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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ४२

अग्निपुराण अध्याय ४२                   

अग्निपुराण अध्याय ४२ प्रासाद- लक्षण – वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ४२

अग्निपुराणम् अध्यायः ४२                   

Agni puran chapter 42

अग्निपुराण बयालीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ४२                   

अग्निपुराणम् अध्यायः ४२ - प्रासादलक्षणकथनम्

हयग्रीव उवाच

प्रासादं सम्प्रवक्ष्यामि सर्वसाधारण श्रृण।

चतुरस्त्रीकृतं क्षेत्रं भजेत् षोडशधा बुधः ।। १ ।।

मध्ये तस्य चतुर्भिस्तु कुर्य्यादायसमन्वितम्।

द्वादशैव तु भागानि भित्त्यर्थं परिकल्पयेत् ।। २ ।।

जङ्घोच्छायन्तु कर्त्तव्यं चतुर्भागेण चायतम् ।

जङ्घायां द्विगुणोच्छायं मञ्चर्य्याः कल्पयेद् बुधः।। ३ ।।

तुर्य्यभागेन मञ्चर्य्याः कार्य्यः सम्यक् प्रदक्षिणः ।

तन्माननिर्गमं कार्य्यमुभयोः पार्श्वयोः समम् ।। ४ ।।

शिशरेण समं कार्य्यमग्रे जगति विस्तरम्।

द्विगुणेनापि कर्त्तव्यं यथाशोभानुरूपतः ।। ५ ।।

विस्तारान्मण्डपस्याग्रे गर्भसूत्रद्वयेन तु।

दैर्घ्यात्पादाधिकं कुर्य्यान्मध्यस्तम्भैर्विभूषितम् ।। ६ ।।

प्रासादगर्भमानं वा कुर्व्वीत मुखमण्डपम्।

एकाशीतिपदैर्व्वास्तुं पश्चात् मण्डपमारभ्त् ।। ७ ।।

भगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं सर्वसाधारण प्रासाद (देवालय) का वर्णन करता हूँ, सुनो। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि जहाँ मन्दिर का निर्माण कराना हो, वहाँ के चौकोर क्षेत्र के सोलह भाग करे। उसमें मध्य के चार भागों द्वारा आयसहित गर्भ ( मन्दिर के भीतरी भाग की रिक्त भूमि) निश्चित करे तथा शेष बारह भागों को दीवार उठाने के लिये नियत करे। उक्त बारह भागों में से चार भाग की जितनी लंबाई है, उतनी ही ऊँचाई प्रासाद की दीवारों की होनी चाहिये। विद्वान् पुरुष दीवारों की ऊँचाई से दुगुनी शिखर की ऊँचाई रखे। शिखर के चौथे भाग की ऊँचाई के अनुसार मन्दिर की परिक्रमा की ऊँचाई रखे। उसी मान के अनुसार दोनों पार्श्व भागों में निकलने का मार्ग (द्वार) बनाना चाहिये। वे द्वार एक-दूसरे के समान होने चाहिये। मन्दिर के सामने के भूभाग का विस्तार भी शिखर के समान ही करना चाहिये जिस तरह उसकी शोभा हो सके, उसके अनुरूप उसका विस्तार शिखर से दूना भी किया जा सकता है। मन्दिर के आगे का सभामण्डप विस्तार में मन्दिर के गर्भसूत्र से दूना होना चाहिये। मन्दिर के पादस्तम्भ आदि भित्ति के बराबर ही लंबे बनाये जायें। वे मध्यवर्ती स्तम्भों से विभूषित हों अथवा मन्दिर के गर्भ का जो मान है, वही उसके मुख मण्डप (सभामण्डप या जगमोहन) का भी रखे। तत्पश्चात् इक्यासी पदों (स्थानों) से युक्त वास्तु मण्डप का आरम्भ करे ॥ १-७ ॥

शुकान् प्राग्‌द्वारविन्यासे पादान्तः स्थान् यजेत् सुरान्।

तथा प्राकारविन्यासे यजेद् द्वात्रिंशदन्तगान् ।। ८ ।।

इनमें पहले द्वारन्यास के समीपवर्ती पदों के भीतर स्थित होनेवाले देवताओं का पूजन करे। फिर परकोटे के निकटवर्ती एवं सबसे अन्त के पदों में स्थापित होनेवाले बत्तीस देवताओं की पूजा करे* ॥ ८ ॥

