शिव स्तुति

शिव स्तुति

वेताल और भैरव ने अपने सामने भगवान् शिव को प्रत्यक्ष उपस्थित देखकर उनकी इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ।

शिव स्तुति

वेताल भैरवकृत शिव स्तुति:

।।वेतालभैरवावूचतुः।।

प़ञ्चवक्त्रं महाकायं सर्वज्ञानमयं परम्।

संसारसागरत्राणं प्रणमावो वृषध्वजम्।। ५१.१७९ ।।

वेताल और भैरव बोले- हम दोनों पाँचमुँह वाले, विशाल शरीर वाले, समस्तज्ञान से युक्त, सर्वश्रेष्ठ, संसार सागर से पार करने वाले, भगवान् वृषध्वज, शिव को प्रणाम करते हैं ।। १७९ ॥

त्वं परः परमात्मा च परेशः पुरुषोत्तमः।

त्वं कूटस्थो जगद्व्यापी प्रधानः परमेश्वरः।। ५१.१८० ।।

हे शिव ! आप श्रेष्ठ हैं, परमात्मा हैं और श्रेष्ठों के भी स्वामी अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं। आप ही सबके अन्तर में गुप्तरूप से स्थित रहने वाले, समस्त संसार में व्याप्त, पुरुषोत्तम हैं, आप ही सांख्य की दृष्टि से प्रधान एवं वेदान्त की दृष्टि से परमेश्वर भी हैं ।। १८० ॥

रूपात्मा त्वं महातत्त्वं तत्त्वज्ञानालयः प्रभुः।

साङ्ख्ययोगालयः शुद्धो गुणत्रयविभागवित्।। ५१.१८१ ।।

आप आत्मरूप हो, महान्तत्व हो, तत्त्वज्ञान के घर भी आप ही हैं, आप सत्तासम्पन्न हैं, आप सांख्य और योग के निवास, शुद्धरूप तथा तीनों गुणों के विभाग को जानने वाले हैं ।। १८१ ।।

त्वं नित्यस्त्वमनित्यश्च जगत्कर्ता लयः स्मृतः।

एकोऽनेकस्वरूपश्च शान्तचेष्टो जगन्मयः।। ५१.१८२ ।।

आप नित्य हैं और आप ही अनित्य भी हैं, आप संसार के करने वाले और इसके अंतिम आश्रय भी कहे गये हैं। आप एक और अनेक रूपों वाले हैं, आप शान्त हैं और क्रियाशील भी हैं, यह सम्पूर्ण जगत् आपका स्वरूपहैं ।। १८२ ॥

निर्विकारो निराधारो नित्यानन्दः सनातनः।

त्वं विष्णुस्त्वं महेन्द्रस्त्वं ब्रह्मा त्वं जगतां पतिः।। ५१.१८३ ।।

आप विष्णु हैं, आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही महेन्द्र हैं तथा आप ही जगत के स्वामी हैं। आप सभी प्रकार के विकारों से रहित, निराधार तथा नित्य आनन्द युक्त सनातन तत्त्व हैं ।। १८३॥

यो रूपरूपेश्वररत्नमालः सम्भूतिभूतो निरवग्रहश्च।

कांक्ष्यावतीर्णावगतप्रमाथी योगेश्वरो ज्ञानगतिस्त्वगम्यः।। ५१.१८४ ।।

जो रूपवान् और रूपवानों में भी श्रेष्ठ, रत्नों के समूह, जो स्वयं अच्छी प्रकार के वैभव से उत्पन्न हैं, आप मुक्तरूप हैं, जो आकांक्षा से उत्पन्न दशा को भी पीड़ित करने वाले हैं, योग के ईश्वर हैं, जो स्वयं ज्ञानगति हैं और अगम्य हैं, वह आप ही हैं ।। १८४ ।

