कालिका पुराण अध्याय ३९
कालिका पुराण
अध्याय ३९ में नरकासुर के तपस्या का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ३९
Kalika puran chapter 39
कालिकापुराणम् एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः भौमतपस्यावर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ३९
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
स राजा नरक:
श्रीमांश्चिरञ्जीवी महाभुजः ।
मानुषेणैव भावेन
चिरं राज्यमथाकरोत् ॥१॥
मार्कण्डेय
बोले- उस नरक नाम के राजा ने जो श्रीसम्पन्न, चिरञ्जीवी और महान् पराक्रमी था,
बहुत समय तक मनुष्यभाव के साथ राज्य किया ॥ १ ॥
त्रेतायां च
व्यतीतायां द्वापरस्य तु शेषतः ।
अभवच्छोणितपुरे
बाणो नाम महासुरः ।।२।।
तब त्रेतायुग
के बीत जाने पर द्वापर के अन्त में शोणितपुर नगर में बाण नाम का एक महान असुर हुआ
।। २ ।।
तस्याग्निदुर्गं
नगरं स च शम्भुसखो बली ।
सहस्रबाहुर्दुर्धर्षः
प्रियः पुत्रः स वै बले: ।।३।।
उसका नगर
अग्नि द्वारा रक्षित था और वह स्वयं शिव का मित्र (भक्त) था । वह बलवान था तथा
हजार बाहुओं को धारण करने वाला था । वह दुर्धर्ष था । वह राजा बलि का प्रिय पुत्र
था ॥ ३ ॥
नरकेण समं
तस्य महामैत्री व्यजायत ।
गमनागमनान्नित्यमन्योन्यानुग्रहैस्तथा
।
तयोरभूद् महाप्रीतिः
पवनानलयोर्यथा ॥४॥
नरक के साथ
उसकी महान् मित्रता हो गयी तथा निरन्तर एक-दूसरे के यहाँ आने-जाने तथा परस्पर के
अनुग्रह के कारण उन दोनों में आग और हवा की भाँति प्रीति हो गयी ॥ ४ ॥
स च बाणः
समाराध्य महादेवं जगत्प्रभुम् ।
सुरेणाथ भावेन
व्यचरच्चाकुतोभयः ।।५।।
और वह बाण
जगत् के स्वामी महादेव की आराधना करके आभाव युक्त हो,
निर्भय होकर विचरण करने लगा ॥ ५ ॥
तत्संसर्गात्
स नरको दृष्ट्वा तस्याद्भुतां कृतिम् ।
तेनैव सह भावेन
विहर्तुमुपचक्रमे ।।६।।
उसी के संसर्ग
से उस नरक ने भी उसके अद्भुत कार्यों को देखकर, उसी के(आसुरी) भाव से उस बाण के साथ विचरण करना आरम्भ किया ।। ६ ।।
न ब्राह्मणान्
पूजयति यथा पूर्वं तथा द्विजाः ।
न च यज्ञेषु
दानेषु पूर्ववन्मुदितः स च ।। ७ ।।
तब (आसुरी भाव
युक्त होने पर) न तो वह जिस प्रकार ब्राह्मणों की पहले पूजा करता था वैसी पूजा
करता और न यज्ञ एवं दान से वह पहले की भाँति प्रसन्न ही होता था ॥ ७ ॥
न तथा
विष्णुमभ्येति पृथिवीं वापि नार्च्चति ।
कामाख्यायां
तथा भक्तिस्तदा तस्थाय नाभवत् ॥८॥
तब न उस
प्रकार (पहले की भाँति) वह अपने पिता विष्णु के पास जाता था अथवा न माता पृथिवी की
अर्चना करता था । कामाख्या देवी के प्रति उसकी पहले वाली भक्ति भी तब नहीं रही ॥ ८
॥
एतस्मिन्नन्तरे
धातुस्तनयो मुनिसत्तमः ।
वसिष्ठो नाम
कामाख्यां द्रष्टुं प्राग्ज्योतिषं गतः ॥९॥
इसी बीच ब्रह्मा
के पुत्र महर्षि वसिष्ठ नामक श्रेष्ठमुनि कामाख्या देवी के दर्शन हेतु
प्राग्ज्योतिषपुर गये ।। ९ ।।
तां दुर्गाभ्यन्तरे
नीलकूटदेवीं व्यवस्थिताम् ।
द्रष्टुं
गन्तुं वसिष्ठस्य न द्वारं नरको ह्यदात् ।। १० ।।
दुर्ग के भीतर
नीलपर्वत पर स्थित उस देवी के दर्शन हेतु गये हुए वसिष्ठजी को नरक ने वहाँ जाने का
द्वार (मार्ग) नहीं दिया ॥ १० ॥
ततो वसिष्ठः
कुपितो वचनं परुषं मुनिः ।
जगाद नरकं
वीरं गर्हयन्मुनिसत्तमः ।। ११।।
तब क्रोधित
होकर मुनियों में श्रेष्ठ, वसिष्ठ मुनि ने वीर नरक की भर्त्सना करते हुए ये कठोर वचन
कहे ॥ ११ ॥
।। वसिष्ठ
उवाच ॥
कथं पृथिव्यास्तनयो
वराहस्य सुतोऽञ्जसा ।
देवीं द्रष्टुं
ब्राह्मणस्य न ददासि तथागतः ।।१२।।
वसिष्ठ बोले-
वाराह तथा पृथ्वी के पुत्र होते हुये भी तुम मुझ ब्राह्मण को उचित मार्ग क्यों
नहीं दे रहे हो?।।१२।।
किं ते
कुलोचितं कर्म त्वं करोषि धरात्मज ।
देवीं
प्राग्ज्योतिषं गत्वा पूजयिष्ये जगन्मयीम् ।। १३ ।।
हे धरती के
पुत्र ! क्या यह तुम्हारा अपने कुल के अनुरूप कर्म है ?
