कालिका पुराण अध्याय ३८
कालिका पुराण
अध्याय ३८ में नरकासुर के अभिषेक का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ३८
Kalika puran chapter 38
कालिकापुराणम् अष्टत्रिंशोऽध्यायः नरकासुर अभिषेकवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ३८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ तस्य
नृपश्रेष्ठो गौतमेन महर्षिणा ।
संस्कारं कारयामास
विधिना मानुषेण तु ।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- इसके बाद उस श्रेष्ठ राजा (जनक) ने महर्षि गौतम के द्वारा मनुष्योचित विधि
से उस बालक के संस्कार सम्पन्न कराये ॥ १ ॥
नरस्य शीर्षे
स्वशिरो निधाय स्थितवान् यतः ।
तस्मात्तस्य
मुनिश्रेष्ठो नरकं नाम वै व्यधात् ॥२॥
वह मनुष्य का
शिर अपने शिर पर धारण किये हुए था । इसीलिए मुनियों में श्रेष्ठ गौतम ने उसका नाम 'नरक' रखा॥२॥
अपरान्
बालसंस्कारान् क्षात्रेण विधिना मुनिः ।
केशान्तावधि
संचक्रे ऋग्यजुः साममन्त्रकैः ।।३।।
(उपर्युक्त
नामकरण संस्कार के पश्चात् ) उसके केशान्त (मुण्डन) पर्यन्त अन्य संस्कार,
उन मुनि ने ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के मन्त्रों द्वारा क्षात्रविधि से सम्पन्न
कराया ॥ ३ ॥
ववृधे तस्य
सदने नरको नाम भूसुतः ।
दिनं दिनं
धृतान्यश्रीः शरदीव निशाकरः ॥४॥
उस राजा के घर
में वह नरक नामक पृथ्वी का पुत्र, दिनोंदिन विशेष शोभा को धारण कर,
शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा ॥ ४ ॥
स राजा तं सदा
भावैर्मानुषैयजयन् स्वयम् ।
गौतमस्य सुतेनाथ
शतानन्देन धीमता ।
ग्राहयामास
तन्नित्यं क्षात्रं भावं च मानुषम् ।।५।।
वह राजा स्वयं
उस बालक को मानवीय भावनाओं से युक्त कराते थे तथा उन्होंने गौतम ऋषि के पुत्र,
बुद्धिमान् शतानन्द द्वारा उसे नित्य क्षत्रियोचित एवं
मनुष्योचित भावनाएँ ग्रहण करायीं ॥ ५ ॥
तथैव पृथिवी
देवी धात्रीवेषेण तं सुतम् ।
नियतं ग्राहयामास
मानुषं चरितं शुभम् ॥६॥
उसी प्रकार
पृथिवी देवी भी धात्री (धाय) के वेश में उस पुत्र को नियन्त्रित कर,
मानवीय शुभचरित्रों को ग्रहण कराती थीं ।। ६ ।।
यदैव पुत्र
उत्पन्नस्तदैव पृथिवीस्वयम् ।
मायामानुषरूपेण
नृपान्तःपुरमाविशत् ।।७।।
ज्योंही पुत्र
उत्पन्न हुआ त्योंही स्वयं पृथ्वी ने भी माया से मनुष्य रूप धारण कर राजा के
अन्त:पुर में प्रवेश किया ।। ७ ।।
प्रविश्य तत्र
सा देवी नृपस्यानुमतेऽभवत् ।
धात्री तस्य
द्विजश्रेष्ठाः कात्यायन्यानयस्थया ॥८॥
हे
द्विजश्रेष्ठ ! वहाँ प्रवेश कर वह देवी राजा की अनुमति से कात्यायनी नामक एक
प्रौढ़ा के रूप में उसकी धाय बन गयी ॥ ८ ॥
यावत्
षोडशवर्षाणि तस्य बालस्य भावीनि ।
तावत् स्वयं
पालयन्ती ग्राहयामास संनयम् ।।९।।
जब तक उस बालक
की सोलह वर्ष की अवस्था नहीं हो गयी तब तक स्वयं उसका पालन करती हुयी वे संयम उचित,
नीतिपूर्ण व्यवहार ग्रहण कराती (सिखाती) रहीं ॥ ९ ॥
स
वर्धमानोऽनुदिनं नरकः पृथिवीसुतः ।
अत्यक्रामत्
सुतान् सर्वान् जनकस्य महात्मनः ।। १० ।।
वह पृथ्वी का
बेटा नरक,
दिनोंदिन विकास करता हुआ महात्मा जनक के सभी पुत्रों से आगे
निकल गया ।।१०।।
शरीरेणाथ
वीर्येण रूपेण बलवत्तया ।
धनुषा गदया वीरो
ह्यत्यक्रामन् नृपात्मजान् ।।११।।
क्योंकि शरीर
से,
पराक्रम से रूप से, बल से, धनुषविद्या तथा गदा चलाने की कला से उसने राजकुमारों को
पीछे छोड़ दिया था ॥ ११ ॥
स शास्त्रवादकुशलो
धनुर्वेदे च कोविदः ।
वर्षैः षोडशभिर्भूतो
वीरैरन्यैर्दुरासदः ।। १२ ।।
वह
शास्त्रार्थ में कुशल तथा धनुर्वेद में प्रवीण था । सोलह वर्ष की अवस्था में ही वह
अन्य वीरों के लिए दुर्धर्ष (अजेय) हो गया ।। १२ ।
विदेहाधिपतिर्दृष्ट्वा
महाबलपराक्रमम् ।
न्यून्यान्
स्वपुत्रांश्च नातिहृष्टमनाभवत् ।। १३ ।।
विदेह के
स्वामी जनक, उसके महान् बल और पराक्रम तथा अपने पुत्रों को उससे हीन देखकर बहुत प्रसन्न
नहीं हुये ॥ १३ ॥
निरस्यासौ च मत्पुत्रान्
मम राज्यं ग्रहीष्यति ।
काले प्राप्ते
महावीरो मतिस्तस्याभवत् पुरा ।। १४ ।।
प्राचीनकाल
में उस राजा की यह बुद्धि हो गयी कि समय आने पर यह महान् वीर नरक मेरे पुत्रों को
हराकर मेरा राज्य ग्रहण कर लेगा ।। १४ ।।
अन्तःपुरे यदा
पुत्रान् सर्वान् रंमयते नृपः ।
तदा तु नरकं
वीक्ष्य हर्षं प्राप्नोति नाधिकम् ।।१५।।
अन्तःपुर में
जब राजा सभी पुत्रों के साथ रमण (क्रीड़ा) करते रहते तो वे नरक को देखकर बहुत
प्रसन्न नहीं होते थे ।। १५ ।।
तस्य बुधे
देवी नृपस्याथ वसुन्धरा ।
महिषी विस्मयं
चक्रे तस्मिन् भावे तु भूभृतः ।। १६ ।।
पृथ्वी देवी
ने उन राजा जनक की उस बुद्धि को जान लिया किन्तु राजा के उसके प्रति बदले हुए भाव
को देखकर महारानी को आश्चर्य हुआ ॥ १६ ॥
अथैकदा महादेवी
जनकस्य महात्मनः ।
पप्रच्छ नृपतिश्रेष्ठं
विदेहाधिपतिं पतिम् ।। १७ ।।
एक बार
महादेवी (महारानी) ने विदेह के अधिपति, राजाओं में श्रेष्ठ, अपने पतिदेव, महान् आत्माओं वाले राजा जनक से पूछा -- ॥ १७ ॥
।।
महादेव्युवाच ।।
नाथ पृच्छामि
ते किञ्चिद्रहस्यं यदि नो तव ।
तदा मां
तद्वदस्व त्वं कृपा चेद्विद्यते मयि ।। १८ ।।
महादेवी
बोलीं- हे नाथ! मैं आपसे कुछ पूछती हूँ । यदि आपके लिए कोई रहस्य की बात न हो और
यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तब उसे आप मुझसे कहिये ॥ १८ ॥
यदैव तनयाः
सर्वे विहरन्ति पुरस्तव ।
तदैव नरकं
दृष्ट्वा विशीर्ण इव लक्ष्यसे ।। १९ ।।
जब सभी बच्चे
आपके सामने विहार करते रहते हैं उस समय आप नरक को देखकर दुःखी दिखायी देते हैं ॥
१९ ॥
तन्मे
रात्रिन्दिवं वाढं विस्मयः प्रतिवर्धते ।
संशयश्च भयं
चैव न जहाति च मां सदा ।। २० ।।
वह प्रसङ्ग
रात-दिन बहुत अधिक आश्चर्य को बढ़ाता है। सदैव मुझे संशय और भय भी नहीं छोड़ते ॥
२० ॥
रूपवान्
वीर्यवानेष नये च विनये तथा ।
कुशल: प्रतिबुद्धश्च
पुत्रस्तव महाबलः ।। २१ ।
स सभाजयते कस्मात्
पुत्रमन्यैर्दुरासदम् ।
तदहं
ज्ञातुमिच्छामि यदि तथ्यं वदस्व मे ।। २२ ।।
यह रूपवान्,
पराक्रमी, नीति एवं नम्रता में कुशल, विशेष बुद्धिमान्, महाबली अन्यों द्वारा न जीते जाने योग्य आपका पुत्र (नरक)