* नारदपुराण, पूर्वभाग, द्वितीय पाद, ५६वें अध्याय के ६०० से लेकर ६०३ तक के श्लोकों में भी यही बात कही गयी है।

सर्वसाधारणं चैतत् प्रासादस्य च लक्षणम्।

मानेन प्रतिमाया वा प्रासादमपरं श्रृणु ।। ९ ।।

यह प्रासाद का सर्वसाधारण लक्षण है। अब प्रतिमा के मान के अनुसार दूसरे प्रासाद का वर्णन सुनो ॥ ९ ॥

प्रतिमायाः प्रमाणेन कर्त्तव्या पिण्डिका शुभा।

गर्भस्तु पिण्डिकार्द्वेन गर्भमानास्तु भित्तयः ।। १० ।।

भित्तेरायाममानेन उत्सेधन्तु प्रकल्पयेत्।

भित्त्युच्छायात्तु द्विगुणं शिखरं कल्पयेद् बुधः ।। ११ ।।

शिखरस्य तु तुर्य्येण भ्रमणं परिकल्पयेत्।

शिखरस्य चतुर्थेन अग्रतो मुखमण्डपम् ।। १२ ।।

जितनी बड़ी प्रतिमा हो, उतनी ही बड़ी सुन्दर पिण्डी बनावे। पिण्डी के आधे मान से गर्भ का निर्माण करे और गर्भ के ही मान के अनुसार भित्तियाँ उठावे। भीतों की लंबाई के अनुसार ही उनकी ऊँचाई रखे। विद्वान् पुरुष भीतर की ऊँचाई से दुगुनी शिखर की ऊँचाई करावे। शिखर की अपेक्षा चौथाई ऊँचाई में मन्दिर की परिक्रमा बनवावे। तथा इसी ऊँचाई में मन्दिर के आगे के मुख मण्डप का भी निर्माण करावे ॥ १० - १२ ॥

अष्टमांशेन गर्भस्य रथकानान्तु निर्गमः।

परिधेर्गुणभागेन रथकस्तित्र कल्पयेत् ।। १३ ।।

तत्तृतीयेण वा कुर्य्याद्रथकानान्तु निर्गमम्।

वामत्रयं स्थापनीयं रथकत्रितये सदा ।। १४ ।।

गर्भ के आठवें अंश के माप का रथकों के निकलने का मार्ग (द्वार) बनावे। अथवा परिधि के तृतीय भाग के अनुसार वहाँ रथकों (छोटे-छोटे रथों)- की रचना करावे तथा उनके भी तृतीय भाग के माप का उन रथों के निकलने के मार्ग (द्वार) -का निर्माण करावे। तीन रथकों पर सदा तीन वामों की स्थापना करे ।। १३-१४ ॥

शिखरार्थं हि सूत्राणि चत्वारि विनिपातयेत्।

शुकनाशोद्‌र्ध्वतः सूत्रं तिर्य्यग्भूतं निपातयेत् ।। १५ ।।

शिखरस्यार्द्धभागस्थं सिंहं तत्र तु कारयेत्।

शुकनासां स्थिरीकृत्य मध्यसन्धौ निधापयेत् ।। १६ ।।

शिखर के लिये चार सूत्रों का निपातन करे। शुकनासा* के ऊपर से सूत को तिरछा गिरावे । शिखर के आधे भाग में सिंह की प्रतिमा का निर्माण करावे । शुकनासा पर सूत को स्थिर करके उसे मध्य संधि तक ले जाय॥१५-१६॥

* शिखर के चार भाग करके नीचे के दो भागों को 'शुकनासा' कहते हैं। उसके ऊपर के तीसरे भाग में वेदी होती है, जिस पर उसका कण्ठमात्र स्थित होता है। सबसे ऊपर के चतुर्थ भाग में 'आमलसार' संज्ञक कण्ठ का निर्माण कराया जाना चाहिये। जैसा कि मत्स्यपुराण में कहा है-

चतुर्धा शिखरं भव्य अर्थभागद्वयस्य तु ।

शुकनासं प्रकुर्वीत तृतीये वेदिका मता ॥

कण्ठमामलसारं तु चतुर्थे परिकल्पयेत् ।(269 । 18-19)

