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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
मत्स्य स्तुति
प्रलयकाल में भयंकर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी। तब राजा सत्यव्रत ने भगवान की आज्ञा का स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजों को लेकर सप्तर्षियों को लेकर उस पर सवार हो गये और राजा ने भगवान का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्र में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हुए। मत्स्य भगवान का शरीर सोने के समान देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीर में एक बड़ा भारी सींग भी था। भगवान ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकि नाग के द्वारा भगवान के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की।
मत्स्य स्तुति
राजोवाच
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-
स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु-
र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥
४६॥
राजा सत्यव्रत ने कहा ;-
'प्रभो! संसार के जीवों का आत्मज्ञान अनादि अविद्या से ढक गया है।
इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। जब अनायास ही
आपके अनुग्रह से वे आपकी शरण में पहुँच जाते हैं, तब आपको
प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धन से छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देने वाले
परमगुरु आप ही हैं।
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद्धृदयं स नो
गुरुः ॥ ४७॥
यह जीव अज्ञानी है,
अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों
का अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवा से उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परमगुरु आप मेरे हृदय की गाँठ काट दें।
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात्स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८॥
जैसे अग्नि में तपाने से सोने-चाँदी
के मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है,
वैसे ही आपकी सेवा से जीव अपने अन्तःकरण का अज्ञानरूप मल त्याग देता
है और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु
ही हमारे गुरुजनों के भी परमगुरु हैं। अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें।
न यत्प्रसादायुतभागलेश-
मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-
स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥
४९॥
जितने भी देवता,
गुरु और संसार के दूसरे जीव है- वे सब यदि स्वतन्त्र रूप से एक साथ
मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपा के दस हजारवें अंश के अंश
की भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण
करता हूँ।
अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृत-
स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः ।
त्वमर्कदृक्सर्वदृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम्
॥ ५०॥
जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ
प्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी
जीव अज्ञानी को ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्य के समान स्वयं प्रकाश और समस्त
इन्द्रियों के प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्व के जिज्ञासु आपको ही गुरुरूप में वरण
करते हैं।
जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं
यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः ।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥ ५१॥
अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियों को जिस
ज्ञान का उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही
है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकार की अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो
उस अविनाशी और अमोघ ज्ञान का उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य
अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत्प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः
।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-
र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ॥ ५२॥
आप सारे लोक के सुहृद्,
प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही
स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धन में जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें
इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदय में ही विराजमान हैं।
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु
स्वमोकः ॥ ५३॥
आप देवताओं के भी आराध्यदेव,
परमपूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपकी
शरण में आया हूँ। भगवन्! आप परमार्थ को प्रकाशित करने वाली अपनी वाणी के द्वारा
मेरे हृदय की ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूप को प्रकाशित कीजिये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टमस्कन्धे मत्स्य स्तुति नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥
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