आपको क्यों नहीं अच्छा लगता ? उसे मैं जानना चाहती हूँ, यदि उचित हो तो मुझसे कहिये ।। २१-२२ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
इति तस्य वचः
श्रुत्वा प्रियायाः पृथिवीपतिः।
तूष्णीं भूत्वा
क्षणं देवीमिदं वचनमब्रवीत् ।। २३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- उस प्रिया की इस बात को सुनकर, क्षणभर चुप रहकर राजा, रानी से ये वाक्य बोले- ॥ २३ ॥
।। राजोवाच ।।
कथयिष्ये
प्रिये तत्त्वं यत् पृष्टोऽहं त्वयाधुना ।
मासत्रये व्यतीते
तु समयं प्रतिपालय ।। २४ ।।
राजा बोले- हे
प्रिये ! जो तुम्हारे द्वारा इस समय मुझसे पूछा गया है उसे मैं तुमसे तीन महीने
बीतने के बाद कहूँगा । समय की प्रतीक्षा करो ॥ २४ ॥
निगूढः
कश्चिदत्रास्ति देवस्य समयो मम ।
तेनाधुना न किञ्चित्ते
कथयिष्यामि तद्रहः ।। २५ ।।
किसी देवता के
साथ मेरा गुप्त समझौता है, इसीलिए इस समय मैं इस रहस्य के विषय में तुमसे कुछ नहीं
कहूँगा।।२५।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
राज्ञो ह्ययं सभार्यस्य
संवादोऽ भवदन्तिके ।
मानुषी पृथिवी
धात्री तं शुश्राव यदा तदा ।। २६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- पत्नी के साथ एकान्त में जब राजा का यह संवाद हो रहा था उस समय मनुष्य स्त्रीरूप
में धात्री बनी, पृथ्वी ने उसे सुना ॥ २६ ॥
श्रुत्वा
तयोस्तु संवादं महिषीभूपयोः क्षितिः ।
मासत्रयेण
समयं दत्तं देव्यै धराभृता ।। २७ ।।
राजा और
महारानी दोनों के वार्तालाप को तथा राजा द्वारा महारानी को दिये गये तीन महीने के
समय को पृथिवी ने सुना ।। २७ ।।
तत्काले
विमनस्कं च भूपं नरकसंज्ञया ।
त्रिभिर्मासैर्व्यतीतैः
स्यादस्य षोडशवत्सरः ॥२८॥
उस समय नरक के
प्रति उदास राजा के, तीन माह बीत जाने पर इसके सोलह वर्ष पूर्ण हो जाएँगे ।। २८
।।
ततो नृपो
महिष्यास्तु कथयिष्यति तद्रहः ।
ततो मम रहस्यं
तु विदितं सम्भविष्यति ।। २९ ।।
तब राजा
महारानी से उस रहस्य को कहेंगे, उस समय वह रहस्य मुझे भी ज्ञात हो जायगा ।। २९ ।
चिन्तयित्वेति
सा देवी जगद्धात्री सुतं प्रति ।
निश्चित्येदं तदा
कृत्यं प्राप्तकालमचेष्टत ।। ३० ।।
जगत् को धारण करने
वाली उस पृथ्वी देवी पुत्र के प्रति इस प्रकार विचार कर,
अनायास उपस्थित अवसर को पाकर अपने कर्त्तव्य का,
इस प्रकार निश्चय किया ॥ ३० ॥
ततो रहसि भूपं
तं समासाद्य सगौतमम् ।
इदमाह जगद्धात्री
स्वपुत्रार्थे यशस्विनी ।। ३१ ।।
तब एकान्त में
गौतम ऋषि के सहित उस राजा जनक के पास पहुँचकर यशस्विनी पृथ्वी देवी ने अपने पुत्र
के लिये यह कहा ॥ ३१ ॥
।।
पृथिव्युवाच ।।
यो मया समयो दत्तः
पालितः स त्वयानघ ।
पुत्रश्च पालितो
मेऽयं नरको विनयैर्युतः ।। ३२ ।।
पृथ्वी बोली-
हे निष्पाप ! मेरे द्वारा जो वचन दिया गया था, उसका आपके द्वारा पालन किया गया है। मेरे इस नरक नामक
विनम्र पुत्र का आपने पालन किया है ॥ ३२ ॥
सम्प्राप्तयौवनः
पुत्रो योजितश्च त्वया नयैः ।
तव प्रसादात्
पुत्रो मे सुखी वृद्धो गृहे तव ।।३३।।
युवाअवस्था को
प्राप्त यह पुत्र आपके द्वारा नीति में नियोजित किया गया । आपकी कृपा से ही मेरा
यह पुत्र,
आपके घर में सुख से बड़ा हुआ है ।। ३३ ।।
तमहं
पूर्वसमयान्नयिष्यामि स्वमात्मजम् ।
अनुजानीहि भयं
नरकस्य गतिं प्रति ।। ३४ ।।
पहले के वादे
के अनुसार मैं अपने पुत्र को ले जाऊँगी। मैं नरक के व्यवहार के प्रति तुम्हारे भय
को जानती हूँ ॥ ३४ ॥
रक्षितव्यश्च
भवता समयः सपुरोधसा ।
छन्नमेव
नयिष्यामि भूपते मा कृथा व्यथाम् ।। ३५ ।।
पुरोहित के
सहित आपके द्वारा वचन की रक्षा हो। इसलिए मैं गुप्तरूप से उसे ले जाऊँगी । हे
राजन् ! इस सम्बन्ध में आप कष्ट न करें ।। ३५ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
जगतां धात्री विदेहाधिपतिं नृपम् ।
तत्रैव पश्यता
तेषामन्तर्धानमुपागमत् ।। ३६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- विदेह के अधिपति राजा जनक से ऐसा कहकर जगत का पालन करने वाली पृथ्वी देवी,
उनके देखते ही देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ ३६ ॥
नृपोऽपि
तस्यास्तद्वाक्यमगीकृत्य क्षितिं प्रति ।
तस्याः
प्रत्यक्षतः स्थानं जगाम सपुरोहितः ।। ३७।।
राजा भी
पृथ्वी द्वारा अपने प्रति कहे वाक्यों को स्वीकार कर,
जहाँ वे प्रत्यक्ष (प्रकट) हुई थीं, उस स्थान पर पुरोहित के साथ गये ॥ ३७ ॥
अथैकदा धरा
देवी मायामानुषरूपिणी ।
उपांशु नरकं प्राह
धात्री तस्य महात्मनः ॥३८॥
त्वया समं
महाबाहो गङ्गां यातुं मनो मम ।
यदि त्वं यासि
यास्यामि रथेनाद्यैव पुत्रक ।। ३९ ।।
इसके बाद एक
बार माया से मनुष्य का रूप धारण कर, पृथ्वी देवी ने उस महान् आत्मा वाले की धाय के रूप में
गुप्त रूप से नरक से कहा कि हे महान् भुजाओं वाले, मेरी तुम्हारे साथ गङ्गा-स्नान के लिए जाने की इच्छा हो रही
है। हे बेटे ! यदि तुम चलो तो मैं आज ही तुम्हारे साथ रथ से चलूँगी ।। ३८-३९ ।।
।। नरक उवाच
।।
न पितुर्वचनं
यास्ये विना मातस्त्वया समम् ।
अनुज्ञाप्य
रथेनाहं यास्ये गङ्गां त्वया समम् ॥४०॥
नरक बोला- हे
माता ! मैं पिता की आज्ञा के बिना तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा । उनकी आज्ञा प्राप्त
कर ही मैं गङ्गा स्नान के लिए तुम्हारे साथ जाऊँगा ॥ ४० ॥
।। धात्र्युवाच
।।
न ते पितायं
जनको यः सर्वजगतां प्रभुः ।
स ते पिता तं
गङ्गायां पश्य गत्वा मया सह ।।४१।।
धाय बोली- ये
राजा जनक,
तुम्हारे पिता नहीं है । तुम्हारे पिता तो समस्त जगत के जो
स्वामी हैं, वे हैं। मेरे साथ गङ्गा तट पर चल कर उनको देखो ॥ ४१ ॥
अयं पिता पालकस्ते
न राज्यं सम्प्रदास्यति ।
यस्ते
वर्धयिता तात तमासादय पुत्रक ।।४२।।
हे पुत्र !
जिन्हें तुम पिता समझ रहे हो, ये तुम्हारे पालनकर्त्ता हैं । ये तुम्हें राज्य नहीं
प्रदान करेंगे । हे तात ! जो तुम्हारे वृद्धि में सहायता देने वाले हैं,
उन अपने वास्तविक पिता को तुम प्राप्त करो ।। ४२ ।।
अत्र यद्मद्रहस्यं
तद् गङ्गायामेव पुत्रक ।
कथयिष्याम्यहं
सर्वं रहोभङ्गस्ततोऽन्यथा ।। ४३ ।।
हे पुत्रक !
