कालिका पुराण अध्याय ४६
कालिका पुराण
अध्याय ४६ के इस कालिकेय खण्ड का
प्रारम्भ ही प्रथम खण्ड के कालिका के अर्धनारीश्वर रूप के रहस्य के ज्ञाता भृङ्गी
और महाकाल के उत्पत्ति प्रसङ्ग में शिव के महामैथुन एवं उससे उत्पन्न भय का वर्णन
से होता है ।
कालिका पुराण अध्याय ४६
Kalika puran chapter 46
कालिकापुराणम्
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः भृङ्गी-महाकालजन्मवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४६
॥ॐ भं
भद्रकालिकायै आगच्छ आगच्छ भं ॐ नमः ॥
॥ क्रीं
कालिकायै नमः ॥
कालिकापुराणम्
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
भृङ्गी-महाकालजन्मवर्णनम्
।। सगर उवाच
।।
कोऽसौ
भैरवनामाभूत् को वा वेतालसंज्ञकः ।
कथं वा तौ
शरीरेण मानुषेण गणाधिपौ ।
अभूतां
द्विजशार्दूल तन्मे वद महामुने ।। १ ।।
सगर बोले -हे
महामुनि ! भैरव नाम का कौन हुआ और बेताल नाम का कौन हुआ ?
या कैसे मनुष्यशरीरधारी होते हुए भी वे दोनों शिव के गणों
के स्वामी का पद प्राप्त किये ? हे द्विजों में शार्दूलवत् श्रेष्ठ महामुनि ! वह सब मुझे
बताइये ॥१॥
जानामि
नन्दिनं विप्र सहायं शशभृद्धृत ।
यथाभवद्गणाध्यक्षस्तन्नारदमुखाच्छ्रुतम्
।।२।।
हे विप्रवर !
जिस प्रकार चन्द्रमा को धारण करने वाले शिव के सहायक नन्दि,
गणों के स्वामी बने वह प्रसङ्ग,
मैंने नारद के मुँह से सुना है ॥ २ ॥
यथा
भृङ्गिमहाकालौ विश्रुतौ हि हरात्मजौ ।
कथं वा तौ
समुत्पन्नौ त्वत्तः श्रोतुं समुत्सहे ।। ३ ।।
भगवान् शङ्कर
के भृङ्गी और महाकाल जैसे दो विख्यात पुत्र कैसे उत्पन्न हुए ?
उसे मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ।।
३ ।।
योऽसौ
शरभरूपस्य महादेवस्य वै पुरा ।
कायभागः
श्रुतः पूर्वं स महाभैरवाह्वयः ।। ४ ।।
स एव किं
भैरवाख्यः किं वान्यो द्विजसत्तम ।
वेत्तुं
तत्त्वेन तत् सर्वमिच्छामि द्विजसत्तम ।।५।।
हे द्विजों
में श्रेष्ठ ! प्राचीन काल में महादेव शिव ने जब शरभरूप धारण किया था । उस समय
उनके शरीर के अंश से उत्पन्न पहले जो महाभैरव बताये गये हैं। यह भैरव वही है या
कोई अन्य ? वह सब मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ ॥४-५॥
कस्य वा तनयौ
भूत्वा गणाध्यक्षत्वमागतौ ।
तच्चापि
कथयस्वाद्य यथा तौ वानराननौ ।।६।।
या वे दोनों
किसके पुत्र थे? वे कैसे गणाध्यक्ष पद को प्राप्त किये ? आज यह भी बताइये कि उन दोनों का वानर के समान मुख किस कारण
से हो गया ? ।।६।।
।। और्व उवाच
॥
शृणु राजन्
प्रवक्ष्यामि महाकालस्य भृङ्गिणः ।
भैरवस्यापि
चरितं वेतालस्य महात्मनः ।।७।।
और्व बोले- हे
राजन् ! मैं आपसे महाकाल, भृङ्गी, भैरव और बेताल नामक महान् आत्मावालों के चरित को कहूँगा । आप उसे सुनिये ॥
७ ॥
योऽसौ भृङ्गी
हरसुतो महाकालोऽपि भर्गजः ।
तावेव
गौरीशापेन सम्भूय नरयोनिजौ ।
वेतालभैरवौ
जातौ पृथिव्यां नृपवेश्मनि ।।८।।
भृङ्गी नामक
शिव का एक पुत्र हुआ। एक महाकाल नामवाला भी उन्हीं भर्ग (शिव) का पुत्र हुआ। ये दोनों ही शिव-पुत्र,