मैं प्राग्ज्योतिषपुर जाकर जगत्मयी देवी का पूजन ही करूँगा
॥ १३ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततः स नरको
राजा प्राप्तकालः क्षितेः सुतः ।
परुषेणाथ
वाक्येन तमाक्षिप्य निरस्तवान् ।
ततो मुनिः स
कुपितः शशाप नरकं नृपम् ।। १४ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब उस पृथ्वीपुत्र राजा नरक ने, जिसका अन्त समय सन्निकट आ गया था । कठोर वचनों द्वारा उन पर
आक्षेप करते हुए, उनको निरस्त कर दिया, तो वसिष्ठ ने क्रोधित हो राजा नरक को शाप दिया ।। १४ ।
।। वसिष्ठ
उवाच ॥
नचिराद् येन जातोऽसि
तेन मानुषरूपिणा ।
मरणं भविता
पाप वराहकुंलपांसन ।। १५ ।।
वसिष्ठ बोले-
हे वाराह कुल को कलंकित करने वाले पापरूप ! तुम जिस (विष्णु) के द्वारा उत्पन्न हुए
हो,
उसी मनुष्यरूपधारी (विष्णु) द्वारा तुम्हारा मरण भी शीघ्र
ही होगा ॥ १५ ॥
मृते त्वयि
महादेवीं कामाख्यां जगतां प्रभुम् ।
पूजयिष्याम्यहं
पाप तिष्ठ यास्ये स्वमालयम् ।। १६ ।।
हे पाप !
तुम्हीं यहाँ रहो। मैं अपने आवास पर चला जाऊँगा तथा तुम्हारे मरने के बाद ही
जगत्जननी महादेवी कामाख्या का पूजन करूँगा ।। १६ ।।
त्वं
यावज्जीविता पाप कामाख्यापि जगत्प्रभुः ।
सर्वैः परिकरैः
सार्धमन्तर्धानाय गच्छतु ।।१७।।
हे पाप ! जब
तक तुम जीवित रहो, तब तक जगत् को उत्पन्न करने वाली यह कामाख्या देवी भी अपने
सभी परिकरों के सहित अन्तर्धान हो जावें ।। १७ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
ब्रह्मपुत्रः स स्वस्थानं गतवान् मुनिः ।
वसिष्ठस्तेन
भौमेन निरस्तः कुपितो भृशम् ।। १८ ।।
मार्कण्डेय
बोले- उस भूमिपुत्र द्वारा निर्वासित किये गये वसिष्ठमुनि अत्यन्त कुपित हुए तथा
उपर्युक्त वचन कहकर अपने आश्रम को लौट गये ।। १८ ।।
गते वसिष्ठे
नरकः शीघ्रं विस्मयसंयुतः ।
जगाम देवीभवनं
नीलकूटं महागिरिम् ।। १९ ।।
वसिष्ठ मुनि
के लौट जाने पर आश्चर्य से भरकर नरक, शीघ्र ही देवी के मन्दिर में, नीलकूट नामक विशाल पर्वत पर पहुँचा ।। १९ ।।
तत्र गत्वा न
चापश्यत् कामाख्यां कामरूपिणीम् ।
न योनिमण्डलं
तस्याः सर्वान् परिकरांस्तथा ।। २० ।।
वहाँ जाकर
उसने कामरूपधारिणी कामाख्या देवी को नहीं देखा और न तो उनके योनिमण्डल को एवं न
उनके सभी परिकरों को ही देखा ॥ २० ॥
ततः स विमना
भूत्वा क्षितिं सस्मार मातरम् ।
पितरं च
जगन्नाथं नरकः प्रभुमव्ययम् ।। २१ ।।
तब दुःखीभाव
हो,
नरक ने अपनी माता पृथ्वी तथा पिता अविनाशी ईश्वर,
जगत के स्वामी भगवान् विष्णु का स्मरण किया ।। २१ ।।
न तावपि तदा
यातौ तस्य प्रत्यक्षतां द्विजाः ।
व्युत्क्रान्तसमयस्येति
नीतिहीनस्य शम्भवे ।। २२ ।।
हे द्विजों !
जिस प्रकार विपरीत समय आने पर, नीतिहीन पुरुष शिव का दर्शन नहीं प्राप्त करता उसी प्रकार
वे दोनों भी तब उसके सम्मुख प्रत्यक्षरूप से उपस्थित नहीं हुए ।। २२ ।।
चिरं
प्रतीक्ष्य तौ तत्र भौमो वज्रध्वजस्तदा ।
अप्राप्तक्षितिविष्णुः
स सशोकः स्वं निवेशनम् ।। २३ ।।
तब बहुत देर
तक उन दोनों की प्रतीक्षा कर वह भौमासुर जिसकी ध्वजा पर वज्र का चिह्न अंकित रहता
था,
अपनी माता पृथ्वी और पिता विष्णु को न पाकर शोकपूर्वक अपने
स्थान को चल पड़ा ।। २३ ।।
स गच्छन्
स्वगृहं भौमः पुरीं स्वां दृष्टवांस्तु सः ।
पूर्वश्रिया
परित्यक्तां मलिनां वनितामिव ।। २४ ।।
अपने घर को
लौटते हुए उस भौमसुर ने अपनी नगरी को रजस्वला स्त्री की भाँति पूर्ववर्ती शोभा से
रहित देखा।।२४।।
देव्यामन्तर्हितायां
तु वेदवादविवर्जितम् ।
पुण्यस्वल्पदारजनं
तत् पुरं समपद्यत ।। २५ ।।
देवी के
अन्तर्हित हो जाने पर उसने वैदिक आचार से हीन तथा जिनके पुण्य कम हो गये थे,
ऐसे अकुलीन स्त्रियों की भाँति श्रीहीन,
नगर को उसने प्राप्त किया ।। २५ ।।
न देवास्तत्र
गच्छन्ति न विप्रा न महर्षयः ।
बभूव नगरं
तस्य स्वल्पयज्ञक्रियोत्सवम् ।। २६ ।।
वहाँ न देवता
जाते थे,
न ब्राह्मण और न महर्षि ही । अतः उसके नगर में यज्ञ की
क्रियाएँ एवं महोत्सव भी क्षीण हो गये ॥ २६ ॥
ईतयो बहवो
जाता मृताश्च बहवो जनाः ।
लौहित्यनदराजोऽपि
हीनतोयस्तदाऽभवत् ।। २७ ।।
