कालिका पुराण अध्याय ३७
कालिका पुराण
अध्याय ३७ में नरकासुर के जन्म का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ३७
Kalika puran chapter 37
कालिकापुराणम् सप्तत्रिंशोऽध्यायः नरकासुरजन्मकथनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ३७
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
अथ काले वहुतिथे
व्यतीते द्विजसत्तमाः ।
विदेहविषये राजा
जनको नाम वीर्यवान् ॥ १ ॥
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजसत्तमों ! बहुत समय बीत जाने पर विदेह के राज्य में जनक नाम के एक
पराक्रमी राजा हुए।।१।।
सर्वराजगुणैर्युक्तो
राजनीतिविवर्धितः ।
सत्यवाक्
शीलवान् दक्षो ब्रह्मण्यः प्रयत: शुचिः ॥
२ ॥
वे सभी
राजोचित गुणों से युक्त थे, राजनीति में बढ़े- चढ़े, सत्यवादी, शीलवान, चतुर, ब्राह्मणभक्त, समर्पित, पवित्र आचार वाले थे ।। २ ।।
देवद्विजगुरूणां
च पूजासु निरतः सदा ।
बभूव सर्वलोकानां
पितेव परिपालकः ॥३ ॥
वे सदैव,
देवता, ब्राह्मण तथा गुरुओं की पूजा में लगे रहते थे एवं सभी लोकों
का पिता की भाँति पालन करने वाले थे ॥ ३ ॥
तस्य राज्ञः
सुतो नाभूत् प्राप्ते कालेऽपि वै सदा ।
तदा स विमना भूत्वा
चिन्ताध्यानपरोऽभवत् ॥४॥
सदा समय आने
पर भी उन राजा को पुत्र नहीं हुआ, तब वह उदास हो चिन्ता और ध्यान में परायण हो गये॥४॥
एकदा सोऽथ शुश्राव
नारदस्य मुखान्नृपः ।
अपुत्रो
नृपतिर्वृद्धो नाम्ना दशरथो महान् ।।५।।
एक बार उस
राजा ने नारद के मुँह से सुना कि दशरथ नाम के एक महान राजा थे,
जो वृद्धावस्था में भी बिना पुत्र के थे ।। ५ ।
पुत्रान् लेभे
महासत्वानध्वरेण महामतिः ।
अयोध्यायां
नगर्यां तु ऋष्यशृङ्गपुरोगमैः ॥६॥
उस महा
बुद्धिमान राजा ने शृङ्गीऋषि के नेतृत्व में ऋषियों द्वारा अयोध्या नगरी में
सम्पादितयज्ञ से महान् सत्त्व बल वाले पुत्रों को प्राप्त किया ।। ६ ।।
मुनिभिर्विहितैर्यज्ञैर्लब्धवान्
स नृपः सुतान् ।
रामं च भरतं
चैव शत्रुघ्नं लक्ष्मणं तथा ।
महासत्वान् महावीरान्
देवगर्भोपमाञ्छुभान् ।।७।।
उस राजा ने
मुनिजनों द्वारा किये गये यज्ञ से, राम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न नाम के महान् सत्त्ववान्,
महान् वीर, देवपुत्रों के समान तथा शुभ लक्षणयुक्त पुत्रों को प्राप्त
किया ।। ७ ॥
तच्छ्रुत्वा
जनको राजा प्रविश्यान्तः पुरं स्वकम् ।
भार्याभिर्मन्त्रयामास
यज्ञार्थं पुत्रजन्मने ॥८॥
उस समाचार को
सुनकर राजा जनक ने अपने अन्तःपुर में प्रवेश कर पुत्रजन्म हेतु यज्ञ के लिए अपनी