गौरी के शाप से नरयोनि से पृथिवी पर राजा के घर में,
बेताल और भैरव के रूप में उत्पन्न हुए थे।८॥
यथा
भृङ्गिमहाकालाव्युत्पन्नौ प्राक् तथा शृणु ।
योऽसौ
महाभैरवाख्यः स कायः शरभो हरः ।। ९ ।।
भैरवः
पृथगेवायं गणाध्यक्षो हरात्मजः ।
ऊढायां
हिमवत्पुत्र्यां भर्गेण सुमहात्मना ।। १० ।।
अब भृङ्गी एवं
महाकाल प्राचीन काल में जैसे उत्पन्न हुए उसे मैं कहूँगा,
उसे आप सुनिये। पहले जिस महाभैरव का वर्णन आया है,
वह तो शिव का शरभ- शरीर ही है किन्तु यह महात्मा शिव द्वारा
विवाहिता हिमालय की पुत्री से उत्पन्न भैरव नामक पुत्र जो गणाध्यक्ष है,
वह उससे भिन्न है ।। ९-१० ।।
तारकस्य
वधार्थाय देवैः शक्रपुरोगमैः ।
स्तुतिभिर्नतिभिः
शम्भुं सन्ततिर्याचिता पुरा ।। ११ ।।
प्राचीन काल
में देवराज इन्द्र के नेतृत्व में देवताओं द्वारा अनेक स्तुतियों एवं दीनता से
तारकासुर के वध हेतु भगवान् शिव से पुत्र उत्पन्न करने के लिए प्रार्थना की गई ॥
११ ॥
स याचितो
देवगणैर्भगवान् वृषभध्वजः ।
महामैथुनमारेभे
सन्तानायोमया सह ।।१२।।
तब देवगणों की
प्रार्थना को सुनकर उन भगवान् वृषभध्वज शिव ने सन्तान उत्पन्न करने के लिए उमा के
साथ महामैथुन प्रारम्भ किया ॥ १२ ॥
आरब्धे मैथुने
तेन नरवर्येण वै ययुः ।
द्वात्रिंशद्
वत्सरा राजन् क्षणवच्चन्द्रधारिणः ।। १३ ।।
हे राजन् ! उस
चन्द्र को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष शिव द्वारा प्रारम्भ किये मैथुन में
बत्तीस वर्ष एक क्षण की भाँति बीत गये । (यहाँ देवाधिदेव हेतु नरवर्य का प्रयोग
उनके मैथुनगत पुरुषार्थ का सूचक है) ॥ १३ ॥
स महामैथुनं
कुर्वंस्तृप्तिं नाप महेश्वरः ।
नाप्यस्य प्रच्युतं
तेजो न तृप्तिं प्राप पार्वती ।। १४ ।।
उस समय न तो
उस महामैथुन में रत, महेश्वर शिव ने ही तृप्ति का अनुभव किया,
न पार्वती ही तृप्त हुईं और न उनका तेज (वीर्य) ही च्युत
हुआ ॥१४॥
तन्महासङ्गसमये
चकम्पे वसुधा स्फुटम् ।
आकुलाः सकला
देवा: स्युः स्वर्गस्थाश्च येऽपरे ।। १५ ।।
उस महासङ्गमन
के समय पृथिवी तेजी से काँपने लगी तथा स्वर्ग में रहने वाले अन्य समस्त देवता
व्याकुल हो उठे ॥ १५ ॥
सर्वं जगत्तदा
भूतमाकुलं शिवयोस्तयोः ।
ततो
निवृत्तिजातेन महामैथुनकर्मणा ।। १६ ।।
तब शिव-शिवा
के महामैथुनकर्म से निवृत्ति के परिणाम को सोचकर सम्पूर्ण जगत् व्याकुल हो उठा
॥१६॥
अथ सेन्द्राः
सुराः सर्वं ब्रह्माणं जगतां पतिम् ।
शरण्यं शरणं
जग्मुर्भीताः शङ्करकेलिभिः ।। १७ ।।
तब शंकर जी की
उस काम-क्रीड़ा से भयभीत हो, इन्द्र के सहित सभी देवता शरणागतों के शरणभूत,
सम्पूर्ण संसार के स्वामी, ब्रह्मा के शरण में गये ।।१७।।
ते सम्भूयाथ
धातारं प्रणम्य च सुरोत्तमाः ।
आकुलं सर्वमाचक्षुर्हरमैथुनकर्मणा
।। १८ ।।
उन उत्तम
देवताओं ने एकत्र हो, ब्रह्मा को प्रणाम कर, शिव के उस मैथुनकर्म से उत्पन्न अपनी समस्त आकुलता का,
उनसे वर्णन कर दिया ॥१८॥
ततः सर्वान्
देवगणान् पश्चात् कृत्वैव वृत्रहा ।
स्वयमाह
विधातारं तत्कालभयभाषितम् ।। १९ ।।.
