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भगवानुवाच
एवं
तार्क्ष्यस्य चक्रस्य ब्रह्मणो नृहरेस्तथा ।
प्रतिष्ठा
विष्णुवत्कार्या स्वस्वमन्त्रेण तां शृणु ॥ १॥
श्रीभगवान्
कहते हैं - इस प्रकार विनतानन्दन गरुड, सुदर्शनचक्र, ब्रह्मा और भगवान् नृसिंह की प्रतिष्ठा भी उनके अपने-अपने
मन्त्र से श्रीविष्णु की ही भाँति करनी चाहिये; इसका श्रवण करो ॥ १ ॥
सुदर्शन
महाचक्र शान्त दुष्टभयङ्कर ।
च्छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द विदारय विदारय परमन्त्रान् ग्रस ग्रस
भक्षय भक्षय भूतान् त्रायस
त्रायस हूं फट्सुदर्शनाय नमः ॥
अभ्यर्च्य
चक्रं चानेन रणे दारयेते रिपून् ॥२॥
'ॐ सुदर्शन महाचक्र शान्त दुष्टभयंकर, छिन्धिच्छिन्धि भिन्धि भिन्धि विदारय विदारय परमन्त्रान्
ग्रस ग्रस भक्षय भक्षय भूतांस्त्रासय त्रासय हुं फट् सुदर्शनाय नमः ।'
इस मन्त्र से
चक्र का पूजन करके वीर पुरुष युद्धक्षेत्र में शत्रुओं को विदीर्ण कर डालता है॥ २
॥
ओं क्षौं
नरसिंह उग्ररूप ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्वाहा ॥
नरसिंहस्य
मन्त्रोयं पातालाख्यस्य वच्मि ते ।
ॐ क्षौं
नरसिंह उग्ररूप ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्वाहा।'
यह नरसिंह भगवान् का
मन्त्र है। अब मैं तुमको पाताल - नृसिंह- मन्त्रका उपदेश करता हूँ - ॥ २/३ ॥
ओं क्षौं नमो
भगवते नरसिंहाय प्रदीप्तसूर्यकोटिसहस्रसमतेजसे वज्रनखदंष्ट्रायुधायं
स्फुटविकटविकीर्ण केसरसटाप्रक्षुभितमहार्णवाम्भोददुन्दुभिनिर्घोषाय
सर्वमन्त्रोत्तारणाय एह्येहि भगवन्नरसिंह पुरुषपरापरब्रह्मसत्येन स्फुर स्फुर
विजृम्भ विजृम्भ आक्रम गर्ज गर्ज मुञ्च मुञ्च सिंहनादान् विदारय विदारय विद्रावय
विद्रावय आविश आविश सर्वमन्त्ररूपाणि सर्वमन्त्रजातयश्च हन हन छिन्द सङ्क्षिप
सङ्क्षिप सर सर दारय दारय स्फुट स्फुट स्फोटय स्फोटय ज्वालामालासङ्घातमय
सर्वतोऽनन्तज्वालावज्राशनिचक्रेण सर्वपातालानुत्सादय उत्सादय
सर्वतोऽनतज्वालावज्रशरपञ्जरेण सर्वपातालान् परिवारय परिवारय सर्वपातालासुरवासिनां
हृदयान्याकर्षय आकर्षय शीघ्रं दह दह पच पच मथ मथ शोषय शोषय निकृन्तय निकृन्तय
तावद्यावन्मे वशमागताः पातालेभ्यः फटसुरेभ्यः फट्मन्त्ररूपेभ्यः फट्मन्त्रजातिभ्यः
फट्संशयान्मां भगवन्नरसिंहरूप विष्णो सर्वापद्भ्यः सर्वमन्त्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष
ह्रूं फट् नमोऽस्तु ते ॥
नरसिंहस्य
विद्येयं हरिरूपार्थसिद्धिदा ॥३॥
'ॐ क्षौं नमो भगवते नरसिंहाय प्रदीप्तसूर्य- कोटिसहस्त्रसम तेजसे वज्रनखदंरष्ट्रायुधाय
स्फुटविकट- विकीर्णकेसरसटाप्रक्षुभितमहार्णवाम्भोदुन्दुभिनिर्घोषाय
सर्वमन्त्रोत्तारणाय एह्येहि भगवन्नरसिंह पुरुष परापर ब्रह्म सत्येन स्फुर स्फुर
विजृम्भ विजृम्भ आक्रम आक्रम गर्ज गर्ज मुञ्च मुञ्च सिंहनादं विदारय विदारय
विद्रावय विद्रावयाऽऽविशाऽऽविश सर्वमन्त्ररूपाणि मन्त्रजातींश्च हन हन च्छिन्दच्छिन्द
संक्षिप संक्षिप दर दर दारय दारय स्फुट स्फुट स्फोटय स्फोटय ज्वालामाला संघातमय