इस सम्बन्ध में जो मेरा रहस्य है, उसे मैं गङ्गातट पर ही तुमसे कहूँगी । अन्यथा रहस्यभेदन हो
जायेगा ।। ४३ ।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
जातसम्प्रत्ययो
धात्र्या वचसा नरकस्तथा ।
विहाय यानं
छन्देन पद्भ्यां गङ्गां ययौ तदा ।। ४४ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब धाय के वचन से नरक में विश्वास उत्पन्न हो जाने पर वह अपनी इच्छा से वाहन
को छोड़कर, पैदल ही गङ्गातट पर गया ।। ४४ ।।
अथ गङ्गां
समासाद्य संस्नाप्य विधिवत् सुतम् ।
आत्मानं
दर्शयामास पृथिवी स्वसुताय वै ।। ४५ ।।
इसके बाद
गङ्गातट पर पहुँचकर तथा अपने पुत्र को विधिपूर्वक स्नान कराकर पृथिवी ने उसे अपना
यथार्थ रूप दिखाया ।। ४५ ।।
मायामानुषमूर्तिं
तां विहाय जगतां प्रसूः ।
नीलोत्पलदलश्यामं
सर्वलक्षणसंयुतम् ।।४६।।
सर्वाङ्गसुन्दरं
चारु नानालङ्कारभूषितम् ।
पुत्राय
दर्शयामास नरकाय वसुन्धरा ।। ४७ ।।
तब जगत को
उत्पन्न करने वाली पृथ्वी ने अपने उस मायामय मनुष्यरूप को छोड़कर,
नीलकमल की पगुड़ियों के समान श्याम,
सभी अङ्गों से सुन्दर, सभी लक्षणों से युक्त, अनेक आभूषणों से सुशोभित, अपने सुन्दर वास्तविक रूप को स्वकीय नरक नामक पुत्र को
दिखाया ।। ४६-४७ ।
कथामेताञ्च
पूर्वस्मिन्नुद्भूतां पृथिवी तदा ।
कथयामास पुत्राय
प्रतीतिर्जायते यथा ।।४८ ।
तब पृथ्वी ने
इसके पहले ही घटी हुई समस्त कथा को उस पुत्र से कहा,जिससे परस्पर विश्वास उत्पन्न हो ॥४८॥
।।
पृथिव्युवाच ।।
मम गर्भे यथा पुत्र वर्धसे त्वं दिने दिने ।
ब्रह्मादयस्तदा
देवा आलोक्य स्वयमेव ते ।। ४९ ।।
पृथिवी बोली-
हे पुत्र ! मेरे गर्भ में जब तुम दिनों दिन बढ़ रहे थे,
तब ब्रह्मादि देवताओं ने स्वयं तुम्हें देखा।।४९।।
मलिनीक्षितिसंजातः
पुत्रो विष्णोर्महात्मनः ।
आसुरं भावमास्थाय
सर्वानस्मान् हनिष्यति ।। ५० ।।
इति चिन्तापरा
देवाः कुमन्त्रं चक्रिरे तदा ।
अयं
नोत्पद्यतां गर्भार्भे तिष्ठत्वयं सदा ।।५१।।
तब रजस्वला
अवस्था में पृथिवी से उत्पन्न, महात्माविष्णु का यह पुत्र, आसुरी भाव को प्राप्त कर हम सबको मार डालेगा । इस चिन्ता से
युक्त हो देवताओं ने यह (षडयन्त्र ) कुविचार किया कि यह गर्भ से उत्पन्न न हो तथा
सदैव गर्भ में ही रहे ।। ५०-५१ ।।
ततो मम भवान्
गर्भे सुबहूनि युगान्यथ ।
अवसदुःखवान्
पुत्र देवानां च कुमन्त्रतः ।। ५२ ।।
तब हे पुत्र
देवताओं के उस कुविचार या षडयन्त्र के कारण तुम बहुत युगों तक दुःख उठाते हुये
मेरे गर्भ में ही रहे।।५२।।
मृतकल्पाभवमहं
भवतो धारणात् सुत ।
ततोऽहं शरणं
याता भगवन्तं सनातनम् ।।५३ ।।
तब मैं
तुम्हारे धारण करने के कारण मृतकतुल्य हो गयी। उस समय मैं सनातन भगवान् विष्णु के
शरण में गयी ।।५३।।
नारायणस्य
वाक्यात् तु भवानुत्पन्नवांस्ततः ।
इति सत्यं मम वचः
पुत्र जानीहि निश्चितम् ।।५४।।
तब तुम भगवान्
नारायण के वचनानुसार उत्पन्न हुए। हे पुत्र ! मेरे इस वचन को तुम सत्य और निश्चित
समझो ॥ ५४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
अथ यावन्नपुत्रस्य
विस्मयः समपद्यत ।
तावदेव स्वयं
देवी प्रोचे पुत्रमिदं वचः ॥५५ ।।
यथा विदेहराजस्य
यज्ञभूमावसूयत ।
विदेहराजेन
समं यादृश: समयोऽभवत् ।। ५६ ।।
यथा
मानुषरूपेण धात्री सा समपद्यत ।
तत् सर्व
कथयामास नरकाय महात्मने ।। ५७ ।।
मार्कण्डेय
बोले- इसे सुनकर भी उस नरक नामक पुत्र को जब आश्चर्य नहीं हुआ,
तब स्वयं पृथ्वी देवी ने जिस प्रकार वह विदेहराज जनक के
यज्ञभूमि से उत्पन्न हुआ तथा इस सम्बन्ध में पृथ्वी और जनक के बीच जो वादा हुआ था और
जिस प्रकार मनुष्यरूप धारण कर वह उसकी धात्री बनी थी,
अपने पुत्र महात्मा नरक से वह सब कह दिया ।। ५५-५७ ।।
अथ तां
पृथिवीं प्राह नरकः पुनरेव हि ।
पृथिव्या:
वचनं श्रुत्वा स्वल्पसंशयसंयुतः ।।५८।।
इसके बाद
पृथ्वी ने पुन: जब नरक से इस प्रकार की बातें कहीं तो उनके वचनों को सुनकर,
थोड़ा संशययुक्त हो, नरक ने कहा ।। ५८ ।।
।। नरक उवाच
।।
यद्येवं मे पिताविष्णुर्माता
त्वं पृथिवी शुभे ।
आगच्छतु जगन्नाथो
ममैवाभ्युपपत्तये ।। ५९ ।।
नरक बोला- यदि
इस प्रकार तुम्हारे कथनानुसार मेरे पिता भगवान् विष्णु हैं तथा माता तुम पृथिवी
देवी हो तो मुझे विश्वास दिलाने के लिए स्वयं भगवान् विष्णु ही पधारें ।। ५९ ।।
स एव
सर्वलोकेशो यदि मां भाषतेऽच्युतः ।
पिताहं ते
त्वियं माता श्रद्धधे तदहं शुभे ।। ६० ।।
हे शुभस्वरूपा
पृथ्वी ! यदि स्वयं वह लोक के स्वामी भगवान् विष्णु मुझसे कहें कि मैं तुम्हारा
पिता तथा ये तुम्हारी माता हैं तब मैं तुम्हारे वचन का विश्वास करूँ ॥ ६० ॥
त्वया
मानुषरूपेण धात्र्याहं प्रतिपालितः ।
तद्रूपं द्रष्टुमिच्छामि
यदि ते रूपमीदृशम् ।।६१।।
तुम्हारे
द्वारा धात्री के मनुष्यरूप में मेरा पालन किया गया है । यदि वह तुम्हारा रूप है
तो मैं तुम्हारे उस रूप को देखना चाहता हूँ ।। ६१ ॥
।। पृथिव्युवाच
।।
अहं ते जननी तात
मया ज्ञातोऽसि पुत्रक ।
पृथिव्यहं
जगद्धात्री मद्रूपं मृन्मयन्त्विदम् ।।६२।।
पृथ्वी बोली-
हे पुत्र ! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारी माता हूँ। मैं जगता पालन करने वाली
पृथ्वी देवी हूँ। मेरा यह रूप जो सभी देखते हैं वह मिट्टी का बना हुआ है ।। ६२ ।।
पिता तव
महाबाहो प्रभुर्नारायणोऽव्ययः ।
अच्युतो जगतां
धाता महात्मा शूकरात्मधृक् ।। ६३ ।।
हे महाबाहु !