तब तत्काल सभी
देवगणों को पीछेकर वृत्रासुर का वध करनेवाले इन्द्र ने विधाता से स्वयं सब कुछ
भयभीत स्वर में कहा ॥ १९ ॥
।। इन्द्र
उवाच ॥
आकुलाः सकलालोका
हरमैथुनकर्मणा ।
अहं महद्भयं
प्राप्य शरणं त्वामिहागतः ।। २० ।।
इन्द्र बोले-
शिव के महामैथुनकर्म से सभी लोक व्याकुल हो उठे हैं। मैं भी महान् भय का अनुभव
करता हुआ यहाँ आपकी शरण में आया हूँ ।।२०।।
एवम्भूते
सङ्गमे च शङ्करस्योमया सह ।
यः पुत्रो
जायते ब्रह्मन् स मामभिभविष्यति ।। २१ ।।
हे ब्रह्मन् !
शङ्कर और उमा के इस सम्पर्क से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मुझे भी अभिभूत करेगा ॥
२१ ॥
तत्क्रियादर्शनादेव
सूत्पन्नादपि तत्सुतात् ।
ब्रह्मन् जातं
भयं मेऽद्य तारकादपि चाधिकम् ।। २२।।
उनकी
मैथुनक्रिया के देखने मात्र से ही उससे उत्पन्न होने वाले पुत्र से आज मुझे
तारकासुर से भी अधिक भय उत्पन्न हो गया है ॥ २२ ॥
तस्मादेवं
त्वं विधेहि तत्सुतो मां सुरान्यथा ।
न बाधेत तथा
यत्नात्तारयास्मान्महाभयात् ।। २३ ।।
इसलिए आप कुछ
ऐसा उपाय कीजिये जिससे वह हम देवताओं को कष्ट न पहुँचाये । आप इस महान् भय से
हमारा उद्धार कीजिये ॥ २३ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
उमायां जायते
पुत्रो यदि शङ्करतेजसा ।
अशक्यः
सर्वलोकेशैः सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ।। २४ ।।
ब्रह्मा बोले-
यदि शङ्कर के तेज से उमा को पुत्र उत्पन्न होगा तो वह इन्द्रादि सभी लोकपालों के
सहित समस्त देवताओं और असुरों द्वारा अशक्य, अजेय होगा ॥ २४ ॥
तस्माद्धरो
यथोमायां न प्रसूतो भविष्यति ।
तथाहं
संविधास्यामि गत्वा देवैर्हरान्तिकम् ।। २५ ।।
इसलिए जिस
प्रकार शिव, उमा के गर्भ से पुत्ररूप में न उत्पन्न हों, देवताओं के सहित शिव के समीप जाकर मैं,
कुछ ऐसा ही यत्न करूँगा ॥ २५ ॥
तारकस्य
विघातश्च यथा स्याद्धरतेजसा ।
तच्चाप्यहं
करिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः ।। २६ ।।
जिस प्रकार से
शिव के वीर्य से तारकासुर का वध हो तथा तुम्हारा मानसिक कष्ट दूर हो,
उसके लिए भी मैं यत्न करूँगा ॥
२६॥
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा
सह देवौघैः कैलासाद्रि प्रजापतिः ।
जगाम रेमे
गिरिशो गिरिपुत्र्या समं भृशम् ।। २७ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर देवताओं के समूह के सहित प्रजापति (ब्रह्मा) उस कैलास पर्वत पर गये जहाँ
भगवान् शङ्कर पार्वती के साथ अत्यधिक रमण कर रहे थे। २७॥
तत्र गत्वा
महादेवं ब्रह्मा लोकपितामहः ।
सर्वैः सुरगणैः
सार्धं तुष्टाव वृषभध्वजम् ।। २८ ।।
वहाँ जाकर
ब्रह्मा ने सभी देवगणों के साथ, वृषभध्वज महादेव की स्तुति की ॥ २८ ॥
कालिका पुराण अध्याय ४६
अब इससे आगे श्लोक २९ से ४१ में शिव स्तुति
को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण अध्याय ४६
।। और्व उवाच
॥
इति स्तुतो
महादेव: शक्राद्यैस्त्रिदशैः स्वयम् ।
उमासङ्गं