अपरे च तता पार्श्वे तद्वत् सूत्रं निधापयेत्।

तदूद्र्ध्वन्तु भवेद्वेदी सकण्ठा मनसारकम् ।। १७ ।।

स्कन्धभग्नं न कर्त्तव्यं विकरालं तथैव च।

उद्‌र्ध्वं च वेदिकामानात् कलशं परिकल्पयेत् ।। १८ ।।

विस्ताराद् द्विगुणं द्वारं कर्त्तव्यं तु सुशोभनम्।

उदुम्बरौ तदूद्‌र्ध्वञ्च न्यसेच्छाखां सुमङ्गलैः ।। १९ ।।

इसी प्रकार दूसरे पार्श्व में भी सूत्रपात करे। शुकनासा के ऊपर वेदी हो और वेदी के ऊपर आमलसार नामक कण्ठसहित कलश का निर्माण कराया जाय। उसे विकराल न बनाया जाय। जहाँ तक वेदी का मान है, उससे ऊपर ही कलश की कल्पना होनी चाहिये। मन्दिर के द्वार की जितनी चौड़ाई हो, उससे दूनी उसकी ऊँचाई रखनी चाहिये। द्वार को बहुत ही सुन्दर और शोभासम्पन्न बनाना चाहिये। द्वार के ऊपरी भाग में सुंदर मङ्गलमय वस्तुओं के साथ गूलर की दो शाखाएँ स्थापित करे (खुदवावे) ॥१७- १९ ॥

द्वारस्य तु चतुथांशे कार्य्यौ चण्डप्रचण्डकौ।

विष्वक्‌सेनवत्सदण्डौ शिखोद्‌र्ध्वेडुम्बरे श्रियम् ।। २० ।।

दिग्गजैः स्नाप्यमानान्तां घटैः साब्जां सुरूपिकाम्।

प्रासादस्य चतुर्थांशैः प्राकारस्योच्छयो भवेत् ।। २१ ।।

प्रासादात् पादहीनस्तु गोपुरस्योच्छयोभवेत्।

पञ्चहस्तस्य देवस्य एकहस्ता तु पीठिका ।। २२ ।।

द्वार के चतुर्थांश में चण्ड, प्रचण्ड, विष्वक्सेन और वत्सदण्ड इन चार द्वारपालों की मूर्तियों का निर्माण करावे । गूलर की शाखाओं के अर्ध भाग में सुंदर रूपवाली लक्ष्मीदेवी के श्रीविग्रह को अङ्कित करें। उनके हाथ में कमल हो और दिग्गज कलशों के जल द्वारा उन्हें नहला रहे हों। मन्दिर के परकोटे की ऊँचाई उसके चतुर्थांश के बराबर हो । प्रासाद के गोपुर की ऊँचाई प्रासाद से एक चौथाई कम हो। यदि देवता का विग्रह पाँच हाथ का हो तो उसके लिये एक हाथ की पीठिका होनी चाहिये ॥ २०-२२ ॥

गारुडं मण्डपञ्चाग्रे एकं भौमादिधाम च।

कुर्य्याद्धि प्रतिमायान्तु दिक्षु चाष्टासु चोपरि ।। २३ ।।

पूर्वं वराहं दक्षे च नृसिंहं श्रीधरं जले।

उत्तरे तु हयग्रीवमाग्नेय्यां जामदग्न्यकम् ।। २४ ।।

नैर्ऋत्यां रामकं वायौ वामनं वासुदेवकम्।

ईशे प्रासादरचना देया वस्वर्ककादिभिः ।।२५ ।।

द्वारस्य चाष्टमाद्यंशं त्यक्त्वा वेधो न दोषभाक् ।। २६ ।।

विष्णु – मन्दिर के सामने एक गरुडमण्डप तथा भौमादि धाम का निर्माण करावे। भगवान्‌ के श्रीविग्रह के सब ओर आठों दिशाओं के ऊपरी भाग में भगवत्प्रतिमा से दुगुनी बड़ी अवतारों की मूर्तियाँ बनावे। पूर्व दिशा में वराह, दक्षिण में नृसिंह, पश्चिम में श्रीधर, उत्तर में हयग्रीव, अग्निकोण में परशुराम, नैर्ऋत्यकोण में श्रीराम, वायव्यकोण में वामन तथा ईशानकोण में वासुदेव की मूर्ति का निर्माण करे। प्रासाद- रचना आठ, बारह आदि समसंख्यावाले स्तम्भों द्वारा करनी चाहिये। द्वार के अष्टम आदि अंश को छोड़कर जो वेध होता है, वह दोषकारक नहीं होता है ।। २३-२६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये प्रासदलक्षणं नाम द्वाचत्वारिंशोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'प्रासाद आदि के लक्षण का वर्णन' नामक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४२ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 43

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