कालिका पुराण अध्याय ५३

कालिका पुराण अध्याय ५३                     

कालिका पुराण अध्याय ५३ में महामाया कल्प ध्यान न्यास का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ५३

कालिका पुराण अध्याय ५३                                 

Kalika puran chapter 53

कालिकापुराणम् त्रिपञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे ध्यानन्यासवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ५३                    

।। श्रीभगवानुवाच ।।

ततो लमिति मन्त्रेण अर्धपात्रस्य मण्डलम् ।

चतुष्कोणं विधायाशु द्वारपद्मविवर्जितम् ।। १॥

श्रीभगवान बोले- तब लं इस मन्त्र से अर्धपात्र रखने के लिए द्वार और कमल से रहित, चौकोर मण्डल बनाना चाहिए ॥ १ ॥

ॐ ह्रीं श्रीमितिमन्त्रेण अर्धपात्रं तु मण्डले ।

विन्यसेत् प्रथमं तत्र पूजयित्वा समिध्यति ॥२॥

उस मण्डल पर, पहले ॐ ह्रीं श्रीं इस मन्त्र से अर्धपात्र को स्थापित करे । तत्पश्चात् वहीं पूजा करके साधक, सफलता को प्राप्त करता है ॥ २ ॥

ॐ ह्रीं हौमितिमन्त्रेण गन्धपुष्पे तथा जलम् ।

अर्धपात्रे क्षिपेत् तत्र मण्डलं विन्यसेत् ततः ।।३।।

ॐ ह्रीं ह्रौं इस मन्त्र से उस अर्घपात्र में गन्ध, पुष्प और जल डाले तब मण्डल बनाये ॥ ३ ॥

पूर्ववन्मण्डलं कृत्वा अर्धपात्रे ततो जलैः ।

त्रिभागैः पूरयेत् पात्रं पुष्पं तत्र विनिःक्षिपेत् ।।४।।

पहले की भाँति ही मण्डल बनाकर अर्घपात्र में तीनभाग जल भरे और उस पात्र में पुष्प छोड़े ॥४॥

ततो ह्रीमिति मन्त्रेण आसनं पूजयेत् स्वकम् ।

ततः क्षौमितिमन्त्रेण आत्मानं पूजयेद् बुधः ।

गन्धैः पुष्पैः शिरोदेशे ततः पूजां समाचरेत् ॥५॥

विद्वान् साधक तब ह्रीं इस मन्त्र से अपने आसन का पूजन करे और तत्पश्चात् इस मन्त्र से अपना पूजन करने के लिए गन्ध, पुष्प से अपने मस्तक पर पूजन करे उसके बाद पूजन आरम्भ करे॥ ५ ॥

ॐ ह्रीं स इति मन्त्रेण पुष्पं हस्ततलस्थितम् ।। ६ ।।

संमृज्य सव्यहस्तेन प्रात्वा वामकरेण तु ।

ऐशान्यां निक्षिपेदेतत् पूर्वमन्त्रेण कोविदः ॥७॥

ॐ ह्रीं सः इस मन्त्र से पुष्प को हाथ में रखकर, हाथ से मसल कर, बाएं हाथ से सूंघ कर पहले बताये मन्त्र द्वारा बाएँ हाथ से ही विद्वान्साधक को उसे ईशानकोण में फेंक देना चाहिए ॥ ६-७ ॥

रक्तं पुष्पं गृहीत्वा तु कराभ्यां पाणिकच्छपम् ।

बद्ध्वा कुर्यात् ततः पश्चाद् दहनप्लवनादिकम् ॥८॥

तब लालपुष्प हाथों में लेकर पाणिकच्छपमुद्रा में बांध कर दहन - प्लवन आदि क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए ॥ ८ ॥

