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अग्निपुराण अध्याय ५३

अग्निपुराण अध्याय ५३             

अग्निपुराण अध्याय ५३ लिङ्ग* आदि का लक्षण का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ५३

अग्निपुराणम् अध्यायः ५३             

Agni puran chapter 53

अग्निपुराण तिरपनवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ५३               

अग्निपुराणम् अध्यायः ५३- लिङ्गलक्षणम्

भगवानुवाच

लिङ्गादिलक्षणं वक्ष्ये कमलोद्भव तच्छृणु ।

दैर्घ्यार्धं वसुभिर्भक्त्वा त्यक्त्वा भागत्रयं ततः ॥१॥

विष्कम्भं भूतभागैस्तु चतुरस्रन्तु कारयेत् ।

आयामं मूर्तिभिर्भक्त्वा एकद्वित्रिक्रमान्न्यसेत् ॥ २॥

ब्रह्मविष्णुशिवांशेषु वर्धमानोयमुच्यते ।

चतुरस्रेस्य वर्णार्धं गुह्यकोणेषु लाञ्छयेत् ॥३॥

अष्टाग्रं वैष्णवं भागं सिध्यत्येव न संशयः ।

षोडशास्रं ततः कुर्याद्द्वात्रिंशास्रं ततः पुनः ॥४॥

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैंकमलोद्भव ! अब मैं लिङ्ग आदि का लक्षण बताता हूँ, सुनो। लंबाई के आधे में आठ से भाग देकर आठ भागों में से तीन भाग को त्याग दे और शेष पाँच भागों से चौकोर विष्कम्भ का निर्माण कराये। फिर लंबाई के छः भाग करके उन सबको एक, दो और तीन के क्रम से अलग-अलग रखे। इनमें पहला भाग ब्रह्मा का, दूसरा विष्णु का और तीसरा शिव का है। उन भागों में यह 'वर्द्धमान' भाग कहा जाता है। चौकोर मण्डल में कोणसूत्र के आधे माप को लेकर उसे सभी कोणों में चिह्नित करे। ऐसा करने से आठ कोणों का 'वैष्णवभाग' सिद्ध होता है, इसमें संशय नहीं है। तदनन्तर उसे षोडश कोण और फिर बत्तीस कोणों से युक्त करे ॥ १-४ ॥

चतुःषष्ट्यस्रकं कृत्वा वर्तुलं साधयेत्ततः ।

कर्तयेदथ लिङ्गस्य शिरो वै देशिकोत्तमः ॥५॥

विस्तारमथ लिङ्गस्य अष्टधा संविभाजयेत् ।

भागार्धार्धन्तु सन्त्यज्य च्छत्राकारं शिरो भवेत् ॥६॥

त्रिषु भागेषु सदृशमायामं यस्य चिस्तरः ।

तद्विभागसमं लिङ्गं सर्वकामफलप्रदं ॥७॥

दैर्घ्यस्य तु चतुर्थेन विष्कम्भं देवपूजिते ।

सर्वेषामेव लिङ्गानां लक्षणं शृणु साम्प्रतं ॥८॥

तत्पश्चात् चौंसठ कोणों से युक्त करके वहाँ गोल रेखा बनावे। तदनन्तर श्रेष्ठ आचार्य लिङ्ग के शिरोभाग का कर्तन करे। इसके बाद लिङ्ग के विस्तार को आठ भागों में विभाजित करे। फिर उनमें से एक भाग के चौथे अंश को छोड़ देने पर छत्राकार सिर का निर्माण होता है। जिसकी लंबाई-चौड़ाई तीन भागों में समान हो, वह समभागवाला लिङ्ग सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों को देनेवाला है। देवपूजित लिङ्ग में लंबाई के चौथे भाग से विष्कम्भ बनता है। अब तुम सभी लिङ्गों के लक्षण सुनो ॥५-८ ॥

* श्रीविद्यार्णवतन्त्र ११वें श्वास में लिङ्ग निर्माण की साधारण विधि इस प्रकार दी गयी है-