तुम्हारे पिता अविनाशी, अच्युत, जगत के पालनकर्त्ता भगवान् नारायण हैं,
जिन्होंने वाराहरूप धारण किया था । ६३ ॥
तेनाहितस्त्वं
मदर्भे सुचिरं त्वं पुरावसः ।
सम्प्राप्ते
समये जातः पालितश्चेह भूभृता ।।६४।।
प्राचीनकाल
में उनके द्वारा ही तुम्हारा मेरे गर्भ में आधान किया गया थ तुमने मेरे गर्भ में
निवास किया। समय आने पर तुम्हारा जन्म हुआ एवं इन राजा जनक द्वारा तुम पाले गये हो
।। ६४ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति तस्य वचः
श्रुत्वा हर्षशोकाकुलस्तदा ।
नरकः पृथिवीदेवीमिदमाह
धनुर्धरः ।। ६५ ।।
मार्कण्डेय
बोले-तब धनुर्धारी नरक, उनके उपर्युक्त बचनों को सुनकर हर्ष और शोक दोनों से ही
भरकर,
पृथ्वी देवी से इस प्रकार बोला- ।। ६५ ।।
।। नरक उवाच
।।
न माता विदिता
पूर्व माताहमिति भाससे ।
विष्णुः
पितेति च वचो न पिता विदितो मम ।। ६६ ।।
नरक बोला- मैं
पहले से किसी माता को नहीं जानता और तुम, माता मैं हूँ, ऐसा कह रही हो। इसी प्रकार तुम्हारे पिता विष्णु हैं,
यह कह रही हो जबकि मैं किसी पिता को भी नहीं जानता ।। ६६ ।
जानामि पितरं
चाहं विदेहाधिपतिं नृपम् ।
तस्य भार्य्यं
सुमत्याख्यामहं जानामि मातरम् ।।६७।।
मैं तो
विदेहराजा जनक को ही अपना पिता तथा सुमती नाम वाली उनकी पत्नी को ही अपनी माता
जानता हूँ ।। ६७ ।
भ्रातरस्तत्सुताः
सर्वे सीता मे भगिनी शुभा ।
सुमतिर्मम
मातेति लोको जानाति सन्ततम् ।।६८।।
हे शुभे !
उनके सभी पुत्र मेरे भाई तथा सीता मेरी बहिन है। महारानी सुमती मेरी माता हैं। यही
निरन्तर संसार जानता है । ६८ ॥
कात्यायनी च
धात्री मे याधुनैव कृता त्वया ।। ६९ ।।
एतत् सर्वं
त्वया मिथ्या शंशितं मम साम्प्रतम् ।
यथा तवाहं
तनयः सत्यमाख्याहि तन्मम ।।७० ।।
अब तक जो
तुमने प्रौढ़ा स्त्री का रूप धारण कर मेरी धाय का कार्य किया । वह सब तुमने मुझे
झूठा दर्शाया है। अत: तुम जिस प्रकार से मेरी माता हो उसे सत्य सत्य बताओ ।। ६९-७०
।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
पुत्रस्य वचनं
चेति श्रुत्वा सर्वंसहा तदा ।
सर्वं तत्
पूर्ववृत्तान्तं तनयाय न्यवेदयत् ।। ७१ ।।
यथा मलिन्या
सम्भोगो वराहस्याभवत् पुरा ।
यथा गर्भे
धृतो देवैर्येन वा कारणेन सः ।।७२।।
यथा च
गर्भदुःखार्ता माधवं शरणं गता ।
यथा तेन
प्रदत्तश्च समयो जनकं प्रति ।। ७३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब पुत्र के इस वचन को सुनकर सब कुछ सहने वाली पृथ्वी ने जिस प्रकार
प्राचीनकाल में वाराह के साथ उसका रजस्वलावस्था में संभोग हुआ था,
देवताओं के द्वारा जिस प्रकार से उनका गर्भधारण (रोका) गया
था,
जिस प्रकार वह दु:खी होकर भगवान् माधव (विष्णु) के शरण में
गयी थी,
जिस प्रकार से उसने जनक को वचन दिया था,
पहले का वह समस्त वृतान्त अपने पुत्र से निवेदित कर दिया ।।
७१-७३ ॥
।। ऋषयः ऊचुः
।।
किमर्थं समयो
दत्तो विष्णुना प्रभुविष्णुना ।
निहते रावणे
वीरे रामेण सुमहात्मना ।।७४ ।।
भविष्यति
सुतस्ते वै तत्र नः संशयो महान् ।
एतान् त्वं
संशयान् छिन्धि गुरो शास्तासि नः सदा ।। ७५ ।।
ऋषिगण बोले-
प्रभुविष्णु, विष्णु द्वारा यह वचन क्यों दिया गया कि महात्मा राम द्वारा रावण के मारे जाने
पर ही तुम्हारा पुत्र उत्पन्न होगा ? इस विषय में हमें महान् संशय है । हे गुरु! आप सदैव हमारे
उपदेश देने वाले हैं अतः इन संशयों को आप दूर कीजिए ।। ७४-७५ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
भारार्ता
रावणादीनां पृथिवी मांसभोगिनाम् ।
अधोगता योजनानि पञ्च वै द्विजसत्तमाः ।।७६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजसत्तमों ! रावण आदि मांसाहारियों के भार से पीड़ित हो पृथिवीं पाँच
योजन (४० मील) नीचे चली गयी ॥ ७६ ॥
अयं
वराहवीर्येण जातो गर्भे क्षितेः पुनः ।
असावपि
महाराजो दशग्रीवो यथाभवत् ।।७७ ।।
अधो यास्यति
भारार्ता सातीव पृथिवीत्विति ।
समयो दत्तवान्
विष्णू रावणे निहते सति ।
धरायै भारविहतिव्याजेन द्विजसत्तमाः ।।७८ ।।
हे
द्विजसत्तमों ! यह वाराह के वीर्य से तथा पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र
भी महाराज दशानन (रावण) की ही भाँति होगा । तब यह पृथ्वी भार से आक्रान्त हो,
बहुत अधिक नीचे चली जायेगी । यह विचार कर विष्णु और प्रभुविष्णु
द्वारा रावण के मारे जाने के बाद का समय दिया गया। पृथ्वी का भार कम करने के
निमित्त ही यह वचन दिया गया था ।। ७७-७८ ॥
त्वत्पूर्वरूपं
दृष्ट्वा वचनाच्च जगद्गुरोः ।
जातश्श्रद्धो
महाभागे स्थास्यामि समये तव ।।७९।
पुत्रस्य वचनं
श्रुत्वा पृथिवी प्रथमं तदा ।
मायामानुषरूपं
तत् प्रतिजग्राह तत्पुरः ॥८०॥
हे महाभागवाली
! " तुम्हारे पूर्व पहले के रूप को देखकर तथा जगद्गुरु भगवान विष्णु के वचन
के आधार पर श्रद्धा उत्पन्न हो जाने पर ही मैं तुम्हारे समझौते का निर्वाह करूँगा
।" पुत्र की उपर्युक्त बात को सुनकर पृथिवी ने उसके सामने ही अपने पहले
मायामय मनुष्यरूप को ग्रहण कर लिया ।। ७९-८० ।।
यथा
कात्यायनीरूपं येन रूपेण पालितः ।
नरकः सा तु
तद्गृह्य तत्याज पृथिवीतनुम् ।। ८१ ।।
जिस कात्यायनी
(प्रौढ़ा स्त्री) के रूप को धारण कर उसने नरक का पालन किया था,
उसी को धारण करके उसने अपने पृथ्वी शरीर को छोड़ दिया ।। ८१
।।
अथ दृष्टैव
नरको धात्रीं कात्यायनीं तदा ।
पप्रच्छ
पूर्ववृत्तान्तं यद्वृत्तं नृपमन्दिरे॥८२॥
इसके बाद तब
कात्यायनीरूप वाली धाय को देखकर नरक ने उससे, राजा के भवन में जो घटनायें घटी थीं,
उनका वृत्तान्त पूछा ॥ ८२ ॥
सा तथा
कथयामास यथा सम्प्रति पालितः ।
यद्वृत्तं
पूर्वतो गेहे नृपस्य जनकस्य तु ॥ ८३ ॥
उसने वैसे ही
वृत्तान्त सुनाया जैसा उसके द्वारा इस समय राजा जनक के घर में पहले नरक को पाला
गया।।८३।।
जातसम्प्रत्ययस्तत्र
