कालिका पुराण अध्याय ४९
कालिका पुराण
अध्याय ४९ में तारावती और कपोतमुनि के उपाख्यान के साथ ही चित्राङ्ग की उत्पत्ति का
वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ४९
Kalika puran chapter 49
कालिकापुराणम् एकोनपञ्चाशोऽध्यायः महाकाल-वेतालजन्मवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४९
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ काले
व्यतीते तु ककुत्स्थतनया सती ।
विधातुमार्तवं
स्नानं योषिद्भिः परिवारिता ।। १ ।।
शीतामलजलां
हृद्यां नदीं प्राप्ता दृषद्वतीम् ।
प्रभिन्नाञ्जनसङ्काशां
कलुषध्वंसकोविदाम् ।। २।।
मार्कण्डेय
बोले- इसके बाद बहुत समय बीत जाने पर, ककुत्स्थ राजा की पुत्री, सती रानी तारावती, ऋतुस्नान हेतु स्त्रियों से घिरी हुई,
शीतल तथा निर्मल जल से युक्त, काले अञ्जन के टुकड़े के समान,
कलुष को भी नष्ट कर देने वाली,
दृषद्वती नदी के तट पर पहुँची ।। १-२ ॥
कृतस्नानामनुत्तीर्णामर्धमग्नां
महासतीम् ।
ददृशे
स्वर्णगौराङ्गीं कपोतो मुनिसत्तमः ।।३।।
उसमें स्नान
करके बिना पूर्णतः बाहर निकली, आधी जलमग्नावस्था में ही स्वर्ण के समान गोरे अङ्गों वाली,
उस महासती तारावती को कपोत नाम के एक श्रेष्ठ मुनि ने देखा
॥ ३ ॥
कापोतं
वपुरास्थाय प्राणिनां वधशङ्कया ।
विचचार यतः
पूर्वं कपोतस्तेन स स्मृतः ॥ ४ ॥
पूर्वकाल में
वह मुनि प्राणियों के वध की शङ्का से, कपोतशरीर धारण कर विहार किया करते थे । इसीलिए कपोत नाम से
ही उनका स्मरण किया जाता है ॥४॥
तां दृष्ट्वा
हेमगर्भाभां चन्द्रिकां शारदीमिव ।
कपोतः
कामयामास कामबाणार्दितो भृशम् ।। ५ ।।
शरदऋतु की
चाँदनी की भाँति स्वर्णगर्भ की आभायुक्त उस तारावती को देख कर,
कामबाण से बहुत अधिक पीड़ित, कपोत मुनि उसकी कामना करने लगे ॥५॥
कामाग्निपरितप्तः
स ककुत्स्थतनयां मुनिः ।
अभिगम्याथ
कल्याणीमिदं वचनमब्रवीत् ।।६।।
कामाग्नि से
सब प्रकार से परितप्त हो, उस मुनि ने उस कल्याणस्वरूपा, ककुत्स्थ पुत्री से यह वचन कहा ॥
६ ॥
।। कपोत उवाच
॥
का त्वं
कस्यासि वनिता पुत्री वा कस्य सुन्दरि ।
कस्मात् समागता
वा त्वमुपांशुतटिनीजलम् ।।७।।
कपोत बोले- हे
सुन्दरी ! तुम कौन हो ? तुम किसकी स्त्री या किसकी पुत्री हो ?
तुम गुप्तरूप से इस नदी के जल में किसलिए आई हुई हो ?
