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कर्मकाण्ड

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भुवनेश्वरी स्तोत्र

भुवनेश्वरी स्तोत्र

माँ भुवनेश्वरी स्तोत्र बहुत ही चमत्कारी है,इस स्तोत्र का पाठ हर रोग से छुटकारा दिलाता है, दरिद्रता का नाश होता है, धन में वृद्धि होती है और हर मनोकामना में पूर्ण होती है।

भुवनेश्वरी स्तोत्र

श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्रम् 

Bhuvaneshwari Stotra

श्री भुवनेश्वरी स्तवः

अथानन्दमयीं साक्षाच्छब्दब्रह्मस्वरूपिणीम् ।

ईडे सकलसम्पत्त्यै जगत्कारणमम्बिकाम् ॥

विद्यामशेषजननीमरविन्दयोने-    

     र्विष्णोः शिवस्य च वपुः प्रतिपादयित्रीम् ।

सृष्टिस्थितिक्षयकरीं जगतां त्रयाणां

     स्तुत्वा गिरं विमलयाम्यहमम्बिके त्वाम् ॥ १॥

हे माँ । आप श्री विश्वाद्या हो, अखिल ब्रह्माण्ड की जननी हो, ब्रह्मा,विष्णु, शिव की माता तथा अखिल विश्व को सृष्ट करनेवाली,पोषण देनेवाली तथा लय करनेवाली हो । आप श्री के स्तवन से मेरी वाक्य-रचना वाणी पवित्र हो ॥ १॥

पृथ्व्या जलेन शिखिना मरुताम्बरेण

     होत्रेन्दुना दिनकरेण च मूर्तिभाजः ।

देवस्य मन्मथरिपोरपि शक्तिमत्ता

     हेतुस्त्वमेव खलु पर्वतराजपुत्रि ॥ २॥

हे माँ, पार्वति! पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, यजमान,सोम तथा सूर्य में जो महा-शिव व्यापक हैं तथा जो मदन को दहन करनेवाले हैं, उन महाप्रभु शिव की भी त्रैलोक्य-सहार-शक्ति आपसे ही उत्पन्न हुई है ॥ २॥

त्रिस्रोतसः सकलदेवसमर्च्चितायाः

     वैशिष्ट्यकारणमवैमि तदेव मातः ।

त्वत्पादपङ्कजपरागपवित्रितासु

     शम्भोर्जटासु सततं परिवर्तनं यत् ॥ ३॥

हे माँ! आप श्री की पवित्र चरण-से पवित्र हुई शिव के शिर की जटा में तीन स्रोतवाली त्रिधार श्री भागीरथी गङ्गा विश्व-पूज्या हैं तथा इसी कारण उनका प्राधान्य है ॥ ३॥

आनन्दयेत्कुमुदिनीमधिपः कलाना-

     न्नान्यामिनः कमलिनीमथ नेतरां वा ।

एकस्य मोदनविधौ परमेकमीष्टे

     त्वं तु प्रपञ्चमभिनन्दयसि स्वदृष्ट्या ॥ ४॥

हे माँ, हे विश्व-जननि! चन्द्र से एकमात्र कुमुदिनी ही खिलती है । सूर्य से एकमात्र कमल का ही आनन्द बढता है, अन्य का नहीं । इस प्रकार एक-एक वस्तु के सुखार्थं एक-एक पदार्थ ही निर्दिष्ट हुआ है परन्तु आप श्री तो सारे विश्व को श्री-दृष्टि से आनन्द देनेवाली हो ॥ ४॥

आद्याप्यशेषजगतान्नवयौवनासि

     शैलाधिराजतनयाप्यतिकोमलासि ।

त्रय्याः प्रसूरपि तया न समीक्षितासि

     ध्येयासि गौरि मनसो न पथि स्थितासि ॥ ५॥

हे माँ! विश्व में आप श्री सर्वादि-भूता होकर भी निरन्तर नव-यौवना रहती हो । आप श्री अत्यन्त कठिन पर्वत-राज की पुत्री होने पर भी अत्यन्त सु-कोमला हो । वेद आदि सद्-ग्रन्थ आप श्री से उत्पन्न होकर भी आप श्री के-अनन्त गुण-कथन में असमर्थ हैं । आप श्री ध्यानगम्य होकर भी किसी के मन में स्थिर नहीं होती हो ॥ ५॥

आसाद्य जन्म मनुजेषु चिराद्दुरापं

     तत्रापि पाटवमवाप्य निजेन्द्रियाणाम् ।

नाभ्यर्चयन्ति जगतां जनयित्रि ये त्वां

     निःश्रेणिकाग्रमधिरुह्य पुनः पतन्ति ॥ ६॥

हे माँ! जो व्यक्ति दुर्लभ नर-जन्म में बुद्धि आदि दिव्य इन्द्रियों की सहायता पाकर भी आपकी आराधना नहीं करते, वे मुक्ति की सीढी पर चढकर भी पुनः गिरते हैं ॥ ६॥