नरक: समपद्यत ।
पृथिवी च
पुनर्देवीरूपं स्वं जगृहे तदा ॥८४ ॥
उस समय जब नरक
को विश्वास हो जाने के कारण वह सन्तुष्ट हो गया तो पृथिवी ने पुनः अपने यथार्थरूप
को धारण कर लिया ।। ८४ ।।
अथ सस्मार
पृथिवी जगन्नाथं हरिं प्रभुम् ।
समये
पूर्वविहि प्रणभ्य शिरसा मुहुः ॥८५।।
इसके बाद पृथ्वी
ने अपने पहले के समझौते के अनुसार, जगत् के स्वामी विष्णु भगवान् को मस्तक झुकाकर बारम्बार
प्रणाम करते हुए स्मरण किया ॥ ८५ ॥
स्मृतमात्रस्तदा
क्षित्या माधवो गरुड़ध्वजः ।
प्रसन्नो जगतां
नाथ: प्रत्यक्षत्वं गतस्तदा ।। ८६ ।।
तब पृथिवी
द्वारा स्मरण मात्र करते ही गरुड़ध्वज वाले, जगत् के स्वामी, भगवान् माधव (विष्णु) वहाँ ही प्रकट हो गये ।। ८६ ।
तं दृष्ट्वा
पृथिवी देवी देवं गरुड़वाहनम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं
शङ्खचक्रगदाधरम् ॥८७ ।।
उस समय पृथ्वी
देवी ने गरुड़ पर सवार, देव (भगवान विष्णु) को देखा-जो नीलेकमल की पङ्खुड़ियों के
समान श्यामवर्ण के थे तथा शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हुए थे ।। ८७ ।।
पीताम्बरं जगन्नाथं
श्रीवत्सोरस्कमव्ययम् ।
प्रणनाम महाभक्त्या
पस्पर्श शिरसा महीम् ॥८८ ।।
शिर से पृथ्वी
का स्पर्श करते हुए अत्यन्त भक्तिपूर्वक पृथ्वी देवी ने उन पीताम्बरधारी,
जगत् के स्वामी, हृदय पर श्रीवत्सचिन्हधारी, अविनाशी, भगवान् विष्णु को प्रणाम किया ॥ ८८ ॥
परमेश जगन्नाथ
जगत् कारणकारण ।
प्रसीदेति
वचश्चापि तदा प्रोचे जगत्प्रसूः ।।८९।।
उस समय जगत्
को उत्पन्न करने वाली पृथ्वी देवी ने हे परमेश्वर ! हे जगत् के स्वामी ! हे जगत्
के कारण के भी कारण ! आप प्रसन्न होइये, ऐसा वचन भी कहा ।। ८९ ।।
नरकस्तु हरिं दृष्ट्वा
निमील्य नयनद्वयम् ।
तत्तेजसा चाभिभूतस्तदा
भूमावुपाविशत् ।। ९० ।।
नरक ने भी
दोनों आँखें झपका-झपका कर भगवान् विष्णु को देखा तथा उसके तेज से प्रभावित हो भूमि
पर ही बैठ गया ।। ९० ।।
उपविष्टे तदा
देवी तनये नरकाह्वये ।
प्रसादयामास तदा
पुत्रार्थे वरवर्णिनी । । ९१ ।।
तब नरक नाम के
अपने उस पुत्र के बैठ जाने पर उत्तम रूप-रङ्ग वाली उस पृथ्वी देवी ने भगवान विष्णु
को प्रसन्न किया ।। ९१ ॥
प्रसाद्यमानो धरया
हरिर्नारायणोऽव्ययः ।
शङ्खाग्रेण तदा
पुत्रं पस्पर्श नरकाह्वयम् ।। ९२ ।।
तब पृथ्वी
देवी द्वारा प्रसन्न किये जाने पर अविनाशी नारायण विष्णु ने शंख के अगले भाग से
नरक नामक पुत्र का स्पर्श किया ॥ ९२ ॥
स्पृष्टमात्रोऽथ
हरिणा नरकोऽभूत् सुदर्शनः ।
दृष्टश्चोत्साहवांश्चैव
बलवान् समपद्यत ।।९३।।
श्री विष्णु
द्वारा स्पर्श किये जाते ही वह नरक, अत्यन्त दर्शनीय हो गया तथा उनके देखने मात्र से ही वह
उत्साहवान् एवं बलवान् हो गया ।। ९३ ।।
तत उत्थाय
नरको हरिं नारायणं प्रभुम् ।
भक्त्या
प्रणम्य गोविन्दं साष्टाङ्गं च मुहुर्मुहुः ।। ९४ ।।
तब नरक ने
उठकर भगवान्, नारायण जो हरि और गोविन्द भी हैं, उन्हें भक्तिपूर्वक बार-बार प्रणाम किया ।। ९४ ।।
ननाम पृथिवीं
वीरो जातसम्प्रत्ययस्तदा ।
प्रणम्य च
महाभागां भक्त्या परमया युतः ।
प्राञ्जलिः
पुरतस्तस्थौ नोक्त्वा किञ्चन वै भिया ।। ९५ ।।
तब विश्वास हो
जाने के पश्चात् उस वीर ने परमभक्तियुक्त हो उन महाभागशालिनी पृथ्वी देवी को
प्रणाम करते हुए नमस्कार किया तथा अञ्जलि बाँध सामने खड़ा रहा और भयवश कुछ नहीं
बोला ।। ९५ ।।
ततस्तदर्थे
पृथिवी माधवं समयाचत ।
प्रसीद देवदेवेश
समयं प्रतिपालय ।। ९६ ।।
त्वयाहं तनयो दत्तो
मम सर्वं जगत्पते ।
एतदर्थे प्रतिज्ञातं
यद्दत्तं प्रतिपालय ।। ९७ ।।
तब पृथ्वी
देवी ने उस बालक के निमित्त माधव विष्णु भगवान् से याचना किया कि हे देवताओं के भी
देवेश ! आप प्रसन्न होइये तथा पूर्व निर्धारित वचन का पालन कीजिये । हे जगत्पति !
आपके द्वारा मुझे यह पुत्र प्रदान किया था। यह मेरा सर्वस्व है। इसके लिए आपने
प्रतिज्ञापूर्वक जो वचन दिया था, अब उसका पालन कीजिए ।। ९६-९७ ॥
।। भगवानुवाच
।।
भवती यत्सुपुत्रार्थे
मामयाचत पुरा मया ।
तत् सर्वं तव
दत्तं वै राज्यं च त्वत्सुते ।। ९८ ।।
श्रीभगवान्
बोले- आपने अपने पुत्र के निमित्त जो कुछ मुझसे माँगा था वह सब पहले ही मेरे
द्वारा आपको तथा आपके पुत्र के लिए राज्य के रूप में प्रदान किया गया है ।। ९८ ।।
इत्युक्त्वा
भगवान् विष्णुरादाय नरकाह्वयम् ।
सार्द्धं
पृथिव्या गङ्गायां ममज्ज जगतां प्रभुः ।। ९९ ।।
ऐसा कहकर जगत्
के स्वामी भगवान् विष्णु नरक नामक उस पुत्र को लेकर पृथ्वी के सहित गङ्गानदी में
प्रवेश कर गये ।। ९९ ।।
निमज्य
क्षणमात्रेण प्राग्ज्योतिषपुरं गतः ।
मध्यगं
कामरूपस्य कामाख्या यत्र नायिका ।। १०० ।।
वे जल में
प्रवेश करके क्षण भर में प्राग्ज्योतिषपुर को चले गये जो कामरूप प्रदेश के मध्यभाग
में स्थित है तथा जहाँ की स्वामिनी कामाख्या देवी हैं ॥ १०० ॥
स च देशः
स्वराज्यार्थे पूर्वं गुप्तश्च शम्भुना ।
किरातैर्बलिभिः
क्रूरैरज्ञैरपि च वासितः ।। १०१ ।।
वह स्थान अपने
राज्य (अधिकार क्षेत्र) के रूप में स्वयं शिव द्वारा गुप्त रूप से सुरक्षित रखा
गया था तथा उसे बलवान्, क्रूर तथा मूर्ख किरातों से बसाया गया था ॥ १०१ ॥
रुक्मस्तम्भनिभांस्तत्र
किरातान् ज्ञानवर्जितान् ।
अनर्थमुण्डितान्
मद्यमांसाशनैकतत्परान् ।
ददर्श विष्णुः
कुपितान् विष्णुं दृष्ट्वा द्विजर्षभाः ।। १०२ ।।
हे
द्विजसत्तमों ! स्वर्ण के स्तम्भों के समान पीली आभावाले,
ज्ञान से वर्जित तथा व्यर्थ निष्प्रयोजन केश मुड़ाये हुए,
मद्य एवं मांस भोजन में तत्पर किरात,
विष्णु को वहाँ आया हुआ देखकर कुपित हुए,
उन किरातों को भगवान् विष्णु ने देखा ॥ १०२ ॥
तेषामधिपतिस्तत्र
घटको नाम वीर्यवान् ।
रुक्मस्तम्भनिभस्तत्रः
प्रदीप्त इव पावकः ।। १०३ ।।
वहाँ उनका