॥७॥
रूपं ते
सौम्यमाह्लादि पूर्णचन्द्रनिभं मुखम् ।
तिलपुष्पप्रतीकाशं
नासिकायुगलं तव ॥८॥
तुम्हारा रूप
सौम्य है तथा पूर्णचन्द्रमा के समान तुम्हारा मुख, आह्लादित करने वाला है और तुम्हारी दोनों नाक तिलपुष्प के
समान सुन्दर हैं ॥ ८ ॥
वातकम्पितनीलाब्जसदृशे
लोचने तव ।
बाहू मनोहरौ
वृत्तौ मृणालमृदुलायतौ ।
ऊरू
गजकरप्रख्यौ मध्यं वेदिविलग्नकम् ।। ९ ।।
तुम्हारे
नेत्र वायु से काँपते हुए नीलेकमल के समान चञ्चल हैं,
तुम्हारी दोनों बाहें कमलनाल की भाँति कोमल,
लम्बी-चौड़ी, सुन्दर और गोलाकार हैं तथा तुम्हारी दोनों जाँघें,
हाथी के सूँड़ के समान एवं मध्यभाग,
वेदिका के समान है ॥९॥
ईदृशेन तु
रूपेण न त्वं मानुषभामिनी ।
देवी वा दानवी
वा त्वमप्सरागुणशालिनी ।। १० ।।
इस प्रकार के
रूप से युक्त तुम, मनुष्य की स्त्री नहीं हो। तुम कोई देवी हो,
दानवी हो, या कोई गुणों से युक्त अप्सरा हो ॥ १० ॥
अथवा
भोग्यभोगाय श्रीस्त्वं नारीत्वमागता ।
अपर्णा वा शची
वा त्वं तन्मे वद मनोहरे ।। ११ ।।
अथवा अपने
भोग्य को भोगने के लिए नारी के रूप में उत्पन्न, तुम लक्ष्मी, पार्वती या इन्द्राणी हो? हे सुन्दरी ! इस विषय में तुम मुझे बताओ ॥ ११ ॥
।। और्व उवाच
।।
इति वाक्यं
मुनेः श्रुत्वा जलादुत्तीर्य भामिनी ।
प्रणम्य तं
मुनिं नम्रा वचनं चेदमब्रवीत् ।। १२ ।।
और्व बोले-
कपोतमुनि की इस बात को सुनकर उस देवी ने जल से बाहर आकर उन मुनि को प्रणाम किया,
तत्पश्चात् नम्रतापूर्वक यह वचन कहा ।।१२।।
।।
तारावत्युवाच ।।
अहं तारावती
नाम्ना ककुत्स्थस्य सुता सती ।
चन्द्रशेखर
भूपस्य भार्यां जानीहि मां मुने ।। १३ ।।
तारावती
बोलीं- हे मुनि! मैं राजा ककुत्स्थ की तारावती नाम की सती कन्या हूँ । आप मुझे
राजा चन्द्रशेखर की पत्नी भी समझो ॥ १३ ॥
नाहं देवी न
गन्धर्वी न यक्षी न च राक्षसी ।
मानुष्यहं नृपसुता
चारित्र्यव्रतधारिणी ।। १४ ।।
न मैं कोई
देवी हूँ,
न गन्धर्वपत्नी हूँ, न यक्षिणी हूँ, न राक्षसी हूँ, मैं तो चरित्रव्रतधारणकारिणी, मनुष्यरूपा, एक राजकन्या मात्र हूँ ॥१४॥
।। कपोत उवाच
।।
त्वां
दृष्ट्वा मां स्वयं कामः सङ्गतः सङ्गमाय ते ।
पीडितश्चाति
तेनाहं त्वया शक्त्या समक्षया ।। १५ ।।
कपोत बोले-
तुम को देखकर तुम्हारे संगम के प्रति मुझे स्वयं काम उपयुक्त बना रहा है । मैं
तुम्हारी शक्ति के सम्मुख अपने को उसी से अत्यन्त पीड़ित अनुभव कर रहा हूँ ॥ १५ ॥
स्मरसागरकल्लोलपतितं
मां निराकुलम् ।
त्वदूरुतरिणा
त्राहि तूर्णं त्वं मृदुभाषिणी ।। १६ ।।
हे कोमल बोलने
वाली ! काम के समुद्र की तरंगो के बीच गिरे हुए मेरे मन को तुम शीघ्र ही अपनी
जाँघों की नौका द्वारा उबार लो।।१६।।
मत्तः
पुत्रद्वयं चारु रूपलक्षणसंयुतम् ।
भविष्यति
महाभागे बलवीर्ययुतं महत् ।। १७ ।।
हे महाभागे !