कर्पूरचूर्णहिमवारिविलोडितेन

     ये चन्दनेन कुसुमैश्च सुजातगन्धैः ।

आराधयन्ति हि भवानि समुत्सुकास्त्वां

     ते खल्वखण्डभुवनाधिभुवः प्रथन्ते ॥ ७॥

हे माँ, हे भवानि! जो व्यक्ति कर्पूर-चूर्ण विलोडित (मिले हुए) शीतल जल से घर्षित (घिसे हुए) चन्दन तथा सुगन्ध-युक्त पुष्पों से उत्सुक-चित्त से आप श्री की आराधना करते हैं, वे सर्व-भुवनों के अधिपति होते हैं ॥ ७॥

आविश्य मध्यपदवीं प्रथमे सरोजे

     सुप्ता हि राजसदृशी विरचय्य विश्वम् ।

विद्युल्लतावलयविभ्रममुद्वहन्ती

     पद्मानि पञ्च विदलय्य समश्नुवाना ॥ ८॥

हे माँ, हे जननि! आप श्री मूलाधार चक्र में सर्वाकारा श्री कुण्डलिनी रूप से स्थित होकर सारे विश्व को उत्पत्र करती हो तथा मूलाधार से ऊर्ध्व में स्थित पद्यों को बिजली की रेखा के समान भेदकर सहस्रार-स्थित परम शिव से सङ्ग करती हो (यह विद्युल्लता श्री कुण्डलिनी अभ्यास से जागृत होती है ) ॥ ८॥

तन्निर्गतामृतरसैरभिषिच्य गात्रं

     मार्गेण तेन विलयं पुनरप्यवाप्ता ।

येषां हृदि स्फुरसि जातु न ते भवेयु-

     र्मातर्महेश्वरकुटुम्बिनि गर्भभाजः ॥ ९॥

हे महेश्वर-कुटुम्बिनि है माँ! आप श्री सहस्रार-निर्गत सुधा-पीयूष-रस से स्वदेह को स्नान कर सुषुम्ना-मार्ग में फिर प्राप्त हो पुनः आधार-चक्र में विश्राम करती हो । जिस साधक के हृत्कमल में आप श्री के इस रूप का भावोदय नहीं होता, वह वारंवार (जन्म-मरणादि) गर्भवास भोगता है ॥ ९॥

आलम्बिकुण्डलभरामभिरामवक्त्रा-

     मापीवरस्तनतटीं तनुवृत्तमध्याम् ।

चिन्ताक्षसूत्रकलशालिखिताढ्यहस्ता-

     मावर्तयामि मनसा तव गौरि मूर्तिम् ॥ १०॥

हे माँ! आप श्री के लम्बे केश हैं । आप श्री का मुख अत्यन्त मनोहर है । आप श्री पीन-स्तना हो । आप श्री की पतली कमर है तथा आप श्री की चार भुजाओं में ज्ञानमुद्रा, जप-माला, कलश तथा पुस्तक विराजमान है । हे माँ! आप श्री की ऐसी छटा को नमस्कार है ॥ १०॥

आस्थाय योगमविजित्य च वैरिषट्क-

     माबध्य चेन्द्रियगणं मनसि प्रसन्ने ।

पाशाङ्कुशाभयवराढ्यकरांशुवक्त्रा-

     मालोकयन्ति भुवनेश्वरि योगिनस्त्वाम् ॥ ११॥

हे माँ, हे विश्वेशि! योगि-जन योगाभ्यास से काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सरादि को विजय कर इन्द्रिय-निरोध-द्वारा प्रफुल्लित चित्त से प्राण-परा पाशांकुश-वराभय हाथवाली आप श्री का दर्शन करते हैं ॥ ११॥

उत्तप्तहाटकनिभां करिभिश्चतुर्भि-

     रावर्तितामृतघटैरभिषिच्यमाना ।

हस्तद्वयेन नलिने रुचिरे वहन्ती

     पद्मापि साभयकरा भवसि त्वमेव ॥ १२॥

हे माँ! प्रतप्त सुवर्ण वर्णवाली, चार हाथियों द्वारा जल-पूरित घटाभिषिक्ता, दो हाथों में पद्म तथा दो हाथों में वराभय-युक्ता श्री महा-लक्ष्मी आप ही हो ॥ १२॥

अष्टाभिरुग्रविविधायुधवाहिनीभि-

     र्द्दोर्वल्लरीभिरधिरुह्य मृगाधिवासम् ।

दूर्वादलद्युतिरमर्त्यविपक्षपक्षा-

     न्न्यक्कुर्वती त्वमसि देवि भवानि दुर्गे ॥ १३॥

हे माँ, हे भवानि! श्रीसिंह-वाहना नाना अस्त्र-धारिणी, अष्ट-भुजा,दूर्वा-दल-द्युति, सुरासुर-विजया, श्रीदुर्गा-रूप-धारिणी आप ही हो ॥ १३॥