अपनी रुचि के अनुसार लिङ्ग कल्पित करके उसके मस्तक का विस्तार उतना ही रखे, जितनी पूजित लिङ्गभाग की ऊँचाई हो जैसा कि शैवागम का वचन है-'लिङ्गमस्तक विस्तारो लिङ्गोच्छ्रायसमो भवेत्। लिङ्ग के मस्तक का विस्तार जितना हो, उससे तिगुने सूत्र से वेष्टित होने योग्य लिङ्ग की स्थूलता (मोटाई) रखे शिवलिङ्ग की जो स्थूलता या मोटाई है, उसके सूत्र के बराबर पीठ का विस्तार रखे। तत्पश्चात् पूज्य लिङ्ग का जो उच्च अंश है, उससे दुगुनी ऊँचाई से युक्त वृत्ताकार या चतुरस्र पीठ बनावे। पीठ के मध्यभाग में लिङ्ग के स्थूलतामात्रसूचक नाहसूत्र के द्विगुण सूत्र से वेष्टित होने योग्यं स्थूल कण्ठ का निर्माण करे। कण्ठ के ऊपर और नीचे समभाग से तीन या दो मेखलाओं की रचना करे। तदनन्तर लिङ्ग के मस्तक का जो विस्तार है, उसको छ: भागों में विभक्त करे। उनमें से एक अंश के मान के अनुसार पीठ के ऊपरी भाग में सबसे बाहरी अंश के द्वारा मेखला बनावे उसके भीतर उसी मान के अनुसार उससे संलग्न अंश के द्वारा खात (गर्त) की रचना करे। पीठ से बाह्यभाग में लिङ्ग के समान ही बड़ी अथवा पीठमान के आधे मान के बराबर बड़ी, मूलदेश में दीर्घांश मान के समान विस्तारवाली और अग्रभाग में उसके आधे मान के तुल्य विस्तारवासी नाली बनाये। इसी को 'प्रणाल' कहते हैं। प्रणाल के मध्य में मूल से अग्रभागपर्यन्त जलमार्ग बनाये। प्रणाल का जो विस्तार है, उसके एक तिहाई विस्तारवाले खातरूप जलमार्ग से युक्त पीठ-सदृश मेखलायुक्त प्रणाल बनाना चाहिये। यह स्फटिक आदि रत्नविशेषों अथवा पाषाण आदि के द्वारा शिवलिङ्ग निर्माण की साधारण विधि है। यथा-

लिङ्गमस्तक विस्तारं पूज्यभागसमं नयेत् ।............लक्षणमचारेत्॥ १-८ ॥

मध्यसूत्रं समासाद्य ब्रह्मरुद्रान्तिकं बुधः ।

षोडशाङ्गुललिङ्गस्य षड्भागैर्भाजितो यथा ॥९॥

तद्वैयमनसूत्राभ्यां मानमन्तरमुच्यते ।

यवाष्टमुत्तरे कार्यं शेषाणां यवहानितः ॥१०॥

अधोभागं त्रिधा कृत्वा त्वर्धमेकं परित्यजेत् ।

अष्टधा तद्द्वयं कृत्वा ऊर्ध्वभागत्र्यं त्यजेत् ॥११॥

ऊर्ध्वञ्च पञ्चमाद्भागाद्भ्राम्य रेखां प्रलम्बयेत् ।

भागमेकं परित्यज्य सङ्गं कारयेत्तयोः ॥१२॥

एतत्साधारणं प्रोक्तं लिङ्गानां लक्षणं मया ।

सर्वसाधारणं वक्ष्ये पिण्डिकान्तान्निबोध मे ॥१३॥

विद्वान् पुरुष सोलह अङ्गुलवाले लिङ्ग के मध्यवर्ती सूत्र को, जो ब्रह्म और रुद्रभाग के निकटस्थ है, लेकर उसे छः भागों में विभाजित करे। वैयमन सूत्रों द्वारा निश्चित जो वह माप है, उसे 'अन्तर' कहते हैं। जो सबसे उत्तरवर्ती लिङ्ग है, उसे आठ जौ बड़ा बनाना चाहिये; शेष लिङ्गों को एक-एक जौ छोटा कर देना चाहिये। उपर्युक्त लिङ्ग के निचले भाग को तीन हिस्सों में विभक्त करके ऊपर के एक भाग को छोड़ दे। शेष दो भागों को आठ हिस्सों में विभक्त करके ऊपर के तीन भागों को त्याग दे। पाँचवें भाग के ऊपर से घूमती हुई एक लंबी रेखा बनावे और एक भाग को छोड़कर बीच में उन दो रेखाओं का संगम करावे। यह लिङ्गों का साधारण लक्षण बताया गया; अब पिण्डिका का सर्वसाधारण लक्षण बताता हूँ, मुझसे सुनो ॥ ९-१३ ॥