स्वामी एक पराक्रमी स्वर्णस्तम्भ की आभा के समान पीताभ तथा जलती हुई अग्नि की
भाँति शोभायमान घटक नाम का किरात था ।। १०३ ॥
स क्रोधाच्चतुरङ्गेन
बलेन महता युतः ।
आससाद जगन्नाथं
नरकं च महाबलम् ।। १०४ ।।
वह महती
चतुरंगिणी सेना से युक्त होकर, क्रोधपूर्वक जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु तथा महान् बलशाली
नरक के समीप पहुँचा ॥ १०४ ॥
आसाद्य
शरवर्षेण ववर्ष प्रभुमव्ययम् ।
किरातैः सहितो
राजा घटकाख्यः किरातराट् ।। १०५ ।।
अविनाशी
भगवान् विष्णु के पास किरातों के सहित पहुँचकर उस किरातराज,
राजा घटक ने उन पर बाणों की वर्षा की ।। १०५ ॥
माधवोपि तदा पुत्रं
नरकं वीर्यवत्तरम् ।
प्रेसयामास युद्धाय
किरातनृपतेस्तदा ।। १०६ ।।
तब विष्णु ने
भी उससे श्रेष्ठ बलशाली, अपने पुत्र, नरक को उस किरात से युद्ध करने के लिए भेजा ।। १०६ ।।
नरको धनुरादाय
सह तैर्बलवत्तरैः ।
युयुधे सुचिरं
तत्र शस्त्रास्त्रैर्बहुधेरितैः ।। १०७ ।।
वहाँ नरक ने
भाँति-भाँति के शस्त्रास्त्र संचालन में सक्षम उन बलवान किरातों के साथ बहुत समय
तक युद्ध किया ।। १०७ ।।
ततोऽसौ भल्लमादाय
योजयित्वा धनुर्गुणैः ।
शिरः
किरातराजस्य चिच्छेद नरको बली ।। १०८ ।।
तब उस बलशाली
नरक ने भल्ल नामक बाण लेकर, उसे धनुष की डोरियों से समायोजित कर किरातराज घटक के सिर को
काट दिया ।। १०८ ॥
मुख्यान्
मुख्यान् किरातांश्च बहून् सेनाधिपांस्तथा ।
जघान कुपितो
वीरः केशरीव मतङ्गजान् ।। १०९ ।।
क्रोधित हो उस
वीर ने,
जिस प्रकार सिंह, हाथियों को मार डालता है, उसी प्रकार मुख्य-मुख्य किरातों तथा बहुत से उनके
सेनापतियों को मार डाला ।
हतेऽथ नृपतौ
केचित् पलायनपरायणाः ।
किराताः केचन
पुनर्नरकं शरणं गताः ।। ११० ।।
अपने राजा घटक
के मारे जाने पर, कुछ किरात भाग गये तो कुछ नरक के शरण में पुन: लौटकर चले
गये ।। ११० ॥
निहत्य
युध्यमानांस्तु संरक्ष्य शरणं गतान् ।
नरकः पितरं गत्वा
प्रणम्याथ न्यवेदयत् ।। १११ ।।
युद्ध करने
वालों को मारकर तथा शरण में गये हुओं की रक्षा कर, नरक ने अपने पिता, विष्णु के पास जाकर, उन्हें प्रणाम कर, उनसे निवेदन किया ॥ १११ ॥
।। नरक उवाच
।।
हतस्तात
किरातानामधिपो घटको मया ।
सेनाधिपाश्च
तस्यान्ये किमन्यत् करवाण्यहम् ।। ११२ ।।
नरक बोला- हे
तात! मेरे हाथों किरातराज घटक तथा उसके दूसरे सेनापति मारे गये हैं अब मैं और
कौन-सा अन्य कार्य करूँ ॥ ११२ ॥
।। भगवानुवाच
।
किरातान् जहि
यावत्त्वं देवीं दिक्करवासिनीम् ।
पलायमानान्
विद्राव्य पालय शरणं गतान् ।। ११३ ।।
भगवान् बोले-
तुम दिक्करवासिनी देवी (शिव के अन्तर में वास करने वाली देवी) के स्थान किंवा
मानसरोवर क्षेत्र में बहने वाली दिक्करवासिनी दिक्करिक नदी तक किरातों को समाप्त
करो,
इस अभियान में भागने वालों को भगाओ तथा शरण में आये हुओं की
रक्षा करो ॥ ११३ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
ततः स नरको
वीरः समारुह्य सितं गजम् ।
चतुर्दन्तं
महाकायं किराताधिपवाहनम् ।। ११४ ।।
ऐरावतसमं
वीर्ये वेगेन गरुडोपमम् ।
किरातान्
द्रावयामास यावद् दिक्करवासिनीम् ।
पितरं पुनरागत्य
वचनं चेदमब्रवीत् ।। ११५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब पराक्रम में ऐरावत के समान तथा वेग में गरुड़ के समान विशालशरीरधारी,
किरातराज के वाहन श्वेतगजराज पर चढ़कर उस वीर नरक ने
किरातों को दिक्करवासिनी तक खदेड़ दिया एवं लौटकर पिता से यह कहा - ॥। ११४ - ११५
।।
।। नरक उवाच
।।
विद्राविताः किरातास्ते
सागरान्तं समाश्रिताः ।
हतश्च घटकाख्यो
हि किराताधिपतिर्महान् ॥ ११६ ॥
वेगिनं गजमारुह्य
ऐरावतसमं गुणैः ।
यदन्यत्
करणीयं मे तदाज्ञापय सम्प्रति ।। ११७ ।।
नरक बोला-
मैंने गुणों में ऐरावत के समान श्रेष्ठ, हाथी पर सवार हो, सागरपर्यन्त फैले हुए, उन किरातों को खदेड़ दिया है तथा घटक नामक महान किरातराज
मारा गया है। अब और भी जो कुछ करने योग्य हो उसे मुझे बताइये ।। ११६-११७॥
।। भगवानुवाच
।
करतोया सदागङ्गा
पूर्व भागावधिश्रया ।
यावल्ललितकान्तास्ति
तावदेव पुरं तव ।। ११८ ॥
पूर्वभाग में
स्थित सदागङ्गा करतोया नाम्नी नदी ललितकान्ता ललिता नामक नदी (वर्तमान कामाख्या
क्षेत्र) तक तुम्हारा यह नगर बसेगा ।। ११८ ॥
अत्र देवी
महाभागा योगनिद्रा जगत्प्रसूः ।
कामाख्यारूपमास्थाय
सदा तिष्ठति शोभना । । ११९ ।।
यहाँ जगत् को
उत्पन्न करने वाली, महान् भाग्यशालिनी, सुन्दरी, योगनिद्रा (कालिका) देवी कामाख्यारूप धारण कर सदैव विराजमान
रहती हैं ।। ११९ ।।
अत्रास्ति
नदराजोऽयं लौहित्यो ब्रह्मणः सुतः ।
अत्रैव
दशदिक्पालाः स्वे स्वे पीठे व्यवस्थिताः ।। १२० ।।
यहाँ पर
ब्रह्मा का पुत्र, यह लोहित नामक नदों का राजा है तथा यहीं दशों दिक्पाल,
अपने-अपने स्थानों पर व्यवस्थित रूप से विराजमान हैं ।। १२०
।।
अत्र स्वयं
महादेवो ब्रह्मा चाहं व्यवस्थितः ।
चन्द्रः
सूर्यश्च सततं वसतोऽत्र च पुत्रक ।।१२१ ।।
हे पुत्र !
यहीं स्वयं महादेव, ब्रह्मा और मैं विष्णु स्थित हैं तथा सूर्य एवं चन्द्रमा
सदैव निवास करते हैं ।। १२१ ॥
सर्वे
क्रीडार्थमायाता रहस्यं देशमुत्तमम् ।
अत्र श्रीर्वसते
भद्रा भोग्यमन्त्र तथा बहु ।। १२२ ।।
सभी यहाँ इस
रहस्यमय,
उत्तमक्षेत्र में क्रीड़ा हेतु आये हैं । यहाँ कल्याणमयी शोभा
बसती है तथा बहुत प्रकार के भोग करने योग्य साधन सुलभ हैं ।। १२२ ।।
अस्य मध्ये
स्थितो ब्रह्मा प्राङ्नक्षत्रं ससर्ज ह ।
ततः
प्राग्ज्योतिषाख्येयं पुरी शक्रपुरीसमा ।। १२३ ।।
प्राचीन काल
में ब्रह्मा ने इसके मध्य में ही नक्षत्रों की सृष्टि की थी। तब से इन्द्र की नगरी
के समान श्रेष्ठ, यह पुरी प्राग्ज्योतिषपुरी के नाम से जानी जाती है ॥ १२३ ॥
अत्र त्वं वस
भद्रं ते ह्यभिषिक्तो मया स्वयम् ।
कृतदार:
सहामात्यै राजा भूत्वा महाबलः ।। १२४ ।।
हे महाबली !