प्रमेयरूपात्मधराधराभो भोगीन्द्रबद्धामृतभोगतन्त्रः।

सूक्ष्माक्षरस्तत्त्वविदप्रमाथी त्वं देवदेवः शरणं सुराणाम्।। ५१.१८५ ।।

आप प्रमेयरूप हैं, आप आत्मतत्त्व के धारण करने वाले, श्रेष्ठ पर्वत के समान दृढ़ हैं। आप सर्पों के आभूषण से बद्ध और अमृत के भोग करने वाले हैं, आप देवता के भी देवता और देवताओं को भी शरण देने वाले हैं ।। १८५ ।।

विकल्पमानापरिहीनदेहः शुद्धान्तधामानुगतैकविद्यः।

वर्धिष्णुरुग्रः पुरुषः परात्मा त्वमिन्द्रियौघस्य विचारबुद्धि।। ५१.१८६ ।।

आप विकल्प और मान से रहित शरीर वाले हैं। आपका अन्तः करण शुद्ध हैं तथा आप अनुगामियों के एकमात्र आश्रय हैं। आप विकासशील हैं, उग्र हैं, सांख्य के पुरुष तथा वेदान्त के परमात्मा हैं। आप इन्द्रियसमूह में उसके नियंता, विचारशीलबुद्धि हैं ।। १८६ ॥

त्वं नाथनाथ प्रभवः परेषां गतिर्मुनीनां परयोगिगम्यः।

त्वंभूधरो भागधरो ह्यनन्तो विश्वात्मनस्ते बहवः प्रपञ्चाः।। ५१.१८७ ।।

आप स्वामियों के भी स्वामी, श्रेष्ठतम लोगों को भी उत्पन्न करने वाले, मुनियों की गति तथा श्रेष्ठ योगियों के भी प्राप्तव्य हैं। आप पृथ्वी को धारण करने वाले और भाग्य को भी धारण करने वाले हैं। क्योंकि आपका कोई अन्त नहीं है। आप विश्वात्मा हैं और आपके बहुत से प्रपंच (कार्य) हैं ।। १८७ ॥

ज्ञानामृतस्यन्दकपूर्णचन्द्रो मोहान्धकारस्य परः प्रदीपः ।

भक्तात्मजानां परमः पिता त्वं कामे च पञ्चाननरूपधारी ।। ५१.१८८ ।।

आप ज्ञानरूपी अमृत के रिसाव से भरे हुए पूर्ण चन्द्रमा हैं तथा मोहरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए आप श्रेष्ठ प्रदीप हैं, आप भक्तरूपी पुत्रों के श्रेष्ठ पिता हैं और काम के विनाश के लिए आप सिंह के समान हैं ।। १८८ ।।

शास्ताखिलानां प्रथमो विवस्वांस्तनूनपात् त्वं तनुषे गुणैधान्।

त्वं ब्रह्मरूपेण करोषि सृष्टिं विष्णुस्वरूपैः सततं स्थितिं च।। ५१.१८९ ।।

आप सभी पर शासन करने वाले सबमें प्रथम हैं, आप ही सूर्य हैं, आप ही अग्नि हैं, आप गुणसमूहों का विस्तार करते हैं, आप ब्रह्मा के रूप में सृष्टि करते हैं, तथा विष्णु के रूप में निरन्तर जगत की स्थिति बनाये रखते हैं ।। १८९ ।।

त्वं रुद्ररूपी कुरुषे तथान्तं त्वत्तौ न चान्यज्जगतीह वस्तु।

त्वं रात्रिनाथो दिवसेश्वरश्च त्वमग्निरापः पवनो धरित्री।। ५१.१९० ।।

आप रूद्ररूप से सृष्टि का अन्त भी करते हैं, आपके अतिरिक्त संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं है। रात्रि के स्वामी चन्द्रमा तथा दिन के स्वामी सूर्य, आप ही हैं। आप ही अग्नि, जल, वायु और पृथ्वी भी हैं ।। १९० ॥