परित्यज्य भर्गोऽगात्त्रिदिवौकसः ॥४२॥
और्व बोले- जब
इन्द्रादि देवताओं द्वारा इस प्रकार (उपर्युक्त) स्तुति की गई तो स्वयं भगवान्
शंकर,
उमा का सङ्ग छोड़कर देवताओं के पास पहुँच गये।।४२ ।।
येन भावेन स
तदा महामैथुनतत्परः ।
आसीत् तेनैव
भावेन ब्रह्मादीनां ससादह ।।४३।।
उस समय वे जिस
भाव से महामैथुन में लगे हुए थे उसी भाव से ब्रह्मा-आदि के पास पहुँच गये ॥४३॥
अथ तान् स सुरान्
प्राह महादेवस्त्वरन्निव ।
किमर्थमागता
यूयं तन्मे वदत निर्जराः ।
तमूचुस्त्रिदशाः
सर्वे ब्रह्मशक्रपुरोगमाः ।। ४४ ।।
तब वे महादेव
उन देवताओं से शीघ्रता से बोले - हे देवगण ! आप लोग जिस उद्देश्य से यहाँ आये हैं,
उसे मुझसे कहिये तब ब्रह्मा और इन्द्र के नेतृत्व में आये
उन सब देवताओं ने उन शिव से कहा – ॥४४॥
।। ब्रह्मादयः
ऊचुः ।।
त्वन्महामैथुनाद्धर्ग
व्याकुलं सकलं जगत् ।
पृथिवी कम्पतेऽतीव
सशैलवनकानना ।। ४५ ।।
सागराः
क्षुभिताः सर्वे नदा नद्यश्च शङ्कर ।
देवाश्च सर्वे
दिक्पालान शान्तिं प्राप्नुवन्ति वै ।। ४६ ।।
ब्रह्मा आदि
बोले- हे शंकर ! हे भर्ग ! आपके महामैथुन से समस्त जगत व्याकुल हो गया है,
पर्वत और वनों के सहित सम्पूर्ण पृथिवी बहुत अधिक कॉप रही
है । सभी नदियाँ, नद एवं समुद्र आज क्षुब्ध हो उठे हैं। सभी देवता एवं
दिग्पाल शान्ति नहीं पा रहे हैं । ।४५-४६ ।।
तस्मात् त्वं
सर्वलोकेश सकलाननुकम्पय ।
त्यक्त्वा
महामैथुनं तु रतिमात्रं नियोजय ।। ४७ ।।
इसलिए हे सभी
लोकों स्वामी ! आप हम सब पर कृपा कीजिए। इस महामैथुन को छोड़कर रतिमात्र तक ही इसे
सीमित कीजिए ॥ ४७ ॥
।।और्व उवाच ।
एतच्छ्रुत्वा
वचस्तस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।
उवाच शङ्करो
देव नातिहृष्टमना इव ।।४८ ।।
और्व बोले-
परमात्मा ब्रह्मा के इन वचनों को सुनकर देवाधिदेव शंकर बहुत प्रसन्न न होते हुए बोले
- ॥४८॥
।। ईश्वर उवाच
।।
इयं प्रवृत्तिर्भवतां
शिवायामरसत्तमाः ।
त्यक्ते
महामैथुने तु रतिमात्रं प्रयोजिते ।
नोमायां भविता
पुत्रस्तदर्थमयमुद्यमः ।। ४९ ।।
ईश्वर (शिव)
बोले- हे देवताओं में श्रेष्ठजन ! आप सब की शिव के प्रति यह प्रवृत्ति कि नित महामैथुन
छोड़कर रतिमात्र में ही चित्त लगाया जाय ! उमा को पुत्र न हो,
इसीलिए आप लोगों का यह सारा उद्यम है ॥४९॥
उमाशरीरज:
पुत्रो यो भवेन्मम तेजसा ।
स एव तु
रिपून् हत्वा त्रिदशान् वर्धयिष्यति ।। ५० ।।
मेरे वीर्य से
उमा के शरीर से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही शत्रुओं को मार कर देवताओं की अभिवृद्धि
करेगा ॥५०॥
तस्मान्महामैथुने
मेऽतीव भीताः सुरोत्तमाः ।
स्वं स्वं
स्थानं प्रगच्छन्तु अहं तदनुचिन्तये ।। ५१ ।।
अतः मेरे
महामैथुन से अत्यंत भयभीत देवगण, आप सब अपने-अपने स्थान को जायें । मैं आपके निवेदन पर विचार
करूँगा ॥५१॥
।। देवा ऊचुः ।।
उमाशरीरज:
पुत्रो यथा न भविता हर ।
तथा कुरु
जगन्नाथ तन्महामैथुनं त्यज ।। ५२ ।।
देवगण बोले-
हे हर ! उमा के शरीर से जिस प्रकार पुत्र उत्पन्न न हो,