तुम्हें मुझसे सुन्दर रूप और लक्षणों से युक्त महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न,
दो पुत्र होंगे ।।१७।।
।। और्व उवाच
।
कपोतस्य वचः
श्रुत्वा भयदुःखसमाकुला ।
जगाद गद्गदं
वाक्यं वाग्मिन्यथ ककुत्स्थजा ।। १८ ।।
और्व बोले- तब
बोलने में चतुर, ककुत्स्थ की पुत्री, तारावती ने कपोतमुनि के उपर्युक्त वचनों को सुनकर भय एवं
दुःख से व्याकुल हो, गद्गद् वाणी से यह
वचन कहा ।। १८ ।।
।।
तारावत्युवाच ॥
वाक्यमन्यन्मया
कार्यं न कार्यमति निन्दितम् ।
तस्मान्मा वद
मामित्थं प्रणम्य त्वां प्रसादये ।। १९ ।।
तवापि नैतद्
योग्यं स्यान्मुनेरिह तपोधन ।
तपः क्षयकरं
गर्हां सतीत्वभ्रंशकं मम ।। २० ।।
तारावती
बोलीं- हे मुनि! मैं आपकी प्रसन्नता के लिए आपको प्रणाम करती हूँ । आपको मुझसे इस
प्रकार की अत्यन्त निन्दित वार्ता नहीं करनी चाहिये । यदि कोई अन्य बात हो तो कहें
अन्यथा इस तरह की बातें मुझसे न करें क्योंकि तपोधन सम्पन्न,
तपस्वी द्वारा अपनी तपस्या तथा मेरे सतीत्व का नाश करने
वाली निन्दनीय बातें, आपके लिए भी इस समय उचित नहीं हैं ।। १९-२० ॥
।। कपोत उवाच
।।
तपोव्ययो वा
चान्यद्वा दूषणं तन्ममास्त्विह ।
तथापि त्वामहं
त्यक्तुं नेच्छामि सुरतौ शुभे ।। २१ ।।
कपोत बोले- हे
शुभ लक्षणों वाली! मेरा तप नष्ट हो जाय, अन्य कोई दोष लगे तो भी मैं इस समय तुम्हें सुरतिप्रसङ्ग
में,
छोड़ना नहीं चाहता हूँ ॥२१॥
अवश्यं मम
कामेभ्यस्त्राणं कर्तुमिहार्हसि ।
अन्यथा
कामदग्धोऽहं त्वया त्यक्तो मनोहरे ।
भवतीं च
करिष्यामि शापदग्धां सबान्धवाम् ।। २२।।
हे मन का हरण
करने वाली सुन्दरी ! तुम्हें काम के प्रहार से मेरा उद्धार अवश्य करना चाहिये
अन्यथा कामदग्ध हुआ मैं भी तुम्हारे द्वारा त्यागे जाने पर,
बन्धु बान्धवों के सहित तुम्हें शाप से दग्ध कर दूँगा ।। २२
।।
ततस्तद्वचनं
श्रुत्वा देवी तारावती तदा ।
ऋषिशापभयात्
साध्वी न किञ्चिच्चोत्तरं ददौ ।। २३ ।।
तब मुनि के उस
वचन को सुनकर साध्वी देवी, तारावती ने ऋषि के शाप के भय से उसे कोई उत्तर नहीं दिया
॥२३॥
सम्भाषयेऽहं
स्वसखीहि तिष्ठ महामुने ।। २४ ।।
एवमुक्त्वा
तदा देवी दासीनां मध्यमागता ।
चित्राङ्गदां
समाहूय वचनं चेदमब्रवीत् ।। २५ ।।
हे महामुने !
इसे मैं अपने सखी से कहती हूँ, तुम अभी ठहरो । ऐसा कहकर वह देवी तारावती,
दासियों के बीच चली गई और वहाँ चित्राङ्गदा को बुलाकर उससे
यह वचन बोली ॥२४-२५ ॥
चित्राङ्गदे
मुनिरसौ मां वै कामयते भृशम् ।
किं करिष्ये
सतीभावान्नभ्रष्टा स्यामहं कथम् ।। २६ ।।
तारावती
बोलीं- हे चित्राङ्गदे ! यह मुनि मेरे प्रति इस समय अत्यधिक कामोत्सुक हो गया है ।
मैं क्या करूँ? जिससे मैं सतीभाव से च्युत न होऊँ ॥२६॥
पतिं
बन्धूंश्च कपोतः सद्यः शापाग्निना दहेत् ।
नाहं मुनिं
कामये चेत् संशये पतिता त्वहम् ।। २७ ।।
क्योंकि यदि