यहाँ तुम स्वयं मेरे द्वारा अभिषिक्त हो, राजा बनकर दारायुक्त (सपत्नीक) हो,
अमात्यों सहित, यहाँ निवास करो। तुम्हारा कल्याण हो ॥ १२४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमुक्त्वा
स्वयं विष्णुः शम्भोरनुमते तदा ।
सर्वान्
किरातान् पूर्वस्यां सागरान्ते न्यवेशयत् ।। १२५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब ऐसा कहकर स्वयं विष्णु ने भगवान शिव की आज्ञा से सभी किरातों को पूर्व
दिशा में सागर पर्यन्त बसाया ।। १२५ ।।
पूर्वं
ललितकान्तायाः समादायावधिं पुनः ।
यावत् सागरपर्यन्तं
किरातास्तावदावसन् ।। १२६ ।।
पूर्व दिशा
में ललितकान्ता (ललिता ) नदी की सीमा से प्रारम्भ कर सागर पर्यन्त किरातों को बसाया
।। १२६ ।।
पश्चाल्ललितकान्तायाः
देशं कृत्वावधिं पुनः ।
करतोया नदीं
यावत् कमाख्यानिलयं तु तत् ।। १२७ ।।
ललिताकान्ता
से पश्चिम में करता नदीपर्यन्त जो क्षेत्र है, वह कमाख्या देवी का निवास स्थान है ।। १२७ ॥
तस्मात्
किरातानुत्सार्यवेदशास्त्रातिगान् बहून् ।
द्विजातीन्
वासयामास तत्र वर्णान् सनातनान् ।। १२८ ।।
उस स्थान से
किरातों को निकाल कर वहाँ पर वेदशास्त्रों के जानने वाले सनातन रूप से बहुत से
द्विजवर्णों को बसाया ॥ १२८ ॥
वेदाध्ययनदानानि
सततं वर्तते यथा ।
तथा चकार
भगवान् मुनिभिर्वासयन् विभुः ।। १२९ ।।
जिससे वेदों
का अध्ययन, दान आदि कर्म निरन्तर चलते रहें। इस विचार से भगवान् विष्णु ने वहाँ मुनियों
को बसाया ।। १२९ ॥
वेदवादरताः सर्वे
दानधर्मपरायणाः ।
नचिरादभवद्देशः
कामरूपाह्वयस्तदा ।। १३० ।।
वे सब मुनिगण वेदाध्ययन
में संलग्न तथा धर्मं में तत्पर रहने वाले थे । फलतः थोड़े समय में ही वह देश तब
से "कामरूप" नाम वाला हो गया ॥ १३० ॥
ततो
विदर्भराजस्य पुत्रीं मायाह्वयां हरिः ।
पुत्रार्थे
वरयामास नरकस्य समां गुणैः ।। १३१।।
तब भगवान्
विष्णु ने विदर्भराज की माया नामक पुत्री को, जो गुणों में नरक के समान थी, अपने पुत्र के लिए वरण किया ॥ १३१ ॥
तामुद्वाह्य
हृषीकेशस्तस्मिन् पुरवरे स्वयम् ।
तया समं
स्वतनयं राजत्वेनाभ्यषेचयत् ।। १३२ ।।
उससे विवाह
कराकर हृषीकेश ने उसी के साथ अपने पुत्र नरक का उस नगर के राजा के रूप में अभिषेक
किया।।१३१॥
सुगुप्तां च
पुरीं चक्रे गिरिदुर्गेण माधवः ।
जलदुर्गं
सर्वतो भद्रं देवैरपि दुरासदम् ।। १३३ ।।
माधव ने उस
नगरी को दुर्गम पर्वतों से घिरे गिरि-दुर्ग से सुरक्षित,
सब ओर से समृद्धियुक्त, जलदुर्ग से रक्षित तथा देवताओं के लिए भी अजेय बना दिया ।।
१३३ ।।
ततः
किरातराजस्य चतुर्दन्ताः सुदन्तिनः ।
पञ्चविंशतिसाहस्रा
महामात्रकुथैर्युताः ।। १३४।।
यानि
रत्नान्यनेकानि सैन्यानि विविधानि च ।
अश्वाश्चाभरणाचैव
तत्सर्वं नरकोऽग्रहीत्
।। १३५ ।।
तब किरातराज
के जो भी सुन्दर दातों, बड़ी-बड़ी विचित्र झूलों से सुशोभित, पच्चीस हजार हाथी तथा अनेक प्रकार के रत्न और भाँति-भाँति
की सेना,
अश्व और आभरण थे, नरक ने उन सब को अपने अधिकार में ले लिया ।। १३४-१३५ ।।
यद्यत्
सुभूषणं राज्ञो ध्वजाश्चाभरणानि च ।
तानि तानि
स्वयं विष्णुस्तनयस्य ददौ तदा ।। १३६ ।।
राजा के जो-जो
आभूषण,
ध्वजा, आभरण आदि थे, उन्हें स्वयं भगवान् विष्णु ने अपने पुत्र को प्रदान किया
।। १३६ ।।
रथं च प्रददौ
तस्मै त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
लोहाष्टचक्रसञ्छन्नमर्धयोजनविस्तृतम्
।। १३७।।
उसे विष्णु
भगवान् ने एक ऐसा रथ प्रदान किया जो तीनों लोकों में दुर्लभ था। वह रथ आधायोजन ( ६
मील) फैला हुआ तथा लोहे के आठ पहियों से युक्त था ।। १३६ ॥
युक्तमश्वसहस्रैश्च
तथाष्टाभिर्मनोजवैः ।
रत्नकाञ्चनचित्राढ्यं
वेदिका भागविस्तरम् ।। १३८ ।।
उसमें एक हजार
आठ मन,
के समान तीव्र वेग वाले घोड़े जुते हुये थे तथा उसका वेदिका
भाग (बैठक) विस्तृत था। वह सोने और विचित्र रत्नों से सुशोभित था ।। १३८ ।।
वज्रध्वजेन
महता काञ्चनेन विराजितम् ।
हेमदण्डपताकाढ्यं
वैदूर्यमणिकूवरम् ।। १३९ ।।
वह विशाल,
स्वर्णमयध्वज से सुशोभित था, जिस पर वज्र का चिन्ह अंकित था। वह सोने की दण्डों वाली
पताकाओं से सम्पन्न था, जिसका कूवर वैदूर्यमणि का बना हुआ था ।। १३९ ।।
सिंहव्याघ्रसमुद्भूतैश्चर्मभिश्छादितं
सदा ।
लोहजालैश्च
सञ्छन्नं किंकिणीजालमालिनम् ।
सर्वप्रहरणैर्युक्तं
बहुमायासमन्वितम् ।। १४० ।।
वह रथ,
सिंह, बाघों से उत्पन्न चमड़ों से सदैव मढ़ा तथा लोहे की जाली से
ढँका हुआ था, किंकिणियों के समूह की मालाओं से सजा और बहुत प्रकार की मायाओं वाले सब प्रकार
के आयुधों से युक्त था ।। १४० ।।
शक्तिं च
प्रददौ तस्मै सर्वशत्रुविशातनीम् ।
ज्वालामालाभिदीप्ताङ्गीं
रिपुकक्षाग्निरूपिणीम् ।। १४१ ।।
उन्होंने उस
नरक को सभी शत्रुओं का विनाश करने वाली, ज्वालासमूह से जलते हुए अङ्गों वाली,
शत्रुरूपी बाड़ को जलाने के लिए अग्निस्वरूपा शक्ति प्रदान
की ।। १४१ ॥
इमं च समयं
प्रोचे नरकाय महात्मने ।
नरकस्य
हितायेशो वसुधायाः समक्षतः ।। १४२ ।।
ईश्वर (भगवान्
विष्णु) ने इस महात्मा नरक के लिए, उसके कल्याणहेतु पृथ्वी के सामने यह वादा किया।।१४२।।
॥ भगवानुवाच
।।
इमां शक्तिं न
हि भवान् प्राणस्य संशयं विना ।
प्रयोक्ष्यति
कदाचित्तु मानुषेषु विशेषतः ।। १४३ ॥
भगवान् बोले-
तुम अपने प्राणों पर सङ्कट आये विना कभी भी इस शक्ति का प्रयोग नहीं करोगे । विशेष
रूप से मनुष्यों के ऊपर तो नहीं ही करोगे ।। १४३ ॥
एषा भार्या च
वैदर्भी भवतः सदृशी गुणैः ।
भवतो जीवनं
यावत्तावत् स्थास्यति शोभना । । १४४ ।।
यह विदर्भदेश
की तुम्हारी सुन्दरीपत्नी, गुणों में तुम्हारे ही समान होगी तथा तुम्हारे जीवनपर्यन्त
तुम्हारा साथ देगी ।। १४४ ।।
त्वं तु
प्रजायै त्रेतायां यत्नवान् वै भविष्यसि ।
द्वापरान्ते
तु सम्प्राप्ते प्रजा तत्र भविष्यति ।। १४५ ।।
तुम त्रेतायुग
में सन्तान हेतु प्रयत्नशील होओगे तब द्वापर के अन्त में सन्तान प्राप्त करोगे ।।
१४५ ।।
विरोधो
मुनिभिः सार्धं ब्राह्मणैरपि पुत्रक ।
न
कदाचित्त्वया कार्यश्चिरञ्जीवितुमिच्छता ।। १४६ ।।
पुत्र ! यदि
तुम चिरञ्जीवी होना चाहो तो कभी भी तुम्हारे द्वारा मुनियों और ब्राह्मणों से
विरोध नहीं किया जाना चाहिए ।। १४६ ।।
न राजभिर्न
देवैश्च विरोधो युज्यते तव ।
महादुर्गस्य वै
मध्ये वसतो ह्यपराजिते ।।१४७।।
महान् दुर्गों
में रहने वाले अपराजेय राजाओं एवं देवताओं से तुम्हारा विरोध उचित नहीं है ।। १४७
॥
दिव्ययोषिद्गणैः
सार्धं वसमानोऽतिभोगवान् ।
स्वपर्वते
कामरूपे चिरं त्वं तिष्ठ पुत्रक ।। १४८ ।।
हे पुत्र !