पत्नियों के साथ विचार-विमर्श किया ॥ ८ ॥
मन्त्रयित्वा
तदा राजा महिषीप्रमुखैः स्वयम् ।
चतसृभिस्तु भार्याभिर्यज्ञार्थं
दीक्षितोऽभवत् ।। ९ ।।
तब राजा अपनी
मुख्य रानियों से विचार-विमर्श करके चार पत्नियों के सहित यज्ञ के निमित्त दीक्षित
हुआ।।९।।
ततः पुरोधसं
राजा गौतमं मुनिसत्तमम् ।
तत्पुत्रं च
शतानन्दं पुरोधायोकरोन्मखम् ।।१०।।
तब राजा जनक
ने अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ गौतम तथा उनके पुत्र शतानन्द को पुरोहित बनाकर पुत्र
हेतु यज्ञ किया ।। १० ।।
द्वौ पुत्रौ
तस्य संजातौ यज्ञभूमौ मनोहरौ ।
एका च दुहिता
साध्वी भूम्यन्तरगता शुभा ।। ११ ।।
उनके यज्ञभूमि
में दो सुन्दर पुत्र तथा भूमि के अन्दर से शुभ लक्षणों वाली एक साध्वी कन्या
उत्पन्न हुई ॥ ११ ॥
नारदस्योपदेशेन
यज्ञभूमिं ततो नृपः ।
हलेन दारयामास
यज्ञबाटावधिस्वयम् ।। १२ ।।
तब स्वयं राजा
ने नारद के उपदेश के अनुसार यज्ञ भूमि को हल से, यज्ञभूमि की सीमा तक विदीर्ण कर दिया ॥ १२ ॥
तद्भूमिजातसीतायां
शुभां कन्यां समुत्थिताम् ।
लेभे मुदा
युक्तः सर्वलक्षणसंयुताम् ।।१३।।
राजा उस भूमि
में बनी हुई हल की रेखा से उठी हुई सुन्दरी कन्या, सभी लक्षणों से युक्त कन्या बनी,
जिसे राजा ने प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त किया ।। १३ ।।
तस्यां तु
जातमात्रायां पृथिव्यन्तर्हिता स्वयम् ।
जगाद वचनं
चेदं गौतमं नारदं नृपम् ।।१४।।
उसके उत्पन्न
होते ही पृथ्वी ने अन्तर्हित रहते हुए ही नारद, गौतम एवं राजा जनक से यह वचन कहा ।। १४ ।।
।।
पृथिव्युवाच ।।
एषा सुता मया
दत्ता तव राजन् मनोहरा ।
एनां गृहाण
सुभगां कुलद्वयशुभावहाम् ।। १५ ।।
पृथ्वी बोली-
हे राजन् ! यह मनोहारिणी पुत्री मेरे द्वारा तुम्हें दी जा रही है। सौभाग्यशालिनी
पितृ एवं पति दोनों कुलों का शुभ करने वाली इस कन्या को तुम ग्रहण करो ।। १५ ।।
अनया मे महाभारस्तत्त्वतो
हेतुभूतया ।
क्षयं यास्यति
भारार्ति मोचयिष्यामि दारुणाम् ।। १६ ।।
तुम्हारे लिए
उत्पन्न इस कन्या का मेरे पर एक महान भार है, वह नष्ट हो जायेगा । तथा मैं भयङ्कर दुःख से मुक्त हो
जाऊँगी ।। १६ ।।
रावणाद्या
महावीराः कुम्भकर्णादयोऽपरे ।
नाशं
यास्यन्ति दुर्धर्षाः कृतेऽस्या राक्षसाः परे ।। १७ ।।
रावण,
कुम्भकर्ण आदि महान् वीर तथा अन्य दुर्धर्ष राक्षसगण इसके
लिए विनाश को प्राप्त करेंगे ॥ १७ ॥
त्वञ्च मोदं
दुराधर्षं दुहितृकृतिजं नृपः ।
अवाप्स्यसि
सुराणां च पितॄणामृणशोधनम् ।। १८ ।।
हे राजन् !