मैं इसे न चाहूँ, तो यह कपोत नामक मुनि, तत्काल मेरे पति और सम्बन्धियों को अपने शाप की अग्नि से
दग्ध कर देगा और यदि मैं चाहूँ तो मैं सती-धर्म से भ्रष्ट हो,
पतिता हो जाऊँगी ॥२७॥
।। और्व उवाच
।।
ततश्चित्राङ्गदा
प्राह मा भैस्त्वं सत्यभाषिणि ।
तत्रोपायमहं
वक्ष्ये यत्कृत्वा त्वं प्रमोक्ष्यसे ।। २८ ।।
और्व बोले- तब
चित्राङ्गदा ने कहा ! हे सत्यवादिनी मत डरो, मैं तुम्हें उपाय बताती हूँ, जिसे करके तुम इस संकट से छुटकारा पा सकती हो ।। २८ ।।
न जहाति
मुनिश्चेत्त्वां दासीमेकां मनोहराम् ।
सुभूषणैर्भूषयित्वा
मुनये त्वं नियोजय ।। २९ ।।
यदि मुनि
तुम्हें नहीं छोड़ता तो एक सुन्दरी दासी को अपने सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित
कर,
मुनि की सेवा में लगाओ ।। २९ ।।
कामातुरो
मुनिर्मोहात् कृपणो ज्ञास्यते न हि ।
दासीं
त्वदूषणाच्छन्नां ज्योत्स्नाच्छन्नां मृगीमिव ।। ३० ।।
वह मोह से दीन,
कामातुर मुनि, तुम्हारे आभूषणों से युक्त दासी को चाँदनी से ढकी मृगी की
भाँति,
जान नहीं पायेगा ॥ ३० ॥
एवं कुरु
महाभागे मा त्वं चिन्तां गमः शुभे ।
त्वं चेत्
सतीति नियतं न ज्ञास्यति तदा मुनिः ।। ३१ ।।
महाभागे ! हे
शुभे ! तुम ऐसा ही करो और किसी प्रकार की चिन्ता न करो । यदि तुम ऐसा करोगी तो वह
मुनि निश्चित रूप से नहीं जान पायेगा ॥३१॥
ततस्तारावती
प्राह तां रूपगुणशालिनीम् ।
चित्राङ्गदां
भूपपुत्रीं शश्वद्विनयसूनृताम् ।। ३२ ।।
तब रानी
तारावती ने उस गुण सम्पन्न, निरन्तर, विनय और सत्यता से युक्त राजकुमारी चित्राङ्गदा से कहा- ॥
३२ ॥
।।
तारावत्युवाच ॥
त्वमेव गच्छ
भगिनी कपोताख्यमनिन्दिते ।
मद्भूषणैर्भूषयित्वा
स्वशरीरं मनस्विनि
॥३३ ॥
तारावती
बोलीं- हे बहन ! हे अनिन्दित आचरण वाली ! तुम मनस्विनी हो अतः मेरे आभूषणों से
अपने को अलङ्कृत कर, तुम्हीं कपोत नामक मुनि के पास जाओ ॥ ३३ ॥
अन्यां
प्रस्थापितां विप्रः सम्बध्य क्रोधवह्निना ।
धक्ष्यत्यवश्यं
सकुलां मां तस्माद् गच्छ सुन्दरि ।। ३४ ।।
हे सुन्दरि !
मेरे द्वारा भेजी गयी, दूसरे से सम्बन्ध स्थापित कर वह ब्राह्मण, अपनी क्रोध की अग्नि से शीघ्र ही कुल के सहित मेरा विनाश
कर देगा । अत: तुम्हीं उसके पास जाओ ॥३४॥
त्वं मत्समा
सर्वगुणैः सर्वभूषणभूषिता ।
मुनिं
सङ्गमयस्वाद्य रक्ष मां सकुलां शुभे ।। ३५ ।।
शुभे ! तुम
सभी गुणों से युक्त तथा मेरे आभूषणों से युक्त हो, उस मुनि से सङ्गमन कर कुल के सहित आज मेरी रक्षा करो ।। ३५
।।
।। और्व उवाच
॥
ततस्तस्या वचः
श्रुत्वा विनयं च सकातरम् ।
तूष्णीं
भूत्वा क्षणं तस्थौ नातिहृष्टमना इव ।। ३६ ।।
जगाद च
महाभागां चित्राङ्गदा ककुत्स्थजाम् ।
करिष्ये वचनं
तेऽद्य समये मां स्मरिष्यसि ।। ३७ ।।
यदर्थे पितरं
चेमं भूपं च चन्द्रशेखरम् ।
आश्वासयिष्यति
तथा समस्तां च सखीगणान् ।। ३८ ।।
और्व बोले- तब
उस तारावती की वाणी तथा कातर प्रार्थना को सुनकर वह प्रसन्न न होती हुई,