देव सुन्दरियों के साथ रहते हुए अत्यधिक सुखभोग पूर्वक तुम अपने इस कामरूप पर्वत
पर चिरकाल तक निवास करो ।। १४८ ।।
महादेवीं
महामायां जगन्मातरमम्बिकाम् ।
कामाख्यां
त्वं विना पुत्र नान्यदेवं यजिष्यसि ।। १४९ ।।
हे पुत्र !
तुम,
महादेवी, महामाया, जगत्माता, अम्बिका कामाख्या के बिना अन्य देवताओं का पूजन नहीं करोगे।।१४९।।
इतोऽन्यथा
त्वं विहरन् गतप्राणो भविष्यसि ।
तस्मान्नरक यत्नेन
समयं प्रतिपालय ।। १५० ।।
इससे भिन्न
विहार करते हुए ही तुम प्राणरहित होओगे । इसलिए हे नरक तुम प्रयत्नपूर्वक मेरे वचन
का पालन करो ॥ १५० ॥
इत्युक्त्वा भगवान्
विष्णुर्नरकं तनयं स्वकम् ।
तमपास्य रहस्येनां
पृथिवीं वाक्यमब्रवीत् ।। १५१ ।।
मार्कण्डेय
बोले- अपने पुत्र नरक के प्रति ऐसा (उपर्युक्त वचन) कहकर भगवान् विष्णु उससे दूर
हटकर एकान्त में पृथिवी से यह वाक्य बोले- ॥ १५१ ॥
यद् यत्
पूर्वं मया प्रोक्तं कर्तव्यं तव सुन्दरि ।
तत् सर्व
नरकायाशु भूत्यै समुपदेशय ।। १५२ ।।
हे सुन्दरि !
जो-जो मेरे द्वारा तुम्हारे करने के लिए पहले कहा गया है,
उन सबका तुम नरक के ऐश्वर्य के लिए शीघ्र उपदेश करो ॥ १५२ ॥
यदैनं त्वं
स्वयं हन्तुं मां जगद्धात्रि भाषसे ।
तदा तु मानुषः
कश्चिन्नरकं निहनिष्यति ।। १५३ ।।
हे जगत् का
पालन करने वाली ! जब तुम स्वयं इसे मारने के लिए मुझसे कहोगी,
तभी कोई मनुष्य, इस नरक का वध करेगा ।। १५३ ।।
।।
पृथिव्युवाच ।।
प्रजार्थमेष
यत्नो मे निन्द्यः स्यात् सन्ततिं विना ।
तस्मान्नाथ प्रयत्नान्मे
सन्ततिं पालयिष्यसि ।। १५४।।
पृथ्वी बोली-
प्रजा के लिए किया गया मेरा यह प्रयत्न सन्तान के विना निन्दनीय हो जायगा । इसलिए
हे प्रभो ! आप प्रयत्नपूर्वक मेरे इस सन्तान का पालन कीजिएगा ।। १५४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमस्त्विति
तां विष्णुः पृथिवींप्रति पावनः ।
नरकं च
समाभाव्य तत्रान्तर्धिमगात् क्षणात् ।। १५५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- "ऐसा ही हो।" उसे पृथिवी और नरक से ऐसा कहकर पवित्ररूप भगवान्
विष्णु अन्तर्हित हो गये ।। १५५ ॥
गते हरौ
निजस्थानं पृथिवी तनयं स्वकम् ।
यत् पूर्वं
हरिणा प्रोक्तं तत्र तं व्यनयत् स्वयम् ।। १५६ ।।
भगवान् विष्णु
द्वारा अपने स्थान (बैकुण्ठ) को चले जाने पर, पृथिवी अपने पुत्र के साथ पहले जहाँ के लिए भगवान् विष्णु
ने कहा था, उसे स्वयं ले गयी ॥ १५६ ॥
नरकोऽपि तदा धीमान्
वेदशास्त्रार्थपारगः ।
ब्रह्मण्यनीतिकुशलो
वदान्यो दानतत्परः ।। १५७।।
कामाख्यापूजनरतो
नीलकूटे महागिरौ ।
महाभोगी
महाश्रीमान् हीनबाधश्च शत्रुभिः ।
सुचिरं राज्यमकरोच्छक्रवत्रिदशालये
।। १५८ ।।
तब बुद्धिमान्
नरक भी जो वेद-शास्त्र का ज्ञाता था, ब्राह्मणभक्त, नीतिकुशल, दान में तत्पर हो, महान् नीलकूटपर्वत पर, कामाख्या देवी की पूजा में संलग्न हो, शत्रुओं द्वारा उपस्थित बाधाओं से रहित,
उसी प्रकार बहुत समय तक राज्य किया जैसे इन्द्र स्वर्ग में
राज्य करते हैं। वह महान् भोगों को भोगनेवाला तथा महती श्री से युक्त था ।।
१५७-१५८ ।।
ततो विदेहराजोऽपि
श्रुत्वैव नरकश्रियम् ।
सपुत्रभार्यः सगणो
नरकं द्रष्टुमभ्यगात् ।। १५९ ।।
तब विदेहराज
जनक भी नरक की श्री (वैभव ) को देखकर अपनी पत्नी, पुत्रों तथा गणों के सहित, नरक को देखने के लिए वहाँ आये ।। १५९ ।।
प्राग्ज्योतिषं
पुरं गत्वा कामरूपान्तरस्थितम् ।
ददर्श नरकं
राजा शरच्चन्द्रसमं श्रिया ।। १६० ।।
कामरूप प्रदेश
के अन्तर्गत स्थित प्राग्ज्योतिषपुर में जाकर राजा जनक ने वहाँ शोभा में शरदऋतु के
चन्द्रमा के समान स्थित नरक को देखा ।। १६० ।।
प्राग्ज्योतिषं
पुरं मेने स राजा त्वमरावतीम् ।
देवेन्द्रं नरकं
मेने सत्परिच्छदभूषणम् ।
ततो महिष्यै
तत् सर्वं जनको वाक्यमब्रवीत् ।। १६१ ।।
उस राजा ने
आभूषणों से भलीभाँति ढके हुए नरक को देवराज इन्द्र तथा उसकी राजधानी,
प्राग्ज्योतिषपुर को अमरावती माना तब यह सब वचन जनक ने
महारानी से कहा ।। १६१ ॥
।। जनक उवाच
।।
एष ते
पालितसुतः श्रीमान् नरकसंज्ञकः ।। १६२ ।।
पृथिव्या
दयितः पुत्रः संजातो घृष्टिरूपिणा ।
विष्णुना
जगदीशेन त्वमेनं पश्य संगतम् ।। १६३ ।।
जनक बोले- यही
तुम्हारे द्वारा पाला गया नरक नामक पुत्र है। सूकररूपधारी,
जगत के स्वामी, विष्णु द्वारा पृथिवी से उत्पन्न इस प्रिय एवं उपयुक्त,
पुत्र को देखो ।। १६२-१६३ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
जनको राजा यथा वृत्तं तथा पुरा ।
वृत्तान्तं
कथयामास नरको जातवान् यथा ।। १६४ ।।
मार्कण्डेय
बोले- ऐसा कहकर राजा जनक ने प्राचीन काल में जैसा हुआ था,
तथा जिस प्रकार नरक उत्पन्न हुआ था,
वह समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ।। १६४ ॥
ततस्तत्र चिरं
स्थित्वा प्राग्ज्योतिषपुरे मुदा ।
विदेहाधिपती राजा
नरकेण प्रपूजितः ।। १६५ ।।
स्वस्थानं
गतवांस्तस्मात् स्वगणैः परिवारितः ।। १६६ ।।
विदेहराज,
राजा जनक वहाँ नरक द्वारा पूजित हो,
प्रसन्नतापूर्वक बहुत समय तक प्राग्ज्योतिषपुर में निवास
किये। तब वहाँ से अपने गणों के साथ अपने निवास स्थान को चले गये ।। १६५-१६६ ॥
एवं स नरको
जातः पृथिव्यास्तनयस्तदा ।
हीनासुरस्वभावः
संविजहार चिरं क्षितौ ।। १६७ ।।
तब पृथ्वी का
वह पुत्र नरक, इस प्रकार उत्पन्न हुआ तथा अपने आसुरीभाव को छोड़कर,
दीर्घकाल तक पृथिवी पर विहार किया ।। १६७ ।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे नरकाभिषेचनेऽष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में नरकाभिषेक नामक अड़तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ३८ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 39
0 Comments