ऐसा कुछ करें। इसलिए हे जगत् के स्वामी ! आप महामैथुन को
छोड़िये ॥५२॥
।। ईश्वर उवाच
।।
रतिमात्रेण
नोमायां मत्पुत्रः सम्भविष्यति ।
महामैथुनसन्त्यागात्
स्यादपुत्री तु पार्वती ।। ५३ ।।
ईश्वर बोले-
रतिमात्र से ही उमा से मेरा पुत्र उत्पन्न नहीं होगा तथा महामैथुन त्याग से
पार्वती बिना पुत्र की रह जायेगी ॥ ५३ ॥
तस्मादहं तु
देवानां वचनाद् ब्रह्मणस्तथा ।
त्यक्ष्ये
महामैथुनं तु किं त्वेकं कुरुतामराः ।। ५४ ।।
इसलिए मैं
ब्रह्मा तथा देवताओं के कथनानुसार महामैथुन तो छोड़ दूँगा किन्तु हे देवगण ! आप एक
कार्य करें ॥५४॥
येन मे
प्रसृतं तेजो महामैथुनकारणात् ।
धार्यं
तेजस्विनं देवमानयन्त्वमरास्तु तम् ।। ५५ ।।
यो निष्कम्पो
निर्विकारो भूत्वा तेजोग्रहीष्यति ।
तन्मे वदन्तु
त्रिदशास्त्यक्ष्ये तेजः शरीरजम् ।। ५६ ।।
हे देवगण ! जो
महामैथुन से उत्पन्न मेरे वीर्य को धारण करने में समर्थ हो,
उस तेजस्वी देव को आप सब ले आयें। जो स्थिररूप से
निर्विकारभाव से मेरे तेज को ग्रहण करे । उसके बारे में मुझे बतायें तब मैं अपने
शरीर से उत्पन्न वीर्य को छोडूंगा ।।५५-५६।।
।। और्व उवाच
॥
वृषध्वजवचः
श्रुत्वा देवा ब्रह्मपुरोगमाः ।
हरतेजोग्रहायाथ
वीतिहोत्रं ययुर्द्धिया ।। ५७ ।।
और्व बोले- वृषभध्वज
शिव के उपर्युक्त वचनों को सुनकर ब्रह्मादि देवता विचारपूर्वक अग्नि के समीप,
शिव के वीर्य को ग्रहण कराने के लिए गये ॥५७॥
अथ
ब्रह्माणमांमन्त्र्य तथानुज्ञाप्य पावकम् ।
सेन्द्रा
देवगणाः सर्वे हरमूचुरिदं वचः ।। ५८ ।।
तब ब्रह्मा से
विचार विमर्श कर तथा अग्नि की आज्ञा लेकर, इन्द्र के सहित सभी देवगण, शिव के निकट जाकर उनसे ये वचन बोले ॥ ५८ ॥
कालिका पुराण अध्याय ४६ स्कन्द जन्म कथा
।। देवा ऊचुः
।।
एष वैश्वानरः
श्रीमान् भूरितेजमयो बली ।
महामैथुनबीजं
तु त्वत्तेजः संग्रहीष्यति ।। ५९ ।।
देवतागण बोले-
ये अग्निदेव, श्रीमान्, अत्यधिक तेजवान् एवं बलवान् हैं। ये ही आपके महामैथुन के कारण उत्पन्न वीर्य
का संग्रह करेंगे ।। ५९ ।
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा
त्रिदशाः सर्वे वीतिहोत्रं पुरः स्थितम् ।
तस्मै
निदेशयामासुः शम्भवे सर्वहेतवे ।। ६० ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर सभी देवता वीतिहोत्र (अग्नि) को आगे कर उन्हें सब के कारणभूत् शिव की
सेवा में प्रस्तुत किये ॥ ६० ॥
ततः षडङ्गं
स्वं रेतो व्यादिते दहनानने ।
उत्ससर्ज महाबाहुर्महामैथुनकारणम्
।। ६१ ।।
तब महाबाहु
शिव ने महामैथुन के कारण अपने षडङ्गों से उत्पन्न वीर्य को अग्नि के खुले हुये मुख
में छोड़ दिया ॥ ६१ ॥
अग्नावुत्सृज्यमानस्य
तेजस: शशभृद्धृतः ।
अद्वयमतिस्वल्पं
गिरिप्रस्थे पपात ह ।।६२।।
उस समय
चन्द्रमा से सुशोभित शिव के तेज को अग्नि में छोड़े जाते समय दो अत्यन्त छोटे अणु
गिरिशिखर पर गिर गये ।।६२॥
तयोस्तु कणयोः
सद्यः सम्भूतौ शङ्करात्मजौ ।
एको भृङ्गसमः
कृष्णो भिन्नाञ्जननिभोऽपरः ।। ६३।।
उन दोनों कणों