तब अनेक दैवी
आपदायें आने लगीं, जिनमें बहुत-सी प्रजा मर गयी । नदों का राजा (लौहित्य)
ब्रह्मपुत्र भी उस समय जल से हीन हो गया ।। २७ ।।
बहूनि
विपरीतानि दृष्ट्वा स नरकस्तदा ।
मेने मरणमासन्नमात्मनो
ब्रह्मशापतः ।। २८।।
तब वह नरक
बहुत से उपर्युक्त विपरीत लक्षणों को देखकर, ब्राह्मण के शाप के कारण अपनी मृत्यु निकट आयी समझने लगा ।।
२८ ।।
ततः
प्राग्ज्योतिषाध्यक्षः शोकविह्वलचेतनः ।
चिन्तयन् मनसा
मित्रं बाणं बलिसुतं ययौ ।। २९।।
तब वह प्राग्ज्योतिषपुर
का स्वामी भौमासुर, शोक से विह्वल चित्तवाला हो, मानसिकरूप से अपने मित्र बलि-पुत्र बाणासुर के पास गया ।।
२९ ।।
सखा प्राणसमः
सोऽस्य सततान्योन्यरक्षणे ।
तत्परौ बाणनरकौ
स्वर्वैद्यावश्विनाविव ।। ३० ।।
वह इसका प्राण
के समान प्रिय मित्र था। बाण एवं नरक दोनों ही परस्पर एक दूसरे की रक्षा में
देव-वैद्य आश्विनी कुमारों की भाँति सदैव तत्पर रहते थे ।। ३० ।।
एतस्मिन्नन्तरे
बाणो मित्रं शम्भुसखो बली ।
अनुकूलयिता
मन्त्रप्रदानेन महाबुधः ।। ३१ ।।
इति चासीन्मतिस्तस्य
वज्रकेतोस्तदाचला ।
दूतं च
प्राहिणोद् दीप्तं बाणस्य नगरं प्रति ।। ३२ ।।
इस संकट में
शिवभक्त,
बलवान्, महती बुद्धिवाला, मित्र बाण ही मन्त्रदान, विचार-विमर्श हेतु अनुकूल रहेगा,
ऐसी स्थिर बुद्धि तब उस वज्रध्वजाधारी नरक की हो गयी और
उसने बाण की नगरी के लिए तेजस्वी दूत भेजा ।। ३१-३२ ।।
स शोणितपुरं
गत्वा स्यन्दनेनाशुगामिना ।
ततो भौमस्य
वृत्तान्तं वाणायाशु न्यवेदयत् ।। ३३ ।।
तब तीव्रगामी
रथ से वह दूत शोणितपुर नामक नगर में पहुँचा और वहाँ पहुँचकर,
शीघ्रतापूर्वक भौम का वृत्तान्त बाण से कह सुनाया ॥ ३३ ॥
यथा शप्तो
वसिष्ठेन यथा चान्तर्हिताम्बिका ।
यथा विघ्नः
पुरवरे जातः प्राग्ज्योतिषाह्वये ।। ३४ ।।
समयस्य व्यतिक्रान्तिर्भूमिमाधवयोर्यथा
।
तथा स दूतो
भौमस्य शशंस बलिसूनवे ॥३५॥
भौमासुर के उस
दूत ने जिस प्रकार वसिष्ठ द्वारा शाप दिया गया, जिस प्रकार अम्बिका (कामाख्या) देवी अन्तर्हित हुईं,
जिस प्रकार प्राग्ज्योतिष नामक श्रेष्ठ नगर में विघ्न हुए,
पृथ्वी और विष्णु भगवान् द्वारा जिस प्रकार अपने ही वचन के
विपरीत किया गया, वह सब ज्यों का त्यों बलि-पुत्र बाणासुर से कह सुनाया ।।
३४-३५ ।।
स समाकारमित्रस्य
सम्यग् दैवपराभवम् ।
स्वयं जगाम
नरकं सभाजयितुमीश्वरः ।। ३६।।
उस बाणासुर ने
मित्र नरक के भाग्य के पराभव का प्रसङ्ग भलीभाँति सुना तथा स्वयं शिव की अर्चना
हेतु नरक के समीप चल पड़ा ।। ३६ ।।
स
काञ्चनविचित्राङ्गं युक्तमश्वशतैस्त्रिभिः ।
लोहचक्रं च
वैयाघ्रं मयूरध्वजभूषितम् ।। ३७ ।।
हेमदण्डसितच्छत्रच्छादितं
किंकिणीगणैः ।
नानारत्नौघरचितमारुरोह
महारथम् ।। ३८ ।।
इस हेतु वह
सोने से सजे हुए अङ्गों वाले, तीन सौ घोड़ों से युक्त, लोहे के चक्कों से युक्त तथा बाघ के चमड़ों से मढ़े हुए,
मयूर ध्वज सुशोभित, स्वर्णदण्ड तथा श्वेतछत्र एवं किंकिणी समूहों से आच्छादित,
नानारत्नसमूहों से विरचित, विशाल रथ पर आरूढ़ हुआ ।। ३७-३८ ।।
स सहस्रभुजः
श्रीमांश्चतुरङ्गबलैर्युतः ।
प्राग्ज्योतिषं
भौमपुरमचिरादाजगाम ह ।। ३९ ।।
वह हजार
भुजाओं वाला, श्रीमान् तथा चतुरंगिणी सेना से युक्त हो बिना विलम्ब किये भौम की राजधानी
प्राग्ज्योतिषपुर पहुँच गया ।। ३९ ।।
तमासाद्य
महाबाहुर्बाणः प्राग्ज्योतिषेश्वरम् ।
हीनं
पूर्वश्रिया मित्रमपश्यन्नगरं च तत् ।।४० ॥
वहाँ पहुँचकर
महान भुजाओं वाले बाण ने प्राग्ज्योतिषपुर के अधिपति,
अपने मित्र, भौम तथा उसके नगर को पहले की शोभा से हीन अवस्था में देखा ॥
४० ॥
स तेन पूजितो
बाणो यथायोग्यं सुतेन कोः ।
पप्रच्छ किं
निमित्तं ते हीनश्रीकमभूत् पुरम् ।।४१।।
उस बाण ने उस
पृथ्वीपुत्र नरक द्वारा यथायोग्य क्रम से पूजित हो, उससे पूछा कि तुम्हारे स्वयं के तथा नगर के शोभाहीन होने का
क्या कारण है ? ॥ ४१ ॥
।। बाण उवाच
।।
शरीरं च
यथापूर्वं तथा न तव राजते ।
मनश्च ते नाति
हृष्टं तत्र हेतुं वदस्व मे ।। ४२ ।।
बाण बोला- तुम
पहले की भाँति अब शोभायमान नहीं हो रहे हो। पहले की भाँति तुम्हारा मन भी हर्षित