नभस्तथा त्वं क्रतुतन्त्रहोता त्वमष्टमूर्तिर्भवतो न चान्यत्।

अनन्तमूर्तिस्त्विह मुख्यभावान्निगाद्यते चाष्टमयी त्रिमूर्तिः।। ५१.१९१ ।।

आप आकाश हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप होता हैं, इस प्रकार से आप अष्टमूर्ति हैं, आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। आप तो अनन्त रूपों वाले हैं किन्तु मुख्यभागों को ध्यान में रख कर ही आपको अष्टमूर्ति या त्रिमूर्ति के नाम से पुकारा जाता है ।। १९१ ॥

अनन्तमूर्ते कथमन्यथा ते संख्यास्ति रूपस्य यदष्टमूर्तिः।

त्वं त्र्यम्बकस्त्वं त्रिपुरान्तकश्च त्व शम्भुरीशः शमनो विधाता।। ५१.१९२ ।।

अन्यथा जब आप अनन्तमूर्ति हैं तो आप के रूपों की आठ के रूप में कैसे गिनती की जाती है ? आप तीन नेत्रों वाले हैं। आप त्रिपुर का वध करने वाले हैं,आप ही शिव, ईश्वर, यम और विधाता, ब्रह्मा हैं ॥ १९२ ।।

सहस्रबाहुश्च हिरण्यबाहुः सहस्रमूर्तिस्त्विह पञ्चवक्त्रः।

प्रभूतनेत्रस्तु षडर्द्धनेत्रः प्रभूतबाहुर्दशबाहुरीशः।। ५१.१९३ ।।

प्रभूतभोगी मितभोगयुक्तो भोग्यानुसारो निरवग्रहश्च।। ५१.१९४ ।।

आप हजार भुजाओं वाले हैं, आप हिरण्यमयी भुजाओं वाले हैं, आप हजार रूपों वाले हैं, आप पाँचमुँह वाले हैं, आप बहुत अधिक नेत्रों वाले हैं, आप तीन नेत्रों वाले हैं, आप बहुत सी भुजाओं वाले हैं, तो दस भुजाओं वाले ईश्वर भी आप ही हैं। बहुत से भोगों को भोगने वाले तथा सीमित भोग करने वाले आप ही हैं। आप भोग्यानुसार हैं, बन्धन से मुक्त दोनों हैं । । १९३ - १९४ ।।

नित्यानित्यस्वरूपाय नित्यधामस्वरूपिणे।

परतत्त्वस्वरूपाय नमस्तुभ्यं शिवात्मने।। ५१.१९५ ।।

नित्य और अनित्य रूप वाले, प्राणीमात्र के नित्यधामरूपी श्रेष्ठ तत्त्वस्वरूप, शिव रूप आपको नमस्कार है ।। १९५॥

नान्तं लिङ्गस्य यस्याप्तं विष्णुना ब्रह्मणा तव।

तस्यावां किं विधास्यावः स्तुतिवाक्यं वृषध्वजः।। ५१.१९६ ।।

हे वृषध्वज ! जिस आपके लिंग का अन्त, ब्रह्मा व विष्णु नहीं पा सके, उस आपकी स्तुति के लिए हम दोनों कहाँ तक चेष्टा कर सकते हैं? ॥ १९६॥

स्वरूपं यस्य जानन्ति न देवा नापि दानवाः।

बालावावां कथन्तु त्वां स्तोष्यावः परमेश्वर।। ५१.१९७ ।।

हे परमेश्वर ! जिसके स्वरूप को न देवता जानते हैं, न दानव, उस आप परमेश्वर की, हम दोनों बालबुद्धि वाले कैसे स्तुति कर सकते हैं? ॥१९७॥

भक्तिमात्रेण देवेश तवावां वृषभध्वज।

कुर्वः प्रणामं गौरीश भूयस्तुभ्यं नमो नमः।। ५१.१९८ ।।

हे वृषभध्वज, हे देवताओं के स्वामी, हे गौरीपति ! हम दोनों तो भक्ति- मात्र से ही आपको प्रणाम करते हैं। आपको बार-बार नमस्कार है ।। १९८ ।।

इति: कालिकापुराणे एकपञ्चाशोऽध्यायान्तर्गत वेतालभैरवकृत शिव स्तुति: समाप्ता ।

Post a Comment

0 Comments