तुम पुत्री के कार्यों से उत्पन्न आनन्द तथा देवताओं एवं पितरों के ऋणशोधन का अवसर
प्राप्त करोगे ।। १८ ।
किन्त्वेक: समय:
कार्यस्त्वया मम नरोत्तम ।
तमहं ते प्रवक्ष्यामि
पुरो नारदगौतमौ ।।१९।।
हे नरों में
श्रेष्ठ ! किन्तु तुम्हें, नारद और गौतम मुनियों के सम्मुख,
मुझसे एक वादा करना होगा जो मैं तुमसे कहूँगी ।। १९ ।
निहते रावणे
वीरे भारार्ति रहिता सुखम् ।
सुपुत्रं जनयिष्यामि
यज्ञभूमावहं तव ।।२०।।
वीरवर रावण के
मारे जाने पर, भार और दुःख से मुक्त हो मैं सुखपूर्वक तुम्हारी यज्ञभूमि में एक सुन्दर पुत्र
को जन्म दूँगी ।। २० ।।
तं पालयिता
भवान् नृपतिसत्तम ।
यावद्व्यतीतबाल्यः
सन् भविता तनयो मम ।। २१ ।।
हे नृपसत्तम !
जब तक मेरे उस पुत्र का बचपन न बीत जाय तब तक तुम पुत्रवत् उसको अपने पुत्र की
भाँति पालन करने वाले होवोगे ॥ २१ ॥
व्यतीतबाल्यं तमहं
पालयिष्ये स्वयं नृप ।
तस्य
स्यान्मानुषो भावो यथा त्वं तत्करिष्यसि ।। २२ ।।
हे राजन् !
उसके बचपन के बीत जाने के बाद मैं स्वयं उसका पालन करूँगी । उसमें मनुष्योचित
भावनाओं का विकास हो ऐसा तुम (उसके बचपन में) करोगे ।। २२ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति पृथिव्या
वचनं श्रुत्वा राजा तदा मुदा ।
प्रणम्य
पृथिवीं प्राह साम्रा स जनकाह्वयः ।। २३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब पृथ्वी के इस वचन को सुनकर उस जनक नाम के राजा प्रसन्नता पूर्वक पृथ्वी
को प्रणाम किया तथा उसकी स्तुति करते हुए बोले- ॥ २३ ॥
।। राजोवाच ।।
यत् त्वं
ब्रूषे जगद्धात्रि करिष्ये तद्वचस्तव ।
ममापीष्टं
प्रयच्छस्व प्रसीद परमेश्वरि ।।२४।।
राजा बोले- हे
जगत् को धारण करने वाली, जो तुमने कहा है तुम्हारा वह कथन मैं पूरा करूँगा । हे
परमेश्वरी ! तुम प्रसन्न होओ और मेरी इच्छा पूर्ण करो ॥ २४ ॥
देवि प्रत्यक्षतो
रूपं द्रष्टुमिच्छाम्यहं तव ।
शक्तिस्त्वं
लोकजननी त्वां नमामि प्रसीद मे ॥२५॥
हे देवी! मैं
आपके रूप का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ । आप शक्ति स्वरूपा हो,
लोकों को उत्पन्न करने वाली हो,
मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप मुझ पर प्रसन्न होइये ।। २५ ।।
इति तस्य वचः
श्रुत्वा जनकस्य तदा क्षितिः ।
मुनीनां सन्निधौ
रूपं दर्शयामास भूभृते ।। २६ ।।
तब उस राजा
जनक के इस प्रकार के वचन सुनकर पृथ्वी देवी ने राजा को उन मुनियों के सम्मुख ही
अपना प्रत्यक्ष रूप दिखाया ।। २६ ।।
नीलोत्पलदलश्यामामक्षमालाब्जधारिणीम्
