अग्निपुराण अध्याय ४६
अग्निपुराण अध्याय ४६ शालग्राम-मूर्तियों के लक्षण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ४६
Agni puran chapter 46
अग्निपुराण छियालीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ४६
अग्निपुराणम् अध्यायः ४६ - शालग्रामादिमूर्त्तिलक्षणकथनम्
भगवानुवाच
शालग्रामादिमूर्त्तिश्च वक्षयेहं
भुक्तिमुक्तिदाः।
वासुदेवोऽसितो द्वारे
शिलालग्नद्विचक्रकः ।। १ ।।
ज्ञेयः सङ्कर्षणो लग्नद्विचक्रो
रक्त उत्तमः।
सूक्ष्मचक्रो बहुच्छिद्रः
प्रद्युम्नो नीलदीर्घकः ।। २ ।।
पीतोनिरुद्धः पद्माङ्को वर्त्तुलो
द्वित्रिरेखवान्।
कृष्णो नारायणो नाभ्युन्नतः
शुषिरदीर्घवान् ।। ३ ।।
परमेष्ठी साब्जचक्रः
पृष्ठच्छिद्रश्च विन्दुमान्।
स्थूलचक्रोऽसितो विष्णुर्मध्ये रेखा
गदाकृतिः ।। ४ ।।
भगवान् हयग्रीव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! अब मैं शालग्रामगत भगवन्मूर्तियों का वर्णन आरम्भ करता
हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। जिस शालग्राम
शिला के द्वार में दो चक्र के चिह्न हों और जिसका वर्ण श्वेत हो, उसकी 'वासुदेव' संज्ञा
है। जिस उत्तम शिला का रंग लाल हो और जिसमें दो चक्र के चिह्न संलग्र हों, उसे भगवान् 'संकर्षण' का
श्रीविग्रह जानना चाहिये जिसमें चक्र का सूक्ष्म चिह्न हो, अनेक
छिद्र हों, नील वर्ण हो और आकृति बड़ी दिखायी देती हो,
वह 'प्रद्युम्न' की
मूर्ति है।* जहाँ कमल का चिह्न हो, जिसकी आकृति गोल और रंग पीला* हो
तथा जिसमें दो-तीन रेखाएँ शोभा पा रही हों, यह 'अनिरुद्ध' का श्रीअङ्ग है।
जिसकी कान्ति काली, नाभि उन्नत और जिसमें बड़े-बड़े छिद्र
हों, उसे 'नारायण' का स्वरूप समझना चाहिये। जिसमें कमल और चक्र का चिह्न हो, पृष्ठभाग में छिद्र हो और जो बिन्दु से युक्त हो, वह
शालग्राम 'परमेष्टी' नाम से
प्रसिद्ध है। जिसमें चक्र का स्थूल चिह्न हो, जिसकी कान्ति
श्याम हो और मध्य में गदा जैसी रेखा हो, उस शालग्राम की 'विष्णु' संज्ञा है ॥ १-४ ॥
*१. वाचस्पत्कोष में संकलित गरुड़पुराण (४५ अध्याय) के निम्नाङ्कित वचन से
'प्रद्युम्न-शिला का पीतवर्ण सूचित होता है। यथा- अथ
प्रद्युम्नः सूक्ष्मचक्रस्तु पीतकः ।
*२. उक्त ग्रन्थ के अनुसार ही अनिरुद्ध का नीलवर्ण सूचित होता है। यथा-'अनिरुद्धस्तु वर्तुलो नीलो द्वारि त्रिरेखक्ष।'
नृसिंहः कपिलः स्थूलचक्रः स्यात्
पञ्चविन्दुकः।
वराहः शक्तिलिङ्गः स्यात् तच्चक्रौ
विषमौ मृतौ ।। ५ ।।
इन्द्रनीलनिभः
स्थूलस्त्रिरेखालाञ्छितः शुभः।
कूर्मस्तथोन्नतः पृष्ठे
वर्त्तलावर्त्तकोऽसितः ।। ६ ।।
नृसिंह
– विग्रह में चक्र का स्थूल चिह्न होता है। उसकी कान्ति कपिल वर्ण की होती है और
उसमें पाँच बिन्दु सुशोभित होते हैं।*
वाराह-विग्रह
में शक्ति नामक अस्त्र का चिह्न होता है। उसमें दो चक्र होते हैं,
जो परस्पर विषम (समानता से रहित) हैं। उसकी कान्ति इन्द्रनील मणि के
समान नीली होती है। वह तीन स्थूल रेखाओं से चिह्नित एवं शुभ होता है*। जिसका पृष्ठभाग ऊँचा हो, जो
गोलाकार आवर्तचिह्न से युक्त एवं श्याम हो, उस शालग्राम की 'कूर्म' (कच्छप) संज्ञा है* ॥ ५-६ ॥
*१. पृथुचक्रो नृसिंहोऽथ कपिलो ऽव्यात्त्रिविन्दुकः । अथवा
पञ्चविन्दुस्तत्पूजनं ब्रह्मचारिणाम्॥ (इति गरुडपुराणेऽपि )
*२. वराहः शुभलिङ्गोऽव्याद् विषमस्थद्विचक्रकः । नीलस्त्रिरेखः स्थूलः॥(ग०पु० )
*३. अथ कूर्ममूर्तिः स बिन्दुमान् । कृष्णः स वर्तुलावर्तः पातु चोन्नतपृष्ठकः
॥ (ग०पु० )
हयग्रीवोङ्कुशाकाररेखो नीलः
सविन्दुकः।
वैकुण्ठः एकचक्रोऽब्जी मणिभः
पुच्छरेखकः ।। ७ ।।
मत्स्यो दीर्घस्त्रिविन्दुः स्यात्