कालिका पुराण अध्याय ५३- पाणिकच्छपमुद्रा 

वामहस्तस्य तर्जन्यां दक्षिणस्य कनिष्ठिकाम् ।

तथा दक्षिणतर्जन्यां वामाङ्गुष्ठं नियोजयेत् ।।९।।

उन्नतं दक्षिणाङ्गुष्ठं वामस्य मध्यमादिकाः ।

अङ्गुलीर्योजयेत् पृष्ठे दक्षिणस्य करस्य च ।।१०।।

वामस्य पितृतीर्थेन मध्यमानामिके तथा ।

अधोमुखे तु ते कुर्याद् दक्षिणस्य करस्य च ।। ११ ।।

कूर्मपृष्ठसमं पृष्ठं कुर्याद् दक्षिणहस्ततः ।

एवं बद्धः सर्वसिद्धिं ददाति पाणिकच्छपः ।। १२ ।।

बाएं हाथ की तर्जनी अंगुली पर दाहिने हाथ की कनिष्ठिका तथा दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली पर बाएं हाथ के अंगूठे को लगाये। दाहिने अंगूठे को उठाये हुए बायें हाथ की मध्यमा आदि अंगुलियों को दाहिने हाथ के पिछले भाग (हिस्से) में लगाये तब दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को नीचे किये हुए बायें हाथ के पितृतीर्थ (तर्जनी और अंगूठा के बीच स्थान) में लगाये तत्पश्चात् दाहिने हाथ को कछुवा के पीठ के समान बनाये। इस प्रकार से हाथ द्वारा सुन्दर ढंग से बनाया हुआ यह पाणिकच्छप मुद्रा (कूर्ममुद्रा), सब सिद्धियों को देती है ।। ९-१२ ॥

कालिका पुराण अध्याय ५३- भूतशुद्धि

कुर्यात् तदूहृदयासन्नं निमील्य नयनद्वयम् ।

समं कायशिरोग्रीवं कृत्वा स्थिरमना बुधः ।

ध्यानं समारभेद् देव्या दाहप्लवनपूर्वकम् ।।१३।।

उपरोक्त पाणिकच्छप को अपने हृदय के निकट लाकर, अपने दोनों नेत्रों को बन्द करके, शिर और गले को समान रेखा में लाकर, विद्वान् (साधक) को स्थिर मन से दाह और प्लवन आदि क्रियाओं को करने के पश्चात् देवी का ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए ॥१३॥

अग्निं वायौ विनिक्षिप्य वायुं तोये जलं हृदि ।

हृदयं निश्चले दत्त्वा आकाशे निक्षिपेत्स्वनम् ।। १४ ।।

ॐ हूँ फडिति मन्त्रेण भित्त्वा रन्ध्रं तु मस्तके ।

शब्देन सहितं जीवमाकाशे स्थापयेत् ततः ।। १५ ।।

पहले अग्नितत्व को वायु में डालकर, वायु को जल में और जल को हृदय में तथा हृदय को निश्चल आकाशतत्व में विक्षेपित करे । ॐ हूँ फट् इस मन्त्र से गूंजते हुए ब्रह्मरन्ध्र को मस्तक में तथा शब्द के सहित जीव को आकाश में स्थापित करे ॥ १४-१५ ॥

वाय्वग्नियमशक्राणां बीजेन वरुणस्य च ।

परास्थानपराश्चैतैः सार्धचन्द्रैः सबिन्दुकैः ।। १६ ।।

शोषं दाहं तथोच्छादं पीयूषसेवनं परम् ।

यथाक्रमेण कर्तव्यं चिंतामात्रं विशुद्धये ।। १७ ।।

तब वायु, अग्नि, यम, शक्र (इन्द्र) और वरुण के बीज मन्त्रों य, , , ल और व, को चन्द्रबिन्दुओं सहित, क्रमशः एक दूसरे के आगे रखते हुए, साधक को अपनी शुद्धि के लिए क्रमशः शोषण, दहन, उत्सादन तथा पीयूषसेवन (अमृतीकरण) की श्रेष्ठ क्रियाओं को चिन्तनमात्र से ही पूर्ण करना चाहिए ।। १६-१७।।

ततस्तु देवीबीजेन अणुं जाम्बूनदाकृतिम् ।।१८।।

तत्रासाद्य द्विधा कुर्यात् ॐम् ह्रीं श्रीमिति मन्त्रकाः ।

तदूर्ध्वभागेषु हृद्लोकं स्वर्गां च खं तथा ।। १९ ।।

निष्पाद्य शेषभागेन भुवं पातालवारिणि ।

चिन्तयेत्तत्र सर्वाणि सप्तद्वीपां च मेदिनीम् ।। २० ।।

तब देवी के बीजमन्त्र ल से जाम्बूनद (सोने की ) अणुमात्र आकृति को पाकर ॐ ह्रीं श्रीं मन्त्रों से उसे दो भाग करे। उपरी भाग में हृदयलोक, स्वर्ग और आकाश का निष्पादन करे तथा शेष निचले भाग में भुवः लोक, पाताललोक तथा सात द्वीपों से युक्त, जल में स्थित, सम्पूर्ण पृथ्वी का चिन्तन करे ॥१८-२० ॥