।
बाहुयुग्मेन शुभ्रेण
मृणालायतशोभिना ।
सुन्दरीं
लोकधात्रीं तां दृष्ट्वा शश्वत् नृपोऽनमत् ।। २७ ।।
वे नीलकमल के
दल के समान श्यामवर्ण की तथा कमल और रुद्राक्ष की माला धारण किये हुए थीं। उनकी
दोनों भुजाएँ श्वेत कमलनाल के समान लम्बी शोभायमान हो रही थीं । इस प्रकार की लोक
को धारण करने वाली उस सुन्दरी पृथ्वी देवी को प्रत्यक्ष देखकर राजा ने उन्हें
नमस्कार किया ।। २७ ।।
ततः सा पृथिवी
देवी सीतां जातां नृपात्मजाम् ।
करेण शश्वत् संस्पृश्य
वचनं चेदमब्रवीत् ।। २८ ।।
तब वह पृथ्वी
देवी सीता (हल की रेख) से उत्पन्न हुई उस राज-पुत्री को प्रत्यक्ष रूप से अपने
हाथों से स्पर्श करती हुई यह वचन बोलीं-- ॥ २८ ॥
।।
पृथिव्युवाच ।।
इयं ते मानुषं
भावमवाप्स्यति जगत्प्रसूः ।
तव पुत्री नृपश्रेष्ठ
समयं प्रतिपालय ।। २९ ।।
पृथिवी बोली-
यह जगत् को उत्पन्न करने वाली जगदम्बा है, किन्तु तुम्हारे प्रति मनुष्यवत् व्यवहार करेगी तथा
तुम्हारी पुत्रीरूप में रहेगी। तुम अपने दिये गये वचन का पालन करना ।। २९ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
पृथिवी देवी राजानं जनकाह्वयम् ।
सम्भाष्य नारदादींस्तांस्तत्रैवान्तरधीयत
।। ३० ।।
मार्कण्डेय
बोले- उन नारदादि ऋषियों तथा राजा जनक से इस प्रकार कहकर पृथ्वी देवी वहीं
अन्तर्धान हो गई।।३०।।
जनकोऽपि सुतां
लब्धा सर्वलक्षणशालिनीम् ।
सुतद्वयं तथा
प्राप्य मुदितः स्वगृहं ययौ ।। ३१ ।।
राजा जनक भी
दो पुत्र तथा सभी लक्षणों से युक्त पुत्री को प्राप्त कर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर
को चले गये।।३१।।
ततः काले तु
सम्प्राप्ते रावणे राक्षसे हते ।
मानुषेण
स्वरूपेण विष्णुना प्रभविष्णुना ।। ३२ ।।
गत्वा विदेहराजस्य
यज्ञभूमिं तदा क्षितिः ।
सुषुवे तनयं
वीरं यत्र सीता पुराभवत् ।।३३।।
तब समय आने पर
मनुष्य रूपधारी, प्रभुविष्णु, विष्णु द्वारा रावण के मारे जाने के पश्चात् पृथ्वी देवी ने
विदेह राज्य की जहाँ पहले सीता उत्पन्न हुई थीं, उसी यज्ञभूमि में जाकर अपने वीरपुत्र को जन्म दिया ।। ३२-३३
।।
जाते पुत्रे
तदा देवी जगद्धात्री जगत्प्रभुम् ।
सस्मार समये विष्णुं
स्मरन्ती समयं पुरा ।। ३४ ।।
तब उस पुत्र
के उत्पन्न हो जाने पर जगत् को धारण करने वाली पृथ्वी देवी ने जगत के स्वामी भगवान
विष्णु का, उनसे पहले किये हुए समझौते के अनुसार स्मरण किया ।। ३४ ॥
स्मृतमात्रस्तदा
देवः समयं प्रत्यपालयत् ।
क्षितेर्यत्र सुतो
जातस्तत्र प्रादुर्बभूव ह ।। ३५ ।।