कुछ क्षण मौन रही और तत्पश्चात् चित्राङ्गदा ने
ककुत्स्थपुत्री तारावती से कहा- आज मैं तुम्हारा कहा कर रही हूँ किन्तु समय पर
मेरा स्मरण करोगी, जब तुम्हें अपने माता-पिता, राजा चन्द्रशेखर तथा समस्त सखियों को आश्वस्त करना होगा ।।
३६-३८।।
एवमुक्त्वा
भूषणानि तारावत्याः पिधाय सा ।
चित्राङ्गदा
जगामाशु मुनेः कामोत्सवाय च ।। ३९।।
तब
चित्राङ्गदा ऐसा कहकर, तारावती के वस्त्राभूषणों को पहनकर,
मुनि के कामोत्सव के लिए शीघ्र ही चली गई ।। ३९ ॥
तारावती तदा
दीना वस्त्रालङ्कारवर्जिता ।
दासीमध्यगता
भूत्वा तामेवानुययौ प्रियाम् ।। ४० ।।
तत्पश्चात्
तारावती भी अपने वस्त्रालङ्कार से रहित तथा दीनभाव से युक्त हो, दासियों के बीच स्थित हो, अपनी उसी प्रिय सखी का अनुगमन करने लगी ॥ ४० ॥
तामायान्तीं
ततो दृष्ट्वा कपोतः काममोहितः ।
मुनीनां
परजायासु सस्मार सङ्गमं तदा ।। ४१ ।।
तब उस तारावती
के समान आती हुई चित्राङ्गदा को देखकर, काम से मोहित, कपोत मुनि ने अन्य मुनियों द्वारा पराई स्त्रियों के प्रति
किये गये पूर्वकालिक समागमों का स्मरण किया । ४१ ॥
प्रम्लोचा
कामिता पूर्वं वतण्डस्य सुतेन वै ।
यथा वा कामिता
पद्मा भरद्वाजेन धीमता ।। ४२ ।।
तथाहं
कामयिष्यामि साम्प्रतं वरवर्णिनीम् ।
पश्चात्
तपोबलात् तद्वज्जायां पापाद् विमोक्षये ।। ४३ ।।
जैसा पूर्वकाल
में वतण्ड के पुत्र द्वारा प्रम्लोचा तथा बुद्धिमान् भरद्वाज ऋषि द्वारा पद्मा का
कामोपभोग किया गया था वैसा ही मैं भी इस समय इस सुन्दरी का उपभोग करूँगा तथा बाद
में उन्हीं पूर्ववर्ती ऋषियों की भाँति तपोबल से पत्नी के प्रति किये गये पाप से
मुक्त हो जाऊँगा ।। ४२-४३ ।।
इति
चिन्तयतस्तस्य तदा चित्राङ्गदा शुभा ।
समेत्य तं
मुनिं लज्जायुक्ता चैषाह किञ्चन ।।४४।।
जब वे कपोत
नामक मुनि इस प्रकार का विचार कर रहे थे उसी समय सुन्दरी चित्राङ्गदा ने
लज्जायुक्त भाव प्रकट करते हुए उस मुनि से कुछ कहा ॥४४॥
तामासाद्य
महाभागः कपोतो मुनिसत्तमः ।
शृङ्गारवेषभावाय
मदनं मनसास्मरत् ।। ४५ ।।
तब उस सुन्दरी
को पाकर महाभाग मुनिवर कपोत ने शृंगारवेषभाव की प्राप्ति हेतु कामदेव का मन ही मन
स्मरण किया ॥ ४५ ।।
स्मृतमात्रोऽथ
मदनः स्वयमेत्य महामुनिम् ।
गन्धमाल्यैः
सुवासोभिरध्युवासाति हर्षितः ।।४६।।
स्मरण करने
मात्र से ही कामदेव ने स्वयं महामुनि के पास आकर, अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक उन्हें गन्ध-माला तथा सुन्दर
वस्त्रादि से सुसज्जित कर दिया ॥ ४६ ॥
तेनाधिवासितो
विप्रः कपोतश्चारुरूपधृक् ।
जज्वाल तेजसा
चापि द्वितीय इव भास्करः ॥४७।।
उसके द्वारा
सज्जित हो, ब्राह्मण कपोत, सुन्दररूप धारण कर, अपने तेज से द्वितीय सूर्य के समान प्रकाशित हो उठे ॥४७॥
मनोहरं तथा
दृष्ट्वा कपोतं मदनोपमम् ।
तारावतीमृते
सर्वाः सकामाश्चाभवन् स्त्रियः ।। ४८ ।।
उस कपोत मुनि