नहीं है। इसमें जो कारण हो उसे बताओ ।। ४२ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमादीनि पृष्टः
स नरकः क्षितिनन्दनः ।
यथा
वसिष्ठशापोऽभूत् तत् सर्वं तस्य चाब्रवीत् ।।४३।।
मार्कण्डेय
बोले- इस प्रकार पूछे जाने पर पृथ्वीपुत्र उस नरक ने,
जिस प्रकार वसिष्ठ का शाप हुआ था,
प्रारम्भ से वह सब वृत्तान्त, उससे बता दिया ॥ ४३ ॥
यच्छुतं भौमवदनात्तद्दूतावेदितं
पुरा ।
ज्ञात्वां तथा
तं प्रोवाच बाणो वज्रध्वजं पुनः ॥ ४४ ॥
जो कुछ
भौमासुर के मुँह से उसने सुना वही दूत ने पहले ही निवेदित कर दिया था । उसी प्रकार
उसे जान कर, बाणासुर ने पुनः व्रजध्वज धारण करने वाले भौमासुर से कहा –
॥ ४४ ॥
।। बाण उवाच
।।
नहिमन्युस्त्वया
कार्यः सुखे दुःखे शरीरिणाम् ।
चक्रवत्
परिवर्तेते नैताभ्यां
कोऽपि हीयते ।। ४५ ।।
बाण बोला-
शरीरधारियों के सुख-दुःख को देखकर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। ये चक्र की
भाँति परिवर्तित होते रहते हैं। इनसे कोई भी मुक्त नहीं होता ॥
४५ ।।
परं तत्र
प्रतीकारः कार्यो धीरैर्विभूतये ।
भवानपि प्रतीकारं
कर्तुमर्हति सम्प्रति ।। ४६ ।।
परन्तु धीर
पुरुषों द्वारा विभूति प्राप्ति हेतु इनका प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। इस समय आप
भी दुःखों का प्रतिकार करो ॥ ४६ ॥
य एष मानुषः
पृथ्व्यामसाधारणभूतिभिः ।
वर्धते दानवो
वापि दैत्यो वाप्यथवासुरः ।
राक्षसः
किन्नरो वापि शक्रस्तान् सहते नहि ।। ४७ ।।
इस पृथ्वी पर
जो भी मनुष्य, दानव,
दैत्य, असुर, राक्षस अथवा किन्नर आदि अपनी असाधारण विभूति से युक्त होता
है,
उसे इन्द्र सहन नहीं कर सकता ॥ ४७ ॥
स कौटिल्यं
देवगणैः सार्धं कुर्वन्नितस्ततः ।
यथा तथा
प्रकारेण भ्रंशयत्येव तं श्रियः ।।४८ ।।
वह देवगणों के
साथ इधर-उधर कुटिलता करते हुए जिस किसी भी प्रकार से उसकी सम्पत्ति को नष्ट कर
देता है ॥ ४८ ॥
तस्य चेष्टतमो
देवो विष्णुर्नित्यं सनातनः ।
स न शक्रस्य
कुरुते मनोऽनिष्टं मनागपि ।। ४९ ।।
उस इन्द्र के
सबसे अधिक इष्ट (सहायक), नित्य एवं सनातनदेव भगवान् विष्णु हैं,
वह इन्द्र का मन से भी, थोड़ा भी अनिष्ट नहीं करते ।। ४९ ।।
यः समाराधयेद्
विष्णुं शक्रस्यानिष्टकारकः ।
तस्मै वरं तु
सच्छिद्रं दत्त्वा तं शातयत्वितः ।। ५० ।।
इन्द्र का
अनिष्ट करने वाला जो व्यक्ति विष्णु की आराधना करता है,
उसे वे छलपूर्वक वर दे, उसका इस लोक से नाश ही कर देते हैं ।। ५० ।।
चिरमाराधितो
विष्णुरिष्टान् कामान् प्रयच्छति ।
महता कायदुःखेन
पूजितः सम्प्रसीदति ।। ५१ ।।
विष्णु बहुत
दिनों तक आराधना करने के बाद ही इष्ट कामनाओं को देते हैं। महान् शारीरिक दुःख से
पूजे जाने पर ही वे प्रसन्न होते हैं ॥ ५१ ॥
विनेष्टदेवतापूजां
विभूतिमतुलां पुमान् ।
कः प्राप्नोति
श्रुतः पूर्वं न वा पूर्वतरैः क्वचित् ।। ५२ ।।
बिना
इष्टदेवता के पूजन के किसी पुरुष ने अतुल वैभव प्राप्त किया हो,
ऐसा पहले न कभी सुना गया, न भविष्य में सुना जायेगा ।। ५२ ।।
त्वया
नाराधितः पूर्वं ब्रह्मा वा विष्णुरीश्वरः ।
तेन तेऽद्य महाविघ्ना
उत्पन्ना विषये तव ।।५३ ।।
इस रूप में
तुम्हारे द्वारा पहले कभी ब्रह्मा, विष्णु या ईश्वर (शिव) की पूजा नहीं की गयी। इसी कारण आज
तुम्हें और तुम्हारे राज्य में महान् विघ्न उत्पन्न हो रहे हैं ।। ५३ ।।
यो वा विष्णुः
पालकस्ते न निसर्गानुकम्पकः ।
किन्तु ते स
क्षितेर्वाक्यात्तया चाराधितो मुहुः ।। ५४ ।।
विष्णु जो
तुम्हारे पालनकर्त्ता हैं, वे तुम्हारे ऊपर स्वाभाविक रूप से कृपा करने वाले नहीं हैं
। किन्तु तुम्हारे द्वारा पृथ्वी के वचनानुसार बारम्बार उनकी उपासना की गयी ।। ५४
।।
दत्तं छिद्रं
च ते विष्णुर्नापराध्यास्त्वया द्विजाः ।
इतोऽन्यथा
त्वं भविता हतश्रीरिति नः श्रुतम् ।। ५५ ।।
हमारे द्वारा
सुना गया है कि विष्णु ने एक छिद्र, गुप्तभेद तुम्हें बताया कि तुम्हें ब्राह्मणों का अपराध
नहीं करना चाहिये । अन्यथा यहाँ तुम श्रीहीन हो जाओगे ।। ५५ ।।
अपराध्यस्त्वया
भूप वसिष्ठः परमो मुनिः ।
तेन
स्मरणमात्रेण नायातौ क्षितिमाधवौ ।। ५६ ।।
हे राजन् !