तब स्मरण करने
मात्र से ही भगवान विष्णु, अपने वचन का पालन करते हुए पृथ्वी ने जहाँ पुत्र उत्पन्न
किया था,
वहीं पर प्रकट हो गये ।। ३५ ।।
प्रादुर्भूतं
तदा देवी प्रणम्य परमेश्वरम् ।
संस्तूय
सुनृतं शश्वदिदमाह जगत्प्रभुम् ।। ३६ ।।
तब पृथ्वी
देवी ने स्तुति करते हुए प्रत्यक्ष रूप में सुन्दर वाणी में वहाँ प्रकट हुए जगत्
के स्वामी, परमेश्वर को प्रणाम कर यह कहा ॥ ३६ ॥
।।
पृथिव्युवाच ।।
एष ते तनयो जातः
सुकुमारो महाप्रभः ।
संस्मरन् समयं
पूर्वं त्वमेनं प्रतिपालय ।। ३७।।
पृथिवी बोली-
हे महान् प्रभा वाले ! यह आपका सुकुमार बालक उत्पन्न हो गया है । अब आप अपने पहले
दिये वचनों का स्मरण कर इसका पालन कीजिए ॥ ३७ ॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
अयं ते तनयो देवी
महाबलपराक्रमः ।
भविता मानुषं
भावं तन्वानः सुचिरं बुधः ॥३८॥
श्रीभगवान
बोले- हे देवी! तुम्हारा यह महान् पुत्र बल और पराक्रम युक्त,
विद्वान् तथा चिरकाल तक मनुष्यत्व का विस्तार करने वाला
होगा ।। ३८ ।।
यावन्मानुषभावं
ते तनयो भावयिष्यति ।
तावत्
कल्याणभाग्भूत्वा चिरं राज्यं करिष्यति ।। ३९ ।।
तुम्हारा यह
पुत्र जब तक मनुष्यता से युक्त रहेगा तब तक यह कल्याण का पात्र हो बहुत समय तक
राज्य करेगा।।३९।।
त्यक्तमानुषभावस्तु
यदा चायं विचेष्टते ।
तदा तु नास्य
सुचिरं जीवितं सम्भविष्यति ।। ४० ।।
जब यह
मनुष्यभाव को छोड़कर कार्य करेगा तब बहुत समय तक इसका जीवन नहीं रहेगा ।। ४४ ॥
सम्प्राप्ते
षोडशे वर्षे राज्यमासादयिष्यति ।
धनरत्नगजैश्वर्ययुक्तोऽयं
रथसञ्चयैः ।
आसाद्य महतीं
नित्यं श्रियं भोक्ष्यति वीर्यवान् ।। ४१ ।।
सोलह वर्ष की
अवस्था प्राप्त होने पर यह राज्य प्राप्त करेगा तथा धन,
रत्न, हाथी, रथ- समूह और ऐश्वर्य से युक्त हो नित्य महती श्री का भोग
करेगा ।। ४१ ।।
यस्मिन्
यस्मिन् युगे भावो यो वा भवति वै नृणाम् ।
तं तं भावं
तथैवायं करिष्यति तथा कुरु ।।४२।।
जिस-जिस युग
में जो-जो भाव मनुष्यों का रहेगा यह उनके साथ वैसे ही भाव रखे ऐसा तुम कुछ करो ।। ४२
।।
एतस्य निभृतं
राज्यं यत् प्राग्ज्योतिषसंज्ञकम् ।
पुरं तत्र
चिरं शास्ता राज्यमेष सुतस्तव ।। ४३ ।।
इसका जो रक्खा
हुआ प्राक्ज्योतिषपुर नामक राज्य है, तुम्हारा यह पुत्र चिरकाल तक वहाँ के राज्य का शासन करेगा
।। ४३ ।।
इत्युक्त्वा
पृथिवीं विष्णुः समाभाष्य जगत्पतिः ।
दृश्यमानस्तया
क्षिप्रं तत्रैवान्तर्दधे प्रभुः ।। ४४ ।।
मार्कण्डेय