को कामदेव के समान सुन्दर देखकर, रानी तारावती के अतिरिक्त वहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ,
कामासक्त हो गई ॥४८॥
तारावती मुनिं
दृष्ट्वा सुन्दरं मदनोपमम् ।
विस्मयं परमं
प्राप्ता मुनिं कामममन्यत ।। ४९ ।।
तारावती ने भी
मुनि को कामदेव के समान सुन्दर देखकर, अत्यधिक विस्मय से उन्हें दूसरा कामदेव ही समझा ।। ४९ ॥
अथ
चित्राङ्गदां विप्रः कामुकः कामसङ्गमे 1
तदा
नियोजयामास सुप्रीतश्चाभवत् क्षणात् ।। ५० ।।
तब उस कामुक
ऋषि ने चित्राङ्गदा को ही उस समय कामाचार में लगाया तथा क्षणभर में ही वे उसके साथ
से प्रसन्न हो गये ॥ ५० ॥
ततस्तस्यां
समुत्पन्नं सद्योजातं सुतद्वयम् ।
देवगर्भोपमं दीप्तज्वलनार्कसमप्रभम्
।। ५१ ।।
तब उससे शीघ्र
ही देवगर्भ के समान, प्रज्वलित अग्नि एवं सूर्य के समान प्रभावाले दो पुत्र,
उत्पन्न हुये ॥ ५१ ॥
जाते सुतद्वये
तां तु मुनिः संसृज्य पाणिना ।
निनाय
पूर्ववद्भावं वचनं चेदमब्रवीत् ।। ५२ ।।
दो पुत्रों के
उत्पन्न हो जाने पर मुनिवर कपोत ने उसे हाथों से पकड़कर पहले सा प्रेमपूर्णव्यवहार
करते हुए,
यह वाक्य कहा ॥ ५२ ॥
।। कपोतोवाच
।।
मत्सङ्गमे
कियत्कालं प्रिये तिष्ठ शुभानने ।
ममेच्छया
यास्यसि त्वं भयं ते नास्ति राजतः ।। ५३ ।।
कपोत बोले- हे
शुभमुखोंवाली प्रिये ! तुम कुछ समय तक और मेरे सम्पर्क में रहो। यदि तुम मेरी
इच्छा से जाओगी तो तुम्हें राजा से भी कोई भय नहीं होगा ॥ ५३ ॥
एवमस्त्विति
सा प्राह ऋषिं शापभयात् सती ।
ततौ
विसर्जयामास मुनिरन्याश्च योषितः ।। ५४ ।।
तब उसने ऋषि
के शाप के भय से उनसे कहा कि ऐसा ही हो । तदनन्तर मुनि ने अन्य सभी स्त्रियों को
वहाँ से विदा कर दिया ॥ ५४ ॥
ततस्तारावती
देवी दासीभिः परिवारिता ।
भगिनीमनुशोचन्ती
जगाम भवनं निजम् ।। ५५ ।।
तब दासियों से
घिरी हुई तारावती देवी अपनी बहन चित्राङ्गदा के विषय में चिन्ता करती हुई,
अपने भवन को चली गईं । । ५५ ॥
गत्वा तं
सर्ववृत्तान्तं कपोतकृतमद्भुतम् ।
ब्रह्मावर्ताधिपायाशु
शशंसाथ ककुत्स्थजा ।। ५६ ।।
उस समय
ककुत्स्थ राजा की पुत्री तारावती ने ब्रह्मावर्तदेश के अधिपति राजा चन्द्रशेखर से
कपोतमुनि द्वारा किये गये इस अद्भुत वृत्तान्त को कह सुनाया ॥५६॥
स श्रुत्वा
नृपर्शादूलः क्षणमात्रं विचिन्त्य च ।
चित्राङ्गदायाः
साहाय्यं कपोतानुमतेऽकरोत् ।। ५७ ।।
उन श्रेष्ठ
राजा चन्द्रशेखर ने उस वृत्तान्त को सुनकर क्षण-भर विचार किया तथा कपोत मुनि की
अनुमति से चित्राङ्गदा की सहायता की ॥ ५७ ॥
ऋषितोऽपि तदा
तस्यां जातयोः सुतयोस्तयोः ।
यथोक्तेनाथ
विधिना संस्कारमकरोत्तदा ।। ५८ ।।
उस समय
उन्होंने ऋषि से उत्पन्न उसके उन दोनों पुत्रों का यथोचितरूप से संस्कार किया ॥५८॥
।। सगर उवाच ।
।
चित्राङ्गदा
कथं पुत्री ककुत्स्थस्याभवत् तदा ।
तदहं
श्रोतुमिच्छामि कथयस्व द्विजोत्तम ।। ५९ ।।
सगर ने कहा-
हे द्विजों में श्रेष्ठ ! चित्राङ्गदा, राजा ककुत्स्थ की पुत्री कैसे हुई ?