तुम्हारे द्वारा मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ का अपमान हो गया। इसी कारण तुम्हारे द्वारा
स्मरण करने मात्र से वे, पृथ्वी तथा विष्णु नहीं आये ।। ५६ ।।
तस्मात्त्वं
मित्र बुध्यस्व कौटिल्यं हरिमेधसः ।
नाधुना युज्यते
भौम तवोदासीनताकृतिः ।।५७।।
अतः हे मित्र
! तुम विष्णु के बुद्धि की कुटिलता को जानो । हे भौम ! इस समय तुम्हारी उदासीनता
युक्त आकृति उचित नहीं लगती ।। ५७ ।।
यत्ते मनसि
तातोऽयमिति सम्प्रत्ययः स ते ।
वराह एव ते
तातः स च लोकान्तरं गतः ।। ५८ ।।
तुम्हारे मन
में यह जो विश्वास है कि यह विष्णु मेरे पिता हैं तो वाराह ही तुम्हारे पिता थे और
अब वह परलोकगामी हो गये हैं ।। ५८ ।।
वराहोऽपि
हरेरंश इति यच्छ्रयते त्वया ।
तस्यांश
इत्यनुक्रोशः केन वा क्रियते वद ।। ५९ ।।
वाराह भी
विष्णु के ही अंश हैं, यह जो तुम्हारे द्वारा सुना जाता है,
(यह उसका अंश है ऐसा कथन
किसके द्वारा किया जा रहा है ? बताओ।
तस्मात्त्वं
कुरु शम्भोर्वा ब्रह्मणो वाधुनार्च्चनम् ।
स ते प्रसन्नः
परममिष्टकामं प्रदास्यति ।। ६० ।।
इसलिए अब तुम
शिव या ब्रह्मा की आराधना करो वह प्रसन्न होकर तुम्हारी सर्वोत्तम कामना को पूर्ण
करेंगे ॥ ६० ॥
विघ्नो वा
मुनिशापो वा महेतिर्वातिपीडकः ।
विधौ प्रसन्ने
शम्भौ वा नचिरात्क्षयमेष्यति ।। ६१ । ।
विघ्न हो अथवा
मुनि का शाप हो या अत्यन्त पीड़ा देने वाली महती दैवी विपत्ति हो,
ब्रह्मा या शिव के प्रसन्न होते ही,
शीघ्र नाश को प्राप्त होवेगी ।। ६१ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
जातसम्प्रत्ययो
भौमो बाणस्य वचनात् तदा ।
सुप्रीतः समुवाचेदं
धीरघर्घरनिःस्वनः ।।६२।।
मार्कण्डेय
बोले- तब बाण के वचन पर विश्वास हो जाने पर भौमासुर ने अत्यन्त प्रसन्न हो
धीरतापूर्वक घर्घरनाद में यह कहा – ॥ ६२ ॥
।। भौम उवाच
।।
यत् त्वया
गदितं बाण हितं मे मित्रवत्सल ।
तत् कार्यमचिरादेव
तपश्चरणमुत्तमम् ।।६३॥
भौम बोला- हे
मुझ मित्र से प्रेम करने वाले बाण ! तुम्हारे द्वारा जो मेरे लिए हितकर कहा गया है,
वह तपस्या जैसा उत्तम कार्य, मेरे द्वारा शीघ्र ही किया जायेगा ।। ६३ ॥
विष्णुर्नाराधनीयो
मे तत्र हेतुस्त्वयोदितः ।
नैवाराध्यस्तथा
शम्भुरन्तर्गुप्तः स मे पुरे ।। ६४ । ।
मेरे द्वारा
विष्णु आराधना के योग्य नहीं हैं। इसका कारण आपके द्वारा बता ही दिया गया है ।
मेरे नगर में गुप्तरूप से रहने के कारण शिव भी आराधना के योग्य नहीं हैं ॥ ६४॥
तस्माद्
ब्रह्मा समाराध्यो वचनात् तव मित्रक ।
तत्पुत्रस्य
महाबाहो लौहित्यस्याम्बुसन्निधौ ।।६५॥
हे मित्रक !