सर्वतोऽनन्तज्वालावज्राशनि- चक्रेण सर्व पातालानुत्सादयोत्सादय सर्वतोऽनन्तज्वालावज्रशरपञ्जरेण
सर्व- पातालान्परिवारय परिवारय सर्वपातालासुरवासिनां हृदयान्याकर्षयाऽऽकर्षय
शीघ्रं दह दह पच पच मथ मथ शोषय शोषय निकृन्तय निकृन्तय तावद्यावन्मे वशमागताः
पातालेभ्यः (फट्सुरेभ्यः फण्मन्त्ररूपेभ्यः फण्मन्त्रजातिभ्यः फट् संशयान्मां
भगवन्नरसिंहरूप विष्णो सर्वापद्भ्यः) सर्वमन्त्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष हुं फण्नमो
नमस्ते ॥ ३ ॥
त्रिलोक्यमोहनैर्मन्त्रैः
स्थाप्यस्त्रैलोक्यमोहनः ।
गदो दक्षे
शान्तिकरो द्विभुजो वा चतुर्भुजः ॥४॥
वामोर्ध्वे
कारयेच्चक्रं पाञ्चजन्यमथो ह्यधः ।
श्रीपुष्टिसंयुक्तं
कुर्याद्बलेन सह भद्रया ॥५॥
प्रासादे
स्थापयेद्विष्णुं गृहे वा मण्डपेऽपि वा ।
वामनं चैव
वैकुण्ठं हयास्यमनिरुद्धकं ॥६॥
स्थापयेज्जलशय्यास्थं
मत्स्यादींश्चावतारकान् ।
सङ्कर्षणं
विश्वरूपं लिङ्गं वै रुद्रमूर्तिकं ॥७॥
अर्धनारीश्वरं
तद्वद्धरिशङ्करमातृकाः ।
भैरवं च तथा
सूर्यं ग्रहांस्तद्विनायकम् ॥८॥
गौरीमिन्द्रादिकां
लेप्यां चित्रजां च बलाबलां ।
यह
श्रीहरिस्वरूपिणी नृसिंह-विद्या है, जो अर्थसिद्धि प्रदान करनेवाली है। त्रैलोक्यमोहन श्रीविष्णु
की त्रैलोक्यमोहन मन्त्रसमूह से प्रतिष्ठा करे। उनके द्विभुज विग्रह के वाम हस्त में
गदा और दक्षिण हस्त में अभयमुद्रा होनी चाहिये । यदि चतुर्भुज रूप की प्रतिष्ठा की
जाय,
तो दक्षिणोर्ध्व हस्त में चक्र और वामोर्ध्व में पाञ्चजन्य शङ्ख
होना चाहिये। उनके साथ श्री एवं पुष्टि, अथवा बलराम, सुभद्रा की भी स्थापना करनी चाहिये। श्रीविष्णु वामन,
वैकुण्ठ, हयग्रीव और अनिरुद्ध की प्रासाद में,
घर में अथवा मण्डप में स्थापना करनी चाहिये। मत्स्यादि
अवतारों को जल शय्या पर स्थापित करके शयन करावे। संकर्षण,
विश्वरूप, रुद्रमूर्तिलिङ्ग, अर्धनारीश्वर, हरिहर, मातृकागण, भैरव, सूर्य, ग्रह, विनायक तथा इन्द्र आदि के द्वारा सेवनीया गौरी,
चित्रजा एवं 'बलाबला' विद्या की भी उसी प्रकार स्थापना करनी चाहिये ॥ ४ – ८/३ ॥
पुस्तकानां
प्रतिष्ठां च वक्ष्ये लिखनतद्विधिं ॥९॥
स्वस्तिके
मण्डलेऽभ्यर्च्य शरपत्रासने स्थितं ।
लेख्यञ्च
लिखितं पुस्तं गुरुर्विद्यां हरिं यजेत् ॥१०॥
यजमानो गुरुं
विद्यां हरिं लिपिकृतं नरं ।
प्राङ्मुखः
पद्मिनीं ध्यायेत्लिखित्वा श्लोकपञ्चकं ॥११॥
रौप्यस्थमस्या
हैम्या च लेखन्या नागराक्षरं ।
ब्राह्मणान्
भोजयेच्छक्या शक्त्या दद्याच्च दक्षिणां ॥१२॥
गुरुं विद्यां
हरिं प्रार्च्य पुराणादि लिखेन्नरः ।
पूर्ववन्मण्डलाद्ये
च ऐशान्यां भद्रपीठके ॥१३॥
दर्पणे
पुस्तकं दृष्ट्वा सेचयेत्पूर्ववद्घटैः ।
नेत्रोन्मीलनकं
कृत्वा शय्यायां तु न्यसेन्नरः ॥१४॥
न्यसेत्तु
पौरुषं सूक्तं देवाद्यं तत्र पुस्तके ।
अब मैं ग्रन्थ
की प्रतिष्ठा और उसकी लेखन-विधि का वर्णन करता हूँ। आचार्य स्वस्तिक- मण्डल में
शरयन्त्र के आसन पर स्थित लेख्य, लिखित पुस्तक, विद्या एवं श्रीहरि का यजन करे। फिर यजमान,