यह आप बताइये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ ॥५९॥
।। और्व उवाच
।।
एकदा तु
ककुत्स्थोऽसौ हिमवन्तं महागिरिम् ।
मृगयायै
जगामाथ मृगाश्चापि निपातिताः ।। ६० ।।
और्व बोले- एक
बार वे राजा ककुत्स्थ, महान् हिमालय पर्वत पर शिकार के लिए गये। वहाँ उनके द्वारा
मृगों का वध भी किया गया ।। ६० ।।
लम्बन्तीं
सुरलोकात् तु भूमिं प्रति तदोर्वशीम् ।
विश्रामायोपविष्टस्तु
सानौ वेश्यां ददर्श ह ।। ६१ ।।
उस समय,
उस समय विश्राम के लिए पर्वत की चोटी पर स्वयं बैठे हुए, देवलोक से उतर कर पृथ्वी पर आती हुई उर्वशी अप्सरा को
उन्होंने देखा ॥ ६१ ॥
तामासाद्य
महाराजः कामबाणप्रपीडितः ।
अवतीर्णां गिरौ
शश्वदङ्गसङ्गमयाचत ।।६२।।
पर्वत पर उतरी
हुई,
उसके पास पहुँच कर, महाराज ने कामबाण से विशेष रूप से पीड़ित हो,
निरन्तर अङ्ग सङ्ग (सम्पर्क) की याचना की ।। ६२ ।।
सा ज्ञात्वा
नृपशार्दूलं ककुत्स्थं शक्रसन्निभम् ।
उर्वशी
रमयामास गिरिकुञ्जे यथेप्सितम् ।। ६३ ।।
उस उर्वशी ने
भी राजाओं में सिंह के समान उस महाराज ककुत्स्थ को इन्द्र के समान श्रेष्ठ जानकर,
उनके साथ पर्वतों और वहाँ स्थित,
कुञ्जों में यथेच्छरूप से रमण किया ॥ ६३ ॥
ततो राज्ञः
ककुत्स्थस्य स्वर्वेश्यायां तदा सुता ।
अभवन्
नृपशार्दूलात् सद्योजाता मनोहरा ।। ६४ ।।
तब उस स्वर्ग
की वेश्या (अप्सरा) से तत्काल ही नृपशार्दूल राजा ककुत्स्थ की एक सुन्दरी कन्या
उत्पन्न हुई ।। ६४ ।।
अथ कामेन
सन्तुष्टं ककुत्स्थं सा तदोर्वशी ।
अथेष्टदेशं
विज्ञाप्य गन्तुमैच्छदनिन्दिता ।। ६५।।
तत्पश्चात् उस
अनिन्दितसुन्दरी उर्वशी ने काम से सन्तुष्ट राजा ककुत्स्थ से अपने इच्छित देश में
जाने की इच्छा व्यक्त की ॥ ६५ ॥
तामाह राजा
तनयां परित्यज्य कथं शुभे ।
गन्तुमिच्छसि
चार्वंगि सुतामेनां तु पालय ।। ६६ ।।
उससे राजा ने
कहा—
हे शुभे ! हे सुन्दर अंगोवाली ! तुम इस लड़की को छोड़कर
क्यों जाना चाहती हो ? तुम इस पुत्री का पालन करो ।। ६६ ॥
सा प्राहाहं
स्वर्गणिका मयि कस्य न चाभवत् ।
तनयस्तनया
वापि सद्योजाता नृपात्मजा ।। ६७ ।।
तब उस उर्वशी
ने कहा- मैं स्वर्ग की गणिका हूँ। मुझसे आज तक किसी की भी लड़की या लड़का उत्पन्न
नहीं हुई। इसकी भाँति कोई राजकुमारी भी तत्काल नहीं उत्पन्न हुई॥६७॥
स्वतेजसा
शरीरस्य विकारो मे न विद्यते ।
सुताश्चापि न
पाल्यन्ते वेश्याभावात् स्वभावतः ।। ६८ ।।
मेरे अपने तेज
के कारण मुझमें प्रसूति सम्बन्धी कोई परिवर्तन भी नहीं दिखता ।
हम सब वेश्याभाव में स्वाभाविक रूप से रहने के कारण सुताओं
का पालन भी नहीं करतीं ॥६८॥
दयास्ति यदि
ते पुत्र्यां नीत्वैनां वर्धय स्वयम् ।
गन्तुं
मामनुजानीहि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ।। ६९ ।।
इसलिए यदि
तुम्हारी इस पुत्री पर दया हो तो इसे ले जाओ और स्वयं इसको बढ़ाओ तथा मैं जो इस
समय अपने इच्छित स्थान को जाना चाहती हूँ, उसे जाने की अनुमति दो। यह मैं तुमसे सत्य सत्य कह रही हूँ
।।६९।।
इत्युक्त्वा
सा जगामाशु यथेष्टं सोर्वशी नृपः ।
पुत्रीं तां
समुपादाय नगरं स्वं विवेश ह ।। ७० ।।
ऐसा कह कर वह
उर्वशी,