हे महाबाहु ! इसलिए तुम्हारे वचनों के आधार पर ब्रह्मा अपने पुत्र लौहित्य
(ब्रह्मपुत्र) नामक नद के जल के निकट आराधना करने योग्य हैं ॥ ६५ ॥
शिष्योऽथ भवताध्यापितश्चाहं
गुरुणा यथा ।
मित्रं मित्रं
यथा धीर साम्ना परमवल्गुना ।। ६६ ।।
मैं आपके
द्वारा धीर, आश्वस्त करने वाली, श्रेष्ठवाणी से उसी प्रकार सिखाया गया हूँ,
जिस प्रकार शिष्य को गुरु द्वारा तथा मित्र को मित्र द्वारा
सिखाया जाता है ।। ६६ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा स
महाबाहुर्बाणं वज्रध्वजस्तदा ।
यथावत्
पूजयामास तन्मित्रं मित्रवत्सलः ।। ६७ ।।
तब उस
वज्रध्वज नरक ने महाबाहु बाण से इस प्रकार कहकर मित्र - प्रेम से युक्त उस बाण की
यथोचित पूजा किया ।। ६७ ।।
अर्चयित्वा
यथायोग्यं प्रस्थाप्य च बलेः सुतम् ।
ब्रह्माराधनमत्युग्रं
कर्तुमिच्छन् क्षितेः सुतः ।। ६८ ।।
पृथ्वीपुत्र
भौम ने यथोचित रूप से बलिपुत्र बाण की पूजाकर तथा उन्हें आवास आदि में प्रस्थापित
कर,
अत्यन्त उग्र (कठोर) रूप से ब्रह्मा की आराधना करने की
इच्छा किया ।। ६८ ।
स तीरे नदराजस्य
लौहित्यस्य महात्मनः ।
ब्रह्माचलं समारुह्य
तपस्तप्तुमुपस्थितः ।। ६९ ।।
तब वह महात्मा
नदों के राजा लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) के किनारे पर स्थित ब्रह्माचल पर चढ़कर तपस्या
करने को उपस्थित हुआ ।। ६९ ।।
स मानुषेण
मानेन क्षितिपुत्रः शतं समाः ।
जलाहारव्रतेनैव
समानर्च पितामहम् ।।७० ।।
उस
पृथ्वीपुत्र, भौम ने मनुष्य के मान से सौ वर्षों तक जलाहार व्रत से (जलमात्र ग्रहण कर)
पितामह ब्रह्मा की आराधना की ।। ७० ।।
सन्तुष्टः
शतवर्षान्ते ब्रह्मा लोकपितामहः ।
प्रत्यक्षीभूय
नरकस्याग्रतः समुपस्थितः ।। ७१ ।।
सौवें वर्ष के
अन्त में लोक के पितामह ब्रह्मा, प्रसन्न हुए तथा नरक के सम्मुख प्रत्यक्ष होकर उपस्थित
हुए।।७१।।
प्रीतोऽस्मि
ते वरं दास्ये वरं वरय सुव्रत ।
इति चोवाच नरकं
स तदा कमलासनः ।।७२।।
हे सुन्दर
व्रत वाले ! मैं प्रसन्न हूँ। तुम वर माँगो । मैं तुम्हें वर दूँगा । ऐसे वचन तब
कमलासन,
ब्रह्मा ने नरक से कहे ।। ७२ ।।
स दृष्ट्वा सर्वलोकेशं
प्रत्यक्षं कमलासनम् ।
प्रणम्य प्राञ्जलिः
प्रोचे विनयानतकन्धरः ।।७३।।
सभी लोकों के
स्वामी कमलासन ब्रह्मा को प्रत्यक्ष देखकर वह नरक नम्रता से कन्धों को झुकाकर,
हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुआ बोला- ।। ७३ ।।
।। भौमो वाच
।।
देवासुरेभ्यो रक्षोभ्यः
सर्वेभ्यो देवयोनितः ।
अवध्यत्वं सुरश्रेष्ठ
वरमेकं प्रयच्छ मे ।। ७४ ।।
भौम बोला- हे
देवताओं में श्रेष्ठ ! एक वर आप मुझे यह दें कि देवता,
राक्षस, असुरों, सभी गन्धर्वादि देवयोनियों में उत्पन्न जनों द्वारा मैं न
मरने योग्य हो जाऊँ ।। ७४ ।।
अविच्छिन्ना
सन्ततिर्मे यावच्चन्द्रो रविस्तपेत् ।
तावद्भवतु लोकेश
द्वितीयोऽयं वरो मम ।। ७५ ।।
हे लोकों के
स्वामी ! दूसरा वर आप मुझे यह दीजिये कि जब तक सूर्य और चन्द्रमा तपते रहें तब तक
मेरी सन्तान परम्परा अक्षुण्ण रहे ।। ७५ ।।
तिलोत्तमाद्या
या देव्यः सद्रूपगुणसंयुताः ।
तास्ता मे
दयिताः सन्तु सहस्राणि तु षोडश ।। ७६ ।।
तिलोत्तमा आदि
जो उत्तम रूप और गुणों से युक्त, सोलह हजार देवियाँ हैं, वे सब मेरी पत्नियाँ होवें ॥ ७६ ॥
अजेयत्वं सदा
श्रीर्मां न जहातु कदाचन ।
इति पञ्च वरा मेऽद्य
वृतास्वत्तः पितामह ।।७७।।
मैं सदैव अजेय
रहूँ और कभी भी लक्ष्मी मेरा साथ न छोड़े। हे पितामह ! आज मैंने ये पाँच वर आपसे
माँगे हैं ।। ७७ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
मायया मोहितो
भौमो मुनिशापं विस्मृत्य च ।
अन्यद्वरान्तरं
वव्रे मुनिशापस्तथा स्थितः ।।७८।।