(अणुओं) से शिव के दो पुत्र तत्काल उत्पन्न हो गये। उनमें से एक भृङ्गी के समान
काला था तो दूसरा अञ्जन के समान आभावाला था।।६३।।
भृङ्गाभस्य
तदा ब्रह्मा नाम भृङ्गीति चाकरोत् ।
महाकृष्णैकरूपस्य
महाकालेति लोकभृत् ।।६४।।
तब लोक के
भरण-पोषण करने वाले ब्रह्मा ने भृङ्गी के समान आभावाले पुत्र का नाम भृङ्गी तथा
अत्यधिक काले रङ्ग वाले पुत्र का नाम महाकाल रखा ।। ६४ ।।
ततस्तौ
पालयामास शङ्करः प्रमथोत्करैः ।
अपर्णा चापि
तथा क्रमात् तावति वर्द्धितौ ।। ६५ ।।
तब भगवान् शङ्कर
ने अपने गणों द्वारा उन दोनों का पालन किया और अपर्णा (पार्वती) द्वारा भी वे
क्रमशः अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए ॥ ६५ ॥
प्रवृद्धौ तौ
महात्मानौ हरोमाप्रतिपालितौ ।
क्रमाद् गणेशौ
कृत्वा तौ हरो द्वारि न्ययोजयत् ।। ६६ ।।
शिव और उमा
द्वारा विशेष रूप से पाले गये वे दोनों महान् आत्मा वाले जब बड़े हो गये तो शिव ने
उन दोनों को गणों का अधिपति बनाकर द्वार पर रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया ॥ ६६ ॥
।। सगर उवाच
।।
उत्सृष्टमग्नौ
यत्तेजस्तत् किं वृत्तं द्विजोत्तम ।
तदप्यहं
श्रोतुमिच्छुः संक्षेपात् तद्वदस्व मे ।। ६७।।
सगर बोले- हे
द्विजोत्तम! अग्नि में शिव का जो तेज छोड़ा गया उसका क्या हुआ ?
वह मैं सुनने को उत्सुक हूँ। आप उस वृतान्त को मुझसे
संक्षेप में बताइये ॥६७॥
।। और्व उवाच
॥
अग्नावुत्सृज्य
तेजांसि तावत्कालं वृषध्वजः ।
आकाशगङ्गामुद्दिश्य
देवानिदमुवाच ह ।। ६८ ।।
और्व बोले- जब
वृषध्वज ने अग्नि में अपने तेज को छोड़ दिया तब उन्होंने आकाशगङ्गा को लक्ष्य करके
देवताओं से ये वचन कहे ॥६८॥
।।
वृषध्वजोवाच ।।
एतत् तेजो
दुराधर्षं स्त्रीभिरन्यैः सुरोत्तमाः ।
योगनिद्रामृते
देवीं शैलपुत्रीमृतेऽथवा ।।६९।।
वृषध्वज (शिव)
बोले- हे श्रेष्ठ देवताओं। मेरा यह तेज, योगनिद्रा (काली) अथवा शैलपुत्री (पार्वती) के अतिरिक्त अन्य किसी भी
स्त्री के लिए असहनीय है ॥ ६९ ॥
तस्मादहं
प्रवक्ष्यामि यथेदं तेजसा सुतः ।
यत्र वा भविता
देवो या च वा तद्ग्रहीष्यति ।।७० ।।
इसके तेज से
जो पुत्र उत्पन्न होगा, जैसे या जहाँ जो देव उसे ग्रहण करेंगे मैं आप लोगों को
बताउँगा ॥ ७० ॥
इयं त्वाकाशगा
गङ्गा शैलराजसुतापरा ।
उमाया भगिनी
ज्येष्ठा ततोऽपत्यं हुताशनात् ।। ७१ ।।
जनिष्यत्यात्मवीर्येण
तेजसानुपमद्युतिः ।
भविष्यति स वः
श्रीमान् सेनापतिररिन्दमः । । ७२ ।।
यह जो
आकाशगंगा है वह शैलराज हिमालय की दूसरी कन्या है । यह उमा की बड़ी बहन है । यही
अग्नि से पुत्र उत्पन्न करेगी। जो अपने पराक्रम और चमक में अनुपम होगा। वह
श्रीमान् होगा, शत्रुओं का दमन करने वाला तथा तुम लोगों का सेनापति होगा ।। ७१-७२॥
स तारकं वः
पुरतो विजेष्यति शिखिध्वजः ।
अमोघया
महाशक्त्या मयैव प्रतिवर्द्धितः ।।७३।।
वह तुम लोगों
के सामने ही तारकासुर को जीतेगा । वह अपनी ध्वजा पर मोर का चिन्ह धारण करेगा । वह
अमोघ महाशक्ति से मेरे ही द्वारा बढ़ाया गया होगा ।।