काचवर्णस्तु पूरितः।
श्यामस्त्रिविक्रमो दक्षरेखस्तु
वर्त्तुलः ।। ८ ।।
जो अंकुश की-सी रेखा से सुशोभित,
नीलवर्ण एवं बिन्दुयुक्त हो, उस शालग्राम शिला
को 'हयग्रीव' कहते हैं। जिसमें
एक चक्र और कमल का चिह्न हो, जो मणि के समान प्रकाशमान तथा
पुच्छाकार रेखा से शोभित हो, उस शालग्राम को 'वैकुण्ठ' समझना चाहिये।* जिसकी आकृति बड़ी हो, जिसमें
तीन बिन्दु शोभा पाते हों, जो काँच के समान श्वेत तथा
भरा-पूरा हो, वह शालग्राम- शिला मत्स्यावतारधारी भगवान् की
मूर्ति मानी जाती है।* जिसमें वनमाला का
चिह्न और पाँच रेखाएँ हों, उस गोलाकार शालग्राम शिला को 'श्रीधर' कहते हैं*
॥ ७-८ ॥
*१. हयग्रीवोऽङ्कुशाकारः पञ्चरेखः सकौस्तुभः । वैकुण्ठो मणिरत्नाभ
एकचक्राम्बुजोऽसित॥ (ग०पु० )
*२. मत्स्यो दीर्घाम्बुजाकारो हाररेखश्च पातु वः । (ग०पु० )
*३. श्रीधरः पञ्चरेखोऽय्याद् वनमाली गदान्वितः। (ग०पु० ) ( वाचस्पत्यकोष से
संकलित )
वामनो वर्त्तुलश्चातिह्रस्वो नीलः
सविन्दुकः।
श्यामस्त्रिविक्रमो दक्षरेखो वामेन
विन्दुकः ।। ९ ।।
गोलाकार,
अत्यन्त छोटी, नीली एवं बिन्दुयुक्त शालग्राम
शिला की 'वामन' संज्ञा है।* जिसकी कान्ति श्याम हो, दक्षिण
भाग में हार की रेखा और बायें भाग में बिन्दु का चिह्न हो, उस
शालग्राम- शिला को 'त्रिविक्रम' कहते हैं* ॥ ९ ॥
*१. वामनो वर्तुलो हस्य: वामचक्रः सुरेश्वरः। (ग० पु० )
*२. वामचक्रो हाररेखः स्यामो वोऽव्यात् त्रिविक्रमः (ग० पु० )
अनन्तो नागभोगाङ्गो नैकाभो
नैकमूर्त्तिमान्।
स्थूलो दामोदरो मध्यचक्रो द्वाः
सूक्ष्मविन्दुकः ।। १० ।।
सुदर्शनस्त्वेकचक्रो लक्ष्मीनारायणो
द्वयात्।
चित्रक्रश्चाच्युतो देवस्त्रिचक्रो
वा त्रिविक्रमः ।। ११ ।।
जनार्द्दनश्चतुस्चक्रो वासुदेवस्च
पञ्चभिः।
षट्रचक्रस्चौव प्रद्युम्नः
सङ्कर्षणश्च सप्तभिः ।। १२ ।।
पुरुषोत्तमोष्टचक्रो नवव्यूहो
नवाङ्कितः।
दशावतारो दशभिर्द्दशैकेनानिरुद्धकः
।। १३ ।।
द्वाधशात्मा द्वादशभिरत ऊद्र्ध्वमनन्तकः
।। १४ ।।
जिसमें सर्प के शरीर का चिह्न हो,
अनेक प्रकार की आभाएँ दीखती हों तथा जो अनेक मूर्तियों से मण्डित हो,
वह शालग्राम शिला 'अनन्त' ( शेषनाग ) कही गयी है।* जो स्थूल हो,
जिसके मध्यभाग में चक्र का चिह्न हो तथा अधोभाग में सूक्ष्म बिन्दु
शोभा पा रहा हो, उस शालग्राम की 'दामोदर'
संज्ञा है।* एक चक्रवाले
शालग्राम को सुदर्शन कहते हैं, दो चक्र होने से उसकी 'लक्ष्मीनारायण' संज्ञा होती है। जिसमें तीन चक्र
हों, वह शिला भगवान् 'अच्युत'
अथवा 'त्रिविक्रम' है। चार चक्रों से युक्त शालग्राम को 'जनार्दन',
पाँच 'चक्रवाले को 'वासुदेव'
छः चक्रवाले को 'प्रद्युम्न' तथा सात चक्रवाले को 'संकर्षण' कहते हैं। आठ चक्रवाले शालग्राम की 'पुरुषोत्तम'
संज्ञा है नौ चक्रवाले को 'नवव्यूह'
कहते हैं। दस चक्रों से युक्त शिला की 'दशावतार'
संज्ञा है। ग्यारह चक्रों से युक्त होने पर उसे 'अनिरुद्ध', द्वादश चक्रों से चिह्नित होने पर 'द्वादशात्मा' तथा इससे अधिक चक्रों से 'युक्त होने पर उसे 'अनन्त' कहते हैं ॥ १०- १४ ॥
*१. नानावर्णो ऽनेकमूर्तिनांगभोगी त्वनन्तकः । (ग० पु० )
*२. स्थूलो दामोदरो नोलो मध्येचक्रः सनोलक। (ग० पु० )
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
शालग्रामादिमूर्त्तिलक्षणं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'शालग्रामगत मूर्तियों के लक्षण का वर्णन' नामक छियालीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ४६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 47
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