गुरु, विद्या एवं भगवान् विष्णु और लिपिक (लेखक) पुरुष की अर्चना
करे। तदनन्तर पूर्वाभिमुख होकर पद्मिनी का ध्यान करे और चाँदी की दावात में रखी
हुई स्याही तथा सोने की कलम से देवनागरी अक्षरों में पाँच श्लोक लिखे। फिर ब्राह्मणोंको
यथाशक्ति भोजन करावे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दे आचार्य,
विद्या और श्रीविष्णु का पूजन करके लेखक पुराण आदि का लेखन
प्रारम्भ करे। पूर्ववत् मण्डल आदि के द्वारा ईशानकोण में भद्रपीठ पर दर्पण के
ऊपर पुस्तक रखकर पहले की ही भाँति कलशों से सेचन करे। फिर
यजमान नेत्रोन्मीलन करके शय्या पर उस पुस्तक का स्थापन करे। तत्पश्चात् पुस्तक पर पुरुषसूक्त
तथा वेद आदि का न्यास करे ॥ ९ – १४/३ ॥
कृत्वा
सजीवीकरणं प्रार्च्य हुत्वा चरुं ततः ॥१५॥
सम्प्राश्य
दक्षिणाभिस्तु गुर्वादीन् भोजयेद्द्विजान् ।
रथेन हस्तिना
वापि भ्राम्येत्पुस्तकं नरैः ॥१६॥
गृहे
देवालयादौ तु पुस्तकं स्थाप्य पूजयेत् ।
वस्त्रादिवेष्टितं
पाठादादावन्ते समर्चयेत् ॥१७॥
जगच्छान्तिञ्चावधार्य
पुस्तकं वाचयेन्नरः ।
अध्यायमेकं
कुम्भाद्भिर्यजमानादि सेचयेत् ॥१८॥
द्विजाय
पुस्तकं दत्वा फलस्यान्तो न विद्यते ।
त्रीण्याहुरतिदानानि
गावः पृथ्वीं सरस्वती ॥१९॥
विद्यादानफलं
दत्वा मस्यन्तं पत्रसञ्चयं ।
यावत्तु
पत्रसङ्ख्यानमक्षराणां तथानघ ॥२०॥
तावद्वर्षसहस्राणि
विष्णुलोके महीयते ।
पञ्चरात्रं
पुराणानि भारतानि ददन्नरः ।
कुलैकविंशमुद्धृत्य
परे तत्त्वे तु लीयते ॥२१॥
तदनन्तर
प्राण-प्रतिष्ठा, पूजन एवं चरुहोम करके, पूजन के पश्चात् दक्षिणा से आचार्य आदि का सत्कार करके
ब्राह्मण भोजन करावे। उस ग्रन्थ को रथ या हाथी पर रखकर जनसमाज के साथ नगर में
घुमावे। अन्त में गृह या देवालय में उसे स्थापित करके उसकी
पूजा करे। ग्रन्थ को वस्त्र से आवेष्टित करके पाठ के आदि-अन्त में उसका पूजन करे।
पुस्तकवाचक विश्वशान्ति का संकल्प करके एक अध्याय का पाठ करे। फिर गुरु कुम्भजल से
यजमान आदि का अभिषेक करे। ब्राह्मण को पुस्तक- दान करने से अनन्त फल की प्राप्ति
होती है। गोदान, भूमि दान और विद्यादान ये तीन अतिदान कहे गये हैं। ये क्रमशः दोहन,
वपन और पाठ मात्र करने पर नरक से उद्धार कर देते हैं।
मसीलिखित पत्र संचय का दान विद्यादान का फल देता है और उन पत्रों की एवं अक्षरों की
जितनी संख्या होती है, दाता पुरुष उतने ही हजार वर्षोंतक विष्णुलोक में पूजित होता
है। पञ्चरात्र, पुराण और महाभारत का दान करनेवाला मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करके
परमतत्त्व में विलीन हो जाता है ॥ १५-२१ ॥
इत्यादिमहापुत्राणे
आग्नेये देवादिप्रतिष्ठापुस्तकप्रतिष्ठाकथनं नाम त्रिषष्टितमोध्यायः॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'विष्णु आदि देवताओं की प्रतिष्ठा की सामान्य विधि का वर्णन'
नामक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 64
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