७३ ।।
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा स
महादेवो विसृज्य सकलान् सुरान् ।
पार्वतीमभिसंमन्त्र्य
शौचार्थं गतवांस्तदा ।। ७४ ।।
और्वमुनि
बोले- उन महादेव ने ऐसा कहकर सभी देवताओं को विदा किया और पार्वती से विचार-विमर्श
के पश्चात् उस समय शौचादिक के लिए चले गये ।।७४।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा
देवानामप्रियं सती ।
चुकोप
त्रिदशौघाय पुत्राशा परिवर्जिता ।। ७५ ।।
पुत्र की आशा
से वञ्चित की गई सती पार्वती ने देवताओं की उपर्युक्त अप्रिय बातों को सुनकर
देवसमूह के प्रति अत्यधिक क्रोध किया ।। ७५ ।।
मन्युना
दह्यमानेव स्फुरदोष्ठाधरा तदा ।
इदमाह सुरान्
दृष्ट्वा हरं च त्यक्तमैथुनम् ।। ७६ ।।
जो क्रोध से
जलती हुई की भाँति प्रतीत हो रही थी और जिनके ओठ फड़क रहे थे ऐसी पार्वती ने तब
देवताओं तथा मैथुन को छोड़े हुए शिव को देखकर ये वचन कहे - ॥ ७६ ॥
।। देव्युवाच
।।
यस्माद्वियोजितः
शम्भुर्युष्माभिर्मम मैथुने ।
अजातपुत्रा च
कृता वारस्त्रीवाहम्मर्दिता ।।७७ ।।
तस्मात् सर्वे
सुरगणा अद्यावधि निरन्तरम् ।
महामैथुनविभ्रष्टा
भवन्तु निजयोषिति ।। ७८ ।।
देवी बोली- आप
सबने शिव को मेरे मैथुन से अलग किया है तथा मुझे वारस्त्री (वेश्या) की भाँति
मर्दित दशा को पहुँचाया है और पुत्र न उत्पन्न करने वाली बना दिया है इसलिए आज से
सभी देवगण अपनी पत्नियों के प्रति निरन्तर महामैथुन (सन्तानप्रदमैथुन) से वञ्चित
हों ।।७७-७८ ।।
तेषामपि तथा
पुत्रा न जनिष्यन्ति मे यथा ।
भार्याश्च
सन्त्वपत्येन हीना देव्यो वराङ्गनाः ।।७९।।
उनको भी मेरी
ही तरह पुत्र उत्पन्न नहीं होंगे। उनकी पत्नियाँ, श्रेष्ठअङ्गों वाली देवपत्नियाँ,
सन्तान से रहित हों ।।७९ ।।
यथाहं
परितप्यामि पुत्राशा परिवर्जिता ।
तथा सन्तु
समस्तास्ता देव्यः पुत्राशयाच्युताः ।।८०।।
जैसे मैं
पुत्र की आशा से वञ्चित हो कष्ट प्राप्त कर रही हूँ वैसे ही वे सभी देवियाँ भी
पुत्र की आशा से वञ्चित हों ॥ ८० ॥
।। और्व उवाच
।।
एवं सुरान्
गिरिसुता शशाप कुपिता भृशम् ।
तत्कालावधि न
स्वर्गे जायन्ते देवपुत्रकाः ।
नाद्यापि
सम्प्रजायन्ते पुत्रास्तासु सुधाशिनाम् ।। ८१ ।।
और्व बोले- जब
से अत्यधिक क्रोधित हो गिरिसुता पार्वती ने देवताओं को इस प्रकार का शाप दिया तब
से स्वर्ग में देवताओं को पुत्र नहीं उत्पन्न होते । आज भी उन अमृतभोजी देवताओं की
पत्नियों को पुत्र उत्पन्न नहीं होते ॥ ८१ ॥
दहनोऽपि तथा
काले प्राप्ते गङ्गोदरे स्वयम् ।
रेतः
संक्रामयामास शाम्भवं स्वर्णसन्निभम् ।।८२।।
अग्निदेव ने
भी समय पर शिव के उस स्वर्ण के समान प्रकाशित वीर्य को गङ्गा के उदर में संक्रामित
कर दिया ॥ ८२ ॥
सा तेन रेतसा
देवी सर्वलक्षणसंयुतम् ।
एकः स्कन्दो
विशाखाख्यो द्वितीयश्चारुरूपधृक् ।
शक्तिद्वयधरौ
द्वौ तौ तेजः कान्तिविवर्द्धितौ ॥८३॥
उस देवी गंगा
ने भी उस वीर्य से सभी सुलक्ष्णों से युक्त, हाथों में दो शक्तियाँ धारण किये हुए,