तत्तेषु सागरांस्तांस्तु स्वर्णद्वीपं विचिन्तयेत् ।

तन्मध्ये रत्नपर्यकं रत्नमण्डपसंस्थितम् ।। २१ ।।

आकाशगङ्गातोयोघैः सदैव सेवितं शुभम् ।

तत्पर्यके रक्तपद्मं प्रसन्नं सर्वदा शिवम् ।। २२ ।।

चिन्तयेत् स्वर्णमानांक सप्तपातालानालकम् ।

आब्रह्मभुवनस्पर्शि सुवर्णाचलकर्णिकम् ।

तत्रस्थितां महामायां ध्यायेदेकाग्रमानसः ।। २३ ।।

तब उन समुद्रों पर स्थित, पृथ्वी पर, स्वर्णद्वीप की कल्पना करे और उस स्वर्णद्वीप के मध्यभाग में सोने के बने हुए पलंग से सुशोभित, रत्नों से बने रत्नमण्डप का ध्यान करे, तदनन्तर उस स्वर्णपलंग पर स्थित, लालकमल पर, आकाशगंगा के जल से निरन्तर सेवा किये जाते हुए, शुभ करने वाले, सर्वदा प्रसन्न रहने वाले, शिव का चिन्तन करे। वह कमल ऐसा होना चाहिए कि उसकी सुनहली पंखुड़ियां, आकाश और उसकी नाल, सातों पाताल तक गई हुई हो तथा ब्रह्मलोक तक व्याप्त सोने के पर्वत के समान उसकी कर्णिका हो। उस पर स्थित महामाया का एकाग्रमन से ध्यान करे ।। २१-२३ ॥

कालिका पुराण अध्याय ५३- देवी का ध्यान (स्वरूप)

शोणपद्मप्रतीकाशां मुक्तमूर्धजलम्बिनी ।। २४ ।।

चलत्काञ्चनामारुह्य कुण्डलोज्ज्वलशालिनीम् ।

सुवर्णरत्नसम्पन्न किरीटद्वयधारिणीम् ।। २५ ।।

वे महामाया देवी, लालकमल के समान आभा वाली, लम्बे-लम्बे खुले केशों वाली, चंचल सोने के बने हुए कुण्डलों से चमकती हुयी उज्ज्वलकान्ति से सुशोभित, सोने और रत्नों से सम्पन्न दो कुण्डलों को धारण करने वाली हैं ।। २४-२५ ॥

शुक्लकृष्णारुणैर्नेत्रैस्त्रिभिश्चारुविभूषिताम् ।

सन्ध्याचन्द्रसमप्रख्य- कपोलां लोललोचनाम् ।। २६ ।।

विपक्वदाडिमीबीजदन्तान् सुभ्रूयुगोज्ज्वलाम् ।

बन्धूकदन्तवसनां शिरीषप्रभनासिकाम् ।। २७ ।।

कम्बुग्रीवां विशालाक्षी सूर्यकोटिसमप्रभाम् ।

चतुर्भुजां विवसनां पीनोन्नतपयोधराम् ।। २८ ।।

वे श्वेत, काले और लाल तीन रंगों वाले, सुन्दर नेत्रों से सुशोभित हैं। उनके कपोल (गाल) सन्ध्याकालीन चन्द्रमा के समान हैं तथा उनके नेत्र, चंचल हैं। उनके दाँत पके हुए अनार के बीज के समान तथा भौहें सुन्दर प्रभापूर्ण मिली हुई हैं तथा उनके दन्तवसन (ओठ), बन्धूकपुष्प के समान लाल हैं और उनकी नासिका शिरीष- पुष्प के समान आभावाली है। उनकी चार भुजाएं हैं तथा वे बिना वस्त्र की हैं और उनके स्तन उठे हुए एवं विशाल है ।। २६-२८ ।।

दक्षिणोर्ध्वेन निस्त्रिंशत्परेण सिद्धसूत्रकम् ।

बिभ्रतीं वामहस्ताभ्यामभीतिवरदायिनीम् ।। २९ ।।

निम्ननाभिक्रमायातां क्षीणमध्यां मनोहराम् ।

आनमन्नागपाशोरूं गुप्तगुल्फां सुपाष्णिकाम् ।। ३० ।।

वे अपने दाहिने उपरी हाथ में कृपाण, दूसरे में सिद्ध-सूत्र (पाश) और अपनी बायीं ओर के हाथों में अभय और वरद मुद्रा धारण किये हुए हैं। उनका नाभिचक्र गहरा और विशाल है । शरीर का मध्यभाग पतला और सुन्दर है। जिससे हाथी के सूड़ के समान लटकती हुयी जांघें तथा छिपी हुयी घुट्ठी (टखना) तथा सुन्दर एड़ियों वाले उनके पैर हैं ।। २९-३०॥