शीघ्र ही अपने इच्छित स्थान को चली गई तथा वे राजा ककुत्स्थ
भी उस पुत्री को लेकर अपने नगर में प्रवेश किये ॥७०॥
तस्याश्चित्राङ्गदा
नाम स चकार नृपः स्वयम् ।
मनोन्मथिन्यै
चादात् तां भार्यायै पुत्रिकां शुभाम् ।। ७१ ।।
उस राजा ने
स्वयं उस कन्या का नाम चित्राङ्गदा रखा और उस सुन्दरी पुत्री को मनोन्मथिनी नामक
अपनी रानी को दे दिया ।।७१ ॥
इदं च वचनं
देवीं तदा प्राह नृपोत्तमः ।
देवि पुत्री
ममेयं त्वमेनां पालय सद्गुणाम् ।
मयानीतां
शैलजातां मा हेलां कर्तुमर्हसि ।। ७२ ।।
तब राजा ने
महारानी से ये उत्तम वचन कहे - हे देवी! यह अच्छे गुणों से युक्त कन्या मेरी
पुत्री है, तुम इसका पालन करो। यह पर्वत पर उत्पन्न हुई कन्या मेरे द्वारा यहाँ लाई गई है
। इसलिए तुम इसकी अवहेलना न करो ॥ ७२ ॥
इत्युक्ता
राजपुत्री सा पालने चाकरोन्मतिम् ।
भर्तुराज्ञां
पुरस्कृत्य नान्यत् किञ्चिदुवाच ह ।। ७३ ।।
ऐसा कहे जाने
पर उस रानी ने पति की आज्ञा का सम्मान करते हुए कुछ नहीं कहा तथा उस राजपुत्री के
पालन में मन लगाया ॥ ७३ ॥
सा चैकदा
बाल्यभावादष्टावक्रं महामुनिम् ।
व्रजन्तं
जिह्यमेवाशु जहासोपजहास च ।। ७४ ।।
एक बार उस
चित्राङ्गदा ने टेढ़े-मेढ़े अष्टावक्रमुनि को तेजी से जाते हुए देखा और बाल्यभाव
(लड़कपन) से बार-बार हँस पड़ी ।। ७४ ।।
स चुकोप
मुनिस्तस्यै शापं परमदारुणम् ।
ददौ दासी
स्ववंशस्य भवितेति ककुत्स्थजे ॥७५॥
दासी भूता
स्ववंशस्य ह्यनूढैव सुतद्वयम् ।
जनयिष्यसि
पापिष्ठे ततो भद्रमवाप्स्यसि ।। ७६ ।।
उसके उस
व्यवहार से वे मुनि क्रुद्ध हो गये तथा उन्होंने परम भयानक शाप दे दिया - हे
पापिष्ठे ! हे ककुत्स्थराज की लड़की! तुम अपने वंश में ही दासीभाव को प्राप्त
करोगी तथा अपने वंश की दासी अवस्था में कार्य करते हुए ही तुम बिना व्याहे ही दो
पुत्रों को जन्म दोगी, तत्पश्चात् तुम्हारा कल्याण होगा ।।७५-७६ ।।
एवं
ककुत्स्थतनया जाता चित्राङ्गदा नृप ।
दासी च भूता
सा ते तारावत्या निवासिता ।
अनूढाप्यलभत्
पुत्रयुग्मं मुनिवराच्छुभात् ।। ७७ ।।
हे राजा ! इस
प्रकार से वह चित्राङ्गदा, राजा ककुत्स्थ की पुत्री हुई। दासी होकर तारावती के साथ
निवास किया तथा तारावती के निर्देश से बिना व्याहे ही उस शुभ मुनि से दो पुत्रों
को प्राप्त किया ॥ ७७ ॥
तौ च पुत्रौ
महाभागौ महाकार्यं करिष्यतः ।। ७८ ।।
उससे उत्पन्न
वे दोनों महाभागपुत्र, भविष्य में महान कार्य करेंगे ॥ ७८ ॥
इति ते कथितं
राजन् यथाचित्राङ्गदाऽभवत् ।
ककुत्स्थस्य
सुता साध्वी प्रस्तुतं शृणु साम्प्रतम् ।। ७९ ।।
हे राजन्! जिस
प्रकार साध्वी चित्राङ्गदा, ककुत्स्थ की पुत्री हुई, वह सब मैंने आपसे कह दिया, अब आप आगे सुनिये ।। ७८-७९ ।।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे
महाकालवेतालजन्मवर्णननाम एकोनपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
॥श्री
कालिकापुराण में महाकालवेतालजन्मवर्णन नामक उन्चासवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ४९
।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 50
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