सुन्दर रूप धारण करने वाले, स्कन्द तथा विशाख नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वे दोनों
ही तेज और कान्ति से समृद्ध थे ।।८३ ॥
तावेकत्वं
जगामाशु विशाखः स्कन्द एव च ।
शिशुश्चाप्यभवद्
यातो यथान्यस्य सुतस्तथा ।। ८४ ।।
पैदा होते ही
वे दोनों स्कन्द एवं विशाख एक होकर अन्य लोगों के बच्चों की भाँति शिशुरूप में आ
गये ॥ ८४ ॥
ततस्तं तनयं
जातं तथा दृष्ट्वातिविस्मिता ।
मध्ये
शरवणस्याशु गङ्गा तं व्यसृजद्धठात् ।। ८५ ।।
तब उस प्रकार के
पुत्र को उत्पन्न हुआ देखकर आश्चर्य चकित हो गंगा ने उसे हठवश,
शीघ्र ही नरकट के समूह में छोड़ दिया ।। ८५ ।।
विसृज्य गर्भं
तं गङ्गा बहुलायै स्वयं तदा ।
गर्भवृत्तान्तमाचख्यौ
जातं च व्यसृजद् यथा ।। ८६ ।।
तब गंगा ने उस
गर्भ को छोड़ने के बाद गर्भसम्बन्धी यह सम्पूर्ण वृत्तान्त स्वयं बहुला को बताया
कि कैसे वह उत्पन्न हुआ तथा उसे कैसे छोड़ा गया ।।
८६ ॥
तच्छ्रुत्वा
बहुला ज्ञात्वा महादेवतनूद्भवम् ।
परिगृह्य सुतं
तं तु पालयामास कृत्तिका ।। ८७ ।।
उमायाः
शङ्करस्यापि विज्ञाप्यानुमते तयोः ।
ततो नीत्वा
ददौ देव्यै तं पुत्रमरिमर्दनम् ।। ८८ ।।
बहुला ने उस
वृत्तान्त को सुनकर तथा उसे महादेव के शरीर से उत्पन्न जानकर,
उसको ग्रहण कर लिया। शिव-पार्वती को सूचित कर उनकी अनुमति
से उस पुत्र का पालन कृत्तिकाओं ने किया तत्पश्चात् शत्रुओं के मर्दन करने वाले उस
पुत्र को ले जाकर देवी पार्वती को दे दिया । ८७-८८ ।।
सोऽतिवृद्धः
शक्तिधरो महाबलपराक्रमः ।
वर्द्धितः
शङ्करेणाशु देवसेनाधिपोऽभवत् ।। ८९ ।।
अत्यन्त
विकसित,
भगवान शङ्कर द्वारा विकास को प्राप्त कर शक्ति-अस्त्रधारी
महान् बल और पराक्रम से युक्त, वह बालक शीघ्र ही देवताओं का सेनापति हो गया । । ८९ ।।
ततः सुरारिं
सगणं तारकं लोकतारकम् ।
शक्तिहस्तो
हरसुतः प्रममाथ महाबलम् ।। ९० ।।
तब हाथों में
शक्तिधारी, उस शिवपुत्र ने महाबली, लोकों के सञ्चालक, देवताओं के शत्रु, तारकासुर को उसके गणों एवं सेवकों सहित मार डाला ।। ९० ।।
एवमग्नौ
समुत्सृष्टं तेजो भर्गेण सङ्गतम् ।
यथा वृत्तं
तथा तेऽद्य कथितं नृपसत्तम ।। ९१ ।।
हे नृपसत्तम !
शिव के शरीर से उत्पन्न और अग्नि में छोड़े गये वीर्य सम्बन्धी जो वृत्तान्त हुआ
था,
उसे आज मैंने तुमसे कह दिया ॥ ९१ ॥
साम्प्रतं
प्रस्तुतं श्राव्यं महाकालस्य भृङ्गिणः ।
वृत्तान्तं शृणु
राजेन्द्र तौ भूतौ मनुजौ यथा ।। ९२ ।।
अब तुम
सुनायेजाने योग्य महाकाल और भृङ्गी का वृत्तान्त सुनो कि वे किस प्रकार मनुष्यरूप
को प्राप्त हुए ।। ९२ ।।
।। इति
श्रीकालिकापुराणे भृङ्गीमहाकालजन्मवर्णननाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६।।
॥
श्रीकालिकापुराण में भृङ्गमहाकालजन्मवर्णननामक छियालिसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ
।।४६ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 47
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