बद्धपर्यङ्कसङ्कल्पां निवारासनराजिताम् ।

गात्रेण रत्नसंस्तम्भं सम्यगालम्ब्य संस्थिताम् ।। ३१ ।।

वे नीवार के आसन पर, पर्यङ्कमुद्रा में आसन लगाकर, रत्नों से बने स्तम्भ का अपने शरीर से भली-भाँति आलम्बन कर स्थित हैं । । ३१ ॥

किमिच्छसीति वचनं व्याहरन्तीं मुहुर्मुहुः ।

पञ्चाननं पुरःसंस्थं निरीक्षन्तीं सुवाहनम् ।।३२।।

वे बार-बार क्या चाहते हो ऐसा वचन बोल रही हैं तथा सामने स्थित अपने सुन्दरवाहन, सिंह को देख रही हैं ॥ ३२ ॥

मुक्तावली स्वर्णरत्नकेयूरकङ्कणादिभिः ।

सर्वैरलङ्कारगणैरुज्ज्वलां सस्मिताननाम् ।। ३३॥

वे मोतियों की माला, सोने तथा रत्नों के बने बाजूबन्द, कंकण आदि सभी आभूषणों से सुशोभित और मुस्कुराते हुए मुखवाली हैं ॥ ३३ ॥

सूर्यकोटिप्रतीकाशां सर्वलक्षणसंयुताम् ।

नवयौवनसम्पन्नां तथा सर्वाङ्गसुन्दरीम् ।। ३४।।

वे करोड़ों सूर्य के समान प्रभावाली, सभी लक्षणों से युक्त, युवावस्था से सम्पन्न तथा सभी अंगो से सुन्दरी हैं ॥३४॥

ईदृशीमम्बिकां ध्यात्वा नमः फडिति मस्तके ।

स्वकीये प्रथमं दद्यात् सोऽहमेव विचिन्त्य च ।। ३५ ।।

इस प्रकार से अम्बिका देवी का ध्यान करते हुए मैं उन्हीं का रूप हूँ ऐसा विचार कर, सर्वप्रथम नमः फट् इस मन्त्र से अपने मस्तक पर न्यास करे ।। ३५ ।।

अङ्गन्यासकरन्यासौ ततः कुर्यात् क्रमेण च ।

एभिर्मन्त्रैः स्वरैः सह सृमिसूमक्रमान्वितैः ।। ३६।।

ओम् क्षौम् चैते सप्रणवां रक्तवर्णां मनोहराम् ।

अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तमन्त्रसंवेष्टनं फट् ।। ३७।।

प्रान्तेन कुर्याद् विन्यासं पूर्वं करतलद्वये ।

हृच्छिरः शिखाकवचनेत्रेषु क्रमतो न्यसेत् ।। ३८ ।।

तब क्रमशः सृमिसूम दीर्घ स्वरों के साथ ओम् क्षौं प्रणवसहित लालरंग के, मन को अच्छे लगनेवाले मन्त्रों से, अंगन्यास और करन्यास करे। अंगुष्ठा से कनिष्ठा तक न्यास करते हुये फट् इस मन्त्र से हाथ को लपेट कर करतलद्वय पर न्यास करे, तत्पश्चात् हृदय, सिर, शिखा, कवच और नेत्रों में क्रमशः न्यास करे ॥ ३६-३८।।

ततस्तु मूलमन्त्रस्य वक्त्रे पृष्ठे तथोदरे ।

बाह्वोर्गुह्ये पादयोश्च जङ्घयोर्जघने क्रमात् ।

विन्यसेदक्षराण्यष्टौ ओंकारं च तथा स्मरन् ।। ३९ ।।

तत्पश्चात् मुख, पीठ, पेट, बाहु, गुह्य, पैरों, जंघों और टखनों में क्रमश: महामाया के मूलमन्त्र के आठ अक्षरों का, ओंकारपूर्वक स्मरण करते हुए न्यास करे ॥ ३९ ॥

एभिः प्रकारैरतिशुद्धदेहः पूजां सदैवार्हति नान्यथा हि ।

शरीरशुद्धिं मनसो निवेशं भूतप्रसारं कुरुते नृणांतत् ।। ४० ।।

इस प्रकार से अत्यंत शुद्धशरीर से की हुयी पूजा, सदैव सार्थक होती है, अन्यथा नहीं, क्योंकि शरीर शुद्धि और मन से ध्यान और भूत-शुद्धि मनुष्य के मनो-निवेश में सहायक होती हैं ॥ ४० ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे ध्यानन्यासवर्णने त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५३॥

॥श्रीकालिकापुराण में महामायाकल्प का ध्यानन्यासवर्णनसम्बन्धी तिरपनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥५३ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 54

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