मार्कण्डेय
बोले- माया से मोहित होने के कारण भौम ने मुनिशाप को भूल कर, दूसरे- दूसरे वर माँगे । किन्तु मुनिवसिष्ठ का शाप ज्यों
का त्यों बना रहा ॥ ७८ ॥
एवमस्त्विति
तान् सर्वान् वरान् दत्त्वा पितामहः ।
उवाचेदं द्वापरान्ते
सन्ध्यायां सुरकन्यकाः ।
तिलोत्तमाद्यास्ते
जाया: सम्भविष्यन्ति भूतले ।। ७९ ।।
तब ऐसा ही हो
इस वचन के साथ उन सभी वरों को देकर पितामह ब्रह्मा ने ये वचन कहे - द्वापरयुग के
अन्त में युगसन्ध्या के काल में तिलोत्तमा आदि उपर्युक्त देवकन्याएँ इस पृथिवीलोक
में तुम्हारी पत्नियाँ होवेंगी ।। ७९ ।।
न यावन्नारदो याति
वज्रध्वज पुरं तव ।
तावन्न मैथुने
योज्या भवता ताः क्षितेः सुत ।।८०।।
हे पृथिवी के
पुत्र ! वज्रध्वजाधारण करने वाले नरक ! जब तक नारद तुम्हारे नगर में न आ जायँ,
तब तक तुम उन्हें मैथुन कर्म में मत लगाना ॥ ८०
इत्युक्त्वा
सर्वलोकेशः क्षणादन्तर्हितोऽभवत् ।
मुदमासाद्य परमां
स्वस्थानं नरकोऽभ्यगात् ।।८१ ।।
ऐसा कहकर सभी
लोकों के स्वामी ब्रह्मा, क्षणभर में ही अन्तर्हित हो गये एवं नरक भी अत्यधिक
प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ अपने स्थान पर वापस लौट गया ।। ८१ ॥
ततो मुदितलोकं
तं नगरं श्रीनिषेवितम् ।
सदा सोत्साहसम्पूर्णभीतिविघ्नविवर्जितम्
।। ८२ ।।
तब वहाँ के
लोग प्रसन्नचित्त हो गये तथा वह नगर श्री सम्पन्न हो गया। सदा वह उत्साह से पूर्ण,
दैवी आपदाओं एवं विघ्नों से रहित हो गया ॥ ८२ ॥
अभवत् पशुसंधैश्च
वाजिवारणकुम्भकैः ।
सम्पूर्णं देवराजस्य
दयितेवामरावती ।।८३ ।।
वह नगर घोड़े,
मतवाले हाथियों आदि पशु-समूहों से परिपूर्ण हो देवराज
इन्द्र की प्रिय नगरी, अमरावती की भाँति शोभायमान होने लगा ।। ८३ ।।
उत्तीर्णतपसं श्रुत्वा
बाणो दत्तवरं तथा ।
स्वयं
पुनरुपातिष्ठद् भौमं वज्रध्वजं तदा ।। ८४ ।।
जब बाण ने
सुना कि भौम तपस्या में सफल हो तथा वरदान प्राप्त कर चुका है तब वह वज्रध्वजा वाले
भौमासुर के पास स्वयं पुनः उपस्थित हुआ ॥ ८४ ॥
स गत्वा
भौमनगरं बाणः प्राग्ज्योतिषाह्वयम् ।
पप्रच्छ नरकं मित्रं
तपसः सन्निवेशनम् ।। ८५ ।।
उस बाण ने
भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर नामक नगर में जाकर अपने मित्र नरक से उसकी
तपस्या के विषय में पूछा ।। ८५ ।।
।। बाण उवाच
।।
कुत्र त्वया
तपस्तप्तं किं वा चीर्णं त्वया व्रतम् ।
कीदृशो वा वरो
लब्धस्त्वं ममाख्यातुमर्हसि ।। ८६ ।।
बाण बोला-
तुमने कहाँ तपस्या की ? या कौन सा दीर्घव्रत किया ? या किस प्रकार का वर तुमने प्राप्त किया ?
यह सब मुझसे कहो ॥ ८६ ॥
दृष्टं तव
पुरं सर्वं प्रहृष्टजनसंकुलम् ।
वाजिवारणरत्नौघैः
पूरितं मङ्गलस्वनैः ।।८७।।
मैंने
तुम्हारे नगर को प्रसन्न लोगों तथा हाथी, घोड़े और विविध रत्नों एवं मंगलध्वनि से परिपूर्ण देखा है ॥
८७ ॥
दृश्यतेऽद्य
त्वया पाल्यं शस्यपूर्णमनामयम् ।
कथ्यतां वा
कथं ब्रह्मा वरं तुभ्यं प्रदत्तवान् ।। ८८ ।।
आज तुम्हारे
द्वारा पालन किया गया राज्य, हरा-भरा और रोगरहित दिखाई दे रहा है । बताओ,
ब्रह्मा ने तुम्हें कैसा वर प्रदान किया है ?
॥ ८८ ॥
।। भौम उवाच
।।
ब्रह्मा स्वयं
पर्वतरूपधारी कामेश्वरीं धर्तुमिहावतीर्णः ।
तत्र स्वयं सम्प्रति
घस्रमेति पुरा न यावच्छपते वसिष्ठः ।।८९।।
भौम बोला-
ब्रह्मा स्वयं पर्वत का रूप धारण कर कामाख्या देवी को धारण करने के लिए यहाँ
अवतीर्ण हुए हैं तथा प्राचीन काल में जब वसिष्ठ ने शाप नहीं दिया था तो वे स्वयं
प्रतिदिन यहाँ आते थे ।। ८९ ।।
सोऽयं पुरे मे
बलिपुत्र राजते देवौघसेव्योऽप्यमरोत्तमांशः।
तत्राहमेको
वरतोयभोजनो वर्षाण्यकार्षं च तपः शतानि वै ।।९० ।।
हे बलिपुत्र !