आविर्न्निदाघजलशीकरशोभिवक्त्रां

     गुञ्जाफलेन परिकल्पितहारयष्टिम् ।

रत्नांशुकामसितकान्तिमलङ्कृतां त्वा-

     माद्यां पुलिन्दतरुणीमसकृन्नमामि ॥ १४॥

हे माँ! प्रस्वेद-बुन्द-सुशोभित मुख-कमलवाली गुञ्जा-फल-निर्मित हार-यष्टी धारण किये हुये रत्नांशुका, रत्नवसना, कृष्ण-कान्तियुता, श्रीअनङ्गवशी (काम को वश में करनेवाली) आप श्री का मैं सदा स्मरण करता हूँ ॥ १४॥

हंसैर्गतिः क्वणितनूपुरदूरदृष्टे

     मूर्तेरिवाप्तवचनैरनुगम्यमानौ ।

पद्माविवोर्द्ध्वमुखरूढसुजातनालौ

     श्रीकण्ठपत्नि शिरसैव दधे तवाङ्घ्री ॥ १५॥

हे माँ, हे नील-कण्ठे! जिस प्रकार हंस नूपुर-ध्वनि से आकर्षित होते हैं, उसी प्रकार वेद आप श्री के चरण-कमलो का अनुगमन करते हैं । आप श्री के चरण-कमल ऊर्ध्व-मुख नील-कमल-वत् प्रत्यन्त शोभा पा रहे हैं । मैं आपके उन्हीं दोनों चरण-कमलों को अपने मस्तक पर धारण करता हूँ ॥ १५॥

द्वाभ्यां समीक्षितुमतृप्तिमतेव दृग्भ्या-

     मुत्पाद्यता त्रिनयनं वृषकेतनेन ।

सान्द्रानुरागभवनेन निरीक्ष्यमाणे

     जङ्घे उभे अपि भवानि तवानतोऽस्मि ॥ १६॥

हे माँ, हे भवानि! विश्वनाथ वृषभ-ध्वज श्रीमहा-शिवजी दो नेत्रों से आप श्री के दर्शन कर तृप्त न हुए । अतः तीसरे नेत्र को उत्पन्न कर गाढ़ानुराग-सहित आप श्री की जङ्घा का उन्होने दर्शन किया । आप श्री की उन जङ्गाओं को प्रणाम है, वारम्बार प्रणाम है ॥ १६॥

ऊरू स्मरामि जितहस्तिकरावलेपौ

     स्थौल्येन मार्द्दवतया परिभूतरम्भौ ।

श्रोणीभरस्य सहनौ परिकल्प्य दत्तौ

     स्तम्भाविवाङ्गवयसा तव मध्यमेन ॥ १७॥

हे माँ! आप श्री की ऊरु हस्ति-शुण्ड-गर्व-खर्वा हैं, स्थूलता, आर्द्रता एवं कोमलता में केले के स्तम्भ को विजय करनेवाली है । आप श्री के देह के मध्य देश का भाग आप श्री के नितम्बों ने हरण कर लिया हो, ऐसा प्रतीत होता है अर्थात् मध्य देश ने ही स्तम्भ-रूप में आप श्री के नितम्ब जङ्घादि निर्मित किये हों, ऐसा भासता है ॥ १७॥

श्रोण्यौ स्तनौ च युगपत्प्रथयिष्यतोच्चै-

     र्बाल्यात्परेण वयसा परिकृष्णसारः ।

रोमावलीविलसितेन विभाव्यमूर्ति-

     र्मध्यं तव स्फुरतु मे हृदयस्य मध्ये ॥ १८॥

हे माँ! आप श्री के मध्य देश से मानो आप श्री के नितम्ब, तथा स्तन-मण्डल दोनों ने उच्चता तथा स्व-विस्तार के लिए सार खिंच लिया है । अतः आप श्री का मध्यदेश क्षीण हो गया है । आप श्री का यह मध्य देश मेरे हृदय में स्फुरित हो ॥ १८॥

सख्यास्स्मरस्य हरनेत्रहुताशभीरो-

     र्ल्लावण्यवारिभरितं नवयौवनेन ।

आपाद्य दत्तमिव पल्लवमप्रविष्टं

     नाभिं कदापि तव देवि न विस्मरेयम् ॥ १९॥

हे माँ, हे जननि! श्री भगवान् महा-शिव के तृतीय नेत्राग्नि से भय को प्राप्त हुए श्री मदन के रक्षार्थ श्रीमदन-प्रिया रति ने स्व-लावण्य-जल-भरित सरोवर-वत् आप श्री की नाभि का निर्माण किया हो, ऐसा प्रतीत होता है । आप श्री की इस नाभि को मैं कभी न भूलूँ ॥ १९॥