ब्रह्मभागप्रवेशञ्च ज्ञात्वा लिङ्गस्य चोच्छ्रयं ।

न्यसेद्ब्रह्मशिलां विद्वान् सम्यक्कर्मशिलोपरि ॥१४॥

तथा सुमुच्छ्रयं ज्ञात्वा पिण्डिकां प्रविभाजयेत् ।

द्विभागमुच्छ्रितं पीठं विस्तारं लिङ्गसम्मितम् ॥१५॥

त्रिभागं मध्यतः खातं कृत्वा पीठं विभाजयेत् ।

स्वमानार्धत्रिभागेण बाहुल्यं परिकल्पयेत् ॥१६॥

बाहुल्यस्य त्रिभागेण मेखलामथ कल्पयेत् ।

खातं स्यान्मेखलातुल्यं क्रमान्निम्नन्तु कारयेत् ॥१७॥

मेखलाषोडशांशेन खातं वा तत्प्रमाणज्ञः ।

उच्छ्रायं तस्य पीठस्य विकाराङ्गं तु कारयेत् ॥१८॥

भूमौ प्रविष्टमेकं तु भागैकेन पिण्डिका ।

कण्ठं भागैस्त्रिभिः कार्यं भागेनैकेन पट्टिका ॥१९॥

ब्रह्मभाग में प्रवेश तथा लिङ्ग की ऊँचाई जानकर विद्वान् पुरुष ब्रह्मशिला की स्थापना करे और उस शिला के ऊपर ही उत्तम रीति से कर्म का सम्पादन करे। पिण्डिका की ऊँचाई को जानकर उसका विभाजन करे। दो भाग की ऊँचाई को पीठ समझे। चौड़ाई में वह लिङ्ग के समान ही हो। पीठ के मध्यभाग में खात (गड्ढा) करके उसे तीन भागों में विभाजित करे। अपने मान के आधे त्रिभाग से 'बाहुल्य' की कल्पना करे। बाहुल्य के तृतीय भाग से मेखला बनावे और मेखला के ही तुल्य खात (गड्ढा) तैयार करे। उसे क्रमशः निम्न (नीचे झुका हुआ) रखे। मेखला के सोलहवें अंश से खात निर्माण करे और उसी के माप के अनुसार उस पीठ की ऊँचाई, जिसे 'विकाराङ्ग' कहते हैं,करावे। प्रस्तर का एक भाग भूमि में प्रविष्ट हो, एक भाग से पिण्डिका बने, तीन भागों से कण्ठ का निर्माण कराया जाय और एक भाग से पट्टिका बनायी जाय ॥ १४- १९ ॥

द्यंगेन चोर्ध्वपट्टन्तु एकांशाः शेषपट्टिका ।

भागं भागं प्रविष्टन्तु यावत्कण्ठं ततः पुनः ॥२०॥

निर्गमं भागमेकं तु यावद्वै शेषपट्टिका ।

प्रणालस्य त्रिभागेन निर्गमस्तु त्रिभागतः ॥२१॥

मूलेङ्गुल्यग्रविस्तारमग्रे त्र्यंशेन चार्धतः ।

ईषन्निम्नन्तु कुर्वीत खातं तच्चोत्तरेण वै ॥२२॥

पिण्डिकासहितं लिङ्गमेतत्साधारणं स्मृतम् ॥२३॥

दो भाग से ऊपर का पट्ट बने; एक भाग से शेष पट्टिका तैयार करायी जाय। कण्ठपर्यन्त एक-एक भाग प्रविष्ट हो। तत्पश्चात् पुनः एक भाग से निर्गम (जल निकलने का मार्ग) बनाया जाय। यह शेष पट्टिका तक रहे। प्रणाल (नाली)- के तृतीय भाग से निर्गम बनना चाहिये। तृतीय भाग के मूल में अङ्गुलि के अग्रभाग के बराबर विस्तृत खात बनावे, जो तृतीय भाग से आधे विस्तार का हो। वह खात उत्तर की ओर जाय । यह पिण्डिका सहित साधारण लिङ्ग का वर्णन किया गया । २० - २३ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये लिङ्गलक्षणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'लिङ्ग आदि के लक्षण का वर्णन' नामक तिरपनयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५३ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 54 

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