बोले- पृथिवी से ऐसा कहकर जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु उसके देखते ही देखते वहीं
अन्तर्धान हो गये ॥ ४४ ॥
प्रसूय पृथिवी
पुत्रं मध्यरात्रे महाद्युतिम् ।
जनकं
ज्ञापयामास रहस्यं पूर्वमीरितम् ।।४५।।
पृथिवी ने
मध्यरात्रि में महान् तेजस्वी पुत्र को जन्म दे, पहले कहे हुये रहस्य से जनक को अवगत कराया ।।४५।।
विदेहराजो
ज्ञात्वैव पृथिवीजनितं सुतम् ।
तत्रैव
यज्ञवाटं स रात्रावागात् कृतक्रियः ।। ४६ ।।
पृथिवी ने
पुत्र जन्म दिया है यह जानकर विदेहराज जनक अपने कार्य सम्पन्न कर रात्रि में ही वे
यज्ञभूमि की ओर चल पड़े ।। ४६ ।।
गच्छन्तं
यज्ञवाटं तं दृष्ट्वा सर्वंसहा तदा ।
नोक्त्वा
किञ्चन तं शश्वदन्तर्धानं गता नृपम् ।। ४७ ।।
तब उस राजा को
यज्ञ भूमि की ओर जाते हुए देखकर पृथिवी ने उनसे कुछ नहीं कहा और वह प्रत्यक्ष रूप
से अन्तर्धान हो गयी ।। ४७ ।।
अथ गत्वा तदा
तत्र विदेहाधिपतिः सुतम् ।
धरायां ददृशे
कान्त्या चन्द्रार्कज्वलनोपमम् ।।४८।।
इसके बाद तब
वहाँ जाकर विदेह राज्य के स्वामी राजा जनक ने चन्द्र,
सूर्य एवं अग्नि के समान कान्तिमान् पृथ्वी के पुत्र को
देखा ।। ४८ ।।
रुदन्तं बहुश:
स्निग्धं चलद्हस्तपदद्वयम् ।
वपुष्मन्तं श्रियादीप्तं
कार्तिकेयमिवापरम् ।। ४९ ।।
वह बहुत रो
रहा था,
चिकना (कोमल) था, अपने दोनों हाथ-पैर चला रहा था। वह मूर्तिमान् दूसरे कार्तिकेय
के समान शोभा से देदीप्यमान था ।। ४९ ।।
उद्गच्छन् स
रुदन् बालो यज्ञभूमिं व्यतीत्य च ।
कियद्दूरं
जगामाशूत्तानशायी महाद्युतिः ।। ५० ।।
वह महान्
द्युति वाला रोते हुए, ऊपर की ओर चित्त सोये हुये ही,
यज्ञभूमि को पार कर कुछ दूर चला गया ।। ५० ।।
मनुष्यस्य
शिरस्तत्र मृतस्य प्राप्य बालकः ।
स्वशिरस्तत्र
विन्यस्य रुदंस्तस्थौ क्षणं तदा ।। ५१ ।।
तब वह बालक
वहाँ मरे हुए मनुष्य के सिर को लेकर तथा उसके स्थान पर अपने सिर को रखकर क्षणभर
में रोने लगा ।। ५१
ततो विदेहराजोऽपि
मार्गमाणः क्षितेः सुतम् ।
व्यतीत्य
यज्ञभूमिं तमाससादाञ्जसा बहिः ।।५२।।
उस
पृथ्वीपुत्र को खोजते हुए तब विदेहराज जनक, भी यज्ञभूमि को पारकर, शीघ्र ही बाहर आकर उसे प्राप्त किये॥५२॥
आसाद्य बालकं
दीप्तं प्रदीप्तमिव पावकम् ।
कान्त्या चन्द्रमसस्तुल्यं
तेजोभिर्भास्करोपमम् ।। ५३ ।।
शरमध्यगतं
पूर्वं पावकिं पावको यथा ।
स्वयं जग्राह
तं राजा पृथिव्याः समयं स्मरन् ।। ५४ ।।
प्रज्ज्वलित
अग्नि के सामन देदीप्यमान, चन्द्रमा के समान कांतियुक्त, तेज में सूर्य के समान बालक को प्राप्त कर,
शरपत के बीच अग्नि ने पावकि (कार्तिकेय) को जिस प्रकार उठा