वे देवश्रेष्ठ, स्वयं देवसमूहों से सेवित हो मेरे नगर में निवास करते हैं। वहीं मैंने एकमात्र
लौहित्यनद के श्रेष्ठजल का भोजन करते हुये सौ वर्षों तक तपस्या की ।। ९० ॥
लौहित्यतीरे घनवायुसेविते
मनोहरे प्राणभृतां सुखप्रदे
तपः
प्रवृत्तस्य सुखं समागमच्छरद् यथैका शरदां शतानि मे ।। ९१ ।।
लौहित्य
(ब्रह्मपुत्र) नद के मेघ और वायु से युक्त प्राणियों के लिए सुखप्रद या मनोहरतट पर
तपस्या करते हुए मेरे सौ वर्ष, एक वर्ष की भाँति सुखपूर्वक व्यतीत हो गये ॥ ९१ ॥
ततः स तुष्टश्चतुराननोऽभवत्
प्रत्यक्षतो मां न्यगदच्च मद्धितम् ।
तव प्रसन्नोऽस्मि
वरं तथेप्सितं दास्ये गृहाणेति पुरोऽथ भूत्वा ।।९२।।
तब वे ब्रह्मा
प्रसन्न हुए और मेरे सम्मुख प्रत्यक्ष हो मुझसे बोले - "तुम्हारे पर प्रसन्न
हूँ,
मैं तुम्हें तुम्हारा इच्छित वर देता हूँ। उसे ग्रहण करो।
" ॥ ९२ ॥
अवध्यता मे सुरयोनित:
सुरा-दच्छिन्नसन्तानमजेयता तथा ।
सदा विभूतिर्न
जहातु मामिति वराश्च नार्यो नवयौवनान्विताः ।।९३।।
एते वराः पञ्च
मया ततो वृताः सोऽपि प्रतिश्रुत्य गतो निजास्पदम् ।।९४।।
मेरे द्वारा
देवताओं एवं देवयोनियों से अबध्यता, निरन्तर सन्तानपरम्परा, अजेयता, सदैव सम्पत्ति मेरा साथ न छोड़े,
तथा नवयौवनयुक्त स्त्रियों के सम्पर्क के रूप में ये पाँच
वर मेरे द्वारा उनसे माँगे गये। तब वर देकर वे भी अपने लोक को चले गये ।। ९३-९४ ॥
ततोऽहमभ्येत्य
पुरं निजं मुदा मन्त्रिप्रवीरैः सहितः पुनस्तान् ।
पौरान् सबन्धून्
सगणानमोदयम् दानेन मानेन च भोजनेन ।। ९५ ।।
तब से मैं भी
प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर में आकर वीर सैनिकों, मन्त्रियों, नागरिकों, बन्धुओं, गणों के साथ दान मान और भोजन द्वारा पुनः आनन्द का अनुभव कर
रहा हूँ ।। ९५ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इतीरितं तस्य बलेः
सुतस्तदा भौमस्य श्रुत्वा मुमुदे न तत्क्षणात् ।
इदं तदोचे वचनं
क्षितेः सुतं तत्कालयुक्तं न च सूनृतोद्भवम् ।। ९६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- उस समय भौमासुर के इस प्रकार कहे वचनों को सुनकर,
बलि का पुत्र बाण, तब प्रसन्न नहीं हुआ तथा पृथ्वीपुत्र भौम से उसने यह कहा जो
सत्य तो था किन्तु उस अवसर के अनुरूप नहीं था ।। ९६ ॥
।। बाण उवाच
।।
न ते मुने:
शापमतीत्य गन्तुं भूता मतिर्मित्र तदा विधेः पुरः ।
कथं तु भद्रं भविता
तवेह भावीत्यवश्यं क्षितिपुत्र नित्यम् ।।९७।।
बाण बोला- हे
पृथ्वीपुत्र ! हे मित्र ! विधाता के सम्मुख वसिष्ठ मुनि के शाप को लाँघ कर आगे
बढ़ने की तुम्हारी बुद्धि नहीं हुई । तब तुम्हारा इस लोक में कल्याण कैसे होगा ?
होनी अवश्य होती है, वह नित्य है ।। ९७ ।।
कृतस्य करणं
नास्ति दैवाधिष्ठितकर्मणः ।
भावीत्यवश्यं
यद्भाव्यं तत्र ब्रह्माप्यबाधकः ।।९८।।
दैव के द्वारा
किये गये कार्य का कोई साधन अपेक्षित नहीं होता, जो होनी है वह अवश्य होती है, उसे ब्रह्मा भी नहीं रोक सकते ।। ९८ ।।
तस्मात् त्वं
सुमहावीरानसुरान् पावकोपमान् ।
सन्ध्याय च
पुरस्कृत्य साचिव्ये विनियोजय ।। ९९ ।।
इसलिए तुम
अग्नि के समान महान् पराक्रमी असुरों को खोजकर और सम्मानित कर मन्त्रित्व के लिए
विनियोजित करो ।। ९९ ।।
द्वारि
संस्थाप्य वै वीरान् देवैरपि दुरासदान् ।
अतिक्रमस्व
देवेशं यदि लब्धवरो भवान् ।। १०० ।।
नगर के द्वार
पर देवताओं द्वारा भी अजेय वीरों को स्थापित कर देवराज इन्द्र पर आक्रमण करो;
क्योंकि तुमने देवताओं से अबध्यता का वर प्राप्त कर लिया है
।। १०० ।।
विधिना यो वरो
दत्तो भवते तत् परीक्षणम् ।
कतुमर्हसि जायायामपुत्रो
जनकात्मजम् ।। १०१ ।।
इस प्रकार से
ब्रह्मा द्वारा जो तुम्हें वर दिया गया है उसका परीक्षण भी हो जायेगा। तुम अपुत्र
हो,
पत्नी से अपने पुत्रों को उत्पन्न करो ।। १०१ ।।
इत्युक्त्वा
प्रययौ बाणो यथावत् तेन पूजितः ।
नरको मित्रवचनं
कर्तुं समुपचक्रमे ।। १०२ ।
ऐसा कहकर उस
भौम द्वारा यथोचित रूप से पूजित हो, बाण लौटकर अपने स्थान को चला गया तथा नरक भी मित्र के
कथनानुसार कर्म करने को हुआ ॥ १०२ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे भौमतपस्यायां एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९॥
॥
श्रीकालिकापुराण का भौमतपस्या सम्बन्धी उन्तालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३९ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 40
0 Comments