ईशोऽपि गेहपिशुनं भसितं दधाने

     काश्मीरकर्द्दममनु स्तनपङ्कजे ते ।

स्नानोत्थितस्य करिणः क्षणलक्षफेनौ

     सिन्दूरितौ स्मरयतः समदस्य कुम्भौ ॥ २०॥

हे माँ, हे जननि! आप श्री के दोनों कुच-कमलों में भस्म लगी हुई है । ( इससे श्री भगवान् शिव ने आप श्री का आलिंगन किया हो,ऐसा भासता है ) तथा आप श्री के स्तन-युगल केसर-पद्म-मूलादि से अनुलिप्त हैं । स्नान कर निकले हुए मद-युक्त हाथी के क्षण मात्र फेन-लक्षित सिन्दुरवाले गण्ड-स्थल के समान आप श्री के कुच-युगल शोभा पा रहे हैं ॥ २०॥

कण्ठातिरिक्तगलदुज्ज्वलकान्तिधारा

     शोभौ भुजौ निजरिपोर्मकरध्वजेन ।

कण्ठग्रहाय रचितौ किल दीर्घपाशौ

     मातर्मम स्मृतिपथं न विलज्जयेताम् ॥ २१॥

हे माँ! पार्श्व में उत्तम कान्ति-धारा-सम शोभती आप श्री की दोनो भुजाएं इस प्रकार शोभा दे रही हैं, मानो श्री मदन ने अपने शत्रु श्री शिव का कण्ठ-ग्रहण करने के लिये लम्बा पाश बनाया हो । हे माँ! आप श्री की इन दोनों भुजाओ का मेरे चित्त में सदैव स्मरण रहे ॥ २१॥

नात्यायतं रुचिरकम्बुविलासचौर्यं

     भूषाभरेण विविधेन विराजमानम् ।

कण्ठं मनोहरगुणं गिरिराजकन्ये

     सञ्चिन्त्य तृप्तिमुपयामि कदापि नाहम् ॥ २२॥

हे माँ, हे गिरिकन्ये! आप श्री की मनोहर कम्बु-ग्रीवा को, जो अति दीर्घ नहीं है, जिसमें अनेक प्रकार के आभूषण विद्यमान हैं तथा जिसमें अनेक मनोहर गुण भरे हुए हैं, स्मरण करता हुआ मेरा मन कभी तृप्त न हो ॥ २२॥

अत्यायताक्षमभिजातललाटपट्टं

     मन्दस्मितेन दरफुल्लकपोलरेखम् ।

बिम्बाधरं खलु समुन्नतदीर्घनासं

     यत्ते स्मरत्यसकृदम्ब स एव जातः ॥ २३॥

हे माँ, हे विश्व-जननि! आप श्री के आकर्ण खिंचे हुये अति दीर्घ नेत्र हैं, परम मनोहर विशाल भाल है, स्मित हास्य से कपोल प्रफुल्लित दीखते हैं, बिम्बाफल-वत् लाल अधर हैं, उठी हुई दीर्घ नासिका है । जो पुरुष आप श्री के दिव्य मुखपद्य का स्मरण करते हैं, उन्हीं का जन्म सफल हैं ॥ २३॥

आविस्त्वयारकरलेखमनल्पगन्ध-

     पुष्पोपरि भ्रमदलिव्रजनिर्विशेषम् ।

यश्चेतसा कलयते तव केशपाशं

     तस्य स्वयं गलति देवि पुराणपाशः ॥ २४॥

हे देवि, हे माँ! आप श्री के केशपाश भाल-चन्द्रिका से प्रकाशित हो रहे हैं, स्वल्प-सुगधिन्त फल गुञ्जित भ्रमर-वत् हो रहे हैं (रत्यन्ते) । जो आप श्री के केशों का इस प्रकार चिन्तन करता है, वह जगज्जाल से छूट जाता ॥ २४॥

श्रुतिसुरचितपाकं धीमतां स्तोत्रमेतत्

     पठति य इह मर्त्यो नित्यमार्द्द्रान्तरात्मा ।

स भवति पदमुच्चैस्सम्पदां पादनम्र-

     क्षितिपमुकुटलक्ष्मीर्ल्लक्षणानां चिराय ॥ २५॥

आर्द्र-चित्त से स्तोत्र पाठ करने से सम्पत्ति का आधार बनता है तथा उसके चरणों में राजपुरुष भी झुकते हैं ॥ २५॥

इति श्रीभुवनेश्वरीस्तवः सम्पूर्णः ।

इति श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्रं समाप्तम् ॥

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