लिया था,
उसी प्रकार पृथिवी के साथ किये गये वचन का स्मरण कर,
राजा ने स्वयं उस बालक को उठा लिया ।। ५३-५४ ।।
उद्वृह्णन्
तच्छिरोदेशे ददृशे मानुषं शिरः ।
शशंस चाचिरं
शीर्षं मानुषं गौतमाय सः ।। ५५ ।।
उठाने पर उसके
शिर के स्थान पर राजा ने मनुष्य का शिर देखा तथा उसने गौतम से इस शिर की शीघ्र ही
प्रशंसा किया ।। ५५ ।।
अथ बालं
समादाय प्रविश्यान्तः पुरं स्वकम् ।
महिष्यै
कथयामास प्राप्तं पुत्रं गुहोपमम् ।। ५६।।
इसके बाद उस
बालक के सहित अन्तःपुर में प्रवेश कर अपनी महारानी से उन्होंने कहा कि आज मुझे
स्कन्द के समान एक पुत्र प्राप्त हुआ है ।। ५६ ।।
सा तं
दृष्ट्वा विशालाक्षं सिंहस्कन्धं महाभुजम् ।
विस्तीर्णहृदयं
कान्तं नीलोत्पलदलच्छविम् ।
मुमोद
पालनीयोऽयं मयेति न्यवदत् नृपम् ।। ५७ ।।
उन महारानी ने
विशाल नेत्र, सिंह के समान मजबूत कन्धे, महान् भुजाओं, विस्तृत हृदय (वक्षस्थल), नीलकमल की पंखुड़ियों के समान शोभा से सुशोभित उस बालक को
देखकर प्रसन्न हुईं, तथा उन्होंने राजा से कहा कि यह मेरे पालन करने योग्य है ॥
५७ ॥
तां राजापि
ततः प्राह पुत्रोऽयं मम सुन्दरि ।
यज्ञभूमौ समुत्पन्नः
स्वच्छन्दं पाल्यतामयम् ।।५८।।
तब राजा ने
उससे कहा कि हे सुन्दरी ! यह मेरा पुत्र स्वच्छन्द रूप से यज्ञभूमि से उत्पन्न हुआ
है,
तुम इसका पालन करो ।। ५८ ।।
यत् पृथिव्या
रहः प्रोक्तं न तद्देव्यै न्यवेदयत् ।
सत्यसन्धो
नृपश्रेष्ठः प्रियाया अपि भाषितम् ।। ५९ ।।
पत्नी द्वारा
पूछे जाने पर भी, पृथिवी ने जो रहस्य बताया था उसे सत्यनिष्ठा वाले एवं
श्रेष्ठ राजा ने महारानी से भी नहीं बताया ।। ५९ ।।
मम सुतसुतवंशान्
पालयित्री घरेय-
मिति नरपतिवर्यो
मोदवांस्तद्दिने च ।
सुरतनयसमानं
पुत्रमासाद्य देवी ।
जितरिपुरतिधीमान्
स्यादयञ्चेत्यमोदत् ।। ६० ।।
उस दिन राजाओं
में श्रेष्ठ जनक, इस हेतु प्रसन्न हुए कि यह धरती मेरे पुत्र और उसके वंशजों
का पालन करने वाली है तथा महारानी यह पुत्र, शत्रुओं को जीतने वाला, अत्यन्त बुद्धिमान् होगा। इस प्रसन्नता से देवताओं के पुत्र
के समान दिव्यपुत्र पाकर प्रसन्न हुए ।। ६० ।।
।। इति
श्रीकालिकापुराणे नरकजन्म-कथने सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७॥
॥
श्रीकालिकापुराण में नरकासुरजन्मकथन नामक संतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३७॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 38
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