त्र से उसकी रक्षा करके मूल मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय) - से पूजन करे। फिर पूर्णाहुति होम करके आचार्य भूतों के
लिये बलि समर्पित करें। वहाँ जो भी अव्यक्तरूप से रहनेवाले जन्तु,
यातुधान (राक्षस), गुह्यक और सिद्ध आदि हों
अथवा और भी जो हों, उन सबका पूजन करके इस प्रकार क्षमा-
प्रार्थना करनी चाहिये ॥ १६-१९ ॥
विष्णुबिम्बार्थमस्माकं यात्रैषा
केशवाज्ञया।
विष्ण्वर्थं यद्भवेत् कार्य्यं
युष्माकमपि तद्भवेत् ।। २० ।।
अनेन बलिदानेन प्रीता भवत सर्वथा।
क्षेमेण गच्छतान्यत्र मुक्त्वा
स्थानमिदं त्वरात् ।। २१ ।।
'भगवान् केशव की आज्ञा से प्रतिमा
के लिये हमलोगों की यह यात्रा हुई है। भगवान् विष्णु के लिये जो कार्य हो, वह आपलोगों का भी कार्य है। अतः हमारे दिये हुए इस बलिदान से आप लोग
सर्वथा तृप्त हों और शीघ्र ही यह स्थान छोड़कर कुशलपूर्वक अन्यत्र चले जायें ॥
२०-२१ ॥
एवं प्रबोधिताः सत्त्वा यान्ति
तृप्ता यथासुखम्।
शिल्पिभिश्च चरुं प्रास्य
स्वप्नमन्त्रं जपेन्निशि ।। २२ ।।
ओं नमः सकललोकाय विष्णवे
प्रभविष्णवे।
विश्वाय विश्वरूपाय स्वप्नाधिपतये
नमः ।। २३ ।।
आचक्ष्व देवदेवेश प्रसुप्तोस्मि
तवान्तिकम्।
स्वप्ने सर्वाणि कार्याणि
हृदिस्थानि तु यानि मे ।। २४ ।।
इस प्रकार सावधान करने पर वे जीव
बड़े प्रसन्न होते हैं और सुखपूर्वक उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।
इसके बाद कारीगरों के साथ यज्ञ का चरु भक्षण करके रात में सोते समय स्वप्र मन्त्र का
जप करे। 'जो समस्त प्राणियों के निवास स्थान हैं, व्यापक हैं,
सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, स्वयं विश्वरूप
हैं और सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन स्वप्र के अधिपति
भगवान् श्रीहरि को नमस्कार है। देव ! देवेश्वर! मैं आपके निकट सो रहा हूँ। मेरे मन
में जिन कार्यों का संकल्प है, उन सबके सम्बन्ध में मुझसे
कुछ कहिये ॥ २२ - २४ ॥
ओं ओं ह्रुं फट् विष्णवे स्वाहा ।
शुभे स्वप्ने शुभं सर्वं ह्यशुभे
सिंहहोमतः ।।
प्रातरर्घ्य शिलायां तु
दत्त्वास्त्रेणास्त्रकं यजेत् ।। २५ ।।
कुद्दालटङ्कशस्त्राद्यं
मध्वाज्याक्तमुखञ्चरेत्।
आत्मानं चिन्तयेद्विष्णुं शिल्पिनं
विश्वकर्म्मकम् ।। २६ ।।
शस्त्रं विष्णवात्मकं
दद्यात्मुखपृष्ठादि दर्शयेत्।
जितेन्द्रियः टङ्कहस्तः शिल्पी तु
चतुरस्रकाम् ।। २७ ।।
'ॐ ॐ ह्रूं फट्
विष्णवे स्वाहा।' इस प्रकार
मन्त्र जप करके सो जाने पर यदि अच्छा स्वप्न हो तो सब शुभ होता है और यदि बुरा
स्वप्न हुआ तो नरसिंह-मन्त्र से हवन करने पर शुभ होता है। सबेरे उठकर
अस्त्र-मन्त्र से शिला पर अर्घ्य दे। फिर अस्त्र की भी पूजा करे। कुदाल (फावड़े),
टंक और शस्त्र आदि के मुख पर मधु और घी लगाकर पूजन करना चाहिये।
अपने आपका विष्णुरूप से चिन्तन करे। कारीगर को विश्वकर्मा माने और शस्त्र के भी
विष्णुरूप होने की ही भावना करे। फिर शस्त्र कारीगर को दे और उसका मुख पृष्ठ आदि
उसे दिखा दे॥२५-२७॥
शिलां कृत्वा पिण्डिकार्थं
किञ्चिन्न्यूनान्तु कल्पयेत्।
रथे स्थाप्य समानीय सवस्त्रां
कारुवेश्मनि ।। २८ ।।
पूजयित्वाथ घटयेत् प्रतिमां स तु
कर्म्मकृत् ।। २९ ।।
कारीगर अपनी इन्द्रियों को वश में
रखे और हाथ में टंक लेकर उससे उस शिला को चौकोर बनावे। फिर पिण्डी बनाने के लिये
उसे कुछ छोटी करे। इसके बाद शिला को वस्त्र में लपेटकर रथ पर रखे और शिल्पशाला में
लाकर पुनः उस शिला का पूजन करे। इसके बाद कारीगर प्रतिमा बनावे ॥ २८-२९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
शान्त्यादिवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मन्दिर के देवता की स्थापना, भूतशान्ति, शिला- लक्षण और प्रतिमा निर्माण आदि का निरूपण' नामक
तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 44
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